गुजरात विद्यापीठ के बेहतरीन कार्यकर्ताओं और शिक्षकों में से एक ने ग्राम और ब्लॉक स्तर के सरकारी अधिकारियों के रवैये को लेकर पिछले दिनों चिंता जाहिर की थी। इन अधिकारियों को व्यक्तिगत शौचालय निर्माण और उसके लिए धन की व्यवस्था के बारे में प्रस्ताव संभावित लाभार्थियों द्वारा दिए गए थे। लेकिन उन्होंने इस बात को ही नकार दिया कि उन्हें ऐसे प्रस्ताव मिले हैं।
हमारी स्वयं से की गई प्रतिबद्धता की वजह से ही शौचालय के निर्माण को संधि रूप से प्रोत्साहित करने के लिए विद्यापीठ शामिल है। यह संकल्प श्री नारायण देसाई की 108वीं गांधी कथा (भारतीय परंपरा के अनुसार पौराणिक कथाएं सार्वजनिक तौर पर सुनाई जाती हैं। गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति नारायण देसाई (गांधीजी की कहानियों को उसी तरह सुनाया करते थे) के बाद किया गया था।हालांकि प्रारंभ में बताई गई दिक्कतों के साथ भी हमने सदरा के आसपास के गांवों में जो विद्यापीठ का परिसर है उस ग्रामीण इलाके में पिछले दो वर्षों में 1300 से ज्यादा शौचालयों का निर्माण कराने में मदद की है। विद्यापीठ गुजरात की राजधानी से 20 किलोमीटर की दूरी पर है और यहां लोग आसानी से नहीं पहुंच पाते। ऐसे में भ्रष्ट अधिकारियों और सरकार की उदासीनता से मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं।
ज्यादातर भारतीयों के पास मोबाइल फोन तो हैं लेकिन घर में शौचालय नहीं है। यह लोगों की स्वच्छता के प्रति जागरूकता, समाज और प्राचलिकता को दर्शाता है।
गांधीजी ने अपने बचपन में ही भारतीयों में स्वच्छता के प्रति उदासीनता की कमी को महसूस कर लिया था उन्होंने किसी भी सभ्य और विकसित मानव समाज के लिए स्वच्छता के उच्च मानदंड की आवश्यकता को समझा। उनमें यह समझ पश्चिमी समाज में उनके पारंपरिक मेलजोल और अनुभव से विकसित हुई। अपने दक्षिण अफ्रीका के दिनों से लेकर भारत तक वह अपने पूरे जीवन काल में निरंतर बिना थके स्वच्छता के प्रति लोगों को जागरूक करते रहे। गांधीजी के लिए स्वच्छता एक बहुत ही महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दा था। 1895 में जब ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और एशियाई व्यापारियों से उनके स्थानों को गंदा रखने के आधार पर भेदभाव किया था, तब से लेकर अपनी हत्या के एक दिन पहले 20 जनवरी 1948 तक गांधीजी लगातार सफाई रखने पर जोर देते रहे।
लोक सेवक संघ के संविधान मसौदे में उन्होंने कार्यकर्ताओं के संबंध में जो लिखा था वह इस प्रकार है- ‘कार्यकर्ता को गांव की स्वच्छता और सफाई के बारे में जागरूक करना चाहिए और गांव में फैलने वाली बिमारियों को रोकने के लिए सभी जरूरी कदम उठाने चाहिए’ (गांधी वाङ्मय, भाग 90, पृष्ठ 528) इस लेख में स्वच्छता पर गांधीजी के विचारों को संक्षेप में देने और वर्तमान स्थिति में इसकी समीक्षा की कोशिश की गई है।
सार्वजनिक मंच पर स्वच्छता : दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी
यह दिलचस्प है कि पहली बार गांधीजी ने स्वच्छता के मसले को दक्षिण अफ्रीका में भारतीय व्यापारियों को अपने-अपने व्यापार के स्थानों को साफ रखने के संबंध में उठाया था। भारतीय और एशियाई समुदाय की ओर से एक याचिकाकर्ता के रूप में दक्षिण अफ्रीका में दी गई एक याचिका में गांधीजी ने भारतीय व्यापारियों की स्वच्छता के प्रति उनके रवैये और व्यवहार का बचाव किया और उन्होंने सभी समुदायों से सफाई रखने के लिए लगातार अपील भी की थी। लार्ड रिपन स्वच्छता मामले में एक मुद्दे को एक याचिका में इस प्रकार उठाया गया था : 1881 के सम्मेलन का 14वां खंड जो मूल निवासियों के साथ-साथ सभी व्यक्तियों के हितों की समान रक्षा करता है, उसमें कहा गया था कि ट्रांसवाल में भारतीय स्वच्छता का पालन नहीं करते हैं और यह कुछ लोगों द्वारा गलत धारणा के आधार पर बनाया था। (गांधीजी वाङ्मय, भाग 1, पृष्ठ 204)।
