एक दिन में नहीं बसा था सेवाग्राम

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गाँधी मार्ग, नवम्बर-दिसम्बर 2016

“आखिरकार मैं सेगाँव आ गया हूँ। प्यारेलाल मेरे साथ हैं। मुझे उनकी जरूरत थी। बा को भी आना था लेकिन उसकी तबीयत खराब थी। लगभग पूरा रास्ता मैंने पैदल पार किया। रात बहुत सुहावनी थी।”- उस सुहावनी रात से पहले और उसके बाद की कहानी: गाँधी की कहानी!

गाँव के नाले के किनारे की करीब 36 एकड़ वन जमीन चव्हाण परिवार ने 1960 में आश्रम को बेच दी। वन के खेत में खजूर (छींद) के बहुत वृक्ष थे। सेवाग्राम बनने से पहले छींद रस निकालकर ताड़ी (शराब) बनाई जाती थी। गाँधीजी ने रस से गुड़ बनाना शुरू किया। ताजा रस नीरा आश्रमवासी तथा बच्चे पीने लगे। नीरा निकालने के औजारों में चन्द्रप्रकाशजी ने बहुत सुधार किये। गजानन नाईक ने नीरा का काम खड़ा किया। उनकी मदद में बाबू कामत तथा तुकाराम जामलेकर आदि रहे। सन 1933 में गाँधीजी कांग्रेस के माध्यम से किये जा रहे राजनीतिक कामों से मुक्त होकर स्वराज्य के लिये एक नई शक्ति की खोज में वर्धा आये थे। वे यहाँ झंझावाती जीवन का एक तप पूरा करना चाहते थे। सन 1934 से 1945 तक सेवाग्राम, वर्धा में रहकर वे बुनियाद से अहिंसक समाज निर्माण का मार्ग खोजते रहे। इसे वे अपनी साधना मानते रहे।

सेवाग्राम में रहकर ग्रामसेवा की जो दृष्टि उन्होंने विकसित की तथा जो रचनात्मक प्रवृत्तियाँ गाँवों के निमित्त से यहाँ प्रारम्भ की, उनकी झलक आगे के वर्णन से मिलती है। ग्राम स्वराज्य से हिन्द स्वराज और विश्व-बन्धुत्व का उनका सर्वेषाम अविरोधेन का दर्शन वे यहाँ कराते हैं। सेवाग्राम के सेवा कार्य में उनका व्यावहारिक आदर्शवादी रूप निखरकर सामने आता है।

अपने जीवन के अन्तिम वर्षों के ये अनुभव गाँधी जीवन-दृष्टि को समझने के लिये बुनियादी हैं। उनकी यह तपस्या बताती है कि कैसे तत्कालीन कठिन परिस्थिति में से भी छोटे-छोटे कामों के माध्यम से जीवन का ऊँचे-से-ऊँचा ध्येय प्राप्त किया जा सकता है।

सेवाग्राम गाँव में गाँधीजी के निर्देशन में ग्राम सेवा का काम मीरा बहन (मूल नामः मैडेलिन स्लेड, ब्रिटिश नौसेना के रियर एडमिरल सर एडमंड स्लेड की बेटी) ने प्रारम्भ किया था। वह गाँव के बीच एक झोपड़ी बनाकर रहती थीं। उसके बाद तो कई कार्यकर्ता वहाँ रहने आने लगे व सेवा कार्य का विस्तार हुआ।

सेगाँव में मीरा बहन 1936 में आईं। उन्होंने हनुमान मन्दिर के पास एक छोटी-सी झोपड़ी बनाई। वे उसी में रहती थीं। कुछ ही दिनों के बाद स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण वे वहाँ फिर रह नहीं पाईं। आज वह झोपड़ी नहीं है।

गुड़वाड़ी तथा चालः वन खेत की 5 एकड़ की झुड़पी जंगल जमीन पर 1937 में बने घर ‘गुड़वाड़ी’ में एक कार्यकर्ता के लिये एक छोटा-सा घर था। गजानन नाईक उसमें रहते थे। पास ही चार कमरों की एक चाल थी, जिसमें खेत मजदूर रहते थे। इसी घर के सामने नीरे का बँटवारा होता था। बचे नीरे का गुड़ बनता था। गाँव के लोग इसे शौक से पीने लगे। शान्ता नारूलकर ने यहीं रहकर अनेक उद्योग, पूर्व बुनियादी तथा प्रौढ़ शिक्षण के अच्छे प्रयोग किये।

