इजराइली तरीके से बारिश का पानी तिजोरी में

Submitted by editorial on Tue, 08/07/2018 - 16:14

पानी से लबालब भरा प्रहलाद का तालाबपानी से लबालब भरा प्रहलाद का तालाबआपने शायद ही कभी सुना होगा कि बारिश के पानी को तिजोरी में रखा जाता हो, लेकिन मालवा के किसान अपने खेतों पर इसे साकार कर रहे हैं। उन्होंने इसके लिये बाकायदा जमीन पर लाखों की लागत से पॉलिथीन बिछाकर बारिश से पहले ही इस पानी को इजराइली तरीके से अपनी तिजोरी में स्टोर करने की पूरी तैयारी कर रखी थी। इस बारिश का करोड़ों लीटर पानी अब इसमें संग्रहित हो चुका है, जो गर्मियों में भी फसल लहलहाएगा। मालवा के कई खेतों पर बीते दो सालों में ऐसी तिजोरियाँ (पॉलिथीन के कृत्रिम तालाब) बनाई गई हैं।

पानी को बनाया नहीं जा सकता, सिर्फ बरसाती पानी को बचाया जा सकता है। इसलिये अब लगातार पानी के लिये परेशान होते किसानों को यही रास्ता दिखाई दे रहा है। मालवा निमाड़ में खेती के लिये अब ऐसी कई तकनीकें इस्तेमाल की जा रही हैं, जिनसे बारिश के पानी को सहेजा जा सके। इजराइल में पानी की कमी से ऐसी कई तकनीकें पहले से इस्तेमाल की जा रही हैं। इजराइल सिर्फ हथियार और युद्ध का प्रशिक्षण ही नहीं देता, बल्कि पानी बचाने की नायाब तकनीकें भी सीखा रहा है। अपनी युद्धकला के लिये मशहूर इजराइल से डिग्रीधारी किसानों ने पानी बचाने की सीख ली है।

मध्य प्रदेश में इन्दौर के पास तिल्लौरखुर्द के किसान चिन्तक पाटीदार ने सीए की पढ़ाई छोड़कर खेती को अपनाया है। उन्होंने अपने खेत पर पॉली पोंड तैयार किया है। इस तरह के तालाब इसी गाँव में पाँच बन चुके हैं। पूरे इन्दौर इलाके में 40 तालाब इसी साल बनाए गए हैं। चिन्तक के पास 20 बीघा जमीन है। सवा बीघा में तालाब तैयार किया है। इसकी लागत 6 लाख रुपए आई है। महज 15 दिन में पोकलैंड मशीन से खुदाई की गई है। इसकी लम्बाई 165 फीट और चौड़ाई 185 फीट है जबकि गहराई 20 फीट है। इसमें डेढ़ करोड़ लीटर पानी की क्षमता है।

चिन्तक बताते हैं- "बारिश के पानी के बाद तीन बोरिंग और एक कुएँ से अब तक सोयाबीन के बाद आलू की फसल ले लेते थे। लेकिन उसके बाद तीसरी फसल प्याज बोने तक पानी सूख जाता। तीसरी फसल प्याज के लिये इस स्टोर पानी का इस्तेमाल करेंगे। अनुमान है कि एक ही सीजन में प्याज की फसल से तालाब की लागत वसूल हो जाएगी। पानी की कमी तथा अन्य कारणों से खेती लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही है। ऐसी हालत में यह सबसे जरूरी है कि हर किसान पानी के मामले में आत्मनिर्भर हो।"

वे आश्वस्त हैं कि इससे इस साल पूरी जमीन में सिंचाई हो सकेगी। इसमें मछलीपालन भी किया जा सकता है। इसके अलावा तालाब के लबालब भरे होने से इससे सायफन आधारित सिंचाई हो सकेगी तो बिजली या डीजल का खर्च भी बच सकेगा। इलाके में इस तरह के तालाब तेजी से बनाए जा रहे हैं। हालांकि यह बहुत महंगी प्रक्रिया है और आम किसान इसका इस्तेमाल शायद ही कर सके पर यह दिखाता है कि हमने पानी बचाने और सहेजने के जिन परम्परागत सहज और सस्ते तरीकों को भुला दिया उनकी एवज में आज हमें कितने महंगे और श्रमसाध्य तरीकों पर निर्भर रहना पड़ता है।

