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योजना, दिसम्बर 2015
हरित जीडीपी से ही सामने आया है कि तेज और गहन पूँजी निवेश बुनियादी सुविधाओं, सड़कों, रेलवे, पानी और सीवेज प्रणाली की संचालन लागत को कम करती है। इस लिहाज से देखें तो जलवायु की रक्षा ग्रामीण संस्कृति ही कर सकती है लेकिन दुनिया का ध्यान शहरीकरण बढ़ाने पर ज्यादा है।
हरित अर्थव्यवस्था वह है जिसमें सार्वजनिक और निजी निवेश करते समय इस बात को ध्यान में रखा जाए कि कार्बन उत्सर्जन और प्रदूषण कम से कम हो, ऊर्जा और संसाधनों की प्रभावोत्पादकता बढ़े और जो जैव विविधता और पर्यावरण प्रणाली की सेवाओं के नुकसान कम करने में मदद करे।हरित जीडीपी पारंपरिक सकल घरेलू उत्पाद की तरह नहीं है। हरित जीडीपी का यह भी मतलब नहीं है कि इसके जरिए दुनिया या देश के जंगलों-वनोपज या वन्यजीव की कीमत लगाई जाए। हरित जीडीपी का मतलब हरित निवेश से भी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के मुताबिक हरित जीडीपी का मतलब जैविक विविधता की कमी और जलवायु परिवर्तन के कारणों को मापना है। हरित जीडीपी का मतलब पारंपरिक सकल घरेलू उत्पाद के उन आँकड़ों से है, जो आर्थिक गतिविधियों में पर्यावरणीय तरीकों को स्थापित करते हैं। किसी देश की हरित जीडीपी से मतलब है कि वह देश सतत विकास की दिशा में आगे बढ़ने के लिये किस हद तक तैयार है। इसका मतलब यह है कि हरित जीडीपी पारंपरिक जीडीपी का प्रति व्यक्ति कचरा और कार्बन के उत्सर्जन का पैमाना है। जो कितना घट या बढ़ रहा है। दुनिया में चीन पहला देश है। जिसने 2004 में पहली बार अपने सकल घरेलू उत्पाद में हरित जीडीपी का फॉर्मूला और पैमाना पेश किया था। आर्थिक विकास में पर्यावरण नुकसान की कीमत को लेकर पहली बार चीन ने ही 2006 में 2004 के आँकड़े जारी किए थे। हरित जीडीपी का आँकड़ा जारी करने की दिशा में भारत की सोच 2009 में बढ़ी, जब तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि भारत के वैज्ञानिक भी हरित जीडीपी का अनुमान लगा सकते हैं। इसके बाद भारत में तब के सांख्यिकी प्रमुख प्रणब सेन की अध्यक्षता में जीडीपी में हरित जीडीपी के आँकड़ों पर अध्ययन शुरू हुआ और पहली बार इसकी सूची इस साल यानी 2015 में जारी की गई।
हरित जीडीपी को समझने के लिये दुनिया पर लगातार बढ़ रहे आर्थिक दबाव और उसके लिये लगातार पर्यावरण को हो रहे नुकसान को भी जानना समझना होगा। लगातार बढ़ती आबादी, औद्योगिक क्रांति का बढ़ता दबाव और उससे बढ़ते प्रदूषण के चलते जिस तरह जलवायु परिवर्तन होता जा रहा है, उससे दुनिया पर सतत और हरित विकास की ओर आगे बढ़ने का दबाव बढ़ रहा है। यह बात और है कि ट्रिकल डाउन सिद्धांत के खोल में लगातार बढ़ते आर्थिक उदारीकरण की व्यवस्था में आगे बढ़ चुके और पीछे रह गए। दोनों तरह के देशों को कार्बन उत्सर्जन को रोकने और हरित व्यवस्था की तरह आगे बढ़ने की फिक्र कम ही है। मौजूदा वैश्विक व्यवस्था में हर देश चाहता तो है कि आगामी पीढ़ियों के लिये स्वच्छ वातावरण और जलवायु देकर जाए लेकिन अपनी आर्थिक ताकत बढ़ाने के लिये वह मौजूदा खाँचे की अर्थव्यवस्था में अपना औद्योगिक उत्पादन पर कटौती करने को तैयार नहीं है लेकिन लगातार बिगड़ती आबोहवा और बढ़ते प्रदूषण की वजह से किसी न किसी को आगे आना ही होगा और अब समय आ गया है कि दुनिया को हरित अर्थव्यवस्था यानी ग्रीन इकोनॉमी में निवेश बढ़ाना ही होगा। यानी अपने औद्योगिक उत्पादन के लिये ऐसे ईंधन का इंतजाम करना और उसका इस्तेमाल बढ़ाना होगा, जिससे पृथ्वी का प्राकृतिक मिजाज बना रहे और पारिस्थितिकीय संतुलन भी बना रहे है। हरित सकल घरेलू उत्पाद यानी ग्रीन जीडीपी की अवधारणा इसी विचार पर केंद्रित है।
