गंगा-छवि

Submitted by Hindi on Thu, 07/04/2013 - 15:29
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भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा रचित पुस्तक 'भारतेंदु समग्र'
नव उज्जल जलधार हार हीरक सी सोहति।
बिच बिच छहरति बूंद मध्य मुक्ता मनि पोहति।
लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत।
जिमि नर-गन मन विविध मनोरथ करत मिटावत।
सुभग स्वर्ग सोपान सरिस सब के मन भावत।
दरसन मज्जन पान त्रिविध भय दूर मिटावत।
श्रीहरि-पद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस।
ब्रह्म कमंडल मंडन भव खंडन सुर सरबस।
शिव-सिर-मालति-माल भगीरथ नृपति-पुण्य-फल।
ऐरावत-गज-गिरिपति-हिम-नग-कंठहार कल।
सगर-सुवन सठ सहस परस जलमात्र उधारन।
अगनित धारा रूप धारि सागर संचारन।
कासी कहँ प्रिय जानि ललकि भेंट्यो जग धाई।
सपने हूँ नहीं तजी रही अंकम लपटाई।
कहुँ बँधे नव घाट उच्च गिरिवर सम सोहत।
कहुँ छतरी कहुँ मढ़ी बढ़ी मन मोहन जोहत।
धवल धाम चहुँ ओर फरहरत ध्वजा पताका।
घहरत घंटा धुनि धमकत धौंसा करि साका।
मधुरी नौबत बजत कहूं नारी नर गावत।
वेद पढ़त कहु द्विज कहुँ जोगी ध्यान लगावत।
कहुँ सुंदरी नहात नीर कर जुगल उछारत।
जुग अंबुज मिलि मुक्त गुच्छ मनु सुच्छ निकारत।
धोवत सुंदरि बदन करन आछी छवि पावत।
वारिधि नाते ससि-कलिंक मनु कमल मिटावत।
सुंदरि ससि मुख नीर मध्य इमि सुंदर सोहत।
कमल वेलि लहलही नवल कुसुमन मन मोहत।
दीठि जहीं जहँ जात रहत तितहीं ठहराई।
गंगा-छवि ‘हरिचन्द’ कछू बरनी नहीं जाई।।