यह घर सन 1940 में ग्रामोद्योग के लिये चव्हाण परिवार ने आश्रम को दे दिया। यहाँ पर पवारजी तथा कौशल्याताई रहीं। शान्ता नारूलकर गुड़वाड़ी में रहती थीं। मालगुजार का बड़ा घर था। मकान का दरवाजा बड़ा लकड़ी का था। उसमें से बैलगाड़ी निकल जाती थी। भीतर आँगन था। प्रारम्भ में यहाँ ग्राम आरोग्य केन्द्र चलाया गया। चरखे भी चलते थे। सन 1960 में तालीमी संघ के बन्द होने पर यहाँ का काम समेट लिया गया। अण्णासाहब ने यह मकान व 22 एकड़ जमीन चव्हाण परिवार को वापस दे दी। 15 वर्षों तक आश्रम व नई तालीम में अनाथ भाइयों का पालन-शिक्षण किया तथा चव्हाण परिवार की जमीन भी सम्भाली। चव्हाण के घर में तालीमी संघ द्वारा बनाया मण्डप आज भी विद्यमान है। उस समय की 2-3 धुनकियाँ भी रखी हुई हैं।

गाँव के नाले के किनारे की करीब 36 एकड़ वन जमीन चव्हाण परिवार ने 1960 में आश्रम को बेच दी। वन के खेत में खजूर (छींद) के बहुत वृक्ष थे। सेवाग्राम बनने से पहले छींद रस निकालकर ताड़ी (शराब) बनाई जाती थी।

गाँधीजी ने रस से गुड़ बनाना शुरू किया। ताजा रस नीरा आश्रमवासी तथा बच्चे पीने लगे। नीरा निकालने के औजारों में चन्द्रप्रकाशजी ने बहुत सुधार किये। गजानन नाईक ने नीरा का काम खड़ा किया। उनकी मदद में बाबू कामत तथा तुकाराम जामलेकर आदि रहे।

चव्हाण वाले घर के पास ही पूरा लकड़ी का बना बड़ा बुनाईघर था। यह मकान भी नत्थू चव्हाण के पिताजी विठोबाजी गणपतराव पाटील ने गाँधीजी को बुनाईघर के लिये दिया था। यहाँ करघे चलते थे। गाँव के लड़कों को चरखा संघ के कार्यकर्ता बुनाई सिखाते थे। स्कूल के बच्चे भी बुनाई सीखते थे। इसके सामने ही बुनाई शिक्षण के लिये 25 गुना 60 फुट का घर बना था। इसमें कालूखां रहते थे। वे बुनाई व्यवस्थापक थे। कालू खां के मकान पर आज मस्जिद बनाई गई है तथा बुनाई शेड का भी रूपान्तर हो चुका है।

सन 1945 में आश्रम के काटार के खेत के बदले में आर्यनायकम्जी ने गाँव की 3 एकड़ जमीन लक्ष्मण पटेल से लेकर, वहाँ पर पाठशाला बनवाई। बाद में वह मकान, जमीन व पाठशाला जिला परिषद को दे दी गई। गाँधीजी ने 16 जुलाई सन 1933 में अहमदाबाद के साबरमती सत्याग्रह आश्रम के विसर्जन की घोषणा कर दी। उन्होंने बम्बई सरकार को लिखा कि वह आश्रम का ग्रहण कर ले और जिस प्रकार चाहे उसका उपयोग करे। साबरमती आश्रम के विसर्जन का अर्थ यह होगा कि प्रत्येक आश्रमवासी अब स्वयं चलता-फिरता आश्रम बन जाएगा और वह जेल में या जेल से बाहर, जहाँ भी होगा, आश्रम के आदर्श को आगे बढ़ाने के लिये जिम्मेदार होगा। इसके बाद गाँधीजी कुछ वर्षों तक वर्धा रहे। फिर वे सेवाग्राम आये। 30 अप्रैल, 1936 की सुबह वे मगनवाड़ी से सेवाग्राम के लिये पैदल ही रवाना हुए थे। साथ में केवल चार कार्यकर्ता थे।

लखनऊ-कांग्रेस के अवसर पर और उसके बाद नागपुर के हिन्दी साहित्य सम्मेलन में, जहाँ वे कुछ देर के लिये रुके थे, उन्होंने यही कहा था कि उनका दिल तो गाँवों में लगा हुआ है। “मैं सरदार से कब से कह रहा हूँ कि मुझे वर्धा के पास किसी गाँव में जाकर बसने दीजिए। उन्हें मेरी यह बात नहीं जँच रही है। भगवान ने चाहा तो शीघ्र ही मैं वहाँ चला जाऊँगा। जब तक मैं खुद जाकर किसी गाँव में नहीं बस जाता, तब तक मेरी बात का सही-सही असर नहीं होता।”

बचपन से ही मेरा यह सिद्धान्त रहा है कि मुझे उन लोगों के ऊपर अपना भार नहीं डालना चाहिए, जो अपने बीच में मेरा आना अविश्वास, सन्देह या भय की दृष्टि से देखते हों। आप लोगों की सेवा करने के सिवा यहाँ आने की दूसरी कोई बात मुझे सोचनी ही नहीं चाहिए। पर कई जगह मेरी उपस्थिति और मेरा कार्यक्रम काफी भय की दृष्टि से देखा जाता है। इस भय के पीछे यह कारण है कि अस्पृश्यता-निवारण को मैंने अपने जीवन का एक ध्येय बना लिया है। मीरा बहन से तो आपको यह मालूम ही हो गया होगा कि मैंने अपने दिल से स्पृश्यता सम्पूर्णतया दूर कर दी है।अब जब वे वहाँ जा रहे थे, तब भी एक कार्यकर्ता ने उनसे पूछ ही लिया था कि बापू, क्या यह अधिक अच्छा नहीं होगा कि एक ही गाँव में अपने आपको दफना देने की अपेक्षा आप हरिजन दौरे की भाँति सारे देश में ग्राम-संगठन के लिये घूमें।