गौरतलब है कि मध्य प्रदेश और खासकर मालवा-निमाड़ के जिलों में खेती के लिये पानी सबसे बड़ी चुनौती बनती जा रही है। हर साल गर्मी का मौसम आते ही भूजल स्तर तेजी से गिरने लगता है और पानी के लिये हाहाकार शुरू हो जाता है। सत्तर के दशक में खेती के लिये नलकूपों के बढ़ते चलन से बड़े पैमाने पर किसानों ने बैंक से कर्ज लेकर बोरिंग और विद्युत मोटरों के जरिए धरती के पानी को गहरे तक जाकर उलीचा है। इसे सिंचाई के एकमात्र विकल्प के रूप में माना जाने लगा।

वर्ष 1975 से 1990 तक के 15 सालों में ही अकेले मालवा-निमाड़ इलाके में 18 फीसदी हर साल की दर से नलकूप खनन में बढ़ोत्तरी हुई। जबकि 1991 से 2018 में यह दर करीब 30 फीसदी तक पहुँच गई। नतीजतन अब गाँव-गाँव नलकूपों की संख्या 300 से 1000 तक है। परम्परागत संसाधनों को भुला कर करोड़ों साल से धरती में जमा बैंक बैलेंस की तरह पानी का उपयोग इस हद तक हुआ कि हमारे यहाँ नलकूपों से ही करीब 60 फीसदी सिंचाई होने लगी यानी अब हम ज्यादा-से-ज्यादा भूजल पर ही आश्रित होते जा रहे हैं।

प्रहलाद के खेत में आलू की फसलइन्दौर से 60 किमी दूर देवास जिले के चापड़ा के किसान प्रहलाद पाटीदार ने भी अपने खेत पर पॉली पोंड बनाया है। डेढ़ साल में वे इससे लागत का करीब दोगुना कमा चुके हैं। इसके लिये जमीन में 8 फीट गहराई तक खुदवाया तथा उसकी मिट्टी से जमीन सतह से ऊपर करीब 12 फीट की तालाब के आसपास पाल बनवाई है। इस तरह कुल 20 फीट के इस तालाब में जमा पानी को वे तिजोरी का पानी कहते हैं। इसमें सवा दो करोड़ लीटर पानी इकट्ठा रहता है। वे इस तालाब को दो तरह से इस्तेमाल करते हैं।

बारिश के वक्त इसमें बरसाती पानी इकट्ठा हो जाता है, जिसका उपयोग वे बारिश के बाद रबी की फसल में करते हैं। सर्दियों के बाद जब उनके खेत के कुएँ सूखने लगते हैं तो इन कुओं का पानी जल मोटर से उलीच कर इस पॉली पोंड में भर देते हैं। पालिथीन होने से इस पानी का वाष्पीकरण बहुत कम होता है। गर्मियों में भी काफी दिनों तक इसमें पानी भरा रह सकता है।

प्रहलाद पाटीदार बताते हैं- "इस तालाब में गर्मियों के दिनों में भी पानी संग्रहित रहने से अपने 30 बीघा जमीन में आसानी से साल की तीन फसल होती है। कुछ सालों पहले तक तो जमीन बेचने का ही सोच रहा था। यहाँ पानी नहीं होने से दो फसल भी नहीं ले पाते थे। जमीनी पानी 900 से हजार फीट तक नीचे चला गया था। इसी खेत में 700 से 800 फीट गहराई तक दो-तीन सालों में एक के बाद एक 13 बोर करवाए लेकिन धूल उड़ती ही मिली। सिर पर 20 लाख का कर्जा अलग हो गया। इसी बीच किसी ने बताया कि महाराष्ट्र में कुछ किसानों ने पोलिथीन के कृत्रिम तालाब बनाए हैं तो सोचा कि देख लेना चाहिए। आइडिया अच्छा लगा और यहाँ आकर 60 हजार वर्गफीट में तालाब बनवाया।"

