गरीबी, मनरेगा और खाद्य सुरक्षा

Submitted by Hindi on Tue, 08/07/2012 - 10:04
Source
राष्ट्रीय सहारा ईपेपर (हस्तक्षेप), 19 जून 2012

मनरेगा के फंड का उपयोग महज 51 फीसद हो पाता है। जिन प्रदेशों में फंड का उपयोग सबसे कम होता है, वे हैं-बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तर प्रदेश और प. बंगाल। यह भी देखा गया कि यदि मजदूरी अधिक है या परिवार बड़ा है तो बीपीएल परिवार की महिला सदस्य को काम पर लेने की संभावना घटती दिखाई देती है। आज जिन लोगों को रोजगार नहीं मिल पाता वे बाहर पलायन कर जाते हैं और कम वेतन पर काम करते हैं। विकलांग लोग गांव छोड़कर नहीं जा सकते तो उन्हें भूखे मरने के लिए बाध्य होना पड़ता है।

दुनिया में अपनी छवि सुधारने के लिए आतुर सरकार का इतना बताना काफी नहीं है कि देश की औसत जीडीपी 7.37 बनी हुई है और वह ‘ब्रिक्स’ देशों में शामिल है। उसे यह साबित करना होगा कि वह मुद्रास्फीति को घटा सकेगी, जो आज 7.23 तक पहुंच गई है और यह कि वह गरीबी दूर करने के लिए ठोस रणनीति तैयार कर सकती है। आंकड़े जो बोल रहे हैं, उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार को गरीबी रेखा के साथ बार-बार छेड़छाड़ करनी पड़ रही है ताकि गरीबों की संख्या को कम करके दिखाया जा सके। 2004-05 में यदि गरीबों की संख्या 40.72 करोड़ बताई जा रही थी तो अब उसे 34.47 दिखाकर सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है, जबकि यह कोई उल्लेखनीय कमी नहीं है। मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स को इस रफ्तार से हासिल करने में और 32 वर्ष लग जाएंगे। यदि भ्रामक सरकारी आंकड़ों को लेकर चला जाए तो भी हम देखते हैं कि पूर्वोत्तर राज्यों असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम और नगालैंड में गरीबी का ग्राफ चढ़ता नजर आता है।

बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में गरीबी के घटने की दर भी बहुत कम है, खासकर ग्रामीण इलाकों में। यह भी देखा गया कि यद्यपि सरकार मुस्लिमों को आज आरक्षण देने की बात कर रही है, उनके बीच गरीबी सबसे अधिक है- 33.9 फीसद। ऐसी ही दयनीय स्थिति अनुसूचित जाति-34.1 फीसद, अनुसूचित जनजाति-30.4 फीसद और अन्य पिछड़ी जातियां-24.3 फीसद बनी हुई है। यदि हम वर्ग के हिसाब से देखें तो खेतिहर मजदूरों में गरीबी के आंकड़े भयावह है-लगभग 50 फीसद और अन्य मजदूरों में भी यह करीब 40 फीसद है। हरित क्रांति के अगुवा प्रदेश भी गरीबी से जूझ रहे हैं-हरियाणा और पंजाब के आंकड़े राष्ट्रीय औसत से अधिक हैं। बिहार के शहरी क्षेत्र में अनौपचारिक श्रमिकों के बीच गरीबी का फीसद भी 86 के करीब है और असम में 89 फीसद के। कृषि मजदूरों और सीमांत किसान समस्त गरीबों का 61 फीसद हिस्सा हैं। ये लगातार खिसकते जा रहे हैं।

गरीबी : गहरे संरचनात्मक कारणों की पैदावार


योजना आयोग, एनएसी और सरकार के पक्ष में काम कर रहे तमाम अर्थशास्त्री सांख्यिकी के फामरूलों का इस्तेमाल करके गरीबी घटाने में लगे हुए हैं पर जमीनी सच्चाई बहुत भारी पड़ रही है। इसलिए कई गरीबी वाले क्षेत्रों में, खासकर झारखंड, उड़ीसा और बिहार में भुखमरी की जांच में अफसर झूठे तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं, मसलन कि मौत बीमारी के कारण या बच्चा जनने की प्रक्रिया में हुई। किसान आत्महत्याओं के मामले को मौसम की वजह से फसल की बर्बादी से जोड़कर देखा जाता है। स्वास्थ संबंधी दिक्कतों को डिलिवरी सिस्टम की कमी और जनता की अज्ञानता का परिणाम बताया जाता है परंतु हम जानते हैं कि गरीबी के गहरे संरचनात्मक कारण हैं, जो आपस में एक जटिल गुत्थी की तरह उलझे हुए हैं। हमारे शासक इसे और उलझाने के लिए अंतरराष्ट्रीय कारकों, जैसे आतंकवाद के चलते रक्षा बजट बढ़ना या फिर नक्सल हिंसा के चलते योजनाओं का गरीब जिलों में लागू न हो पाना और अंतरराष्ट्रीय बाजार में दामों का बढ़ना, जलवायु परिवर्तन आदि को बाधकों के रूप में लगातार खड़ा किया जाता रहेगा। तो भारत की जनता क्या गरीबी को अपनी नियति मान ले? या फिर सरकार युद्ध स्तर पर गरीबी से निपटने के लिए अपनी प्राथमिकताएं तय कर एक सटीक व यथार्थवादी नीति निर्मित करने की दिशा में बढ़ेगी?

