इस्तीफों ने उठाये गंगा प्राधिकरण की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल

Submitted by Hindi on Mon, 03/12/2012 - 11:02

प्राधिकरण दिखावटी: सदस्यता मजाक


‘20 फरवरी, 2010 को राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण बनने पर हमने सोचा था कि पुरानी गलतियां आगे नहीं दोहराई जायेंगी। विशेषज्ञ सदस्य बनकर हम खुश थे कि सरकार और समाज के बीच पुल बनाकर दोनो को उनके दायित्वो का एहसास करा सकेंगे। किंतु हमने पाया कि गंगा प्रधानमंत्री की प्राथमिकता पर नहीं है। प्राधिकरण और इसकी सदस्यता मात्र एक दिखावा व मजाक बनकर रह गये हैं। इसलिए इस्तीफा दिया।’ राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के तीन सदस्यों ने रविवार, 11 मार्च को दिल्ली के प्रेस वार्ता में अपनी यह वेदना मीडिया के सामने रखी।

पोर्टल ने किया था आगाह


उल्लेखनीय है कि ‘हिंदी वाटर पोर्टल’ ने करीब एक माह पूर्व फरवरी में जारी एक लेख में आगाह किया था कि वक्त आ गया है कि विशेषज्ञ प्राधिकरण छोड़ें। गंगा प्राधिकरण के तीन साल के कार्यों की समीक्षा हो। उसी संदर्भ को सजींदगी से लेते हुए 10 में से तीन विशेषज्ञ सदस्यों ने 10 मार्च को अपना इस्तीफा प्रधानमंत्री को फैक्स कर दिया। मैगसेसे सम्मानित राजेन्द्र सिंह, प्रो. राशिद हयात सिद्दिकी और रवि चोपड़ा। मैगसेसे सम्मानित एम सी मेहता, सुप्रीम कोर्ट के नामी वकील संजय पारिख और ’आईआई टीयन फॉर होली गंगा’ नामक संगठन के अध्यक्ष केके धर ने प्रेस वार्ता में पहुंच कर इस्तीफे को जायज बताते हुए अपना समर्थन जताया। इसके अलावा देशभर से बड़ी संख्या में ईमेल और फोन के जरिये संगठनों और लोगों ने इस्तीफे को प्रशंसनीय कदम करार दिया है।

प्रत्यक्षम् किम प्रमाणम्


इस्तीफा देने वाले सदस्यों ने आहूत प्रेस वार्ता में प्राधिकरण की निष्क्रियता व अधिकारिक सदस्यों की संवेदनहीनता के प्रत्यक्ष उदाहरण दिये - ’’तीन वर्षों में मात्र दो बैठकें। उस पर भी सरकारी अफसरों द्वारा पहले से तय एजेंडा। उत्तर प्रदेश, झारखण्ड और प. बंगाल - तीन मुख्यमंत्रियों के पास बैठक के लिए समय नहीं। उत्तरांचल के मुख्यमंत्री ने बैठक में जो कहा, उसके विपरीत ऊर्जा के नाम पर नदियों पर कहर ढाया। उत्तर प्रदेश ने एक्सप्रेसवे बनाकर गंगा-यमुना की जमीन बेच डाली। बिहार की प्राथमिकता रेत खनन, पनबिजली परियोजनायें और बाढ़. राहत का पैसा है, नदी और बाढ़ मुक्ति नहीं। झारखण्ड के हिस्से में थोड़ी सी गंगा है। वह कांवड़ियों पर खर्च कर ही काम चला रहा है। प. बंगाल ने गंगा के नाम पर सबसे ज्यादा 600 करोड़ रूपये खींच लिए। प्राधिकरण ने 3000 करोड़ की परियोजनायें मंजूर कर दी। उस पैसे से प. बंगाल, नदी में निर्माण कर घाट व दीवारें बना रहा है। गंगा के नाम पर आये पैसे से कानपुर, इलाहाबाद और बनारस की सड़के खोद डाली गई हैं। एसटीपी जैसे ढांचे बनाये जा रहे हैं। गंगा के नाम पर निर्माण और सिर्फ निर्माण के अलावा कुछ नहीं हो रहा है। गंगा कार्य योजना में भी तो यही हुआ था। फर्क सिर्फ यह है कि गंगा कार्ययोजना में तो सिर्फ 15 सौ करोड़ खर्च हुआ था, अब हम 15 हजार करोड़ बहा रहे हैं। चिंता तो इस बात की है कि इस सब पर विशेषज्ञ सदस्यों की राय लेना तो दूर, उन्हें बताया भी नहीं जा रहा। तो आखिर हम प्राधिकरण क्यों रहें ? क्या हम सिर्फ रबर स्टैंप बने रहने के लिए हैं ?