गांधीजी यह स्थापित करना चाहते थे कि भारतीयों को व्यापार का लाइसेंस इस लिए नहीं दिया जा रहा था क्योंकि वह अंग्रेज व्यापारियों को कड़ी टक्कर दे रहे थे। दूसरे, उन्होंने यह तर्क भी दिया कि भारतीय व्यापारी और अन्य लोग सफाई रखने के आदी होते हैं। उन्होंने म्यूनिसिपल डॉक्टर वियेले का उदाहरण दिया जिन्होंने भारतीयों को सफाई के प्रति सचेत और जागरूक बताया था। डॉक्टर वियेले ने भारतीयों को धूल और लापरवाही से होने वाली बीमारियों से मुक्त बताया था। (गांधी वाङ्मय, भाग-1 1969 संस्करण पृष्ठ 215) भारतीय व्यापारियों को व्यापार का लाइसेंस देने से इंकार क्यों किया जा रहा था उस संबंध में भी याचिका में दिए गए तर्क में बताया था कि यह व्यापारिक जलन की वजह से किया गया है। भारतीय स्वभाव से मितव्ययी और शांत होते हैं। भारतीय व्यापारी जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं की कीमत कम रखते थे और उन्हें सस्ते दाम में बेचते थे जिससे श्वेत व्यापारियों के साथ वह भी प्रतिस्पर्धा में आ गए थे।
भारत में स्वच्छता परिदृश्य अभी भी निराशाजनक है। हमने गांधी को एक बार फिर विफल कर दिया है। गांधीजी ने समाज शास्त्र को समझा और स्वच्छता के महत्व को समझा। पारंपरिक तौर पर सदियों से सफाई के काम में लगे लोगों को गरिमा प्रदान करने की कोशिश की। आजादी के बाद से हमने उनके अभियान को योजनाओं में बदल दिया। योजना को लक्ष्यों, ढांचों और संख्याओं तक सीमित कर दिया गया। हमने मौलिक ढांचे और प्रणाली से ‘तंत्र’ पर तो ध्यान दिया और उसे मजबूत भी किया लेकिन हम ‘तत्व’ को भूल गए जो व्यक्ति में मूल्य स्थापित करता है। गांधीजी भारतीय लोगों की साफ-सफाई कम रखने की आदतों से भी परिचित थे। इसलिए उन्होंने 1914 तक अपने 20 वर्षों के प्रवास के दौरान साफ-सफाई रखने पर विशेष बल दिया। गांधीजी इस बात को समझते थे कि किसी भी इलाके में बहुत अधिक भीड़भाड़ गंदगी की एक मुख्य वजह होती है। दक्षिण अफ्रीका के कुछ शहरों में विशेष इलाकों में भारतीय समुदाय के लोगों को पर्याप्त जगह और ढांचागत सुविधाएं नहीं मुहैया कराई गई थी। गांधीजी मानते थे कि उचित स्थान, मूलभूत और ढांचागत सुविधाएं और स्वच्छ वातावरण उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी नगरपालिका की है। गांधीजी ने इस संबंध में जोहांसबर्ग के चिकित्सा अधिकारी को एक पत्र भी लिखा था। उन्होंने पत्र में लिखा था। ‘मैं आपको भारतीयों के रहने वाले इलाकों की स्तब्ध कर देने वाली स्थिति के बारे में लिख रहा हूं। एक कमरे में कई लोग एक साथ इस तरह ठूंस कर रहते हैं कि उनके बारे में बताना भी मुश्किल है। इन इलाकों में सफाई सेवाएं अनियमित हैं और सफाई न रखने के संबंध में बहुत से निवासियों ने मेरे कार्यालय में शिकायत करके बताया है कि अब स्थिति पहले से भी बदतर हो गई है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-4, पृष्ठ 129)।
गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, ‘नगरपालिका की आपराधिक लापारवाही और सफाई के प्रति भारतीय निवासियों की अज्ञानता की वजह से कई इलाकों को पूरी तरह गंदा रखने की साजिश रची गई थी।’ (एक आत्मकथा, पृष्ठ 265) एक बार दक्षिण अफ्रीका में काले प्लेग का प्रकोप फैला। सौभाग्य से उसके लिए भारतीय जिम्मेदार नहीं थे। यह जोहांसबर्ग के आस-पास के क्षेत्र में सोने की खादानों वाले इलाके में फैला था। गांधीजी ने अपनी पूरी शक्ति के साथ, स्वेच्छा से और स्वयं के जीवन को खतरे में डालकर रोगियों की सेवा की। नगर चिकित्सक और अधिकारियों ने गांधीजी की सेवाओं की बहुत तारीफ की। गांधी जी चाहते थे कि लोग उस घटना से सबक लें। उन्होंने एक जगह लिखा था ‘इस तरह के कठोर नियमों पर निस्संदेह हमें गुस्सा आता है। परंतु हमें इन नियमों का मानना चाहिए क्योंकि इससे हम गलती दोहराएगें नहीं। हमें स्वच्छता और सफाई का मूल्य पता होना चाहिए...गंदगी को हमें अपने बीच से हटाना होगा...क्या स्वच्छता स्वयं ईनाम नहीं है? हाल ही में जो घटना हुई है यह हमारे देशवासियों के लिए एक सबक है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-4 पृष्ठ 146)।
हालांकि स्वच्छता के बारे में दक्षिण अफ्रीका और भारत दोनों ही जगह दी गई उनकी सलाह के 100 साल बाद भी हमने एक समुदाय के रूप में प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है। देश की राजधानी सहित कई भारतीय शहरों में मलेरिया, चिकुनगुनिया, डेगूं और अन्य खतरनाक बीमारियां गंदगी की वजह से ही फैलती हैं। डेगूं की वजह से अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में हुई मौतों और डॉक्टरों और नर्सों में फैली बीमारियों की जांच के लिए लेखक को गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा गठित की गई जांच समिति का सदस्य नियुक्त किया गया था। समिति ने दो वर्ष पहले स्वच्छता के बारे में सुझावों के साथ अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी थी, लेकिन अहमदाबाद के सिविल अस्पताल और स्थानीय प्रशासन द्वारा संचालित अन्य अस्पतालों में इन सुझावों को प्रभावी तरीके से कार्यन्वित करना संभव नहीं हो सका। जिससे वहां होने वाली मौतें और बीमारियां बदस्तूर जारी हैं।
भारत में स्वच्छता : गांधीजी के प्रयास
भारत में गांधीजी ने गांव की स्वच्छता के संदर्भ में सार्वजनिक रूप से पहला भाषण 14 फरवरी 1916 में मिशनरी सम्मेलन के दौरान दिया था। उन्होंने वहां कहा था ‘देशी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा की सभी शाखाओं में जो निर्देश दिए गए हैं, मैं स्पष्ट कहूंगा कि उन्हें आश्चर्यजनक रूप से समूह कहा जा सकता है,... गांव की स्वच्छता के सवाल को बहुत पहले हल कर लिया जाना चाहिए था।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-13, पृष्ठ 222)।
गांधीजी ने स्कूली और उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में स्वच्छता को तुरंत शामिल करने की आवश्यकता पर जोर दिया था। 20 मार्च 1916 को गुरुकुल कांगड़ी में दिए गए भाषण में उन्होंने कहा था ‘गुरुकुल के बच्चों के लिए स्वच्छता और सफाई के नियमों के ज्ञान के साथ ही उनका पालन करना भी प्रशिक्षण का एक अभिन्न हिस्सा होना चाहिए,... इन अदम्य स्वच्छता निरीक्षकों ने हमें लगातार चेतावनी दी कि स्वच्छता के संबंध में सब कुछ ठीक नहीं है... मुझे लग रहा है कि स्वच्छता पर आगन्तुकों के लिए वार्षिक व्यावहारिक सबक देने के सुनहरे मौके को हमने खो दिया।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-13, पृष्ठ 264)।
