गिरजाघर का तरल आशीष

Submitted by admin on Fri, 08/27/2010 - 15:12
Source
गांधी मार्ग, नवंबर-दिसम्बर 2008

अपने पड़ोसी को प्यार करो। कर्नाटक में एक गिरजाघर ने ईसा मसीह की इस उक्ति को बड़े ही अच्छे तरीके से व्यवहार में उतारा है, खारे पानी के इस इलाके में मीठा पानी उतार कर। अपने लिए नहीं अपने पड़ोसियों के लिए। कुंदायू के पास राष्ट्रीय राजमार्ग-17 से लगे समुद्र किनारे के गांव तल्लूर में बने सेंट फ्रांसिस असीसी नामक इस चर्च ने अपने पड़ोस के पांच सूखे पड़े कुओं को फिर से जीवंत बना दिया है। वर्षों पहले सूख चुके इन कुओं में अब गरमी के अंतिम दिनों में भी अच्छा मीठा पानी भरा रहता है।

यह सब गिरजाघर के 70 वर्षीय पादरी बेंजामिन डीसूजा द्वारा चलाए जा रहे जल संरक्षण अभियान का नतीजा है। चर्च ने अपने चार एकड़ के परिसर में पिछले पांच वर्षों से गिरने वाली बारिश की एक बूंद भी बाहर नहीं जाने दी है। इस जिले में लगभग 35 सेंटीमीटर वर्षा होती है। अब ये पादरी हर मानसून में करोड़ों लीटर पानी धरती मां की गोद में जमा करा देते हैं। आज तल्लूर चर्च को उडुपी जिले में वर्षा जल संरक्षण के एक सफल उदाहरण के रूप में देखा जा रहा है।

परेरा ने कोई तीस साल पहले यहां जमीन खरीदी थी। तब से उनका कुआँ हर साल दो महीने के लिए सूख जाता था। परेरा का कुंआ चर्च के ठीक सामने सड़क के दूसरी तरफ है। फादर बेंजामिन ने क्या कर डाला कि इनके कुंए का पानी ऊपर आ गया है। पहले परेरा पानी के लिए न जाने कहां-कहां भटकते थे। अब पिछले दो सालों से परेरा को पानी के लिए अपने खेत से कभी कदम बाहर नहीं रखना पड़ा है।फादर बेंजामिन आज से 6 बरस पहले इस गिरजाघर में आए थे। वे बताते हैं कि उन दिनों परिसर से 15 अलग-अलग रास्तों से पानी बह कर बाहर निकल जाता था। सबसे पहले उन्होंने उन 15 रास्तों को बंद किया। वर्षा जल संरक्षण व प्रकृति संरक्षण पर कई लेखों को धर्म-लेखों की तरह पूरी श्रद्धा से पढ़ने के बाद उन्होंने इस विषय को लेकर एक गोष्ठी भी बुलाई थी। पर उस गोष्ठी से तो कोई खास नतीजा नहीं निकला। लेकिन वे बगैर किसी रुकावट के अपने काम में चुपचाप लगे रहे। इस काम को भी उन्होंने एक प्रार्थना मान लिया।

फादर बेंजामिन ने तय कर लिया था कि उन्हें गिरजाघर में भगवत-कृपा की तरह गिरने वाला सारा वर्षा जल रोक लेना है। और फिर इसका प्रसाद पड़ोस में बांट देना है। चर्च के आंगन में दो कुंए थे, जिनमें से एक पूरी तरह सूख चुका था। दूसरा कुंआ जो थोड़ा बड़ा था, वह भी मार्च महीना आते-आते दम तोड़ देता था। धीरे-धीरे पादरी ने परिसर में गिरने वाली बारिश की हर एक बूंद को विभिन्न तरीकों से रोक ही लिया।