गाँधीजी ने उत्तर दिया, “नहीं, इन दो कामों में कोई समानता नहीं है। हरिजन-कार्य में सिद्धान्त और व्यवहार मिले हुए थे। इस कार्य में मैं इन दोनों को नहीं मिला सकता। सिद्धान्त की बातें तो मैं इतने वर्षों से करता रहा हूँ, परन्तु प्रत्यक्ष व्यावहारिक प्रश्नों को हाथ में लेकर उनको सुलझाए बिना केवल जुबानी बातों से अधिक मदद नहीं मिलती। कल ही मैं एक गाँव गया था, यह देखने के लिये कि गजानन नाईक का काम कैसे चल रहा है। कोई बहुत अच्छी हालत नहीं है, फिर भी वह भिड़ा हुआ है। यदि मैं भी उसके साथ काम करता होता तो मुझे उसकी कठिनाइयों का कुछ परिचय होता। अब तो मैं इसी निश्चय पर पहुँच चुका हूँ कि मेरा असली स्थान गाँव में ही है।सेवाग्राम आते ही शाम की प्रार्थना में बापू ने बताया कि हमारी दृष्टि देहली की ओर से उलटकर देहात की ओर होनी चाहिए। देहात हमारा कल्पवृक्ष है।

“मीरा बहन, जो आप लोगों के बीच में रहती हैं, यहाँ हमेशा के लिये बस जाने का इरादा लेकर ही आई थीं। मगर मैं देखता हूँ कि वे अपनी इस मंशा को पूरा करने की स्थिति में नहीं हैं। वे यहाँ बनी भी रहें, तो ऐसा करने के लिये उन्हें भारी मानसिक द्वंद्वकरना पड़ेगा। कमी उनमें इच्छा-शक्ति की नहीं है, पर शायद शरीर अशक्त है। यह तो आप लोग जानते ही हैं कि हम दोनों इतने दिनों से एक सामान्य सेवा के बन्धन में बँधे हुए हैं। इसलिये मैंने सोचा कि मीरा बहन जो काम नहीं कर सकीं, उसे पूरा करना मेरा धर्म हो जाता है। इसलिये अगर ईश्वर की मर्जी हुई तो मैं आप लोगों के बीच में रहने को आपके गाँव में आ जाऊँगा। ईश्वरमुझे वह शक्ति दे, जो उसने मीरा बहन को प्रदान नहीं की।” पर भगवान की भी इच्छा अनेक माध्यमों से प्रगट होती है और अगर आप लोगों का सद्भाव मुझे नहीं मिलेगा तो मैं भी अपने काम में असफल ही रहूँगा।

बचपन से ही मेरा यह सिद्धान्त रहा है कि मुझे उन लोगों के ऊपर अपना भार नहीं डालना चाहिए, जो अपने बीच में मेरा आना अविश्वास, सन्देह या भय की दृष्टि से देखते हों। आप लोगों की सेवा करने के सिवा यहाँ आने की दूसरी कोई बात मुझे सोचनी ही नहीं चाहिए। पर कई जगह मेरी उपस्थिति और मेरा कार्यक्रम काफी भय की दृष्टि से देखा जाता है। इस भय के पीछे यह कारण है कि अस्पृश्यता-निवारण को मैंने अपने जीवन का एक ध्येय बना लिया है। मीरा बहन से तो आपको यह मालूम ही हो गया होगा कि मैंने अपने दिल से स्पृश्यता सम्पूर्णतया दूर कर दी है।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, राजपूत, महार, चमार सभी को मैं समान दृष्टि से देखता हूँ और जन्म के आधार पर माने जाने वाले इन तमाम ऊँच-नीच के भेदों को मैं पाप समझता हूँ। इन भेदभावों के कारण ही हम दुःख भोग रहे हैं और ऊँच-नीच की इस दुष्ट भावना ने हमारे जीवन को दूषित और भ्रष्ट कर दिया है पर मैं आपको यह बता दूँ कि मैं अपने इन विश्वासों को आप लोगों के ऊपर लादना नहीं चाहता। मैं तो दलीलें देकर, समझा-बुझाकर और सबसे बढ़कर अपने उदाहरण के द्वारा आप लोगों के हृदय से अस्पृश्यता या ऊँच-नीच का भाव दूर करने का प्रयत्न करुँगा।