प्रहलाद बताते हैं, "यह तालाब बन जाने के बाद 30 बीघा जमीन पर तीन फसल लेते हैं। करीब 7 बीघा में पहले प्याज लगाया, फिर आलू और फिर से प्याज। इसके अलावा बाकी जमीन में से 15 बीघा में गेहूँ, 2 बीघा में तरबूज और 7 बीघा में कद्दू की फसल ली है। खेत में ज्यादातर ड्रिप सिस्टम लगाया है ताकि पानी का किफायत से इस्तेमाल हो सके। फसल के साथ नगदी फसल के लिये डेढ़ बीघा में एप्पल बेर लगाए हैं। अब तक एक लाख से ज्यादा का बेच चुके हैं। बीते साल प्याज में ही इतनी बचत हुई कि तालाब की लागत से दोगुना बच गया। तालाब में कुल खर्च करीब साढे नौ लाख रुपए हुआ।"

वे अपने 30 बीघा जमीन को सिंचित करते हैं लेकिन उनके खेत के आसपास की बात करें तो पूरे बागली इलाके में सिंचाई तो दूर की बात आम लोगों और मवेशियों के लिये पीने के पानी की भी मारामारी रहती है। इस इलाके में सिंचाई के लिये इतने अधिक बोरवेल हो चुके हैं कि जलस्तर लगातार नीचे जाते हुए अब बहुत नीचे चला गया है। अधिकांश बोरवेल सूखे पड़े हैं।

अब प्रहलाद पाटीदार के खेत पर पानी की तिजोरी देखकर आसपास के गाँव में भी किसानों ने इसका अनुसरण करना शुरू कर दिया है। इस साल इलाके में करीब 20 से ज्यादा तालाब बारिश से पहले बनाए गए हैं और अब वे बरसाती पानी से लबालब हो चुके हैं। यहाँ से करीब 20 किमी दूर करनावद गाँव के किसानों ने ही 10 तालाब बनवाए हैं। इसके अलावा तीन छतरपुरा में, दो डेरिया साहू तथा दो तिस्सी गाँव में बनाए गए हैं।

किसान मोर्चा के मोतीलाल पटेल कहते हैं, "ऐसे इलाकों में जहाँ जलस्तर बहुत नीचे चला गया है, यह तकनीक बड़ी कारगर है। देवास के बागली इलाके में बीते पचास सालों में पानी की किल्लत कभी नहीं आई। लेकिन उपज और मुनाफा बढ़ने की होड़ में इस तरफ हजारों बोरवेल किये गए हैं। इसी वजह से जलस्तर बहुत नीचे चला गया। किसान कर्ज में दब गए। अब यहाँ बोरवेल सक्सेस ही नहीं है तो किसान अब पाने के लिये अन्य तकनीकों को अपना रहे हैं। प्रदेश सरकार पॉली पोंड पर कुछ सब्सिडी भी देती है, लेकिन यह बहुत कम है। इसे बढ़ाने के लिये शासन स्तर पर प्रस्ताव भी भेजा गया है।”

इलाके के कृषि विस्तार अधिकारी सुरेन्द्र सिंह उदावत कहते हैं कि यह एक अच्छी पहल है। अन्य किसानों को भी इसे अपनाना चाहिए। इससे पानी को सुरक्षित सहेजा जा सकता है तथा वक्त पर जरूरत में उपयोग कर सकते हैं। इसमें मछली भी पाली जा सकती है।

स्थानीय पत्रकार नाथूसिंह सैंधव बताते हैं कि बीते बीस सालों में पूरे मालवा क्षेत्र में ही पानी की जबरदस्त किल्लत महसूसी जाने लगी है। कुँए-तालाब पहले ही साथ छोड़ गए। इलाके की जीवनरेखा मानी जाने वाली कालीसिंध नदी भी बारिश के थोड़े दिनों बाद ही सूखने लगी। बोरवेल किसानों के लिये सिर दर्द बन गए। लाखों की लागत से करवाए गए बोरवेल भी गहरे होते जा रहे जलस्तर के साथ किसी काम के नहीं रहे। कई किसान तो बोरवेल की वजह से लाखों के कर्ज के तले दब गए। उनके घर की महिलाओं के जेवर-गहने बिक गए। पानी की कमी के चलते खेत बेचने की कगार पर आ गए। यहाँ की मिटटी खेत तालाब के लिये भी अनुकूल नहीं है। खेत तालाब का पानी मिट्टी सोख लेता है और वे भी सर्दियों के साथ ही सूख जाते हैं।

