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जनसत्ता, 15 अप्रैल 2013
पानी साक्षरता की जरूरत गाँवों की बजाए शहरों में ज्यादा है। लिहाजा अब नई आवाज़, नए संवाद शुरू करने की जरूरत है। शिक्षकों, पत्रकारों और नेताओं के साथ-साथ आम जन को पानी के मसले से जोड़ना होगा। तरुण भारत संघ के अगुआ राजेंद्र सिंह ने यह विचार रखे। उन्होंने कहा कि इसी मकसद से जल्दी ही दिल्ली में जल जन जोड़ो अभियान शुरू किया जाएगा। इसका आगाज राष्ट्रीय रणनीति योजना संगोष्ठी के साथ 18 अप्रैल को होगा। दो दिन की इस गोष्ठी में देश भर में पानी के संरक्षण व संवर्धन पर काम कर रहे लोग भी शरीक होंगे। वे पानी के विकेंद्रित और आत्मनिर्भर व्यवस्था पर रोशनी डालेंगे। इसके तहत छोटी-छोटी फिल्मों के जरिए स्कूली बच्चों में पानी की अहमियत के प्रति समझ पैदा की जाएगी।
राजेंद्र सिंह ने कहा कि पानी के प्रति समझ और जागरूकता की जरूरत गाँवों की बजाए शहरों को ज्यादा है। क्योंकि जनसंख्या का दबाव यहां ज्यादा है। जो हालात है उनमें शहरीकरण फिलहाल रुकने वाला नहीं है। ऐसे में नई रणनीति के साथ नए अभियान की जरूरत है। इसके तहत पानी के अंधाधुंध दोहन को रोकने, उपचारित पानी के उपयोग को बढ़ाने, वर्षा जल संचयन को अनिवार्य करने सहित कई उपायों पर समग्र अभियान चलाना होगा। इसी सिलसिले में रविवार को लगाई गई मीडिया कार्यशाला में उन्होंने कहा कि यह देखने में आ रहा है कि जहां पानी के प्रबंधन पर जितना अधिक धन खर्च किया गया वहां उतना बड़ा जल संकट पैदा हो गया है। महाराष्ट्र में देश के 40 फीसद बांध हैं और वह सूखे की तबाही झेल रहा है। जितने बड़े बांध, संकट भी उतना बड़ा।
लिहाजा छोटे-छोटे उपायों से जल संकट दूर करने के रास्ते अपनाने होंगे। स्कूली बच्चों में जल संचय की प्रवृत्ति विकसित करनी होगी। इसके लिए बच्चों में समझ पैदा होना जरूरी है। जो फिल्मों के माध्यम से किया जाएगा। शिक्षकों को संवेदनशील बनाया जाएगा। विश्वविद्यालय स्तर पर भी भागीदारी की जाएगी। रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों की मदद भी ली जाएगी। 18-19 अप्रैल को इस पर विस्तार से चर्चा की जाएगी। आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र जन प्रतिनिधियों पर भी दबाव बनाया जा सकता है कि वे अपने एजेंडे में पानी के मुद्दे को शामिल करें। पानी के व्यवसायीकरण को रोकने के लिए दबाव बनाया जाएगा। उद्योगों को ताजा पानी के उपयोग की इजाज़त ही न हो।
मीडिया से आए प्रतिनिधियों ने बताया कि किस तरह से सरकारें अदूरदर्शी ढंग से शहरों का विस्तार करती जा रही हैं। चाहे डीडीए हो या दूसरी एजेंसी भूजल दोहन को बढ़ावा दे रही हैं। तालाब पाटते जा रहे हैं। कुछ पत्रकारों ने मनरेगा का उपयोग पानी के प्रबंधन में किए जाने की वकालत की। मीडिया को भी और गंभीरता से इस मसले को उठाना होगा ताकि लोगों को वास्तविक संकट का भान हो सके। वरना जिस शहरी आबादी को पानी मिलता जा रहा है वह असल में समस्या की गंभीरता को समझ ही नहीं पा रहा है।
राजेंद्र सिंह ने कहा कि पानी के प्रति समझ और जागरूकता की जरूरत गाँवों की बजाए शहरों को ज्यादा है। क्योंकि जनसंख्या का दबाव यहां ज्यादा है। जो हालात है उनमें शहरीकरण फिलहाल रुकने वाला नहीं है। ऐसे में नई रणनीति के साथ नए अभियान की जरूरत है। इसके तहत पानी के अंधाधुंध दोहन को रोकने, उपचारित पानी के उपयोग को बढ़ाने, वर्षा जल संचयन को अनिवार्य करने सहित कई उपायों पर समग्र अभियान चलाना होगा। इसी सिलसिले में रविवार को लगाई गई मीडिया कार्यशाला में उन्होंने कहा कि यह देखने में आ रहा है कि जहां पानी के प्रबंधन पर जितना अधिक धन खर्च किया गया वहां उतना बड़ा जल संकट पैदा हो गया है। महाराष्ट्र में देश के 40 फीसद बांध हैं और वह सूखे की तबाही झेल रहा है। जितने बड़े बांध, संकट भी उतना बड़ा।
लिहाजा छोटे-छोटे उपायों से जल संकट दूर करने के रास्ते अपनाने होंगे। स्कूली बच्चों में जल संचय की प्रवृत्ति विकसित करनी होगी। इसके लिए बच्चों में समझ पैदा होना जरूरी है। जो फिल्मों के माध्यम से किया जाएगा। शिक्षकों को संवेदनशील बनाया जाएगा। विश्वविद्यालय स्तर पर भी भागीदारी की जाएगी। रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों की मदद भी ली जाएगी। 18-19 अप्रैल को इस पर विस्तार से चर्चा की जाएगी। आगामी लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र जन प्रतिनिधियों पर भी दबाव बनाया जा सकता है कि वे अपने एजेंडे में पानी के मुद्दे को शामिल करें। पानी के व्यवसायीकरण को रोकने के लिए दबाव बनाया जाएगा। उद्योगों को ताजा पानी के उपयोग की इजाज़त ही न हो।
मीडिया से आए प्रतिनिधियों ने बताया कि किस तरह से सरकारें अदूरदर्शी ढंग से शहरों का विस्तार करती जा रही हैं। चाहे डीडीए हो या दूसरी एजेंसी भूजल दोहन को बढ़ावा दे रही हैं। तालाब पाटते जा रहे हैं। कुछ पत्रकारों ने मनरेगा का उपयोग पानी के प्रबंधन में किए जाने की वकालत की। मीडिया को भी और गंभीरता से इस मसले को उठाना होगा ताकि लोगों को वास्तविक संकट का भान हो सके। वरना जिस शहरी आबादी को पानी मिलता जा रहा है वह असल में समस्या की गंभीरता को समझ ही नहीं पा रहा है।