“मैं आशा करता हूँ कि मैं यहाँ आकर बस जाऊँगा। पर अन्त में तो सब ईश्वर की इच्छा पर ही निर्भर करता है। मैं यह कब जानता था कि वह मुझे हिन्दुस्तान से दक्षिण अफ्रीका भेज देगा और दक्षिण अफ्रीका से साबरमती आना होगा और फिर साबरमती से मगनवाड़ी, मगनवाड़ी से उठकर आपके गाँव में आना पड़ेगा।” सत्य और अहिंसा की जितनी खामी थी उतना ही सत्याग्रह असफल रहा। यही कारण है कि मैं सेगाँव में बैठ गया हूँ। यह भी एक प्रकार का तप नहीं तो क्या है? इधर-उधर घूमकर कुछ आन्दोलन कर सकता था, लेकिन मैंने समझ लिया कि जब तक अन्तःशुद्धि नहीं है तब तक सत्याग्रह करना निरर्थक है!... यह मेरा काम है कि अहिंसा का राजकीय और सामाजिक विकास करुँ।” मेरे सेगाँव में आ बसने का तात्कालिक उद्देश्य तो यह है कि मैं अपनी सामर्थ्य भर गाँवों में व्याप्त भयंकर अज्ञान तथा दरिद्रता को और उससे भी भयंकर बाहरी गन्दगी को दूर कर सकूँ। सच तो यह है कि ये तीनों बुराइयाँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। हम गाँवों में फैले हुए इस अज्ञान को मुँह से अक्षर-ज्ञान कराकर नहीं बल्कि लोगों के समक्ष सफाई का आदर्श-पाठ प्रस्तुत करके, उन्हें दुनिया में क्या-कुछ हो रहा है, इसकी जानकारी देकर और इसी तरह के दूसरे उपायों से दूर करना चाहता हूँ।” इतने दिनों से मैं ग्राम-कार्य के विषय में सिद्धान्त-ही-सिद्धान्त की बात कर रहा हूँ। कभी बातें करता हूँ, कभी लोगों को सलाह देता हूँ। ग्राम-कार्य में क्या-क्या मुसीबतें आती हैं उनका मैंने खुद अनुभव नहीं किया। अगर किसी गाँव में, गाँव के लोगों के बीच में, गर्मी, बरसात और जाड़ा काटकर एक बरस के बाद मैं दौरा करुँ तो मैं गाँव के सम्बन्ध में ज्ञान और अनुभव के साथ बात कर सकूँगा। अभी न मैंने वह ज्ञान प्राप्त किया है, न अनुभव।” आखिरकार मैं सेगाँव आ गया हूँ।

प्यारेलाल मेरे साथ हैं। मुझे उनकी जरूरत थी। ‘बा’ को भी आना था, लेकिन उसकी तबीयत खराब थी। लगभग पूरा रास्ता मैंने पैदल पार किया। रात बहुत सुहावनी थी। रचनात्मक काम और ग्राम सुधार के पूरे दर्शन के बारे में बापू ने इसी दौरान उस दिन कहा था- ‘मैं स्टालिन या हिटलर की तरह कोई निश्चयात्मक या आत्मविश्वासपूर्वक उत्तर नहीं दे सकता क्योंकि मेरे पास ऐसा कोई पूर्व निर्धारित कार्यक्रम नहीं है, जो मैं गाँववालों पर लाद सकूँ। मेरी पद्धति अलग तरह की है। मैं धीरज से उनको समझाकर उनके विचार परिवर्तन करना चाहता हूँ।’

“यह एक प्रकार का प्रौढ़ शिक्षण है जो धीरे-धीरे होगा। निश्चय ही लक्ष्य शहर की बजाय गाँव की तरफ होगा। उन्हें हम सिखाएँगे कि सफाई व स्वास्थ्य की दृष्टि कैसे अपनाएँ, उनकी आर्थिक तथा सामाजिक हालत कैसे सुधरे। अगर हम यह प्राथमिक काम कर सके तो बाकी चीजें बाद में होती रहेंगी। परन्तु इस आदर्श को पाने में आने वाली कठिनाइयों के बारे में मैंने बतलाया ही है। हमारे कई देहात सेगाँव से भी छोटे और अनपढ़ हैं, जहाँ लोग अपने अज्ञान और गन्दगी को भी वैसे ही प्यार करते हैं जैसे वे अस्पृश्यता को।”

सफाई का काम अन्य सभी प्रकार की सेवाओं की अपेक्षा ज्यादा कठिन है क्योंकि उसे बहुत ही ओछा काम माना जाता है। इस काम के बारे में बहुत घृणा फैली हुई है। गाँव की परिस्थिति भी जटिल है। असल में जब तक प्रत्येक व्यक्ति सफाई के नियमों का ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेता और जब तक वह उन नियमों को अमल में नहीं लाता तब-तक रास्ते में पाखाना फिरने का तरीका आँखों को न रुचने के बावजूद आरोग्य की दृष्टि से शायद कम-से-कम हानिकारक है और सहन करने लायक है।स्वच्छता के मामले में बापू बड़े कट्टर थे। आदर्श सफाई की बात करते हुए अक्सर वे पाखाने और भोजनालय का साथ-साथ जिक्र करते थे और कहते थे कि दोनों ही जगह एक भी मक्खी नहीं होनी चाहिए। इसके लिये जालियों और फिनाइल वगैरह के खर्चीले साधनों की बजाय वे सफाई पर ही जोर देते थे। गरीब देश और उसके गरीब निवासियों की अल्प सामर्थ्य और प्रमुख हित की बात सदा उनके ध्यान में रहती थी। छूत की बीमारियों की रोकथाम के लिये तो इस दोहरी सफाई को वे अनिवार्य ही मानते थे। उनकी संस्थाओं में ऐसी सफाई रखी भी जाती थी। उनके हर काम की तरह इसमें भी साधनों की अपेक्षा किफायत और मेहनत के स्वावलम्बी तरीके को ही अधिक महत्त्व दिया जाता था।

