मुडाला-दोगी गाँव में 90 परिवारों की 432 की जनसंख्या पहले भी दो प्राकृतिक जलस्रोतों पर निर्भर थी। साल 2000 के बाद इन जलधारों से पानी की मात्रा तेजी से घटने लगी और 2008 तक इन जलधारों ने लोगों के हलक तर करने में एकदम असमर्थता जता दी। रमेश चौहान ने गाँव का अध्ययन किया तो पाया कि ग्रामीणों के द्वारा ही जाने अनजाने में प्राकृतिक असन्तुलन बनाया गया। खैर ग्रामीणों ने फिर से अपने पर्यावरण को लौटाने का संकल्प लिया और 10 वर्ष बाद मुडाला-दोगी का पर्यावरण पूर्व की भाँति लौट आया।
यह ‘धारा’ कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है, बल्कि एक सशक्त सामाजिक विचारधारा है, जिस विचार से लोग स्वस्थ हैं, वह विचार किसी महापुरुष ने भी नहीं गढ़ा, ना ही किसी विद्वान का सन्देश है। यह विचारधारा प्राकृतिक जलस्रोतों के संरक्षण और पुनर्जीवित करने का एक मजबूत संकल्प है। जैसे कि पहले लोग जल संरक्षण को आध्यात्म, पवित्र और पूजनीय मानते थे। जिसे उत्तराखण्डी समाज में जल संस्कृति कहा जाता था, को मुडाला-दोगी गाँव के ग्रामीणों ने फिर से अपने गाँव के प्राकृतिक जलधारों को संरक्षण करने का संकल्प लिया है।ऐसे जल संरक्षण के कार्य को यहाँ के ग्रामीण पिछले 10 वर्षों से एक पर्व के रूप में मनाते आ रहे हैं। इसकी शुरुआत मार्च 2006 में ‘धारा बचाओ’ आन्दोलन के रूप में टिहरी गढ़वाल के मुडाला-दोगी गाँव के युवा रमेश चौहान ने की।
बता दें कि उत्तराखण्ड के टिहरी और पौड़ी जनपद से सर्वाधिक पलायन बताया जाता है। दर्जनों गाँव ऐसे हैं जो एकदम खाली हो चुके हैं। इन गाँवों की भी पेयजल की एक विकट समस्या थी, इस कारण कइयों ग्रामीणों ने गाँव छोड़ दिया। पर यहीं पर पौड़ी जनपद से लगे टिहरी के मुडाला-दोगी गाँव के लोगों ने पलायन को धता बताते हुए कहा कि वे प्रकृति के गोद में रहते हैं, लिहाजा वे अपने गाँव में पूर्व की भाँति प्रकृति-पर्यावरण को वापस लौटाएँगे। आखिर हुआ ऐसा ही और वर्तमान में मुडाला-दोगी गाँव के रमेश चौहान के धार बचाओ अभियान से आस-पास के दो दर्जन से भी अधिक गाँव जुड़ चुके हैं।
यही नहीं इस अभियान के कारण अकेले मुडाला-दोगी गाँव में पिछले 10 वर्षों से रोपे गए 10 हजार पेड़ आज एक जंगल का रूप ले रखे हैं, साथ-साथ गाँव के दो प्राकृतिक जलधारे भी फिर से पुनर्जीवित हो गए हैं। यही नहीं इस अभियान के साथ अब तक 1000 से अधिक लोगों ने सदस्यता ले रखी है और वे अपने गाँवों को इस कार्यक्रम का हिस्सा बना रहे हैं।
ग्रामीणों ने बताया कि उन्होंने मौजूदा भौतिकवादी सभ्यता की नब्ज को परखते हुए यह निर्णय लिया कि यदि ग्रामीण जलधारों को बचाने के लिये आन्दोलित होंगे तो वे अपने पर्यावरण को बचाने में भी सफल होंगे। उन्हें सूझा कि वे वृक्षों का रोपण करेंगे तो धरती में नमी रहेगी, धरती में नमी रहेगी तो जलधारों में भी पानी की मात्रा स्वतः ही बढ़ जाएगी। इस हेतु उन्होंने ‘लोक ज्ञान’ को महत्त्व दिया और लोगों का जो रिश्ता पूर्व में पानी और पेड़ से था उस भावना को एक आन्दोलन का रूप दे दिया। ग्रामीणों का काम यहीं पर ठहर नहीं जाता बल्कि उन्होंने अपने गाँव में जल संरक्षण के लिये नियम-कायदे भी तय किये हुए हैं कि गाँव में जो भी शादी, चूड़ाकर्म, मुण्डन जैसे शुभ संस्कार होते हैं, उस अवसर पर अमुक परिवार के सभी सदस्य इस दिन वृक्षारोपण भी करेंगे और जल धारों की साफ-सफाई भी करेंगे। इस तरह इस अभियान से लोग स्वतः ही जुड़ रहे हैं।
मुडाला-दोगी गाँव में दुल्हा-दुल्हन शादी की अगली सुबह अपने गाँव के ही जलधारे के पास जाकर संयुक्त रूप से जल देव का स्मरण करते हैं, जलस्रोत (धारे) में पारम्परिक पूजा अर्चना कर अपने सुखमय भविष्य की कामना करते हुए अपने दाम्पत्य जीवन को प्रारम्भ करते हैं। इस तरह से सांस्कृतिक एवं भावनात्मक परम्परा के अनुसार जल दोहन और संरक्षण की इस अभिनव पहल ने क्षेत्र में एक विशाल अभियान का रूप ले लिया है। फलस्वरूप इसके जलस्रोत के जलागम क्षेत्र में इस अनोखी पहल ने अब अपना स्वरूप दिखाना आरम्भ कर दिया है।