गांधीजी ने नील के खेती करने वाले किसानों की समस्याओं को सुलझाने के लिए चंपारण गए थे। जांच दल के रूप में तैनात एक गोपनीय पत्र में उन्होंने उस स्थिति में स्वच्छता की महत्ता को बताया। गांधीजी चाहते थे कि अंग्रेज प्रशासन उनके कार्यकर्ताओं को स्वीकारें ताकि वे समाज में शिक्षा और सफाई के कार्यों को भी शुरू कर सकें। गांधीजी नील की खेती करने वाले किसानों की समस्याओं को सुलझाने के लिए चंपारण गए थे। जांच दल के रूप में तैनात एक गोपनीय पत्र में उन्होंने उस स्थिति में स्वच्छता की महत्ता को बताया। गांधीजी चाहते थे कि अंग्रेज प्रशासन उनके कार्यकताओं को स्वीकारें ताकि वे समाज में शिक्षा और सफाई के कार्यों को भी शुरू कर सकें। इस बारे में उन्होंने कहा, ‘क्योंकि वे गांवों में ही रहते हैं, इसलिए वे गांव के लड़के और लड़कियों को सिखा सकते हैं और वे स्वच्छता के बारे उन्हें जानकारी भी दे सकते हैं’ (गांधी वाङ्मय, भाग-13 पृष्ठ 393)।
1920 में गांधीजी ने गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की। यह विद्यापीठ आश्रम की जीवन पद्धति पर आधारित था, इसलिए वहां शिक्षकों, छात्रों और अन्य स्वयं सेवकों और कार्यकर्ताओं को प्रारंभ से ही स्वच्छता के कार्य में लगाया जाता था। यहां के रिहायशी क्वार्टरों, गलियों, कार्यालयों, कार्यस्थलों और परिसरों की सफाई दिनचर्या का हिस्सा था। गांधीजी यहां आने वाले हर नये व्यक्ति को इस संबंध में विशेष पढ़ाते थे। यह प्रथा आज भी कायम है।
लोग गांधीजी के साथ रहने की इच्छा जाहिर करते तो इस बारे में उनकी पहली शर्त होती थी कि आश्रम में रहने वालों को आश्रम की सफाई का काम करना होगा जिसमें शौच का वैज्ञानिक निस्तारण करना भी शामिल है। गांधीजी ने रेलवे के तीसरे श्रेणी के डिब्बे में बैठकर देशभर में व्यापक दौरे किए थे। वह भारतीय रेलवे के तीसरे श्रेणी के डिब्बे की गंदगी से स्तब्ध और भयभीत थे। उन्होंने समाचार पत्रों को लिखे पत्र के माध्यम से इस ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया था। 25 सितंबर 1917 को लिखे अपने पत्र में उन्होंने लिखा, ‘इस तरह की संकट की स्थिति में तो यात्री परिवहन को बंद कर देना चाहिए लेकिन जिस तरह की गंदगी और स्थिति इन डिब्बों में है उसे जारी नहीं रहने दिया जा सकता क्योंकि वह हमारे स्वास्थ्य और नैतिकता को प्रभावित करती है। निश्चित तौर पर तीसरी श्रेणी के यात्री को जीवन की बुनियादी जरूरतें हासिल करने का अधिकार तो है ही। तीसरे दर्जे के यात्री की उपेक्षा कर हम लाखों लोगों को व्यवस्था, स्वच्छता, शालीन जीवन की शिक्षा देने, सादगी और स्वच्छता की आदतें विकसित करने का बेहतरीन मौका गवां रहे हैं।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-13, पृष्ठ 264 पृष्ठ 550)।
गांधीजी ने धार्मिक स्थलों में फैली गंदगी की ओर भी ध्यान दिलाया था। 3 नवंबर 1917 को गुजरात राजनैतिक सम्मेलन में उन्होंने कहा था, ‘पवित्र तीर्थ स्थान डाकोर यहां से बहुत दूर नहीं है। मैं वहां गया था। वहां की पवित्रता की कोई सीमा नहीं है। मैं स्वयं को वैष्णव भक्त मानता हूं, इसलिए मैं डाकोर जी की स्थिति की विशेष रूप से आलोचना कर सकता हूं। उस स्थान पर गंदगी की ऐसी स्थिति है कि स्वच्छ वातावरण में रहने वाला कोई व्यक्ति वहां 24 घंटे तक भी नहीं ठहर सकता। तीर्थ यात्रियों ने वहां के टैंकरों और गलियों को प्रदूषित कर दिया है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-14, पृष्ठ 57)। इसी तरह यंग इंडिया में 3 फरवरी 1927 को उन्होंने बिहार के पवित्र शहर गया की गंदगी के बारे में भी लिखा और यह इंगित किया कि उनकी हिन्दू आत्मा गया के गंदे नालों में फैली गंदगी और बदबू के खिलाफ बगावत करती है।