“सेगाँव में हम वहाँ की सफाई तथा लोगों की उदासीनता की समस्या हल करने का प्रयास कर रहे हैं। लोगों की उदासीनता मिटती ही नहीं। उनकी तरफ से कोई उत्तर नहीं मिलता इसलिये आखिरकार मीरा बहन उसी गाँव में रहने चली गईं। उसके पीछे धारणा यह रही है कि जब तक हर गाँव में लोगों के बीच चौबीस घंटे रहने वाला कोई व्यक्ति नहीं मिलेगा, तब तक लोगों की उदासीनता दूर नहीं होगी।”

सफाई का काम अन्य सभी प्रकार की सेवाओं की अपेक्षा ज्यादा कठिन है क्योंकि उसे बहुत ही ओछा काम माना जाता है। इस काम के बारे में बहुत घृणा फैली हुई है। गाँव की परिस्थिति भी जटिल है। असल में जब तक प्रत्येक व्यक्ति सफाई के नियमों का ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेता और जब तक वह उन नियमों को अमल में नहीं लाता तब-तक रास्ते में पाखाना फिरने का तरीका आँखों को न रुचने के बावजूद आरोग्य की दृष्टि से शायद कम-से-कम हानिकारक है और सहन करने लायक है।

“सेगाँव के काम के प्रति अभी तक न्याय नहीं हो पाया है। मैं वहाँ कुछ ही समय के लिये जा पाता हूँ। वहाँ के लोगों से मिला-जुला नहीं हूँ। मीरा बहन ने प्रयत्न तो खूब किया, किन्तु वह तो मुझे सेगाँव में बसने से रोकने की खातिर ही वहाँ गई थी। उसका मन तो वहाँ टिका नहीं था और वह सिर्फ मेरे दबाव में आ गई थीं।”

इसी प्रसंग में एक जगह गाँधी ने कहा था कि सेगाँव में, जहाँ मीरा बहन काम कर रही हैं, बाहरी परिस्थितियाँ किसी भी स्थान की अपेक्षा अधिक अनुकूल थीं। वहाँ के जमींदार हैं जमनालालजी और बाबासाहब देशमुख। वे लोग कोई बाधा उपस्थित नहीं करते बल्कि वे तो मीरा बहन की मदद करते हैं फिर भी क्या आप यह समझते हैं कि वहाँ के लोग मीरा बहन के साथ काफी सहयोग करते हैं? वे लोग जानबूझकर बाधाएँ खड़ी करते हों, सो बात नहीं है। उन्हें अपने कल्याण में कोई दिलचस्पी नहीं है। वे सफाई के आधुनिक तरीकों के कायल नहीं हैं। वे अपने खेतों को खोदने अथवा ऐसा काम करने के अलावा जिसके कि वे आदी हैं, अन्य कोई कार्य नहीं करना चाहते। ये कठिनाइयाँ वास्तविक और गम्भीर हैं। लेकिन इनसे हमें विचलित नहीं होना चाहिए। हमारी अपने ध्येय में अटल आस्था होनी चाहिए। हमें लोगों के साथ धीरज से काम लेना होगा। गाँवों में काम करने के मामले में हम लोग खुद अनाड़ी हैं और हमें चिरकालिक रोग से निबटना है।” हमें बिना पैसे के और बिना कोई शोर किये सेवा करने का मर्म सीखना है। पैसा अक्सर रुकावट होता है।

