रूस–यूक्रेन युद्ध ने पहले से ही ऊर्जा संक्रमण के दौर से गुजर रही दुनिया के सामने ऊर्जा संकट को और बढ़ा दिया है। युद्ध की वजह से शून्य कार्बन उत्सर्जन के वैश्विक लक्ष्य दांव पर हैं। ऐसे वक्त में नॉर्डिक देशों के साथ भारत की हरित ऊर्जा साझेदारियों में भविष्य की राह दिखती है। उत्तरी यूरोप के नॉर्डिक देश (स्वीडन‚ डेनमार्क‚ नॉर्वे‚ फिनलैंड और आइसलैंड) दुनिया की सबसे विकसित अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हैं। इन देशों की साझा इकोनॉमी 1.6 ट्रिलियन डॉलर को पार कर चुकी है‚ जबकि आबादी सिर्फ 2 करोड़ 70 लाख है। ये देश प्रति व्यक्ति आय के मोर्चे पर ही नहीं‚ खुशहाली के इंडेक्स पर भी शीर्ष पर हैं। समावेशी विकास (सस्टेनेबल डवलपमेंट) की इस इबारत के पीछे यहां की ऊर्जा आत्मनिर्भरता अहम कारक है। जनसांख्यिकी और भौगोलिक रूप से नॉर्डिक देशों की भारत से तुलना भले ही उचित न हो लेकिन ऊर्जा आत्मनिर्भरता के स्वप्न को साकार करने में हमें इन छोटे देशों के साथ दीर्घकालिक भागीदारी करनी होगी।
भारत ने ग्रीन एनर्जी में अग्रणी डेनमार्क के बीच सितम्बर‚ 2020 में ग्रीन स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप से इसे नई ऊंचाई दी गई। यह अब पंचवर्षीय कार्ययोजना में तब्दील की जा चुकी है। सत्तर के दशक में तेल संकट से जूझने वाला डेनमार्क आज अपनी बिजली खपत का 50 प्रतिशत सौर और पवन ऊर्जा से पूरी करता है। यह देश 2030 तक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 70 प्रतिशत की कमी कर लेगा। पवन ऊर्जा परियोजनाओं में बादशाहत कायम करने के बाद डेनमार्क दुनिया की अत्याधुनिक जैव ऊर्जा उत्पादन तकनीक पर काम कर रहा है। यहां बिजली संयंत्रों में जीवाश्म ईंधन की जगह बायोमास जैसे लकड़ी के टुकड़े और बुरादे का उपयोग किया जा रहा है। वुड पैलेट्स ने बिजली संयंत्रों और ताप भट्टियों में तेल‚गैस‚ चारकोल और जलाऊ लकड़ी की जगह ली है। यदि इस तरह की तकनीक और विशेषज्ञता का दोनों देशों के बीच आदान–प्रदान हो तो भारत में कृषि अवशेष से ऊर्जा उत्पादन का अनुपात बढ़ेगा।
भविष्य की ईंधन कोशिकाएं
आज दुनिया लीथियम आयन बैटरी को भविष्य की ईंधन कोशिकाओं (फ्यूल सेल) के रूप में देख रही है। ऐसे में स्वीडन ने सौ प्रतिशत रिसाइकिल किए गए कच्चे माल से लीथियम आयन बैटरी सेल तैयार करने में कामयाबी हासिल की है। इसमें सौ प्रतिशत रिसाइकिल की हुई निकिल‚ मैग्नीज और कोबाल्ट का इस्तेमाल होता है। भारत में इले्ट्रिरक वाहनों की बढ़ती मांग के बीच लीथियम आयन बैटरी की रिसाइकिलिंग के लिए विशेषज्ञता व तकनीक की जरूरत होगी।
हमारे यहां वेस्ट टू एनर्जी प्रोग्राम अभी प्रारंभिक स्तर पर है। इसकी बड़ी वजह तकनीक और प्रक्रिया का लागत सक्षम न होना है। इस क्षेत्र में हमें स्वीडन की विशेषज्ञता का लाभ लेना चाहिए। यहां वेस्ट टू एनर्जी के लिए स्टेशनरी न्यूमैटिक रिफ्यूज कलेक्शन सिस्टम विकसित किया गया है। इसमें कचरे को ट्रक या वाहनों द्वारा एकत्र करने की जरूरत नहीं होती। यहां भूमिगत पाइपलाइन में हवा के दबाव से घरेलू अवशेष को उत्पादन स्थल से निस्तारण केंद्र तक ले जाया जाता है। यहां उसे सीधे एनर्जी या कच्चे माल के रूप में प्यूरिफाइड किया जाता है। यह व्यवस्था कचरा प्रबंधन में ईंधन की खपत को शून्य करती है।
बिजली की बढ़ रही है मांग
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के मुताबिक इस दशक के अंत तक भारत ऊर्जा की खपत मामले में विश्व का तीसरा बड़ा उपभोक्ता बन जाएगा। एक तरफ हमारे यहां बिजली व ईंधन की मांग बढ़ रही है‚ वहीं वैकल्पिक ऊर्जा के उत्पादन के साथ ऊर्जा संरक्षण को लेकर उदासीनता बड़ी चुनौती है। ऐसे में बिजली और ऊर्जा से जुड़ी कर नीति में बदलाव की दरकार है। फिनलैंड़ ने अक्षय ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देने के साथ जलवायु न्याय को क्लाइमेट एक्ट–2015 के जरिए कानूनी वैधता दी है। इसके तहत घरेलू खपत से लेकर उद्योग जगत को कार्बन फुटिप्रंट कम करना अनिवार्य है। इसकी सबसे बड़ी सफलता यहां समुद्री परिवहन में देखने को मिली। इस क्षेत्र को पूरी तरह स्वचालित (ऑटोमेशन) होने से जीवाश्म ईंधन की हिस्सेदारी न के बराबर रह गई है। समुद्री जहाजों में रोटोर सेल से पवन बिजली तैयार कर जीवाश्म ईंधन का विकल्प खोज लिया गया है।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ग्लोबल वॉर्मिंग और जीवाश्म ईंधन की बढ़ती मांग एक दूसरे की पूरक हैं। जाहिर है कि इसके लिए हमें ऊर्जा जरूरतों को पूरा करते हुए धरती के तापमान को कम करना होगा। आज जिस तरह शहरीकरण बढ़ रहा है‚ उसने घरों में ऊर्जा दक्षता की आवश्यकता को बढ़ाया है। नॉर्वे दुनिया का पहला देश बन चुका है‚ जिसने वर्ष 2000 से घरों में हीटिंग के लिए जीवाश्म ईंधन के उपयोग पर रोक लगा दी है। धरती की सेहत के साथ आर्थिक विकास में असमान को कम करने के लिए हम विलासिता से जुड़े उत्पादों व गतिविधियों पर कार्बन टैक्स जैसे कदम उठा सकते हैं। ऊर्जा संकट के साथ टिकाऊ विकास के लिए भारत को घरेलू मोर्चे पर नवाचार और निवेश को प्रोत्साहित करना होगा। विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच अत्याधुनिक तकनीक का आदान–प्रदान कारोबारी मुनाफे से ज्यादा मानवीय जीवन की गुणवत्ता को ध्यान में रखकर हो।
लेखिका एनवार्यन्मेंट मैनेजमेंट एंड सस्टेनेबिलिटी एक्सपर्ट हैं।