भारतीय रेलवे में आज भी गंदगी का वही आलम है। रेलवे के डिब्बों को और शौचालय साफ रखने के लिए श्रमिकों और कर्मचारियों को तो रखा जाता है जहां तक स्वच्छता और सफाई से संबंधित प्रश्न है हम भारतीय यात्रियों को इस बारे में कोई शर्म महसूस नहीं होती। शौचालयों का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं किया जाता। यहां तक कि वातानुकूलित डिब्बों में यात्रा करने वाले पढ़े लिखे लोग भी अपने बच्चों को शौचालय सीट का इस्तेमाल नहीं करवा कर उन्हें बाहर ही शौच करवाते हैं। डिब्बों में कूड़ा फैलना तो आम बात है।
गांधीजी ने सार्वजनिक रूप से स्वच्छता की ओर सबका ध्यान खींचा।
29 दिसंबर 1999 को अमृतसर कांग्रेस में एक भाषण में सी एफ एन्ड्रयूज का हवाला दिया। उनके अनुसार यूरोपीय मानते हैं कि बाहर से देखने पर भारतीय बहुत आकर्षक नहीं लगते क्योंकि वह सफाई और स्वच्छता के प्रति बहुत अधिक ध्यान नहीं देते और उसे गैर जरूरी समझते हैं।
कांग्रेस के करीब-करीब हर सम्मेलन में दिये अपने भाषण में गांधीजी ने स्वच्छता के मामले को उठाया। अप्रैल 1924 में उन्होंने दाहोद शहर के कांग्रेस सदस्यों को अच्छी साफ-सफाई रखने के लिए बधाई दी और उन्हें सुझाव दिया कि वह अछूत समझे जाने वाले समुदाय के इलाकों में जाएं और उनमें स्वच्छता के प्रति जागरूकता जगाएं। उन्होंने उसी तरह 1925 में कानपुर कांग्रेस में सफाई रखने के इंतजामों की भी बहुत प्रशंसा की थी।
गांधीजी मानते थे कि नगरपालिका का सबसे महत्वपूर्ण कार्य सफाई रखना है। उन्होंने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को पार्षद बनने के बाद स्वच्छता के काम करने का सुझाव दिया (कांग्रेस सम्मेलनों के दौरान गांधीजी के भाषण/संपूर्ण गांधी वाङ्मय, भाग-23 पृठ 15, 387/भाग 25, 40, 441/भाग 26/भाग 28, पृष्ठ 400, 412, 461, 471)। गांधीजी अस्वच्छता बुराई थी। 25 अगस्त 1925 को कलकत्ता अब (कोलकाता) में दिए गए भाषण में उन्होंने कहा, ‘वह (कार्यकर्ता) गांव के धर्मगुरु या नेता के रूप में लोगों के सामने न आएं बल्कि अपने हाथ में झाड़ू लेकर आएं। गंदगी, गरीबी निठल्लापन जैसी बुराइयों का सामना करना होगा और उससे झाड़ू कुनैन की गोली और अरंडी के तेल साथ लड़ना होगा…’ (गांधी वाङ्मय, भाग-28, पृष्ठ 109)।
पंचायतों की भूमिका के बारे मे गांधीजी ने कहा था कि गांव में रहने वाले प्रत्येक बच्चे, पुरुष या स्त्री की प्राथमिक शिक्षा के लिए, घर-घर में चरखा पहुंचाने के लिए, संगठित रूप से सफाई और स्वच्छता के लिए पंचायत जिम्मेदार होनी चाहिए। 19 नवंबर 1925 के यंग इंडिया के एक अंक में गांधीजी ने भारत में स्वच्छता के बोर में अपने विचारों को लिखा। उन्होंने लिखा, ‘देश के अपने भ्रमण के दौरान मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ गंदगी को देखकर हुई...इस संबंध में अपने आप से समझौता करना मेरी मजबूरी है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-28, पृष्ठ 461)।
स्वच्छता शिक्षा