“अकेला सत्याग्रही अपने अन्तर की जाँच करे और यदि उसे यह विश्वास हो जाये कि विश्व-प्रेम है तथा सत्याग्रही के अन्य लक्षण भी उसमें नजर आते हों तो यह प्रेम उसके दैनिक जीवन में प्रकट होगा। उसने अपने गाँव में निर्धनतम से लेकर सबके साथ सेवा के सम्बन्ध बना लिये होंगे। उसने अपने आपको गाँव का भंगी बना लिया होगा, वह बीमारों की देखभाल करता होगा। गाँव के झगड़े निबटाता होगा। गाँव के बच्चों को पढ़ाता होगा, उसे सब पहचानते होंगे, वह गृहस्थ होकर भी संयम से रहता होगा, अपने और पड़ोसी के लड़के में भेद नहीं करता होगा, यदि उसके पास धन होगा तो वह खुद को उसका मालिक न मानकर वह धन लोगों का है और वह खुद उसका रक्षक-मात्र है, ऐसा मानकर अपनी जरूरत-भर के लिये उसमें से लेता होगा, जहाँ तक बने अपनी जरूरतें गरीबों जैसी ही रखता होगा, उसके जीवन में जात-पात और छुआछूत का भेद नहीं होगा और सब जातियों तथा सब धर्मों के लोग उसके इस गुण से परिचित होंगे। उसे चाहिए कि इनमें से जो गुण उसमें न हों उनकी पूर्ति करे; जो ज्ञान न हो वह ज्ञान प्राप्त करे। अपना एक क्षण भी व्यर्थ न जाने दे, उसके यहाँ चरखा नित्य चलना चाहिए और उसका कुटुम्ब सुव्यवस्थित होना चाहिए। ऐसा एक ही सत्याग्रही अपने गाँव की रक्षा कर सकेगा। बाकी लोग सत्याग्रही न हों, फिर भी मौका आने पर वे ऐसा आचरण करेंगे मानो वे उसकी सेना के सदस्य हैं। लेकिन वे ऐसा आचरण करें अथवा न करें, भीतर या बाहर से आक्रमण होने पर वह अकेला सत्याग्रही उसका अहिंसात्मक ढंग से निवारण करेगा, अथवा वैसा करते हुए अपने को होम देगा। ऐसा सत्याग्रही सदा अकेला रह ही नहीं सकता। मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि अन्य कुछ लोग उसके जैसे हुए बिना रह ही नहीं सकते। यहाँ मुझे इतना कह देना चाहिए कि मैं सेवाग्राम में सत्याग्रही के रूप में अकेला ही आया था। सौभाग्य अथवा दुर्भाग्य से मैं अकेला नहीं रह सका तथा सेवाग्राम के बाहर के और लोग भी आकर मेरे साथ बस गए। सेवाग्रामवासियों में से कोई सत्याग्रही माना जा सकता है या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता। वैसे, मुझे आशा तो है कि ऐसे कुछ सत्याग्रही तैयार हुए होंगे। लेकिन मैंने जो शर्तें और लक्षण अकेले सत्याग्रही के ऊपर गिनाए हैं और अन्य लक्षण जिन्हें मैं आवश्यक मानता हूँ वे सब मुझमें हैं, ऐसा दावा मैं नहीं करता। फिर भी अगर उन सब पर अमल करने की मेरी तैयारी हो और उनमें से अधिकांश को मैं न्यूनाधिक प्रमाण में अपने आचरण में न उतारता होऊँ तो मैंने ऊपर जो कुछ लिखा है, वह मैं लिख ही न पाता। मेरी वर्तमान अभिलाषा यह अवश्य है कि सेवाग्राम एक आदर्श ग्राम बने। मैं जानता हूँ कि यह काम उतना ही कठिन है जितना पूरे हिन्दुस्तान को आदर्श बनाने का काम। केवल सेवाग्राम को कोई मनुष्य कभी-न-कभी आदर्श बना भी सकता है लेकिन समूचे हिन्दुस्तान को आदर्श बना सकने लायक एक मनुष्य की आयु ही नहीं होती, तथापि अगर केवल एक ही गाँव को कोई एक आदमी आदर्श बना सके, तो उसके बारे में कहा जा सकता है कि उसने समूचे हिन्दुस्तान के लिये ही नहीं, बल्कि शायद समस्त संसार के लिये मार्ग खोज निकाला है। साधक को इससे आगे जाने का लोभ नहीं करना चाहिए।”

सेवाग्राम का असली नाम तो था सेगाँव परन्तु उस समय के बंबई प्रदेश में एक दूसरा सेगाँव और होने से आश्रम की डाक वहाँ चली जाती थी। इस कठिनाई को दूर करने के लिये कांग्रेस मंत्रिमण्डल के समय सेगाँव को पहली अप्रैल 1940 से सेवाग्राम नाम दिया गया था।

सेवाग्राम गाँव की तीन दिशा में नीची जमीन होने से बारिश में तीनों ओर से गाँव के आसपास के नाले में पानी आता था। वर्षा की गन्दगी बारिश के पानी के साथ नाले में आती थी। गाँव के कुओं का पानी दूषित होता था। गाँव में हैजा, टाइफाइड, चमड़ी के रोग, मलेरिया आदि रोगों का खूब उपद्रव था। इन सबको दूर करने के लिये बापू ने भागीरथ प्रयत्न किया। गाँव की सफाई करवाते रहे। मैले की खाद बनवाई, कुओं में दवाई डलवाकर पानी शुद्ध करते रहे। बारिश में जहाँ पानी जमा होता था, वहाँ मच्छर पैदा होते थे, वहाँ केरोसीन डलवाया।गाँधीजी यथासम्भव गरीबी से रहना चाहते थे। आश्रम को गरीबी से चलाना चाहते थे। सेवाग्राम आश्रम में सादगी तथा गरीबी खूब बढ़ाई। देहात में देहाती और आश्रमवासी के जीवन में आर्थिक दृष्टि से कम-से-कम असमानता रहे। इसके लिये उनका चिन्तन चलता रहता था। देहातियों के जैसे मिट्टी और स्थानिक साधनों से मकान बनाए। खुद छोटी कुटी में रहे। मकान आदि में कम-से-कम खर्च करने का विचार रखा। आश्रम में गाँव के लोगों को, खास करके हरिजनों को काम देकर उनको अच्छे संस्कार देने की कोशिश की।