चर्च की इमारत के ऊपरी हिस्से में गिरने वाले वर्षा जल को सूखे कुंए की ओर मोड़ दिया गया है। बाकी आंगन आदि के हिस्से में गिरने वाले पानी को एक दूसरे गड्ढे में डाला गया है। यहां पानी सरल तरीके से छन कर जमीन में पहुंच जाता है। इसके अलावा परिसर में अनेक स्थानों पर कई छोटे-छोटे गड्ढे बनाए गए हैं। इन सब में भी वर्षा का बहता पानी जमा होता है और फिर धीरे-धीरे नीचे उतर भूजल को संवर्धित करता है। गिरजाघर में एक नारियल का बाग भी है। यहां अच्छी तरह से मेंड़ बना दी गई है। अब यहां आने वाला पानी भी बहने के बदले नीचे जमीन में उतरता है।

चर्च के अलावा इस परिसर में दो और बड़ी इमारतें हैं। परिसर में सामने की ओर सड़क से लगा हुआ सेंट किलोमीना उच्चतर माध्यमिक विद्यालय है। परिसर के मुख्य प्रवेश द्वार के बाईं ओर स्कूल का सभा कक्ष है। इन दोनों इमारतों की छतों पर गिरनेवाला पानी खास इसी उद्देश्य से बनाए गए तालाब में जाने के पहले एक निश्चित रास्ते का चक्कर लगाता है।

छत के एक हिस्से का पानी 15 हजार लीटर की पक्की टंकी में जमा कर दिया जाता है। शुरू के वर्षों में जब कुआं सूखा हुआ था तो इस टंकी का पानी परिसर की जरूरतों को पूरा करता था। मंगलोर की एक सामाजिक संस्था ने इसे बनाने में कुछ आर्थिक व तकनीकी मदद पहुंचाई थी।

फादर बेंजामिन ने इमारत की छत से आने वाले पानी को अंतिम रूप से जमीन में उतारने के पहले उसे नारियल के बगीचे से होकर निकालने का बंदोबस्त किया। इस प्रक्रिया ने बगीचे की मिट्टी को नम बनाया और इससे नारियल के पेड़ों को भी काफी लाभ पहुंचा है। अब नारियल व काली मिर्च की पैदावार बढ़ चली है। भूजल स्तर काफी ऊपर आ गया है। फादर बेंजामिन का कहना है कि छत के पानी को संरक्षित कर भूजल उठाने, नमी बढ़ाने का यह तरीका पड़ोस के लोगों को दिखाने-समझाने के लिहाज से बहुत उपयोगी है।

परिसर के सबसे निचले क्षेत्र में एक नाला तैयार किया गया है। यह नाला ऊपर से बह जाने वाले पानी को अपने में समेट लेता है। इसे यहां मड़का कहते हैं। फादर इसे ‘कृष्णराज सागर’ भी कहते हैं। मड़का, नाला या बंड समुद्र के किनारे के क्षेत्रों में जल संरक्षण करने, पानी को धरती में उतारने का काम ठीक वैसे ही करते हैं जैसे देश के अन्य भागों के जोहड़, तालाब आदि। जिस ‘कृष्णराज सागर’ का जिक्र फादर ने किया है, वह कावेरी नदी पर बना दक्षिण का सबसे बड़ा बांध है।

गिरजाघर में किए गए इस प्रयोग की सफलता के बाद फादर बेंजामिन अब पानी का यह काम आस-पड़ोस में फैलाने में जुटे रहे हैं। उनकी प्रेरणा से पास की नदी किनारे के खारे क्षेत्रों में रहने वाले कुछ परिवारों ने छत के पानी को रोकना शुरू किया है। तल्लूर के गिरजाघर ने पहले खुद से प्यार किया। अब वह अपने पास और दूर के पड़ोसियों से भी प्यार कर रहा है।फादर बेंजामिन गिरजाघर के बड़े आंगन की एक दिशा की ओर संकेत करते हुए कहते हैं, कोई दस बरस पहले यहां गिरने वाला सारा पानी पूरी तरह बाहर बह जाता था। अब आईए मेरे साथ, मैं आपको दिखाता हूं कि अब हम उस पानी को किस तरह से रोक रहे हैं। आंगन के कोने में एक नया गड्ढा खोदा गया है। डेढ़ एकड़ के खेल के मैदान का सारा पानी इसी गड्ढे में आता है। इस तरह इसमें कम से कम ढाई करोड़ लीटर पानी इकट्ठा हो जाता है।