2011 में कीनिया की राजधानी नैरोबी में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानी यूनाइटेड नेशन एनवायर्नमेंट प्रोग्राम यानी यूएनईपी की पहली बैठक में दुनिया को बचाने की दिशा में सोचने विचारने वाले आर्थिक और वैज्ञानिक जानकारों ने हरित जीडीपी को कुछ इसी अंदाज में जाहिर किया था। नैरोबी में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की जो रिपोर्ट पेश की गई, उससे पता चलता है कि अगर पूरी दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का सिर्फ दो फीसदी हिस्सा सिर्फ दस अहम क्षेत्रों में खर्च किया जाए तो दुनिया ग्रीन इकोनॉमी के रास्ते पर आसानी से चल पड़ेगी। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के आर्थिक और व्यापार विभाग के मुखिया स्टीव स्टोन का तब कहना था कि अगर तमाम देश ग्रीन इकोनॉमी यानी हरित अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ चलेंगे तो उन्हें अपने संसाधनों का इंतजाम करने में आसानी होगी। स्टोन के मुताबिक हरित संसाधनों का ज्यादा से ज्यादा फायदा आम लोगों को मिल सकेगा। स्टीव स्टोन का कहना था कि हरित अर्थव्यवस्था की तरफ जाने का असल मंत्र यही है कि देश अपना आर्थिक संसाधन किस तरह खर्च कर रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण कार्यक्रम का मानना था कि जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल के साथ ही खेती, बागवानी और मत्स्य पालन जैसे क्षेत्रों पर हो रहे खर्च और उनमें इस्तेमाल किए जा रहे तरीकों पर हरित विकास काफी कुछ निर्भर करेगा। हैरत की बात यह है कि खेती में बढ़ते कीटनाशकों और रासायनिक खादों का इस्तेमाल, ऊर्जा के लिये कोयले और पेट्रोल डीजल के बढ़ते इस्तेमाल ने औद्योगिक उत्पादन पर कहीं ज्यादा खराब असर डाला है। संयुक्त राष्ट्र संघ का मानना है कि अगर सिर्फ इन्हीं क्षेत्रों में तत्काल खर्च बढ़ाया जाए और जैविक संसाधनों का इस्तेमाल प्रोत्साहित किया जाए तो दुनिया को हरा-भरा बनाए रखने की दिशा में बड़ा योगदान दिया जा सकता है और निश्चित तौर पर इसका फायदा हरित अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की दिशा में दिख सकता है। मौजूदा हरित विकास में बाधक एक और मुद्दा है; वनों की अवैध कटाई। संयुक्त राष्ट्र संघ का पर्यावरण प्रोग्राम इस विषय में बार-बार दुनिया को चेता चुका है।
पूरी दुनिया में वनों की अवैध कटाई, वनोपज का अवैध और अंधाधुंध व्यापार के साथ ही वन्य जीवों के गैर कानूनी कारोबार पर पूरी दुनिया का ध्यान तो गया है लेकिन इस पर काबू पाने के कारगर उपाय की तरफ दुनिया की कोशिशें वैसी नजर नहीं आ रही हैं, जितनी की अपेक्षित हैं। दिलचस्प बात यह है कि इससे भी हरित अर्थव्यवस्था की राह में बाधा आ रही है। यूएनईपी का मानना है कि अगर वैश्विक अर्थव्यवस्था में 13 ट्रिलियन डॉलर की रकम हर साल लगाई जाए तो कार्बन उत्सर्जन हैरतअंगेज तरीके से कम किया जा सकेगा और प्रदूषण रहित ऊर्जा की मात्रा और इस्तेमाल बढ़ाए जा सकेंगे। पर्यावरण कार्यक्रम के मुताबिक इसी से हरित विकास की जो राह खुलेगी, वह पृथ्वी व दुनिया को रहने और जीवन योग्य बनाने की दिशा में बेहद कारगर होगी।
