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संडे नई दुनिया, जुलाई 2010
हिमालय की झीलों में बढ़ते प्रदूषण के कारण मछलियों की कई प्रजातियां नष्ट होने की कगार पर पहुंच गई हैं। बढ़ते प्रदूषण और जल में कम होते ऑक्सीजन के कारण मछलियों की कई प्रजातियां आकार और भार में कमतर होती जा रही हैं। सबसे अधिक दुष्परिणाम झेलने वाली मछलियों में महाशीर मछली का नाम लिया जा सकता है। भीमताल स्थित राष्ट्रीय शीत मत्स्यकी अनुसंधान केंद्र के आंकड़े इन तथ्यों को तसदीक करते हैं जहां एक ओर देसी मछलियों की प्रजातियों का क्षरण हो रहा है। वहीं विदेशी मछलियों की प्रजातियों में बढ़ोत्तरी देखी जा रही है। नैनीताल झील में प्रदूषण से मछलियों का उत्पादन घटा है। भारतीय मूल की ही असेत (ट्राउट) मछली जो कभी इस झील में बहुतायत में मिलती थी आज उसका अस्तित्व ही खत्म हो चुका है। यूं झील के जल में ऑक्सीजन मिलाने के प्रयोगों एवं राष्ट्रीय झील संरक्षण परियोजना के कार्यों ने झील के प्रदूषण में थोड़ी कमी जरूर पैदा की है। पर्यटकों की बढ़ती आवाजाही, अवैज्ञानिक तरीके से जल-मल निस्तारण और शहरीकरण के कुप्रभाव से इस झील की मछलियां धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं। इसके लिए वैज्ञानिक कार्य-योजना बनाने की संस्तुतियां समय-समय पर देते रहते हैं। हिमालय की झीलों में मिलने वाली महाशीर तथा अन्य भारतीय मूल की मछलियों को संरक्षित रखने हेतु उचित कदम उठाने के लिए वैज्ञानिक संस्तुति देते रहे हैं। वैज्ञानिकों ने तो भीमताल की झील को महाशीर मत्स्य प्रजाति के संरक्षित क्षेत्र के रूप में घोषित करने का भी सुझाव दिया है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इससे महाशीर मत्स्य प्रजाति के संरक्षण में सहायता मिलेगी। नैनीताल जिले की अन्य झीलों जैसे, भीमताल, नौकुचियाताल, सातताल, खुर्पाताल, नलदमयंती ताल आदि में भी प्रदूषण का आलम बुरा है। औसतन 1,400 से 2,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यहां की झीलों में ठंडे व मीठे पानी की मत्स्य प्रजातियां पाई जाती हैं। पहाड़ों से लगे मैदानी क्षेत्रों में स्थित नानक सागर, तुमरिया, वैगुल धौर, बौर व हरिपुरा जलाशय में भी मत्स्य की कई प्रजातियां अब नहीं मिलती। इन झीलों के अलावा हिमालय क्षेत्र की 19 प्रमुख नदियों का भी यही हाल है। इनमें सिंधु एवं ब्रह्मपुत्र सबसे बड़ी नदी प्रणाली है। शेष 17 नदियों में से पांच सिंधु नदी की तो नौ गंगा की तथा तीन ब्रह्मपुत्र नदी की सहायक नदियां हैं। फिर इन क्षेत्रों में वूलर, डल, मानसबल, होकरसर, नारान बागसर, अहंसर, तिलवांसर, नीलनाग, शेषनाग, विशनसर, किशनसर, अल्पथर, रेणुका, खजियार, चंद्रताल हैं जिनमें मछलियों की कई प्रजातियां अब नहीं पाई जातीं। हिमालय क्षेत्र के ठण्डे पानी के जलाशयों में पाई जाने वाली 258 मत्स्य प्रजातियों में से कई दर्जन प्रजातियां अनियंत्रित और अत्यधिक मानव गतिविधियों के कारण नष्ट हो रही हैं। इन जल-स्रोतों में पाये जाने वाली मत्स्य जैव विविधता तथा इनकी पारिस्थितिकी व उपलब्धता पर गहरा प्रभाव पड़ा है। महाशीर सहित भारतीय ट्राउट व विदेशी ट्राउट की प्रजातियां खतरे में पड़ गई हैं। भीमताल स्थित राष्ट्रीय शीत-जल मत्स्य अनुसंधान केंद्र के अनुसार प्रदूषण और जलस्रोतों के अत्यधिक दोहन के कारण हिमालय क्षेत्र में उपलब्ध मत्स्य प्रजातियों में से 33 तो पूरी तरह से नष्ट होने की कगार पर पहुंच गई हैं। इनमें से तीन प्रजातियां – राइमस बोला, टिकोबारबस, कोनिरास्ट्रिस तो लुप्तप्रायः हैं ही 8 प्रजातियां बेहद असुरक्षित हैं। इनमें शहजो थोरेक्स, रिचार्ड सोनी, टोर-टोर व साईजोथोटेक्स प्रोसेस्टस आदि सहित सात अन्य प्रजातियां डिप्टी करन मैकुलेटरना, साई जहां पागोपासिस, स्टोलिजी की साइजोथोरेक्सीस, इसोसाइनस, ग्लिंटोथोरेक्स व रेटिकुलेटम आदि प्रजातियां आती हैं।
