आज मानर मल्ला गाँव खूबसूरत घने जंगल से घिर चुका है। गाँव के चार बड़े जलस्रोत भी रिचार्ज हो चुके हैं। अब यहाँ पानी की कोई किल्लत नहीं रही है। गाँव में सिर्फ जल संरक्षण के लिये काम नहीं हुआ बल्कि जंगल को भी पनपाया गया। पेड़ की उपलब्धता के साथ-साथ पानी भी स्वस्फूर्त रिचार्ज होता गया। यही वजह है कि गाँव में पानी की किल्लत भी दूर हुई और हरियाली भी एक लम्बे समय बाद गाँव में लौट आई है।
उत्तराखण्ड में पानी त्रासदी को यहाँ की महिलाएँ ही समझ सकती हैं। यही वजह है कि समाधान भी वे महिलाएँ ढूँढ निकालती हैं। यहाँ का इतिहास गवाह है कि प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा बाबत जब-जब महिलाएँ आगे आईं तब-तब सरकारों को निर्णय लेना पड़ा, वह चाहे चिपको हो, रक्षासूत्र आन्दोलन हो या राज्य प्राप्ति का आन्दोलन हो। इन सभी लड़ाइयों में राज्य की महिलाओं की अग्रणी भूमिका रही है। अब ऐसा लग रहा है कि अगली लड़ाई महिलाओं की ‘पानी के संरक्षण’ की होने वाली है।
टिहरी जनपद के पटुड़ी गाँव में पेयजल की समस्या का समाधान, पौड़ी जनपद के रामजीवाला गाँव में जल समाधान और उफरैखाल की जल तलैया बिना महिलाओं के आज एक नजीर नहीं बनती। इसी तरह चम्पावत जनपद के मानर मल्ला गाँव में महिलाओं ने पुरुषों को जता दिया कि पानी संकट का समाधान सामूहिक रूप से ही किया जा सकता है।
बता दें कि नेपाल की सीमा से लगे उत्तराखण्ड के चम्पावत क्षेत्र के मानर मल्ला गाँव में एक सौ परिवार निवास करते हैं। गाँव की संख्या लगभग 1000 बताई जाती है। उत्तर प्रदेश के जमाने से ही यह गाँव पेयजल की समस्या से जूझ रहा था। किन्तु उन्हें विश्वास था कि जब कभी उनका उत्तराखण्ड वजूद में आएगा तो उनके गाँव की यह मूलभूत समस्या वैसे ही समाप्त हो जाएगी। परन्तु पेयजल की यह समस्या वहाँ के लोगों को राज्य बनने के बाद और पीड़ा देने लग गई। राज्य वजूद में आया, मगर वहाँ की इस पेयजल की समस्या पर मौजूद जन-प्रतिनिधियों ने कभी भी नजर डालने की जहमत नहीं उठाई।
गाँव की आबोहवा इतनी बेरुखी बनती जा रही थी कि सरकारी वन निगम के ठेके भी बची-खुची प्रकृति पर प्रहार कर रहे थे। फलस्वरूप इसके गाँव के पास जंगल भी खत्म हो गए। प्राकृतिक जलस्रोत सूख गए। ग्रामीण महिलाओं की कमर पानी ढो-ढोकर टेड़ी हो गई। यही नहीं ये गाँव की महिलाएँ उन दिनों बूँद-बूँद पानी को तरसती ही रहती थीं। हरियाली का दूर-दूर तक गाँव में नामोनिशान न था। भूजल स्तर गर्त में जा समाया था। पानी ढोने की जिम्मेदारी अब सिर्फ-व-सिर्फ महिलाओं के सिर पर आन पड़ी। इसके लिये उन्हें गाँव से लम्बी दूरी तय करनी पड़ती थी।
इस हालात का सबब इतना था कि मानर मल्ला गाँव में पेयजल को लेकर परेशानी दिनों दिन बढ़ती ही जा रही थी और जिसका समाधान करना ग्रामीणों को जरूरी हो गया था। त्रस्त हो उठी मानर मल्ला गाँव की महिलाओं ने मंथन शुरू कर दिया।
इस सामूहिक कार्य में बायफ डेवलपमेंट एंड रिसर्च फाउंडेशन संस्था ने उनका हर पल साथ दिया। उन्होंने अब शहर से गाँव पहुँचने वाले कुछ जानकारों से भी चर्चा करनी आरम्भ कर दी। उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि समस्या का मूल कारण क्या हो सकता है। हरियाली से ही तो रास्ता निकल सकता था। हरियाली लौटाने का संकल्प लिया गया। गाँव की महिलाएँ स्वयं के संसाधनों से वृक्षारोपण की कार्ययोजना पर काम आगे बढ़ाने लग गईं। वर्ष भर का प्लान तैयार हो गया। खाली पड़ी जमीन पर वृक्षारोपण करना आरम्भ कर दिया गया। एक तरफ वृक्षारोपण और दूसरी तरफ बरसाती पानी के एकत्रिकरण का काम भी शुरू हुआ।