वे अपने मजाकिया अंदाज में कहते हैं कि अब हमारी ये जमीन बारिश के पानी को पीने की अभ्यस्त हो गई है। पूरा परिसर अब लगभग पूरे साल हरे घास व छोटे पौधों से, हरियाली से ढंका रहता है। इससे गिरने वाले पत्तों ने जमीन को उपजाऊ बना दिया है। एक काम ने दूसरे को, दूसरे ने तीसरे काम को सहारा दिया है। उपजाऊपन ने जल रोकने की क्षमता और जल सोखने की क्षमता बढ़ाई है।

गिरजाघर के आसपास पड़ोसी प्रवीण परेरा, अंथोनी, डिसिल्वा, सरकिन आंद्रे, कैथरीन अल्मेडा आदि के कुंए तथा एक पंचायती कुएं का पानी अब कभी नहीं सूखता। परेरा का उदाहरण तो बिलकुल सामने है। परेरा ने कोई तीस साल पहले यहां जमीन खरीदी थी। तब से उनका कुंआ हर साल दो महीने के लिए सूख जाता था। परेरा का कुंआ चर्च के ठीक सामने सड़क के दूसरी तरफ है। फादर बेंजामिन ने क्या कर डाला कि इनके कुंए का पानी ऊपर आ गया है। पहले परेरा पानी के लिए न जाने कहां-कहां भटकते थे। अब पिछले दो सालों से परेरा को पानी के लिए अपने खेत से कभी कदम बाहर नहीं रखना पड़ा है।

फादर बेंजामिन ने जब जल संरक्षण का यह काम शुरू किया था तो शुरू में बहुत सारे लोगों ने इसे ठीक नहीं माना था। लोगों ने उनका साथ नहीं दिया था। उन्हें लगता था कि केरल के इस भाग में खूब पानी गिरता है, यहां सामान्य तौर पर लोगों की एक ही टिप्पणी होती थीः जल संरक्षण की क्या जरूरत है? यों भी चर्च में हर रविवार सुबह प्रार्थना के लिए आने वाले श्रद्धालु परिसर में जहां-तहां जमा हो जाने वाले पानी से असुविधा होने की शिकायत करते रहते थे। यहीं पर विद्यालय भी है और उसमें पढ़ने आने वाले बच्चों के माता-पिता को यह डर भी लग रहा था कि पानी रोकने के लिए बने गड्ढे बच्चों के लिए खतरा न बन जाएं। काम के नतीजों ने उन सबकी राय बदल दी।

अब फादर बेंजामिन ने यहां लगभग 100 किस्म के औषधीय पौधे भी लगा दिए हैं। वे परिसर में एक छोटा-सा जंगल भी खड़ा करना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि यहां तरह-तरह के पक्षी और सांप आदि मुक्त रूप से रहें। हरियाली के प्रति उनका लगाव चर्च के कब्रिस्तान में भी खूब अच्छे से दिखाई देता है। बड़े वृक्षों को लगाने से यहां कई तरह की समस्याएं आ सकती थीं। इसलिए उन्होंने यहां पौधों की एक नर्सरी तैयार कर दी है। इस नर्सरी में आज प्रसिद्ध औषधीय पौधे नोनी की लगभग 100 प्रजातियां उपलब्ध हैं। नोनी को देखने, लेने आज लोग कब्रिस्तान में भी चले आते हैं।

गिरजाघर में किए गए इस प्रयोग की सफलता के बाद फादर बेंजामिन अब पानी का यह काम आस-पड़ोस में फैलाने में जुट रहे हैं। उनकी प्रेरणा से पास की नदी किनारे के खारे क्षेत्रों में रहने वाले कुछ परिवारों ने छत के पानी को रोकना शुरू किया है।

तल्लूर के गिरजाघर ने पहले खुद से प्यार किया। अब वह अपने पास और दूर के पड़ोसियों से भी प्यार कर रहा है।

श्री श्रीपद्रे केरल-कर्नाटक की सीमा पर बसे कासरगोड़ जिले में कई तरह के सामाजिक काम करते हैं और इन पर अंग्रेजी, मलयालम और कन्नड़ भाषा में खूब प्यार से लिखते हैं।