वैसे भी दुनिया की जैव विविधता का काफी सारा हिस्सा पहले ही या तो नष्ट हो चुका है या फिर बर्बाद कर दिया गया है। लगातार बढ़ती खाद्य वस्तुओं की कीमतों की एक बड़ी वजह जैव विविधता का हुआ नुकसान भी है। हालाँकि इसकी तरफ कम ही ध्यान दिया जा रहा है। जबकि पर्यावरणविद इसका जल्द से जल्द निदान करने पर जोर दे रहे हैं। वैसे भी भारतीय दर्शन प्राणी मात्र से प्यार करने और उन्हें बचाने पर जोर देता है। भारतीय दर्शन में हर जीव को अपनी ही तरह माना गया है। भारतीय सामाजिक राजनीतिक चिंतक पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद में भी इसी दर्शन का विस्तार है। इसी वजह से ये सारे विचार और दर्शन मानते हैं कि प्रजातियों को नुकसान और पर्यावरण की दुर्दशा का सीधा संबंध मानवता की भलाई से है। दिलचस्प यह है कि इस तथ्य को अब मौजूदा अर्थव्यवस्था के जानकार और पर्यावरणविद भी मानने लगे हैं।
हालाँकि जिस आर्थिक व्यवस्था को हमने स्वीकार किया है, उसमें अभी मौजूदा तौर-तरीके से न सिर्फ-वृद्धि जारी रहेगी, बल्कि प्राकृतिक पारिस्थितिकीय तंत्र का कृषि उत्पादन में रुपांतरण भी होता रहेगा। एकदम से पारंपारिकता की ओर लौटने का कम से कम अगले 50 साल तक सवाल ही नहीं है। ऐसे में यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि इस तरह का विकास प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के असल मूल्य को ध्यान में रखकर ही किया जाए। अगर हरित अर्थव्यवस्था सामाजिक समानता और सभी को मिलाकर बनती है तो तकनीकी तौर पर हर मनुष्य इसमें शामिल है। इसलिये एक ऐसी आर्थिक प्रणाली बनाने पर विचार किया जाना चाहिए, जिसमें सुनिश्चित हो सके कि सभी लोगों को एक संतोषजनक जीवन स्तर तो मिले ही, उन्हें व्यक्तिगत तथा सामाजिक विकास का भी अवसर मिले।
जाहिर है कि दुनिया को बचाने की दिशा में पर्यावरण की सुरक्षा ही कारगर हो सकती है। हरित जीडीपी के मापन ने हमें इस तथ्य को और व्यापकता से समझाया है।
इस सिलसिले में द इकोनॉमिक्स ऑफ इकोसिस्टम एंड बायोडॉयवर्सिटी (टीईईडी) की रिपोर्ट में व्यापक तौर पर चर्चा की गई थी। करीब दो दशक पहले आई इस रिपोर्ट के नतीजे बेहद चौंकाऊ थे। इस रिपोर्ट के मुताबिक कृषि के लिये रुपांतरण, बुनियादी ढाँचे के विस्तार और जलवायु परिवर्तन के नतीजतन 2000 में बचे हुए प्राकृतिक क्षेत्र का 11 प्रतिशत तक खत्म हो सकता है। यहाँ यह बता देना जरूरी है कि मौजूदा हालात में पृथ्वी पर खेती योग्य जमीन का सिर्फ करीब 40 प्रतिशत ही कृषि के कम प्रभाव वाले स्वरूप में है लेकिन जिस तरह से जनसंख्या का लगातार विस्तार हो रहा है और कृषि योग्य भूमि पर दबाव बढ़ता जा रहा है। उसी वजह से इस चालीस प्रतिशत जमीन से गहन खेती की जाने लगेगी और निश्चित तौर पर इसका नुकसान जैव विविधता में कमी के तौर पर भी नजर आ सकता है। जैव विविधता का नुकसान कुछ क्षेत्रों में तेजी से हो रहे शहरों के विकास से भी हो रहा है। जबकि कई इलाकों में ग्रामीण इलाके शहरों का रूप ले रहे हैं। शहरों के भीतर प्राकृतिक वृद्धि और नौकरियों तथा अवसरों की तलाश में बड़ी संख्या में गाँवों से शहरों की ओर पलायन भी बढ़ा है। और इसमें तेजी सबसे ज्यादा विकासशील देशों में देखने को मिल रही है। इस वजह से भी जलवायु पर असर पड़ रहा है।हरित जीडीपी के मापन की वजह से शहर भी बन रहे हैं। धनी देशों में शहरी इलाके धन-दौलत और संसाधनों के उपभोग और कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन पर केंद्रित हो रहे हैं। हैरत की बात यह है कि दुनिया की करीब 50 प्रतिशत आबादी पृथ्वी के 2 प्रतिशत से भी कम भाग पर रह रही है, जबकि बाकी 50 फीसदी आबादी दुनिया के 98 फीसद हिस्से पर रह रही है। जाहिर है कि इसका भी पर्यावरण पर उल्टा असर पड़ रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि दुनिया में ऊर्जा का 60 से 80 प्रतिशत का इस्तेमाल शहरी इलाके कर रहे हैं जबकि बदले में दुनिया का 75 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन वे ही कर रहे हैं। इसकी तुलना में ग्रामीण क्षेत्र महज 20 से 40 प्रतिशत ऊर्जा संसाधन की खपत कर रहे हैं और सिर्फ 25 फीसद ही कार्बन उत्सर्जन कर रहे हैं। एक बात और शहरों के विकास ने स्थानीय पर्यावरण पर असर डाला है। साफ पानी और स्वच्छता के अभाव के कारण गरीब ज्यादा प्रभावित हुए हैं। नतीजतन बीमारियाँ बढ़ी हैं और आजीविका पर असर पड़ा है।
