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समय लाइव, 30 जनवरी 2012
श्रम व रोजगार मंत्रालय ने भी अपना मत प्रस्तुत किया था कि मनरेगा का सेक्शन- 6(1) न्यायसंगत नहीं है। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस सेक्शन पर 2009 में ही सवाल उठा दिया था। ऐसे में सवाल यह है कि यदि कॉमनवेल्थ गेम्स पर 30,000 करोड़ रुपए का खर्च जायज है तो मनरेगा में न्यूनतम वेतन देने के लिए 1000 करोड़ या उससे कुछ अधिक क्यों नहीं? क्या सरकार यह नहीं समझती कि ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर को मनरेगा के जरिए मजबूत किया जाएगा तो कृषि उत्पादन बढ़ेगा और देश की तरक्की होगी। साथ-साथ ग्रामीण गरीबों, खासकर महिलाओं का जीवन-स्तर सुधरेगा।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा) योजना को बेहतर बनाने के बजाय उस पर लागातार युद्ध क्यों जारी है? क्यों सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि केंद्र को राज्यों में लागू न्यूनतम वेतन के मद्देनजर मनरेगा के तहत दी जा रही मजदूरी को संशोधित करना चाहिए। 24 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने मानो सरकार की धज्जियां उड़ा दी, जब जस्टिस सिरियाक जोसेफ और ज्ञान सुधा मिश्र ने केंद्र द्वारा कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ विशेष अवकाश याचिका (स्पेशल लीव पेटिशन) पर आदेश दिया कि केंद्र सरकार को राज्य सरकारों द्वारा तय किए गए न्यूनतम वेतन को ध्यान में रखते हुए मनरेगा की मजदूरी तय करनी होगी। खंडपीठ ने सरकारी प्रतिनिधि को फटकार लगाते हुए कहा कि मनरेगा एक जन कल्याणकारी योजना है तो इसमें न्यूनतम वेतन कैसे नहीं दिया जाएगा? सरकार को इस आदेश ने मुश्किल में डाल दिया है क्योंकि सबसे ज्यादा विरोध, आश्चर्यजनक ढंग से मोंटेक सिंह आहलूवालिया के सुझाव पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के यहां से आ रहा है। यहां तक कि ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश के विरोध के बावजूद प्रधानमंत्री ने सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अवकाश याचिका दायर करवा दी थी, जिस पर आदेश प्रधानमंत्री के मनमाफिक नहीं है।ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री ने इसे प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया। हैरानी वाली बात दरअसल यह है कि मनरेगा यूपीए की फ्लैगशिप योजना है, जिसे स्वयं सोनियां गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने पहलकदमी लेकर तैयार किया। यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस की अध्यक्ष खुद इसकी आर्किटेक्ट हैं। फिर क्या कारण है कि राजनेता और भूतपूर्व नौकरशाह के बीच टकराहट दिख रही है? शायद मनमोहन सिंह मनरेगा का आर्थिक बोझ उठाने से भयभीत हैं जबकि सोनिया गांधी वोटों की गिनती को लेकर ज्यादा चिंतित प्रतीत हो रही हैं। न्यूनतम वेतन कानून 1948 में लागू किया गया। क्योंकि अलग-अलग राज्यों में स्थितियां भिन्न हैं, न्यूनतम मजदूरी को तय करने का काम राज्यों पर छोड़ दिया गया। यह विभिन्न राज्यों में अलग-अलग है और 118 रुपए से लेकर 181 रुपए तक हो सकता है।
राष्टीय स्तर पर ‘फ्लोर लेवल मिनिमम वेज’ 2011 से 115 रुपए है। किसी राज्य में इससे कम न्यूनतम मजदूरी नहीं तय हो सकती। पर यह चौंकाने वाली बात है कि 19 राज्यों में मनरेगा के तहत दी जा रही मजदूरी इससे कम थी। आज उसे 100 रुपए पर स्थायी कर दिया गया है। मुल्य सूचकांक के अनुसार इसमें परिवर्तन होगा पर क्या इतना काफी है? हमारे समक्ष यह प्रश्न है कि आखिर एक अकुशल श्रमिक मनरेगा में कार्य करने के बजाय किसी पड़ोसी राज्य में क्यों न पलायन कर जाएगा, यदि उसे अपने जिले में कृषि संबंधित काम नहीं मिल रहा हो? दूसरा पहलू यह भी है कि मनरेगा में काम करने के बजाए वह अपने जिले में अन्य किस्म के काम में क्यों न लग जाए? तो मनरेगा के दोनों मकसद-एक, कि यह रोजगार की गारंटी करे और दूसरा, कि गांव में जो मनरेगा के जरिए ग्रामीण अधिसंरचनात्मक ढांचे को मजबूत कर परिसंपत्ति तैयार करने का उद्देश्य है, उसे पूरा किया जाए- दोनों पर पानी फिर जाता है।