कई लोगों ने गांधीजी को पत्र लिखकर आश्रम में उनके साथ रहने की इच्छा जाहिर की थी। इस बारे में उनकी पहली शर्त होती थी कि आश्रम में रहने वालों को आश्रम की सफाई का काम करना होगा जिसमें शौच का वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण करना भी शामिल है। गांधीजी ने हमारा ध्यान इस ओर खींचा। उन्होंने हमें बताया कि हमें पश्चिमी देशों में सफाई रखने के तरीकों को सीखना चाहिए और उनका उसी तरह पालन करना चाहिए। 21 दिसंबर 1924 को बेलगांव में अपने नागरिक अभिनंदन के जवाब में उन्होंने कहा था, ‘हमें पश्चिम में नगरपालिकाओं द्वारा की जाने वाली सफाई व्यवस्था से सीख लेनी चाहिए...पश्चिमी देशों ने कोरपोरेट स्वच्छता और सफाई विज्ञान किस तरह विकसित किया है उससे हमें काफी कुछ सीखना चाहिए... पीने के पानी के स्रोतों की उपेक्षा जैसे अपराध को रोकना होगा...’ (गांधी वाङ्मय, भाग-25, पृष्ठ 461)।
प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के लिए मसौदा मॉडल नियमों में उन्होंने पंचायत की भूमिका का रेखांकित किया और और लिखा, ‘गांव में रहने वाले प्रत्येक बच्चे, पुरुष या स्त्री की प्राथमिक शिक्षा के लिए, घर-घर में चरखा पहुंचाने के लिए, संगठित रूप से सफाई और स्वच्छता के लिए पंचायत जिम्मेदार होनी चाहिए।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-19, पृष्ठ 217)।
उन्होंने स्वच्छता के लिए शिक्षा के पक्ष में स्पष्ट रुख ले लिया। 1933 में उन्होंने लिखा, ‘शिक्षा देने के लिए तीन आर का ही ज्ञान होना काफी नहीं है। हरिजन मानवता के लिए अन्य चीजों का भी अर्थ होता है। शिष्टाचार और स्वच्छता का तीनों आर की शिक्षा से पहले अपरिहार्य है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-56, पृष्ठ 91)।
शहरी मूलभूत सुविधाएं गांवों से पलायन करके शहरों में आए लोगों तक पहुंच नहीं पातीं। 2012 में हमारे देश में करीब 62.6 करोड़ लोग जो कि जनसंख्या का लगभग 50 प्रतिशत है, वह खुले में शौच करते हैं। उन्होंने फिर 1935 में स्वच्छता की सीख देने का प्रयास किया और तीन आर की चिंता किए बिना लोगों को सफाई के प्रति जागरूक किया। उन्होंने ‘हरिजन’ के एक अंक में लिखा भी था कि सफाई और स्वच्छता के मामले में ‘तीन आर’ का मतलब सिर्फ कहने भर के लिए ही है। वास्तव में उसका कोई महत्व नहीं है। (गांधी वाङ्मय, भाग-60, पृष्ठ 120)।
यह दुखद है कि हमने हार मान ली है। हमारे शिक्षा संस्थानों में सफाई कर्मचारी हैं। ‘अधिकार’ प्रति सचेत कार्यकर्ता मानते हैं कि बचपन से ही स्वच्छता की आदतें सीखना बालश्रम है। अभी देर नहीं हुई है। नई तालीम को नए सिरे से शुरू करना होगा। ऐसी शिक्षा जिसे करके सीखा जाए वही उपयोगी होती है।
गांधी, स्वच्छता और सफाई कर्मचारी
गांधीजी को अस्पृश्यता से घृणा थी। बचपन से बालक मोहन के मन में अपनी मां के प्रति स्नेह सम्मान होने के बावजूद उस छोटी आयु में भी अपनी मां की उस बात का विरोध किया जब उनकी मां ने सफाई करने वाले कर्मचारी के न छूने और उससे दूर रहने के लिए कहा था। उन्हें दृढ़ विश्वास था कि स्वच्छता और सफाई प्रत्येक व्यक्ति का काम है। वह हाथ से मैला ढोने और किसी एक जाति के लोगों द्वारा ही सफाई करने की प्रथा को समाप्त करना चाहते थे।
उन्होंने भारतीय समाज में सदियों से मौजूद अस्पृश्यता की कुरीति और जातीय प्रथा का विरोध किया। सफाई करने वाले जाति के लोगों को गांवों से बाहर रखा जाता था। और उनकी बस्तियां बहुत ही खराब, मलीन और गंदगी से भरी हुई थीं।
