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अमर उजाला, 21 अक्टूबर, 2018
मीरा बेन से लेकर जी.डी. अग्रवाल तक ऐसे विद्वान भारतीयों की लम्बी शृंखला है, जिन्होंने हमारी सबसे महत्त्वपूर्ण तथा सबसे नाजुक पर्वत शृंखला हिमालय की तबाही को लेकर चेतावनी दी, मगर तमाम सरकारों ने इसे नजरअन्दाज किया।
रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गाँधी ने बिट्रिश एडमिरल की बेटी मैडलीन स्लेड की जीवन कथा को चर्चित कर दिया, जिन्होंने भारत आकर खुद को महात्मा को समर्पित कर दिया, अपना नाम बदलकर मीरा बेन कर लिया और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई बार जेल गईं। अश्वेत/औपनिवेशिक भारतीयों का पक्ष लेने वाली इस समृद्ध और श्वेत महिला की यह मिसाल देने वाली कहानी अमर चित्र कथा का भी हिस्सा बन गई।
मीरा ने गाँधी के साथ उनके आश्रम और जेल में जो वक्त गुजारा था उसके बारे में सब जानते हैं; लेकिन अपने गुरु को छोड़कर उन्होंने भारत में जो बाद के वर्ष बिताए वह भी कम दिलचस्प नहीं थे। 1945 में व्याकुल होकर और नई चुनौतियों की तलाश में उन्होंने सेवाग्राम छोड़ दिया था और ऋषिकेश के नजदीक हिमालय की तलहटी में जा बसी थीं। वह तकरीबन अगले एक दशक तक उत्तराखण्ड में रहीं और पहाड़ी जंगलों की बर्बादी और पहाड़ी नदियों को बाँधने के शुरुआती प्रयासों को करीब से देखा।
1949 में मीरा बेन ने पश्चिम के अन्धानुकरण करते भारत में ‘विकास’ की अदूरदर्शी नीतियों पर टिप्पणी की, “आज की त्रासदी यह है कि शिक्षित और धनी वर्ग हमारे अस्तित्व के बुनियादी तत्वों से ही बेखबर हैं और ये हैं हमारी धरती माँ और जीव-जन्तु तथा वनस्पतियाँ, जिन्हें वह पोषित करती है। मनुष्य को जब कभी मौका मिलता है, वह प्रकृति की इस व्यवस्था को निर्ममता से लूटता है, बर्बाद करता है और अव्यवस्थित कर देता है। अपने विज्ञान और मशीनरी से शायद उसे कुछ समय तक भारी लाभ मिल जाए, लेकिन अन्ततः इससे नाश ही होगा। यदि हम शारीरिक रूप से स्वस्थ और नैतिक रूप से मर्यादित जीव के रूप में अपना अस्तित्व बचाए रखना चाहते हैं, तो हमें प्रकृति के सन्तुलन का अध्ययन करना होगा और हमारे जीवन को उसके कानूनों के अनुरूप विकसित करना होगा।”
मीरा गंगा घाटी में उस जगह पर रहती थीं, जिसे गढ़वाल के नाम से जाना जाता है। इसके पूर्व में कुमाऊँ क्षेत्र फैला हुआ है, जहाँ समृद्ध मिश्रित वन हैं और मुक्त और तेज प्रवाह वाली नदियाँ बहती हैं। कुमाऊँ गाँधी की एक अन्य अंग्रेज शिष्या की कर्मभूमि थी। वह पैदा तो कैथरीन मैरी हेलमैन के रूप में हुई थी, लेकिन बाद में अपना नाम सरला बेन रख लिया था। सरला अपनी इस अपनाई गई मातृभूमि की मिट्टी से गहराई से जुड़ी हुई थीं। भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान वह जेल गईं और उन्हें लम्बा निष्ठुर वक्त बन्दी के रूप में बिताना पड़ा। रिहाई के बाद उन्होंने कौसानी में लक्ष्मी आश्रम की स्थापना की, यह गाँव अपनी शानदार बर्फीली चोटियों के मनोरम दृश्यों के लिये प्रसिद्ध है।
1950 और 1960 के दशक में सरला ने अनेक उल्लेखनीय सामाजिक कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित और प्रेरित किया। इनमें सुन्दरलाल बहुगुणा, विमला बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट और राधा भट्ट शामिल हैं। ये लोग और सरला के अन्य शिष्यों ने पहाड़ियों में सामुदायिक सक्रियता के साथ उल्लेखनीय काम किया। उन्होंने चिपको आन्दोलन की शुरुआत की, जिसने वाणिज्यिक वानिकी के विध्वंसकारी तरीकों का विरोध किया और भारत तथा विश्व में वन संरक्षण के ऐसे आन्दोलनों को प्रेरित किया।