वे कहते हैं- "ऐसी स्थिति में कड़ी मेहनत करने वाले किसानों के सामने भी अपनी आँखों के सामने सूखी जमीन देखते रहना और फसलों को सूखते हुए देखना नियति बन चुकी है। ऐसे में यह तकनीक अब किसानों में लोकप्रिय हो रही है। बड़े किसान इसे आसानी से अपना रहे हैं। हालांकि यह बहुत महंगी तकनीक है लेकिन जिस किसान के पास पानी ही नहीं हो, उसके लिये बोरवेल करवाने से ज्यादा कारगर तो है ही। किसान के लिये खेती में सबसे ज्यादा जरूरी पानी ही होता है।"

लाखों की लागत से कृत्रिम पॉलिथीन तालाब बनाने की नौबत आखिर क्यों आई तो इसकी वजहें भी साफ-साफ नजर आती हैं। सदियों से मध्य प्रदेश के मालवा इलाके को 'डग-डग रोटी, पग-पग नीर' के नाम से पहचाना जाता रहा है। मतलब यह कि यहाँ जलस्तर अच्छा होने तथा परम्परागत जलस्रोतों की सहज मौजूदगी से यह इलाक हरा-भरा बना रहता था। आज यही इलाका बूँद-बूँद पानी के लिये मोहताज होता जा रहा है। इधर कुछ सालों में मनुष्य इतना स्वार्थी हो गया कि उसने प्रकृति से सिर्फ लेना-ही-लेना सीखा, इसका कुछ हिस्सा वह वापस लौटाना भूल ही गया।

अपने तालाब के साथ चिन्तक पाटीदारबारिश के पानी को न तो धरती में रंजाने की हमने चिन्ता की और न ही कभी हमारे परम्परागत जलस्रोतों को सहेजने की कभी कोई ईमानदार कोशिश की। बोरवेल आ जाने से हमने उन्हें लगभग बिसरा ही दिया। इधर लगातार धरती का पानी उलीचा जाता रहा। धरती का पानी नीचे गहराई में उतरने लगा तो भी किसी ने ध्यान नहीं दिया, बल्कि बोरवेल और गहरा करवा दिया। जिन नालियों, नदी-नालों और तालाबों के जरिए पानी धरती में धीरे-धीरे रंजता रहता था, वे कम से कमतर होते गए। कुएँ-कुण्डियाँ कचरा पेटी बन गए। परम्परागत खेती के तौर-तरीकों को छोड़कर ज्यादा मुनाफे की होड़ में हमने दूसरे देशों की भौगोलिक स्थिति समझे बिना वहाँ के बीज, फसलें, खाद और कीटनाशकों का इस्तेमाल तेज कर दिया।

इन्हीं सब कारणों से इन तीस सालों में पानी के मामले में हम कहाँ-से-कहाँ आ पहुँचे। जहाँ इन बीते सालों में हमने लाखों गैलन बरसाती पानी को व्यर्थ बह जाने दिया, अब हमें पानी के लिये लाखों रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं। यदि हमने पानी के लिये शुरू से ही ध्यान दिया होता तो शायद यहाँ तक नौबत ही नहीं आती। हालांकि आज भी समय है। जब जागे, तभी सबेरा की तर्ज पर अब भी बहुत कुछ किया जा सकता है। जरूरत है संकल्प शक्ति के साथ जमीन पर ठोस काम करने की। देश के कई इलाकों में इस तरह के काम शुरू भी हो चुके हैं, देखना है देश के बाकी लोग कब इसे अपनाते हैं। हमें अब पानी का मोल पहचानना ही होगा। अब भी नहीं पहचाना तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ नहीं करेंगी।

 

 

 

 

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