उत्तर भारत के राजस्थान और गुजरात में टांका बहुत प्रचलित और प्राचीन नाम है। टांका भूजल संरक्षण का एक साधन है। लेकिन दक्षिण के किसी राज्य में टांका दिख जाये तो क्या आश्चर्य नहीं होगा? टांका अगर उस राज्य में दिखे जहाँ औसत 4000 मिलीलीटर सालाना वर्षा होती है तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। जब यह किसी पुराने गिरजाघर में दिख जाये तो उसके बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ जाना लाजमी है। यह समझने की जरूरत बढ़ जाती है कि आखिर किसने और क्यों यहाँ टांका बनाया होगा?
संत फिदलिस मठ, एक फ्रेंच चर्च मठ है जिसकी स्थापना 1526 में हुई थी। हालांकि अब ये मठ और इसमें बना चर्च उपयोग में नहीं है फिर भी हम जिस टांका की चर्चा कर रहे हैं वो इसी ईसाई मठ में है। इसे इस ईसाई मठ में बनाना इसलिये भी आश्चर्यजनक लगता है क्योंकि चर्च के बगल में ही नेत्रावती नदी बहती है। चर्च और मठ को यहाँ से अबाध जल मिल सकता था फिर उन्होंने उस तकनीक पर जल संरक्षण की योजना क्यों बनाई जो बहुत कम वर्षा वाले क्षेत्रों में बनाई जाती है?
एक लाइन में जवाब चाहिए तो जवाब है खारा पानी। गर्मियों के मौसम में अक्सर ऐसा होता है कि समुद्र का पानी नदी के पानी को भी खारा कर देता है। सम्भवत: इसी कारण से उस समय टांका पद्धति को अपनाने की जरूरत महसूस की गई जब चर्च को पानी का कोई संकट नहीं था। हालांकि फादर ओथो कुछ और ही कारण बताते हैं। फादर ओथो का कहना है कि उस वक्त कुआँ मठ से बहुत नीचे था। जाहिर है, वहाँ से पानी खींचकर लाने में दिक्कत होती थी। सम्भवत: इसीलिये उन्होंने मीठे पानी के लिये टांका को चुना होगा।
लेकिन फादर भी खारे पानी की समस्या से इनकार नहीं करते हैं। वो जिस कुएँ का जिक्र करते हैं उसमें जमा होने वाला पानी इस्तेमाल के लायक नहीं बचा है। मानसून के दिनों में भी उसका पानी काला ही रहता है। कुएँ के पानी की खराबी के लिये यहाँ नदी जल से होने वाली सिंचाई जिम्मेदार है। फादर कार्नालियस जो कि कभी इस चर्च के प्रमुख रहे हैं वो कहते हैं कि हम लोग गर्मियों के दिनों में नारियल के बागानों की सिंचाई के लिये नदी का पानी इस्तेमाल करते थे। उस वक्त गर्मियों में नदी का पानी खारा हो जाता था। यही पानी कुएँ में भी पहुँचता था और धीरे-धीरे कुएँ का पानी इस्तेमाल के लायक नहीं रहा।
बहरहाल, चर्च में टांका का प्रवेश 1930 में हुआ जब चर्च की मरम्मत की जा रही थी। एक यूरोपीय पुजारी फादर सिम्फोरियन ने इसे डिजाइन किया था। जब चर्च का पुनर्निर्माण शुरू हुआ तो बरामदे में जो तहखाना था उसे ही टांका में परिवर्तित कर दिया गया। यह टांका 20 फुट लम्बा, नौ फुट चौड़ा और 12 फुट ऊँचा था। इस टांके में करीब 60,000 लीटर पानी इकट्ठा किया जा सकता है। दीवारों पर लगी लोहे की नालियों के जरिए छत का पानी इस टांका तक पहुँचाया जाता है। क्योंकि उस समय यहाँ बिजली की सुविधा उपलब्ध नहीं थी इसीलिये शौचालय और स्नानघर ऐसी जगह बनाए गए कि पानी को पम्प करने की जरूरत ही न पड़े। सत्तर अस्सी सालों बाद इतना बदलाव जरूर हुआ है कि अब पुरानी लोहे की पाइपों को पीवीसी पाइप से बदल दिया गया है लेकिन टांका अभी भी सही सलामत है और काम करता है।