ऐसे किया समाधान
मानर मल्ला गाँव की 80 महिलाएँ एकजुट हो गईं। एक समूह का गठन किया गया। उन्होंने तय किया कि अपने गाँव के इर्द-गिर्द की सारी बंजर भूमि को हरे-भरे जंगल में तब्दील कर देंगी। उन्हें पता चल चुका था कि वृक्षों की मौजूदगी से जलस्तर स्वतः ऊपर आ जाएगा और महिलाएँ पौधरोपण में जुट गईं। यही नहीं उन्होंने प्रतिकूल स्थितियों में भी पौधों की देखरेख करती रहीं। साल 2004 से आरम्भ हुआ जल संरक्षण का काम रंग देता दिखाई दिया। इसी तरह 12 साल बीत गए। संकल्प अन्ततः पूर्ण हुआ।
आज मानर मल्ला गाँव खूबसूरत घने जंगल से घिर चुका है। गाँव के चार बड़े जलस्रोत भी रिचार्ज हो चुके हैं। अब यहाँ पानी की कोई किल्लत नहीं रही है। गाँव में सिर्फ जल संरक्षण के लिये काम नहीं हुआ बल्कि जंगल को भी पनपाया गया। पेड़ की उपलब्धता के साथ-साथ पानी भी स्वस्फूर्त रिचार्ज होता गया। यही वजह है कि गाँव में पानी की किल्लत भी दूर हुई और हरियाली भी एक लम्बे समय बाद गाँव में लौट आई है।
संगठन के प्रयास का नतीजा
मानर मल्ला गाँव चम्पावत जिला मुख्यालय से करीब 20 किलोमीटर दूर खेतीखान रोड पर पड़ता है। यहाँ कुल 100 परिवारों का बसेरा है। पर्यावरण संरक्षण को लेकर कार्य करने वाली संस्था बायफ डेवलपमेंट एंड रिसर्च फाउंडेशन ने विपत्ति की उस घड़ी में गाँव का सहयोग किया। उन्होंने ग्रामीणों को समझाया कि हरियाली न होने के कारण ही जलस्रोत समाप्त हो गए हैं।
यह बात गाँव वालों को समझ में आ गई। उन्होंने नरसिंह बाबा चारागाह विकास समूह बनाया। जिसका मकसद था वन पंचायत की 11 हेक्टेयर बंजर जमीन को जंगल में तब्दील करना। जिम्मा सम्भाला गाँव की 80 महिलाओं ने। सबसे पहले पौधों की नर्सरी बनाई गई। तैयार पौधों को बंजर जमीन में रोपा जाने लगा। बांज, बुरांश, खरसू, मोरू, भीमल और काफल के अलावा कई अन्य प्रजातियों के करीब 27 हजार पौधे रोपे गए। गाँव में ही जैविक खाद तैयार की जाती रही और पौधों में डाली जाती रही। पौधों के लिये पानी का इन्तजाम बरसाती पानी का संरक्षण कर किया जाने लगा।
बच्चे की तरह पाला
बंजर जमीन को हरियाली में बदलने वाले इस समूह में अब सौ से अधिक महिलाएँ हैं। समूह की वरिष्ठ सदस्या विमला देवी कहती हैं कि 12 साल से इस जंगल को बच्चे की तरह पाल रहे हैं। गाँव की महिलाएँ हर दिन क्रमवार वृक्षों की सुरक्षा का जिम्मा लेती हैं। उनकी देखभाल के साथ-साथ वे समय-समय पर वृक्षों को सिंचने का काम करती रहीं। अब तो उन्हें यह सब नहीं करना पड़ रहा है।
एक समय था जब गाँव में पानी की बहुत समस्या थी, लेकिन आज यहाँ पानी की कोई समस्या नहीं है। वहीं, तुलसी देवी बताती हैं कि जंगल से जलावन लकड़ी काटने के लिये लोगों को महिलाओं के समूह से स्वीकृति लेनी पड़ती है। बेवजह लकड़ी काटने वाले पर 500 रुपए का जुर्माना लगाया जाता है। वे आगे बताती हैं कि हम सब मिलकर इसकी देखरेख करते हैं। यही वजह है कि आज मानर मल्ला गाँव के आस-पास ग्यारह हेक्टेयर में मिश्रित वन तैयार हो चुका है।