समाज में हेय समझे जाने, गरीबी और शिक्षा की कमी की वजह से वह ऐसी बुरी स्थिति रहते थे। गांधीजी ने उन मलिन बस्तियों में गए और उन्होंने अस्पृश्य समझे जाने वाले लोगों को गले लगाया और अपने साथ गए अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी वैसा करने के लिए कहा। गांधीजी चाहते थे कि इन लोगों की स्थिति सुधरे और वह भी समाज की मख्यधारा में शामिल हों। उन्होंने पूरे भारत में छात्रों सहित सभी से ऐसी मलिन बस्तियों के लोगों की मदद करने के लिए कहा।
गांधीजी ने भारतीय समाज में सफाई करने और मैला ढोने वालों द्वारा किए जाने ले अमानवीय कार्य पर तीखी टिप्पणी की उन्होंने कहा, ‘हरिजनों में गरीब सफाई करने वाला या ‘भंगी’ समाज में सबसे नीचे खड़ा है जबकि वह सबसे महत्वपूर्ण है। अपरिहार्य होने के नाते समाज में उसका सम्मान होना चाहिए ‘भंगी’ जो समाज की गंदगी साफ करता है उसका स्थान मां की तरह होता है। जो काम एक भंगी दूसरे लोगों की गंदगी साफ करने के लिए करता है वह काम अगर अन्य लोग भी करते तो यह बुराई कब की समाप्त हो जाती’। (गांधी वाङ्मय, भाग-54, पृष्ठ 109)
स्वच्छता : वर्तमान स्थिति
75 साल पहले गांधीजी द्वारा मैला ढोने की प्रथा खत्म करने की अपील के बावजूद यह आज भी कायम है। 1993 में बनाए गए कानून में किसी एक को भी सजा नहीं हुई और इसीलिए 2013 में हाथ से मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने के लिए नया कानून बनाया गया। राज्यों ने उस कानून को अभी लागू नही किया है। गुजरात सरकार ने तो हाथ से मैला ढोने वालों की मौजूदगी को ही नकार दिया है मिलेनियम डेवलपमेंट गोल (सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों) स्थायी विकास के लक्ष्यों में बदलने वाले हैं और भारत में अभी भी सुरक्षित स्वच्छता की स्थिति निराशाजनक है। विश्व स्टील के पेसीफिक इस्टिट्यूट के आंकड़ों के अनुसार भारत की जनसंख्या के बहुत बड़े प्रतिशत के पास सुरक्षित स्वच्छता की पहुंच नहीं हो पाई है। संस्थान के अनुसार 1970 में केवल 19 प्रतिशत घरों (85 प्रतिशत शहर और 57 प्रतिशत गांव) में साफ सफाई थी। 2008 में यह 30 प्रतिशत जनसंख्या तक पहुंच सकी जिसमें 52 प्रतिशत शहरों और 20 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में थे। शहरी मूलभूत सुविधाएं गांवों से पलायन करके शहरों में आए लोगों तक पहुंच नही पाती। 2012 मे हमारे देश करीब 62.6 करोड़ लोग जो कि जनसंख्या का लगभग 50 प्रतिशत है, वह खुले में शौच करते हैं। (यूनिसेफ और विश्व स्वास्थय संगठन)। स्वच्छता केवल शौचालयों तक ही सीमित नहीं है। भारत में 2012 तक अपने सभी ग्रामीण क्षेत्रों में संपूर्ण स्वच्छता को पहुंचाने का काम किया है, लेकिन यह अभी दूर लगता है। 1981 में भारत की ग्रामीण जनसंख्या के एक प्रतिशत तक ही संपूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम का लाभ पहुंच सका था। 1991 में यह बढ़कर 11 प्रतिशत जनसंख्या तक पहुंचा। 2001 में 22 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या को इस कार्यक्रम में शामिल किया गया कि इस कार्यक्रम का लाभ 50 प्रतिशत जनसंख्या तक पहुंच गया। संपूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम के तहत प्रत्येक घर में और हर स्कूल में शौचालय का निर्माण और अपशिष्ट पदार्थ प्रबंधन करना शामिल है। इस कार्यक्रम का पूरी तरह कार्यान्वयन अभी दूर की कौड़ी लगता है।