टांका में जो पानी इकट्ठा होता है उसका इस्तेमाल कैसे और किस रूप में किया जाता था इसकी बहुत जानकारी आज उपलब्ध नहीं है। फादर कार्नालिस कहते हैं कि इसका उपयोग पीने के अलावा बाकी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिये किया जाता था। इसकी एक वजह ये भी थी कि छत के पानी को टांका में पहुँचाने से पहले उसके फिल्टर करने की कोई व्यवस्था नहीं थी। डाक्टर कार्नालिस अपने बीते दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि मैं यहाँ छात्र रहा हूँ। जिन दिनों मैं यहाँ पढ़ता था हमें नहाने के लिये सिर्फ एक बाल्टी पानी दिया जाता था। हम बाल्टियों में पानी भरकर ले जाते थे। हालांकि अब मोटर लग गई है और बाल्टियों में पानी भरकर ले जाने की जरूरत नहीं है।
लेकिन नेत्रावती के खारे पानी की समस्या सुधरने की बजाय बिगड़ती ही जा रही है। दशकों पहले नदी का पानी मार्च के बाद ही समुद्र का पानी नदी की तरफ आ जाता था और नदी का पानी खारा हो जाता था। लेकिन जब से थुम्बे बाँध बना है नदी का पानी कभी-कभी जनवरी से पहले भी खारा हो जाता है।
चर्च में पीने और खाना बनाने के लिये पानी आसपास के दूसरे स्रोतों से लाया जाता है लेकिन वह भी बहुत विश्वसनीय नहीं है। इस बात की पूरी सम्भावना है कि भविष्य में पानी की समस्या और विकराल होगी। इस समस्या से निपटने के लिये चर्च ने एक और 25 हजार लीटर का अतिरिक्त टैंक बना लिया है। चर्च के पदाधिकारियों का कहना है कि जिस दिन हमें लगेगा कि अब पानी का कोई और स्रोत हमारे पास नहीं बचा हम वर्षाजल को इस टैंक की तरफ मोड़ देंगे।
इन प्रयासों से उनके लिये सबसे बड़ा सबक यही है कि वर्षाजल की एक बूँद भी बर्बाद मत होने दो। अगर उस पानी को पीने के लिये नहीं सहेज सकते तो बाकी दूसरे कामों के लिये इस जल को संरक्षित करो। यह प्रयोग दूसरे लोग भी कर सकते हैं। वर्षाजल का इस्तेमाल भूजल और बिजली दोनों की बचत करेगा।
मलनाड इलाके में टांका के जरिए वर्षाजल संरक्षण का यह सम्भवत: इकलौता उदाहरण है लेकिन इसे पूरे तटीय कर्नाटक में इस्तेमाल किया जा सकता है। मलनाड इलाके में पीने के पानी का जबरदस्त संकट रहता है। हर साल जिला प्रशासन पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिये अच्छी खासी धनराशि खर्च करता है। बड़े औद्योगिक घराने, व्यावसायिक संस्थान चाहें तो बहुत कम खर्चे में अपने लिये मीठे पानी का इन्तजाम कर सकते हैं।
अगर कोई 60 हजार लीटर का टांका बनाता है तो साल में 4 लाख से 6 लाख लीटर पानी इकट्ठा कर सकता है। भले ही वर्षा बहुत होती हो लेकिन पानी का संरक्षण न किया जाये तो वर्षाजल बहकर दूर समंदर में समा जाता है। इसके लिये जनता में भी जागरण पैदा करना चाहिए ताकि वो अपना पानी संरक्षित कर सके।
अच्छी बात ये है कि जिला प्रशासन को भी अब ये बात महसूस हो रही है कि भले ही यह वर्षा क्षेत्र हो लेकिन पानी का संकट दूर करना है तो वर्षाजल को संरक्षित करने के अलावा और कोई उपाय नहीं है। अब गाँवों और विद्यालयों में सरकारी योजनाओं के तहत वर्षाजल संरक्षण की योजनाएँ लागू की जा रही हैं। आज के प्रयास निश्चित रूप से स्वागत योग्य हैं लेकिन दशकों पहले चर्च के उपाय की उपयोगिता को कम करके नहीं आँका जा सकता।
TAGS |
water tank, tanka, new experiment in church, manglore, karnataka, water crisis, thumbe dam, salted water, netrawati river, rainwater harvesting, groundwater recharge |