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एक बार फिर आदिवासियों ने अपने श्रम की ताकत और कमाल से सबको अचम्भित कर दिया। पानी के लिये पसीना बहाते इन लोगों का आत्मविश्वास देखते ही बनता था। इनकी आँखों में हरी–भरी पहाड़ी का सपना झिलमिला रहा था। जूनून ऐसा कि गैंती–फावड़े भी खुद अपने घरों से लेकर आये। औरतें भी कहाँ पीछे रहने वाली थी। वे भी तगारी उठाए चल पड़ीं साथ–साथ। यह नजारा मध्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य झाबुआ अंचल में झाबुआ शहर के पास हाथीपावा पहाड़ी पर दिखाई दिया। यहाँ आदिवासियों ने हलमा किया। हलमा यानी एक दूसरे के साथ मिलकर सामूहिक श्रमदान करना। एक बंजर पहाड़ी को हरा–भरा बना देने की जिद में छह हजार से ज्यादा आदिवासियों ने कुछ ही घंटों में पहाड़ी की तस्वीर ही बदल डाली। उन्होंने महज पाँच घंटे में ही पन्द्रह हजार से ज्यादा जल संरचनाएँ (कंटूर ट्रेंच) बनाई और करीब 25 हजार पुरानी कंटूर ट्रेंच की सफाई भी की। वह भी बिना एक पैसा खर्च किये। इससे अगली बारिश में यह पहाड़ी हरी–भरी हो सकेगी वहीं बड़ी तादाद में पानी को भी जमीन में रिसाया जा सकेगा।
सरकार यदि इस काम को करवाती तो कम-से-कम दस लाख रुपए खर्च होते। इससे हर साल बारिश का करीब 40 करोड़ लीटर पानी जमीन की रगों तक पहुँच सकेगा। यह पानी करीब 50 लाख से ज्यादा लोगों को एक दिन का पानी उपलब्ध करा सकता है। मानसून से पहले बारिश की ऐसी मनुहार कहीं देखी है भला आपने।
आज यहाँ एक बार फिर आदिवासियों ने अपने श्रम की ताकत और कमाल से सबको अचम्भित कर दिया। पानी के लिये पसीना बहाते इन लोगों का आत्मविश्वास देखते ही बनता था। इनकी आँखों में हरी–भरी पहाड़ी का सपना झिलमिला रहा था। जूनून ऐसा कि गैंती–फावड़े भी खुद अपने घरों से लेकर आये। औरतें भी कहाँ पीछे रहने वाली थी। वे भी तगारी उठाए चल पड़ीं साथ–साथ।
यह नजारा मध्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य झाबुआ अंचल में झाबुआ शहर के पास हाथीपावा पहाड़ी पर (15-16 मार्च 2016 को) दिखाई दिया। यहाँ आदिवासियों ने हलमा किया। हलमा यानी एक दूसरे के साथ मिलकर सामूहिक श्रमदान करना। यहाँ 2008 से 2014 तक भी इसी तरह हलमा किया जाता रहा है। इससे एक दिन पहले जिले भर के ग्रामीण क्षेत्रों से बड़ी संख्या में आदिवासी अपने पूरे परिवार के साथ यहाँ जुट चुके थे। इन्होंने झाबुआ शहर में कंधे पर गैंती रखकर करीब दो किमी लम्बी गैंती यात्रा भी निकाली।
इन्दौर से करीब डेढ़ सौ किमी दूर झाबुआ के पास हाथीपावा पहाड़ी पर यह विहंगम दृश्य देखते ही बनता था। एक साथ हजारों आदिवासियों को अपने घर से लाए गैंती–फावड़ों के साथ मेहनत करते बरसाती पानी सहेजने के लिये पसीना बहाते देखना सुखद आश्चर्य से भर देता है। इनमें हजारों औरतें भी शामिल थीं।
यहाँ आदिवासियों ने बिना पैसों में 15 हजार जल संरचनाएँ सुबह 7 से 12 बजे तक केवल 5 घंटों में तैयार कर दी। इतना ही नहीं तीन साल पहले बनी 25 हजार जल संरचनाओं की सफाई भी की गई। दो से तीन साल पहले बनी इन संरचनाओं में मिट्टी भर चुकी थी। इस वजह से इनका अपेक्षित फायदा नहीं मिल पा रहा था। अब इस बंजर पहाड़ी पर पचास हजार से ज्यादा जल संरचनाएँ (कंटूर ट्रेंच) बरसाती पानी सहेजने के लिये तैयार हो चुकी हैं। अब इन्तजार है तो बस मानसून का।
