गंगापुत्र निगमानंद बलिदान

Submitted by admin on Mon, 06/13/2011 - 19:04

संत निगमानंद: नैनीताल उच्च न्यायालय की भ्रष्टाचार के खिलाफ 68 दिन से अनशन पर बैठे संत निगमानंद अब कोमा में पहुंचेसंत निगमानंद अनंत में विलीन हरिद्वार की गंगा में खनन रोकने के लिए कई बार के लंबे अनशनों और जहर दिए जाने की वजह से मातृसदन के संत निगमानंद अब नहीं रहे। हरिद्वार की पवित्र धरती का गंगापुत्र अनंत यात्रा पर निकल चुका है। वैसे तो भारतीय अध्यात्म परंपरा में संत और अनंत को एक समान ही माना जाता है। सच्चे अर्थों में गंगापुत्र वे थे।

गंगा रक्षा मंच, गंगा सेवा मिशन, गंगा बचाओ आंदोलन आदि-आदि नामों से आए दिन अपने वैभव का प्रदर्शन करने वाले मठों-महंतों को देखते रहे हैं पर गंगा के लिए निगमानंद का बलिदान इतिहास में एक अलग अध्याय लिख चुका है।

गंगा के लिए संत निगमानंद ने 2008 में 73 दिन का आमरण अनशन किया था। उसी समय से उनके शरीर के कई अंग कमजोर हो गए थे और न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर के भी लक्षण देखे गए थे। और अब 19 फरवरी 2011 से शुरू संत निगमानंद का आमरण अनशन 68वें दिन (27 अप्रैल 2011) को पुलिस गिरफ्तारी के साथ खत्म हुआ था, उत्तराखंड प्रशासन ने उनके जान-माल की रक्षा के लिए यह गिरफ्तारी की थी। संत निगमानंद को गिरफ्तार करके जिला चिकित्सालय हरिद्वार में भर्ती किया गया। हालांकि 68 दिन के लंबे अनशन की वजह से उन्हें आंखों से दिखाई और सुनाई पड़ना कम हो गया फिर भी वे जागृत और सचेत थे और चिकित्सा सुविधाओं की वजह से स्वास्थ्य धीरे-धीरे ठीक हो रहा था।

लेकिन अचानक 2 मई 2011 को उनकी चेतना पूरी तरह से जाती रही और वे कोमा की स्थिति में चले गए। जिला चिकित्सालय के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक पीके भटनागर संत निगमानंद के कोमा अवस्था को गहरी नींद बताते रहे। बहुत जद्दोजहद और वरिष्ठ चिकित्सकों के कहने पर देहरादून स्थित दून अस्पताल में उन्हें भेजा गया। अब उनका इलाज जौली ग्रांट स्थित हिमालयन इंस्टिट्यूट हॉस्पिटल में चल रहा था।

हिमालयन इंस्टिट्यूट हॉस्पिटल के चिकित्सकों को संत निगमानंद के बीमारी में कई असामान्य लक्षण नजर आए और उन्होंने नई दिल्ली स्थित ‘डॉ लाल पैथलैब’ से जांच कराई। चार मई को जारी रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि ऑर्गोनोफास्फेट कीटनाशक उनके शरीर में उपस्थित है। इससे ऐसा लगता है कि संत निगमानंद को चिकित्सा के दौरान जहर देकर मारने की कोशिश की गई थी।

जहर देकर मारने की इस घिनौनी कोशिश के बाद उनका कोमा टूटा ही नहीं। और 42 दिनों के लंबे जद्दोजहद के बाद वे अनंत यात्रा के राही हो गये।

पर संत निगमानंद का बलिदान बेकार नहीं गया। मातृसदन ने अंततः लड़ाई जीती। हरिद्वार की गंगा में अवैध खनन के खिलाफ पिछले 12 सालों से चल रहा संघर्ष अपने मुकाम पर पहुँचा। 26 मई को नैनीताल उच्च न्यायालय के फैसले में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि क्रशर को वर्तमान स्थान पर बंद कर देने के सरकारी आदेश को बहाल किया जाता है।

मातृसदन के संतों ने पिछले 12 सालों में 11 बार हरिद्वार में खनन की प्रक्रिया बंद करने के लिए आमरण अनशन किए। अलग-अलग समय पर अलग-अलग संतों ने आमरण अनशन में भागीदारी की। यह अनशन कई बार तो 70 से भी ज्यादा दिन तक किया गया। इन लंबे अनशनों की वजह से कई संतों के स्वास्थ्य पर स्थाई प्रभाव पड़ा।

मातृसदन ने जब 1997 में स्टोन क्रेशरों के खिलाफ लड़ाई का बिगुल फूंका था। तब हरिद्वार के चारों तरफ स्टोन क्रेशरों की भरमार थी। दिन रात गंगा की छाती को खोदकर निकाले गए पत्थरों को चूरा बनाने का व्यापार काफी लाभकारी था। स्टोन क्रेशर के मालिकों के कमरे नोटों की गडिडयों से भर हुए थे और सारा आकाश पत्थरों की धूल (सिलिका) से भरा होता था। लालच के साथ स्टोन क्रेशरों की भूख भी बढ़ने लगी तो गंगा में जेसीबी मशीन भी उतर गयीं। बीस-बीस फुट गहरे गड्ढे खोद दिए। जब आश्रम को संतों ने स्टोन क्रेशर मालिकों से बात करने की कोशिश की तो वे संतों को डराने और आतंकित करने पर ऊतारू हो गये। तभी संतों ने तय किया कि गंगा के लिए कुछ करना है। और तब से उनकी लड़ाई खनन माफियाओं के खिलाफ चल रही थी।