दीनता के कई कारक


गरीबी के कई संरचनात्मक कारक हैं जिनके समाधान के लिए शासन चलाने वालों में दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति व नैतिक जवाबदेही के अहसास की जरूरत है। मसलन, गड़बड़ कृषि नीति के चलते कृषि का संकट है। आम लोगों के स्वास्थ्य की बिगड़ती स्थिति जिसका मुख्य कारण कुपोषण और बदतर जीवन स्थिति है; और तिस पर बढ़ता जेब से इलाज का खर्च, शिक्षा का अभाव या कमजोर तबकों के पहुंच से बाहर होना जिसका कारण है, शिक्षा का निजीकरण व व्यवसायीकरण; महिलाओं की बिगड़ती स्थिति जिसका कारण शिक्षा में छात्राओं का उच्च ड्रॉप आउट रेट, प्रकृतिक आपदा, जिसका मुकाबला करने के लिए कोई ठोस नीति नहीं है, दहेज, सरकारी योजनाओं में व्यापक भ्रष्टाचार, जिसे रोकने की जगह उसे भ्रष्टाचार की एक समानांतर अर्थव्यवस्था में योगदान के स्तर तक पहुंचा दिया गया है; आर्थिक मंदी के चलते बढ़ती बेरोजगारी, भूमिहीनता और भूमि सुधार की जगह खेती की भूमि व रिहायशी जमीन का अधिग्रहण, अवैध खनन व संसाधनों की लूट आदि। एक बड़ा कारक है पिछड़े वर्ग व समुदायों, महिलाओं तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों की राजनीतिक दावेदारी का कमजोर होना।

अपराध बढ़ाएगी निर्धनता


तब यदि अर्जुन सेनगुप्ता की रिपोर्ट कहती है कि देश के 83 करोड़ लोग मात्र 20 रु. प्रतिदिन पर जिंदा रह रहे हैं, तो क्या वे चिरकालिक गरीबी के फंदे में नहीं फंस जाएंगे? आज जब विषमताएं बढ़ती जा रही हैं तो गरीबी को दूर करना सरकार व शासक वर्ग के लिए चिंता का विषय बन गया है क्योंकि इनके परिणाम भयंकर हो सकते हैं। ‘इंडिया शाइनिंग’ में अपराध बढ़ेगा और अराजकता में इजाफा होगा तो तरक्की करने वालों को भी दलदल में खींच ले जाएगा। इसलिए एक बड़ा कदम उठाने की बात काफी आंदोलन के बाद आई है-खाद्य सुरक्षा को कानूनी हक के रूप में देने की सोचना पर जब खाद्य सुरक्षा अधिनियम को तैयार किया गया तो राशन व्यवस्था में बड़े पैमाने पर घोटाले, राशन की कालाबाजारी, लाखों टन अनाज का गोदामों में सड़ना, राशन दुकानों में महीनों अनाज न पहुंचना या सड़ा अनाज मिलना, लीकेज होना, संपन्न लोगों को लाल राशनकार्ड दिया जाना आम परिघटना बन गई है।

यह मानना मुश्किल लगता है कि चीन के बाद भारत का सबसे बड़ा खाद्यान्न भंडार है-7 करोड़ 10 लाख टन चावल व गेहूं, पर यहां वियतनाम और चीन से दोगुना कुपोषण है। हमारे लिए यह शर्म का विषय है कि हम इतना अधिक उत्पादन करते हुए भी गरीबों के घरों तक उसे पहुंचाने में पूरी तरह असमर्थ हैं, क्योंकि राज्यों द्वारा उठाए गए खाद्यान्न का मात्र 41.4 फीसद लोगों तक पहुंचता है और इस बात को स्वयं प्रधानमंत्री को स्वीकारना पड़ा है कि यह ‘राष्ट्रीय शर्म’ का मामला है कि हमारे देश में 42 फीसद बच्चे कम वजन वाले हैं और 59 फीसद बौने हैं। वाशिंगटन के अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान ने पाया है कि 750 अरब रुपये सार्वजनिक वितरण प्रणाली के नाम पर प्रति वर्ष खर्च किया जा रहा है परंतु देश के 1.2 अरब लोग कुपोषित रह जाते हैं जबकि अन्न उत्पादन में 50 फीसद वृद्धि हुई है।

गरीबी मिटाने का पैकेज क्यों नहीं?