सेवाग्राम गाँव की तीन दिशा में नीची जमीन होने से बारिश में तीनों ओर से गाँव के आसपास के नाले में पानी आता था। वर्षा की गन्दगी बारिश के पानी के साथ नाले में आती थी। गाँव के कुओं का पानी दूषित होता था। गाँव में हैजा, टाइफाइड, चमड़ी के रोग, मलेरिया आदि रोगों का खूब उपद्रव था। इन सबको दूर करने के लिये बापू ने भागीरथ प्रयत्न किया। गाँव की सफाई करवाते रहे। मैले की खाद बनवाई, कुओं में दवाई डलवाकर पानी शुद्ध करते रहे। बारिश में जहाँ पानी जमा होता था, वहाँ मच्छर पैदा होते थे, वहाँ केरोसीन डलवाया।

कुछ माह में शान्ता ने अपने लिये गाँव की हरिजन बस्ती में एक मकान खोज लिया और वहाँ रहने लगीं। गाँव में बसने के बाद उसने प्रत्येक घर की स्थिति का व्यापक सर्वेक्षण शुरू किया। ऐसा करते समय वह उस इमारत, रहने वाले लोगों के खान-पान और दैनिक जीवन की विभिन्न बातों के बारे में जानकारी प्राप्त करती थीं। कुएँ गन्दे थे और उनकी ठीक तरह से हिफाजत नहीं होती थी, फिर भी पीने के पानी के लिये उनका उपयोग होता था। उस समय खाद्यान्न राशन कार्ड पर मिलते थे। लेकिन वितरण प्रणाली बहुत दोषपूर्ण थी। इससे लोगों को बहुत असुविधा होती थी तथा उनका समय बहुत व्यर्थ जाता था। भोजन, पानी और आवास की इन सब प्राथमिक जरूरतों के लिये सुधार की बहुत आवश्यकता थी। सुधार हो भी सकता था लेकिन यह भी तब सम्भव था जब लोग अपने सामूहिक कल्याण के लिये जिम्मेदारी की भावना अनुभव करें और आपस में सहयोग-सहकार की शक्ति में उनका कुछ विश्वास हो। शान्ता ने जब काम शुरू किया तब ये गुण नहीं थे।

सबसे अधिक आवश्यक काम साफ पानी का था। पानी की दृष्टि से सेवाग्राम की स्थिति ठीक थी और कई घरों में अपने खुद के कुएँ थे। कुछ वर्ष पहले आश्रम ने सार्वजनिक उपयोग के लिये हरिजन बस्ती में एक कुआँ बनाया था। लेकिन सभी कुएँ, चाहे वे सार्वजनिक हों या घरेलू, उनकी देखभाल ठीक नहीं थी। उनसे रोग फैलते थे और मच्छर पनपते थे। शान्ता ने पहले पानी समस्या के बारे में लोगों से अलग-अलग बातचीत शुरू की, बाद में वे इस बारे में समूह से मिलीं और अन्त में पूरे गाँव वालों से एक साथ बातचीत की। अन्त में यह स्वीकार किया गया कि सार्वजनिक कुएँ को अपने खर्च से साफ किया जाय और उसकी मरम्मत की जाये। इसके लिये कुछ लोगों ने श्रम किया, अन्य लोगों ने धन दिया और आश्रम ने भी योगदान किया। गर्मी के मौसम के शुरू होने पर कुएँ की सफाई की गई। कुएँ का बदबूदार कीचड़ निकाला गया, जिसे लोगों ने स्वयं देखा और सूँघा। अब इस बारे में उन्हें अधिक बताने की जरूरत नहीं थी। गर्मी का मौसम खत्म होने से पहले गाँव के अधिकांश कुएँ आपसी सहायता से साफ कर लिये गए। इससे लोगों की रुचि जागृत हुई और उन्होंने कुओं की उचित देखभाल तथा गन्दे पानी के निकास के लिये आवश्यक व्यवस्था की। अगली गर्मियों में यह काम फिर किया गया। एक बार फिर कुओं की सफाई से आपसी सहायता की परम्परा बढ़ने लगी। जब लोग किसी काम को इस प्रकार मिल कर करें तब धन का सवाल नहीं उठता। जात-पात की बाधाएँ टूटने लगीं और स्वाभाविक नेता उभरने लगे। समय के साथ शान्ता इन स्वाभाविक नेताओं को साथ लाने, आपसी महत्त्व के अन्य बहुत से मामलों की जिम्मेदारी उठाने और उनके लिये काम शुरू करने में सफल हुईं।