मुडाला-दोगी गाँव के लोगों की इस पहल का असर उनके गाँव सहित आस-पास के गाँवों के महिला मंगल दलों, वन पंचायतों, स्वयं सहायता समूहों एवं पंचायती राज संस्थाओं से जुड़े कार्यकर्ता पर दिखने लग गया है। इसलिये वे अपने-अपने क्षेत्रों में अपने कार्यक्रमों के साथ ‘धार बचाओ अभियान’ को अनिवार्य कार्यक्रम बना रहे हैं।
गौरतलब हो कि भूमण्डलीकरण के दौर में इस कार्यक्रम के उद्देश्य की पूर्ति के लिये अभियान ने लोक परम्पराओं को महत्त्व दिया है और ‘जल संरक्षण’ के साथ सूख रहे जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया है। धार बचाओ आन्दोलन को एक जन अभियान बनाने के लिये गाँव-गाँव में धार बचाओ संगठन गठित होने लग गए हैं। ग्रामीणों ने बताया कि इसके बाद वे उत्तराखण्ड स्तर पर पारम्परिक जल संस्कृति का व्यापक नेटवर्क तैयार करने जा रहे हैं। इसके मार्फत वे भविष्य में ‘एक जलनीति’ की वकालत करेंगे। ताकि उत्तराखण्ड सरकार राज्य की जल संस्कृति के अनुरूप जलनीति बनाने में ऐसे रचनात्मक समूहों का उपयोग कर पाये।
धार बचाओ अभियान से जुड़े ग्रामीण मुडाला-दोगी में एकत्रित होकर प्रत्येक वर्ष अगस्त माह के मध्य में अपनी सुविधानुसार तीन दिवसीय धार बचाओ दिवस मनाते हैं। इस अवसर पर वे पौधारोपण, जलस्रोतों की साफ-सफाई, गीत-नृत्य के साथ-साथ वे फिर से अगले वर्ष तक जल व पेड़ संरक्षण का संकल्प लेते हैं कि वे पेड़ व पानी का दोहन एवं संरक्षण ‘लोक विज्ञान’ के अनुरूप ही करेंगे। खास बात यह है कि इस दिवस के अवसर पर गाँव की ‘नव दम्पति’ एकत्रित होकर अभियान को अंजाम देते हैं।
इस तरह परम्परा को उत्सवों से जोड़ने का अभिनव प्रयास मुडाला-दोगी गाँव में ही दिखाई देता है। इधर इस ‘लोक ज्ञान’ में पहले से ही ऐसी भावना समाहित है कि दुल्हन को दहेज में गागर इसलिये मिलती है कि ससुराल में प्रवेश करते ही वे इस गागर को लेकर ‘जल धारा’ की पूजा करे। इसके बाद वह गागर में जल भरकर घर की उन्नति की कामना करती है। अर्थात जलधारा पूजन के पीछे जल संरक्षण की सोच यहीं से पैदा हुई है। मुडाला-दोगी गाँव के जैसे यह क्रम चलता रहा तो आने वाले समय में जल संकट से निपटा जा सकता है। यदि धारे/जलस्रोत नहीं रहेंगे तो धार पूजा जैसी परम्पराएँ औचित्यहीन हो जाएँगे। ऐसा यहाँ के लोगों का मानना है।
धार बचाओ आन्दोलन के सूत्रधार रमेश चौहान ने बताया कि 10 वर्ष पहले जब यह अभियान गाँव में आरम्भ किया गया तो लोग इस अभियान को एक ड्रामा समझ रहे थे, परन्तु आज यह स्थिति हो चुकी है कि क्षेत्र में लोग अब धार बचाओ अभियान के कार्यक्रम स्वयं ही अपने व्यक्तिगत और सामूहिक समारोह में अनिवार्य रूप से करने लग गए हैं।
शादी के अवसर पर, चूड़ाकर्म व मुण्डन, तमाम शुभ संस्कारों के अवसर पर लोग स्वतः ही पेड़ लगाना और जलधारे की पूजा करना एवं साफ-सफाई करना नहीं भूलते हैं। इसी कारण आज पूरा गाँव शुद्ध पर्यावरण ही नहीं बल्कि पानी की उपलब्धता के साथ-साथ घास, लकड़ी, चारा-पत्ती की समस्या से भी निजात पा गए हैं। गाँव के दोनों प्राकृतिक जलस्रोत पुनः बहाल हो उठे। आस-पास के ग्रामीणों ने भी जब से धार बचाओ आन्दोलन का अनुसरण किया तो इस क्षेत्र की लगभग 10 हजार की जनसंख्या को पेयजल, लघु सिंचाई जैसी समस्या से छुटकारा मिला।
उल्लेखनीय हो कि जल संचय एवं संवर्धन के इस ‘लोक ज्ञान’ को सूचना के युग में ग्रामीणों ने चुनौती दी है। जबकि इस अभिनव पहल के कारण अन्य गाँव भी इस अभियान से जुड़े और अभियान को व्यापक स्वरूप दिया जा रहा है। इस रणनीति के कारण गाँव में जनभागीदारी बढ़ती हुई दिखाई दे रही है। और-तो-और गाँव का हर सदस्य जल संस्कृति, पर्यावरण संरक्षण के प्रति कृत्संकल्प नजर आ रहा है। गाँव में प्रत्येक परिवार घर में होने वाले विवाह, मुंडन संस्कार, जन्म दिवस जैसे आयोजनो में वे अब ‘धार बचाने’ के कार्यक्रम खुद ही निश्चित कर देते हैं।