मुंबई में 2005 में आई बाढ़ का कारण शहर की मीठी नदी का पर्यावरण संरक्षण नहीं करना माना जा रहा था। बाढ़ में 1000 से ज्यादा लोग मारे गए थे और शहर का जनजीवन अस्तव्यस्त हो गया था। गाँवों से शहरी इलाकों की तरफ पानी भेजने के दौरान पानी की लीकेज गंभीर चिंता का विषय है। शहरी इलाकों की इमारतें, परिवहन और उद्योग की वैश्विक ऊर्जा से संबंधित जीएचजी उत्सर्जनों में हिस्सेदारी क्रमश: 25, 22 और 22 प्रतिशत की है। हरित जीडीपी से ही यह तथ्य सामने आया है कि कम घने शहरों में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कम है और ये मौजूदा आर्थिक व्यवस्था के खाँचे में भी आर्थिक विकास में मददगार हैं।
दुनिया की सबसे महत्त्वपूर्ण महानगरीय अर्थव्यवस्थाओं का दुनिया की महज 12 प्रतिशत आबादी के साथ वैश्विक जीडीपी में 45 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। वैसे हरित जीडीपी से ही सामने आया है कि तेज और गहन पूँजी निवेश बुनियादी सुविधाओं, सड़कों, रेलवे, पानी और सीवेज प्रणाली की संचालन लागत को कम करती है। इस लिहाज से देखें तो जलवायु की रक्षा ग्रामीण संस्कृति ही कर सकती है लेकिन दुनिया का ध्यान शहरीकरण बढ़ाने पर ज्यादा है। हरित जीडीपी में इस पर भी विचार किया जाता है।
बहरहाल हरित जीडीपी के मापन के बाद सौर ऊर्जा, जिसे अक्षय ऊर्जा के इस्तेमाल पर भी जोर बढ़ रहा है। इसके साथ ही अब जैविक खेती की तरफ भी दुनिया आगे बढ़ रही है। यूरोप में तो पेट्रोल की खपत कम करने के लिये साइकिलिंग के आंदोलन को बढ़ावा दिया जा रहा है। नीदरलैंड तो अब साइकिलों के देश के तौर पर ही विख्यात हो गया है। इसी तरह अपने यहाँ शहरी कृषि में नगर निगम के बेकार पानी और अपशिष्ट का दोबारा इस्तेमाल करके पानी को बचाया जा सकता है। इस तरह शहरों में परिवहन लागत को भी कम किया जा सकता है, जैव विविधता और गीली भूमि को संरक्षित किया जा सकता है। इससे हरित पट्टी का बेहतर इस्तमाल किया जा सकता है।
पाइपों के उन्नयन और उन्हें बदल देने से अनेक औद्योगिक शहरों में 20 प्रतिशत पीने का पानी बचाया जा सकता है। दिल्ली में पानी की जबरदस्त किल्लत से निपटने के लिये नगर निगम ने उन इमारतों में बारिश का पानी जमा करना अनिवार्य बना दिया है, जिनकी छत का क्षेत्रफल 100 वर्ग मीटर से ज्यादा है। अनुमान है कि इस तरह अकेले दिल्ली से ही हर साल 76500 मिलियन लीटर पानी जमीन में भेजा जा सकेगा। चेन्नई में शहरी जमीन में पानी के रिचार्ज से 1988 से 2002 के बीच भूजल स्तर चार मीटर तक बढ़ा दिया। जाहिर है कि दुनिया को बचाने की दिशा में पर्यावरण की सुरक्षा ही कारगर हो सकती है। हरित जीडीपी के मापन ने हमें इस तथ्य को और व्यापकता से समझाया है।
लेखक टेलीविजन पत्रकार और स्तंभकार हैं। राजनीतिक, सामाजिक और विकास से जुड़े मुद्दों के अध्ययन और मनन में उनकी खास दिलचस्पी है। संप्रति ‘लाइव इंडिया’ समाचार चैनल से संबद्ध हैं। पूर्व में जी न्यूज, इंडिया न्यूज, सकाल टाइम्स, दैनिक भास्कर, अमर उजाला आदि संस्थानों में काम कर चुके हैं। ‘बाजारवाद के दौर में मीडिया’ नाम से पुस्तक प्रकाशित। ईमेल : uchaturvedi@gmail.com