हे गंगे

Submitted by admin on Mon, 05/19/2014 - 14:51

गंगाबार बार मैं आता रहता
गंग तुम्हारे तट पर
बहती रहतीं रुकीं नहीं तुम
कलकल करतीं सस्वर
शिव अलकों में उमड़ घुमड़तीं
मुक्ति मार्ग की दानी
निर्मल निश्छल बढ़ती रहतीं
त्रिपथगा महारानी
गंग तुम्हारा स्मरण मात्र
मानस पावन कर देता
उच्छल क्रीड़ा करता जल
अंतस शीतल कर देता
सामवेद की सरस ऋचा सम
शाश्वत संगीत सुनातीं
नील गगन से नीलाभ ले
अठखेली करती जातीं
अरुण तुम्हारी लहरें मनहर
अपलक देखा करता है
भोर तुम्हीं संग सजती गंगे
सांझ में रंग भरता है
गंग तुम्हारा कूल मुझे
कितना मधुमय लगता है
श्यामल रजनी में भी मन
तुम में रमता रहता है !!