स्वच्छता और सफाई के काम के विस्तार और स्वीकारने में सांस्कृतिक बाधाएं भी आड़े आती हैं। इस संबंध में दो विशेष बातें हैं। पहली धार्मिकता और धर्मपरायणता स्वच्छता और सफाई से ज्यादा महत्वपूर्ण है। स्वच्छता और सफाई के काम के विस्तार और स्वीकारने में सांस्कृतिक बाधाएं भी आड़े आती हैं। इस संबंध में दो विशेष बातें हैं। पहली धार्मिकता और धर्मपरायणता स्वच्छता और सफाई से ज्यादा महत्वपूर्ण है। जैसा कि मैंने पहले भी बताया है कि ऐसा भारत में ज्यादातर धार्मिक स्थलों पर देखा जाता है। गांवों कस्बों और मंदिरों के आसपास अक्सर बहुत गंदगी दिखाई देती है। इन जगहों पर कूड़े के ढेर, खुले में शौच, प्रदूषण और दूषित पीने का पानी आम बात है। ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों में जाति से संबंधित भावनाएं अभी भी प्रबल और प्रचलित हैं। बड़े शहरों में यह कम हैं। प्रदूषण की अवधारणा की सामाजिक स्वीकृति अभी जारी है जिसमें स्वच्छता और सफाई की उपेक्षा होती रही है।
दूसरी बात, फैक्टरियां और वायरस के रूप में स्वच्छ जीवों का अस्तित्व बहुत बढ़ गया है। ज्यादातर लोग जिन्होंने स्कूली शिक्षा हासिल की है और बुनियादी विज्ञान में पढ़ाई की है उन्हें भी सूक्ष्म जीवों द्वारा संदूषण और प्रदूषण की अवधारणा की समझ नहीं है। शहरी पढ़े-लिखे लोगों में पीने के पानी का रख-रखाव अभी दोषपूर्ण और खतरनाक ढंग से किया जाता है। शहरों में जब आरओ और जल शुद्धिकरण वाले यंत्र (वाटर प्यूरीफायर) नहीं थे तब लोग मटकों का पानी पीते थे, तब भी वह मटके से पानी निकालने के लिए कलछुल या डोई का इस्तेमाल करते थे जिससे पानी गंदा नहीं हो सके। हालांकि यह अधिकतर घरों में रखा ही नहीं जाता था। जिन घरों में होता भी था तो केवल शो पीस की तरह दीवार पर लटका रहता था।
भारत में स्वच्छता परिदृश्य अभी भी निराशाजनक है। हमने गांधी को एक बार फिर विफल कर दिया है। गांधीजी ने समाज शास्त्र को समझा और स्वच्छता के महत्व को समझा। पारंपरिक तौर सदियों से सफाई के काम में लगे लोगों को गरिमा प्रदान करने की कोशिश की। आजादी के बाद से हमने उनके अभिमान को योजनाओं में बदल दिया। योजना को लक्ष्यों ढांचों और संख्याओ तक सीमित कर दिया गया। जो हमारी बाह्य स्वच्छता के लिए सत्य है, वही हमारी आंतरिक स्वच्छता के लिए भी सत्य है, अगर हमारा पड़ोसी आंतरिक रूप से अस्वच्छ है तो वह हमें भी प्रभावित करेगा : महात्मा गांधी (मसूरी में 2 जून 1946 को) हमने मौलिक ढांचे और प्रणाली से ‘तंत्र’ पर तो ध्यान दिया और उसे मजबूत भी किया लेकिन हम ‘तत्व’ को भूल गए जो व्यक्ति में मूल्य स्थापित करता है। हमें स्वच्छता के लिए ढांचागत सुविधाओं की जरूरत तो है लेकिन हममें स्वच्छता के लिए बुनियादी मूल्यों आरोग्य तत्व (गांधीजी ‘सेनिटेशन’ शब्द के लिए ‘आरोग्य’ इस्तेमाल करते थे, क्योंकि भारतीय भाषाओं में सेनिटेशन के लिए कोई सटीक शब्द नहीं है) को भी स्थापित करने की जरूरत है। यह शिक्षा के माध्यम से ही लाया जा सकता है। गांधीजी ने स्वच्छता के प्रति शिक्षा और जागरूकता पर बल दिया था। भारत में आज हममें से अधिकतर को ‘शौचालय प्रशिक्षण’ और स्वच्छता और सफाई की शिक्षा की जरूरत है। गांधीजी इस मामले में हमारे पथ प्रदर्शक साबित हो सकते हैं।
इस लेख में दिए गए गांधी वाङ्मय के सभी संदर्भ स्वामीनाथन के मूल संस्करणों से उद्धृत किए गए हैं।
लेखक गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद के कुलपति तथा प्रसिद्ध गांधीवादी विद्वान हैं उन्होंने देश-विदेश मे गांधीजी के बारे में प्रचुर लेखन और भाषण किया है। ईमेल : sudarshan54@gmail.com