इन पहाड़ी गाँधियों ने सामाजिक और पर्यावरणीय विध्वंसों के प्रतिकूल प्रभावों के कारण बड़े बाँधों का विरोध किया और खुले में होने वाले खनन के भंयकर नुकसान की ओर ध्यान खींचा। इन गाँधियों ने सिर्फ प्रदर्शनों तक सीमित न रहते हुए वनीकरण और जल संरक्षण के लिये रचनात्मक कार्यक्रम भी आयोजित किये। उनकी गुरु सरला देवी ने पूरी दिलचस्पी के साथ उनके काम पर नजर रखी। 1982 में जब वह उम्र के सातवें दशक मे थीं, सरला ने ‘रिवाइव अवर डाइंग प्लानेट’ (हमारे मरते ग्रह को बचाएँ) नाम से पारिस्थितिकी को बचाने के लिये अपील जारी की, जिसके सन्देश आज भी प्रतिध्वनित हो रहे हैं।
मीरा और सरला इन दोनों का काफी पहले निधन हो गया। मैंने जिन अन्य लोगों का जिक्र किया है, वे जीवित हैं और उम्र के आठवें दशक में चल रहे हैं। पारिस्थितिकी जवाबदेही के उनके संघर्ष के मिश्रित नतीजे मिले हैं, क्योंकि कहीं अधिक ताकतवर लोगों ने उनका विरोध किया, जिनमें राजनेता, ठेकेदार और फैक्ट्रियों के मालिक शामिल हैं, क्योंकि वे प्राकृतिक संसाधनों से असाधारण रूप से समृद्ध हिमालय से बेहिसाब मुनाफा कमाना चाहते हैं और अपनी ताकत बढ़ाना चाहते हैं, हाल के दशकों में इन निहित स्वार्थी तत्वों ने निर्ममता के साथ जमीन, पानी और खनिजों की लूट की है, जिससे हुए विनाश के निशान देखे जा सकते हैं।
मीरा और सरला की तरह चंडी प्रसाद और सुन्दरलाल बहुगुणा का भी तर्क है कि हिमालय में मानवीय दखल के पीछे मजबूत आर्थिक और पारिस्थितिकी कारण थे। लेकिन इसके साथ ही कुछ सांस्कृतिक कारण भी रहे हैं। ये पहाड़ की पवित्र नदियों का उद्गम भी हैं। बाद के कुछ पर्यावरण योद्धाओं ने सबसे पवित्र नदी गंगा के नाम पर होने वाले विनाश को रोकने की माँग की। फरवरी 2011 में युवा साधु निगमानंद ने नदी के किनारे होने वाले रेत के खनन के विरोध में अनशन किया। उनका संघर्ष साढ़े तीन महीने तक जारी रहा और अन्ततः उनकी मौत हो गई। लेकिन इससे उस समय की डॉ. मनमोहन सिंह की अगुआई वाली सरकार को फर्क नहीं पड़ा और अब हमने देखा कि स्वामी सानंद नहीं रहे।
जी.डी. अग्रवाल आईआईटी कानपुर के प्रशंसित प्रोफेसर थे, जिन्होंने छात्रों की कई पीढ़ियों को ऐसा करियर चुनने को प्रेरित किया, जिसमें पेशेवर उत्कृष्टता के साथ ही सामाजिक जवाबदेही भी हो। देश के प्रति उनका समर्पण उनके कामकाजी जीवन में झलकता था और रिटायर होने के बाद उन्होंने गंगा को मानवीय तबाही से बचाने के लिये संघर्ष छेड़ दिया। अपने उपवास के अन्तिम दिनों में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जो पत्र लिखे उसमें प्रकृति की वैज्ञानिक, तार्किक और गहरी आध्यात्मिक समझ समाहित थी। लेकिन उनके ये पत्र निरुत्तर रह गए हालांकि उनकी मौत के बाद प्रधानमंत्री ने शोक जताते हुए एक ट्वीट किया। जिसे कोई भी तटस्थ पर्यवेक्षक छलावे के रूप में ही देखेगा।
मीरा बेन से लेकर जी.डी. अग्रवाल तक ऐसे विद्वान भारतीयों की लम्बी शृंखला है। जिन्होंने हमारी सबसे महत्त्वपूर्ण तथा सबसे नाजुक पर्वत शृंखला हिमालय की तबाही को लेकर चेतावनी दी है। उन्होंने हमें मिश्रित वनों को एक ही प्रजाति के वनों में बदलने रासायनिक खादों के बेजा इस्तेमाल, बड़े बाँधों के नकारात्मक प्रभावों, रेत खनन से होने वाली तबाही इत्यादि को लेकर आगाह किया।
राज्य और केन्द्र सरकारें, (सभी दलों की) ने इन्हें नजरअन्दाज किया और उन नदियों और पहाड़ों की बर्बादी जारी रहने दी, जिन्होंने हमारी सभ्यता को बचाए रखा है। यह दुख की बात है कि हमारे राजनेता हिमालय और गंगा के बारे में बात करते हैं, जबकि वे इसके बिल्कुल योग्य नहीं हैं।