इलाके के लोग खासे उत्साहित हैं कि ढलान होने से अब तक बह जाने वाला बरसाती पानी इस साल से व्यर्थ नहीं बह सकेगा। इन छोटी–छोटी संरचनों में रुकने वाला पानी जमीन में आसानी से उतर सकेगा। इससे बारिश में इस पहाड़ी पर भी हरी घास और छोटे पौधे लहलहा सकेंगे। भूजल स्तर भी बढ़ेगा और ग्लोबल वार्मिंग से भी राहत हो सकेगी। जिले में फिलहाल जलस्तर काफी नीचे चला गया है। हर साल गर्मियों में यहाँ के लोग बाल्टी–बाल्टी पानी को मोहताज हो जाते हैं।
एक मोटा अनुमान बताता है कि एक ट्रेंच से एक बारिश काल में करीब 10 हजार लीटर पानी जमीन के भीतर रिसता है तो नई और पुरानी मिलकर 40 हजार कंटूर ट्रेंच से हर साल 40 करोड़ लीटर पानी बच सकेगा। इससे इलाके में भूजल स्तर में काफी सुधार हो सकेगा। इतना ही नहीं एक व्यक्ति को एक दिन के दैनिक कामकाज में औसत करीब 70 लीटर पानी की जरूरत होती है।
इस तरह यहाँ बचा पानी 57 लाख 14 हजार 285 लाख लोगों की एक दिन के पानी की जरूरत पूरी कर सकता है। अब बात इससे सटे शहर झाबुआ की तो इसकी आबादी 40 हजार है, यानी यहाँ इस पानी को 143 दिन मतलब पाँच महीने तक हर दिन जल वितरण किया जा सकता है।
इससे पहले सोमवार शाम को यहाँ दो किमी लम्बी गैंती यात्रा पूरे शहर में निकली। इसमें आदिवासी अपने साथ लाए गैती–फावड़ों और महिलाएँ तगारियों के साथ शामिल हुए। कई युवा मांदल की थाप पर नाचते–गाते नजर आये। यात्रा के समापन पर वक्ताओं ने कहा कि सैनिक की बन्दूक और किसान की गैंती एक जैसी होती है। सैनिक इससे देश की रक्षा करता है तो किसान धरती खोदकर देश की भूख शान्त करता है।
हलमा आदिवासियों की पीढ़ियों पुरानी परम्परा है। इसमें पानी और प्रकृति से सम्बन्धित कामों के लिये श्रमदान किया जाता है। इसके लिये परिवार-के-परिवार हजारों लोग एक साथ जुटते हैं और कुछ ही घंटों में काम पूरा कर देते हैं। इसमें कोई किसी से एक पैसा तक नहीं लेता है। बस इतनी सी शर्त होती है कि जब उन्हें कोई काम होगा तो वे भी इसी तरह श्रमदान कर मदद करेंगे। आदिवासी क्षेत्रों में हर साल मानसून से पहले ये लोग इसी तरह बारिश की मनुहार में जुटते हैं। अंचल के कई गाँवों में हलमा के जरिए हुए पानी सहेजने के दर्जनों कामों को देखा जा सकता है।
आमतौर पर आदिवासियों को कम पढ़ा–लिखा या अनपढ़ मानकर हम उन्हें सीख देने की बात करते हैं लेकिन हलमा जैसी सामुदायिक पहल करने वाले इस समाज से तो हम सभ्य कहे जाने वाले लोगों को भी सीखने की जरूरत है। कितनी अनुकरणीय है यह इनकी हलमा परम्परा। इन्हें कम पढ़ा–लिखा मानने वालों को इनकी यह परम्परा देखनी चाहिए।
आदिवासी आपस में अपने यहाँ गाँवों में तो यह करते ही रहते हैं पर यहाँ शहर के लोगों की मदद करने के लिये वे जुटे हैं। वे बताते हैं कि पानी चाहे शहर का बचे या गाँव का, आखिरकार पानी तो धरती का ही है। इससे पहले 2008 से 2014 तक वे लगातार हर साल शिवगंगा अभियान के तहत यहाँ काम करते रहे हैं। इस काम में माँ–बाप के साथ बड़ी संख्या में उनके बच्चे भी खुशी–खुशी शामिल हुए। उन्होंने बताया कि उन्हें यहाँ अच्छा लग रहा है और यह भी कि हमें पानी बचाने के लिये लगातार काम करते रहना चाहिए।