23 सितम्बर, 2011 को कर्नाटक हाई कोर्ट का आदेश आया कि मनरेगा के अंतर्गत दी जा रही मजदूरी राज्य की न्यूनतम मजदूरी के बराबर हो और सरकार मजदूरों को पूरे एरियर्स या बकाया का भुग्तान करे। यदि हम पुराने आदेशों को उठाकर देखें तो सुप्रीम कोर्ट का कामानी मेटल्स ऐंड ऐलॉयज केस में 1967 का आदेश न्यूनतम वेतन की स्पष्ट परिभाषा प्रस्तुत करता है। इसके मुताबिक न्यूनतम वेतन पगार की वह न्यूनतम सीमा है जिसके नीचे वेतन को मानवता के आधार पर जाने नहीं दिया जा सकता, इसलिए न्यूनतम वेतन से कम पगार किसी हालत में नहीं दी जा सकती। इसके बाद ‘फेयर वेज’ है, जिसमें भोजन, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा के खर्च को जोड़ा जाता है। ‘लिविंग वेज’ को भी परिभाषित किया गया है, जिसमें बुढ़ापे और बुरे वक्त को पार करने की क्षमता को आधार बनाया गया है। यदि सरकार श्रमिक की जरूरत के आधार पर वेतन नहीं दे पाती, उसे कम से कम न्यूनतम वेतन की गारंटी करनी होगी।
पीयूडीआर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के 1982 के एक केस और संजीत राय बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान के 1883 के एक केस में भी सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि न्यूनतम वेतन से किसी श्रमिक को मरहूम रखने के मायने हैं बेगार करवाना और यह संविधान के अनुच्छेद 23 के खिलाफ है। देश की एडिशनल सोलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह के वक्तव्य को यदि गंभीरता से लिया जाए तो उनका भी कहना है कि ‘न्यूनतम वेतन तय करते समय पैसे देने की क्षमता का कोई महत्व नहीं है- यह महत्वहीन है कि ऐसा रोजगार राहत कार्य है, मनरेगा के तहत काम है, कैजुअल लेबर है या फिर ठेका मजदूरी। धारा-6 की उपधारा एक में ‘नॉन ऑबस्टेंटे’ या तथापि क्लॉज केंद्र सरकार को अनुमति नहीं देता कि वह न्यूनतम वेतन कानून के तहत तय वेतन से कम वेतन तय कर सके। न्यूनतम वेतन से कम पगार देने का तात्पर्य होगा बेगार करवाना।’ प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने भी मांग की है कि मनरेगा कानून में सुधार किया जाए ताकि वह न्यूनतम वेतन कानून के विरुद्ध न जाए। देश के एटार्नी जनरल ने भी सवाल उठाया है कि क्या न्यूनतम वेतन से कम वेतन देना इस कानून में निहित सामाजिक व जनहित को तिलांजलि देने का काम नहीं करेगा।
श्रम व रोजगार मंत्रालय ने भी अपना मत प्रस्तुत किया था कि मनरेगा का सेक्शन- 6(1) न्यायसंगत नहीं है। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस सेक्शन पर 2009 में ही सवाल उठा दिया था। ऐसे में सवाल यह है कि यदि कॉमनवेल्थ गेम्स पर 30,000 करोड़ रुपए का खर्च जायज है तो मनरेगा में न्यूनतम वेतन देने के लिए 1000 करोड़ या उससे कुछ अधिक क्यों नहीं? क्या सरकार यह नहीं समझती कि ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर को मनरेगा के जरिए मजबूत किया जाएगा तो कृषि उत्पादन बढ़ेगा और देश की तरक्की होगी। साथ-साथ ग्रामीण गरीबों, खासकर महिलाओं का जीवन-स्तर सुधरेगा जिससे श्रमशक्ति बढ़ेगी और भारत एशिया में एक आर्थिक रूप से समृद्ध ताकत के रूप में उभरेगा। एक ऐसे समय में जब सरकार की महत्वाकांक्षी खाद्य सुरक्षा जैसी योजना अमल में आने से पहले ही आर्थिक दायित्वों के सवालों से घिर गई है। यह देखना खासा दिलचस्प होगा कि सरकार आगे मनरेगा की तरह की आधे-अधूरे कदम बढ़ाएगी या अपनी कल्याणकारी योजना से जुड़े संकल्पों पर भी पूरी तरह खरी उतरना चाहेगी। मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी का सवाल जितना देश में गरीबी और बेरोजगारी उन्मूलन की चुनौती से जुड़ा है, उतना ही सरकार की कल्याणकारी योजनाओं की नियति से भी।