आवास की अच्छी व्यवस्था की दिशा में शुरुआत व्यक्तिगत परिवारों द्वारा अपने घरों को फिर से बनाने और पुराने घरों की मरम्मत के रूप में हुई। शान्ता ने अनुभव किया कि लोगों द्वारा बनाए गए नए घर स्वास्थ्य अथवा सुविधा की दृष्टि से पुराने घरों से कुछ अच्छे हैं। वे निर्माण कार्य के दौरान उनसे बातचीत करतीं और उन्हें खिड़की रखने अथवा अपनी मवेशियों के लिये अलग व्यवस्था करने के बारे में समझाने की कोशिश करतीं। वे उनकी मान-प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान को भी जागृत करतीं। वे कहतीं, तुम अपना दरवाजा कुछ ऊँचा क्यों नहीं बनाते? तुम्हें अपने ही घर में घुसने के लिये झुकना क्यों पड़े? अथवा घर की महिलाओं को सभी ऋतुओं में बाहर खेत में क्यों जाना पड़े? तुम्हारी जमीन के एक कोने में उनके लिये अलग शौचालय क्यों नहीं बनाया जाये? जहाँ तुम सब्जियाँ पैदा करने की सोचते हो वहाँ काफी खुला स्थान है, वहाँ दोनों काम हो सकते हैं। धीरे-धीरे कुछ सुधार हुए और आखिर में एक सहकारी आवास समिति बनाई गई। गाँव की भूमि का एक छोटा टुकड़ा प्राप्त किया गया और श्रमिक परिवारों के लिये मकान बनाने का काम शुरू हुआ। इस सम्बध में पहले से ही योजना और खर्च के बारे में ब्यौरेवार बातचीत कर ली गई। श्रमिक तथा उसके परिवार के सदस्यों ने निर्माण के काम में हाथ बँटाया। अपने घरों में सोख्ता खड्डे बना लिये। इस प्रकार उन्होंने स्वस्थ जीवन का व्यावहारिक सबक सीखा। कुओं की तरह उनकी जाँच होती और आवश्यकता होती तो उन्हें फिर खोदा जाता।

स्वाभाविक नेता और प्रभावशाली ग्रामीण धीरे-धीरे गाँव की कार्यसमिति के रूप में विकसित हो गए। शान्ता उनके साथ बैठतीं, आम जरूरत की बातों के बारे में चर्चा करने के लिये उन्हें प्रोत्साहित करतीं। इस कार्यसमिति ने जो पहला बड़ा काम हाथ में लिया वह खाद्यान्नों की राशनिंग की व्यवस्था से उत्पन्न कठिनाइयों को लेकर था। 12 गाँवों को अपना राशन एक गाँव की एक दुकान से प्राप्त करना पड़ता था। बरसात के मौसम के दौरान एक गाँव से दूसरे गाँव के रास्ते आमतौर पर बन्द रहते थे। दुकान पर जाने के लिये लोगों को पूरे दिन की मजदूरी छोड़नी पड़ती थी और जब राशन कार्ड में कोई गड़बड़ हो तो उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता था। फिर, जिस गाँव में दुकान थी वहाँ हैजा फैल गया। इस संकट के समय सेवाग्राम में ग्रामसभा का आयोजन किया गया और उपभोक्ता सहकारी भण्डार कायम करने का फैसला किया गया। इसके लिये पूँजी इकट्ठी की गई और लोगों ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार योगदान दिया। लेकिन कुल जमा राशि बहुत कम थी और प्रारम्भिक भण्डार की खरीद के लिये कर्ज लेना पड़ा। दुकान 1945 में चरखा जयन्ती के दिन शुरू हुई और कार्यसमिति ने बारी-बारी से इसका प्रबन्ध करने का फैसला किया। इसके लिये दो व्यक्ति एक साथ दो महीने तक काम करते। वे हिसाब रखते, कार्डों को भरते और अनाज खरीदते तथा बेचते। यह सब काम स्वेच्छा से, बिना वेतन के सार्वजनिक सेवा के रूप में किया जाता।

जमनालालजी के यह कहने पर कि क्या सेगाँव आपको रास नहीं आ रहा। गाँधीजी ने कहा, “ऐसा कहना तो गलत होगा। मैं तो तुमसे एक ही बात की माँग करता हूँ। मैं सबसे कहता हूँ कि मुझे सेगाँव में ही जीना या मरना है और अन्यत्र कहीं नहीं जाना है... मुझसे ईश्वर को क्या काम लेना है, यह तो वही जानता है। उसे अपने काम के लिये जब तक मेरी जरूरत होगी, उसके बाद वह क्षण-भर भी मुझे यहाँ नहीं रहने देगा।”

‘बापू कुटी सेवाग्राम आश्रम’
गाँधी सेवा संघ और सेवाग्राम आश्रम प्रतिष्ठान वर्धा,
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