जब सरकार और उसके विशेषज्ञ कहते हैं कि लगभग 80 फीसद जनता को खाद्य सब्सिडी की जरूरत के मायने होंगे भारी राजकोषीय घाटा तो यह समझना होगा कि सरकार की प्राथमिकता क्या है? कॉरपोरेट जगत को लाखों करोड़ के अनुदान या बेल आउट पैकेज मिल सकते हैं और लाखों-करोड़ का एक-एक घोटाला भी हो सकता है पर अपने देश की गरीब जनता को एक स्वस्थ व विशाल श्रमशक्ति के रूप में विकसित कर उसे देश की अर्थव्यवस्था के केंद्र में नहीं लाया जा सकता तो क्या अलंकारिक योजनाओं से देश का विकास होगा? इससे भी बड़ी समस्या है कि हमारे खाद्य सुरक्षा कानून में कुपोषण को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया है। केवल भूख मिटाने की बात करते हुए सरकार भूल जाती है कि कुपोषित लोग ही बीमारी के शिकार बनते हैं। उनकी कार्यकुशलता और ऊर्जा घट जाती है और वे चिरकालिक गरीबी के फंदे में फंस जाते हैं, तो कागज पर गरीबों की संख्या घटाकर, खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने का खर्च बचाकर देश की विकास दर को बरकरार रखने की बात करना दरअसल मानवता के प्रति अपराध है।

मनरेगा की हकीकत


दूसरी और डंका पीटा जा रहा है मनरेगा का। इसे भी गरीबी उन्मूलन का एक बड़ा हथियार बताया जा रहा है पर शुरुआती सफलता या चंद जिलों में सफलता के मायने नहीं है कि इस योजना के तहत गरीबी दूर हो जाएगी। मसलन तथ्य है कि मजदूरों को अब तक 22.44 करोड़ व्यक्ति दिवस कार्य मिला। यदि हम मान लें कि ग्रामीण क्षेत्रों में 22 करोड़ गरीब जनता काम करने योग्य है तो प्रत्येक बीपीएल व्यक्ति को एक दिन की मजदूरी मिलेगी। जितने परिवारों को रोजगार दिया गया, उसमें से केवल आठ फीसद को पूरे 100 दिन काम मिला। इससे स्पष्ट हो जाता है कि न्यूनतम मजदूरी देना तो दूर रहा, वर्ष में 100 दिन काम भी नहीं मिलता है। छत्तीसगढ़, बिहार, उ.प्र. और झारखण्ड में यह काफी हद तक दिखाई पड़ा और ज्यां द्रेज व रीतिका खेड़ा ने इस पर प्रकाश डाला है। फिर जॉबकार्डधारियों के मात्र 40-45 प्रतिशत को काम मिलता है और यह लगातार घट रहा है। मनरेगा के फंड का उपयोग भी महज 51 फीसद हो पाता है। जिन प्रदेशों में फंड का उपयोग सबसे कम होता है, वे हैं-बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तर प्रदेश और प. बंगाल। यह भी देखा गया कि यदि मजदूरी अधिक है या परिवार बड़ा है तो बीपीएल परिवार की महिला सदस्य को काम पर लेने की संभावना घटती दिखाई देती है।

आज जिन लोगों को रोजगार नहीं मिल पाता वे बाहर पलायन कर जाते हैं और कम वेतन पर काम करते हैं क्योंकि बेरोजगारी भत्ता तक सही ढंग से नहीं मिल पाता है। विकलांग लोग गांव छोड़कर नहीं जा सकते तो उन्हें भूखे मरने के लिए बाध्य होना पड़ता है। मनरेगा को लागू करने के मामले में व्यापक धांधली भी देखी गई। कभी जॉब कार्ड नहीं दिये गए, तो कभी मस्टर रोल में गड़बड़ी की गई। जहां तक कृषि परिसंपत्ति निर्माण की बात है, जिससे गरीबी का मुकाबला किया जा सकता है तो यह भी कम जिलों में हुआ है। कहा जा रहा है कि मनरेगा कृषि संकट और मुद्रास्फीति के लिए जिम्मेदार है। अब हम यदि देखें कि देश को कितने राजस्व का घाटा 2011-12 में गलत सरकारी नीतियों के चलते हुआ है तो निर्यात प्रमोशन के लिए छूट 52440.21 करोड़ रुपये थी, कॉरपोरेट टैक्स में छूट 51292 करोड़, व्यक्तिगत टैक्स में छूट 42,320 करोड़, एक्साइज ड्यूटी में छूट 212167 करोड़ और कस्टम ड्यूटी में छूट 223653 करोड़ यानी कुल मिलाकर 581,872.21 करोड़ रु. का राजस्व घाटा। क्या इस फंड से देश की गरीबी नहीं दूर की जा सकती थी?