हिमालय क्षेत्र के ठण्डे पानी के जलाशयों में पाई जाने वाली 258 मत्स्य प्रजातियों में से कई दर्जन प्रजातियां अनियंत्रित और अत्यधिक मानव गतिविधियों के कारण नष्ट हो रही हैं। इन जल-स्रोतों में पाये जाने वाली मत्स्य जैव विविधता तथा इनकी पारिस्थितिकी व उपलब्धता पर गहरा प्रभाव पड़ा है। महाशीर सहित भारतीय ट्राउट व विदेशी ट्राउट की प्रजातियां खतरे में पड़ गई हैं। भीमताल स्थित राष्ट्रीय शीत-जल मत्स्य अनुसंधान केंद्र के अनुसार प्रदूषण और जलस्रोतों के अत्यधिक दोहन के कारण हिमालय क्षेत्र में उपलब्ध मत्स्य प्रजातियों में से 33 तो पूरी तरह से नष्ट होने की कगार पर पहुंच गई हैं।पांचवें दशक तक मध्य हिमालय में मौजूद जलस्रोतों में महासीर प्रजाति की बड़ी मछलियां बड़े मजे से मिल जाती थीं। नैनीताल झील में जिम कॉर्बेट ने बहुत लंबी मछली पकड़ी थी। भीमताल में 30 किलोग्राम की महाशीर, यमुना नदी में 15 से 17 किलोग्राम की महाशीर, सरयू से 30 से 35 किलोग्राम की महाशीर का पकड़ा जाना आम बात थी लेकिन धीरे-धीरे इस मछली के आकार व भार में कमी आई। अब बमुश्किल तीन किलोग्राम तक की ही महाशीर पकड़ में आ रही हैं। औसत महाशीर का भार सौ दो सौ ग्राम से अधिक नहीं मिलता। इस मछली की संख्या में अति संवेदनशील सूचकांक तक का ह्रास इस बात का प्रमाण है कि यह सुनहरी मछली इन जलस्रोतों से लुप्त होने की कगार पर हैं।
इसी तरह असेत प्रजाति की मछली भी संकट में है। हिमालय क्षेत्र के उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर व हिमाचल प्रदेश की झीलों में इसकी संख्या दिन-प्रतिदिन कम हो रही है। इन जलस्रोतों डल, वलूर, आचार मानसबल, नरानबाग, भीमताल, नैनीताल में असेला मछली का औसत भार 80 से हजार ग्राम के बीच ही होती है। जबकि यहां दो तीन किलोग्राम भार की पहले बहुतायत में मिल जाती रही है। ब्राउन ट्राउट में भी भारी गिरावट दर्ज हुई है। हिमाचल व जम्मू-कश्मीर के नदी नालों व ताल-तलैय्यों में ट्राउट की संख्या की कमी चिंता का विषय है। भारतीय ट्राउट राइमस जो कि पश्चिम से उत्तर पूर्वी हिमालय तक विस्तार में पाई जाती थी, एक लुप्तप्राय प्रजाति में शामिल हो चुकी है। वैज्ञानिकों के अनुसार सत्तर के दशक तक भरेली आसाम की नदी में 2 किलोग्राम भार तक की पाई जाती थी लेकिन अब 500 ग्राम की मछली मिलना मुश्किल हो गया है। वैज्ञानिकों का सीधा मानना है कि विदेशी ट्राउंट महाशीर एवं स्नोट्राउट के पतन के पीछे प्राकृतिक आवासों का विनाश, बढ़ती जनसंख्या दबाव तो है ही जलस्रोतों से अत्यधिक जल का दोहन, बांध एवं उनसे संबंधित योजनाओं ने भी इस जलजीव पर संकट खड़ा कर दिया है। इसके अलावा विदेशी मत्स्य प्रजातियों का इन जलस्रोतों में प्रवेश भी घातक साबित हुआ है। जल की गुणवत्ता एवं ताप के प्रति संवेदनशील यहां की मत्स्य प्रजातियां इनमें हो रहे परिवर्तनों से सीधे प्रभावित हो रही हैं।