पर्यावरण के मुद्दों की खासी समझ रखने वाले जलविद सुनील चतुर्वेदी कंटूर ट्रेंच के बारे में बताते हुए कहते हैं कि पहाड़ों के ढलान वाले क्षेत्र में समान ऊँचाई पर खोदे जाने वाली नालियों को कंटूर ट्रेंच कहा जाता है। पहाड़ी क्षेत्र में बारिश के बहते हुए पानी की गति को नियंत्रित करते हुए मिट्टी के कटाव को रोकने के साथ ये संरचनाएँ पानी को जमीन में रिसा पाने में बहुत हद तक मददगार है।
इसका आकार मुख्य रूप से वर्गाकार या आयताकार होता है। इसकी लम्बाई, चौड़ाई, गहराई और एक दूसरे से दूरी पहाड़ी के ढलान और जल ग्रहण क्षेत्र पर निर्भर करती है। यदि ढलान ज्यादा है तो इनमें एक दूसरे के बीच की दूरी कम रहेगी और ढलान कम है तो इनमें एक दूसरे के बीच की दूरी ज्यादा रहेगी। इसी तरह यदि जल ग्रहण यानी उसमें आने वाले पानी ज्यादा आता है तो कंटूर नाली के माप अधिक रहेंगे और यदि कम है तो माप भी कम रहेंगे।
उन्होंने बताया कि इससे भूमि के कटाव की रोकथाम तथा पहाड़ी पर से बहने वाले बरसाती पानी को जमीन के अन्दर रिसन के माध्यम से पहुँचाने के अलावा खोदी गई मिट्टी पर पौधे या घास लगाई जा सकती है। बारिश के व्यर्थ बहते हुए पानी को इस संरचना के जरिए जमीनी जलस्तर भी बढ़ाया जा सकता है।
हलमा के आयोजक भंवरसिंह भहेड़िया का कहना है कि 10 अलग–अलग रंगों के झंडे बनाए गए थे और हर झंडे में एक से डेढ़ हजार तक आदिवासी भाई और बहनें शामिल थीं। इन्हें अलग–अलग जगह तैनात किया गया था। इन्होंने लक्ष्य से ज्यादा संरचनाएँ बनाई हैं। श्रमदानी भूरीबाई कहती है कि साल भर अपने पेट की खातिर मेहनत मजूरी करते हैं। एक दिन सबके (समाज) के लिये काम करना अच्छा लगता है। हम समाज को और क्या दे सकते हैं। श्रमदानी चैन सिंह बताते हैं कि हमने बीते सालों में जो काम किया था उसमें बारिश की मिट्टी भर गई है। उसे साफ करना है और नई संरचनाएँ बनाना है। हमारा लक्ष्य है इस बंजर पहाड़ी को हरियाली का बाना ओढ़ाना।
आदिवासी कालूसिंह की बात में दम है। वे बताते हैं कि हम धरती से पानी तो उलीचते रहते हैं पर धरती में भेजते कहाँ हैं। पहले जंगल हुआ करते थे, नदी–नाले थे और पेड़ों की जड़ों व नदी नालों से पानी अन्दर जाया करता था। अब खन्तियाँ खोदकर हम पानी को धरती में रंजाना चाहते हैं। धरती की रक्षा करना है। इसीलिये यह मेहनत कर रहे हैं। धरती रहेगी और इसमें पानी रहेगा तो ही हम रह सकते हैं। इसके बिना हमारा क्या मोल।
श्रमदान करने यहाँ पहुँची भूरीबाई कहती है कि गंगा को सूखी धरती पर लाने के लिये शंकर भगवान ने अपनी जटाएँ बिखेर दी थी और गंगा उसमें आई और धरती पर बहने लगी। इसी तरह अब भी बारिश का पानी तो बहुत बरसता है पर हम उसे सहेज कहाँ पाते हैं। उसे सहेजने और व्यर्थ बहने से बचाने के लिये हमें शिव बाबा की जटाओं की तरह धरती पर पानी रोकने का जतन करना पड़ेगा। हँसते हुए भूरी बाई उसके द्वारा बनाई कंटूर ट्रेंच दिखाते हुए बताती है कि देखो यह बन गई शिव बाबा की जटा।