बेबसी ने किया विवश- ’’नो वन कैन टेक सैंड फ्राम गंगा’’ - पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के इस बयान का जिक्र करते हुए चोपड़ा ने आश्चर्य जताया कि बावजूद इसके देवप्रयाग के ऊपर मलेथा तक दर्जनों ट्रक रेत पर रेत उठा रहे हैं। उत्तराखण्ड जाकर देखिए। सड़क बन रही हो चाहे बांध या पुल... मलबा बेखौफ नदियों में डाला जा रहा है। यह सरकार के अपने बनाये कानूनों का उल्लंघन है। टिहरी बांध के नियमित पानी न छोड़ने से जहां कभी रेत दिखाई नहीं देता था, वहां भी गंगा में बालू के ढेर दिखाई देने लगे हैं। ऋषिकेश से 14 -15 किमी ऊपर नदी सूख गई है। उत्तराखण्ड में बिजली के नाम पर गंगा का शोषण जारी है, उत्तर प्रदेश में प्रदूषण। लोग हमसे पूछ रहे हैं कि आपके रहते यह सब कैसे हो रहा है ? हम सरकार से कहते रहे हैं कि हमे हमारी अधिकारिक भूमिका बताइये। सारी गलतियां हो ही रहीं हैं, तो प्राधिकरण और उसकी सदस्यता का क्या मतलब है ? उसमें विशेषज्ञों को सदस्य क्यों बने रहना चाहिए ? 9 में से 7 विशेषज्ञ सदस्यों ने 20 नवंबर, 2011 को प्रधानमंत्री जी को पत्र लिखकर यही पूछा था। अपनी सभी चिंतायें रखी थी। आपात् बैठक की मांग की थी। एजेंडा दिया था। वह बैठक आज तक नहीं हुई। 9 फरवरी को केंद्रीय पर्यावरण मंत्री से मिलकर अपनी चिंता जताई। उम्मीद की कि गंगा संरक्षण और प्रबंधन के सशक्त कानून बनाने की अपील पर कुछ प्रतिक्रिया होगी।

प्रो. सिद्दिकी ने कहा कि गोमुख से गंगा मूल की 135 किमी धारा के क्षेत्र को इको सेंसटिव यानी पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील अधिसूचित करने का निर्णय प्राधिकरण की एक उपलब्धि होती, लेकिन जब उसके मार्गदर्शी बिंदु सामने आये तो हम अवाक् रह गये। हमारी राय और हमारी सदस्यता.. दोनो ही जैसे मजाक बनकर रह गये हैं।

तपस्या की अनदेखी ने लांघी लक्ष्मणरेखा


राजेन्द्र सिंह ने प्राधिकरण की संवेदनशून्यता पर प्रहार करते हुए सवाल किया- ’’14 जनवरी से गंगा की अविरलता के लिए तपस्या पर बैठे प्रों जीडी अग्रवाल ने 9 मार्च से जल भी त्याग दिया है। उनकी हालत नाजुक है। प्रशासन ने उन्हें जबरन अस्पताल में भर्ती करा दिया है। आज तक सरकार का कोई प्रतिनिधि उनसे मिलने तक नहीं गया है। वे प्राण छोड़ने पर तत्पर हैं। भला ऐसे में हम पद पर कैसे बने रह सकते हैं ?’’

रवि चोपड़ा ने प्रो. जीडी अग्रवाल के गंगा के लिए अतिआवश्यक बताते हुए स्पष्ट किया कि वह पनबिजली के विरोधी नहीं हैं। वह जानते हैं कि देश के लिए नदी और बिजली... दोनो ही जरूरी है। उनका विश्वास है कि बांधों के नये डिजाइन बनाकर ऐसा किया जा सकता है। भारत में ऐसे डिजाइन बनाने वालों में प्रो. जीडी अग्रवाल से बड़ा नाम दूसरा नहीं है। सरकार उन्हें मारे नहीं, उनके प्राण बचाकर उनके ज्ञान का सदुपयोग करे।

कानून होते हुए भी उसकी उचित पालन न होने को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए एमसी मेहता और संजय पारिख ने आगाह किया कि राष्ट्रीय नदी घोषित किया है, तो सरकार उसका सम्मान भी सुनिश्चित करे; तभी उसका महत्व है। उन्होंने प्राधिकरण को सक्रिय करने के लिए सभी से एकजुट होने की भी अपील की। मेहता ने कहा कि गंगा को महज् एक नदी मानना गलत है। गंगा भारत की सांस्कृतिक थाती है। इसे खोना बड़ी क्षति होगी।

अगला कदम क्या होगा ?


इसके जवाब में राजेन्द्र सिंह ने बताया कि देशभर के नदी, संस्कृति, कानून व सामाजिक विशेषज्ञों को जोड़कर जलबिरादरी पिछले एक साल से गंगा के संरक्षण व प्रबंधन हेतु जरूरी कानून का प्रारूप तैयार कर रही है। अगले एक सप्ताह के भीतर इस प्रारूप को अंतिम रूप दे दिया जायेगा। सरकार उसे आधार बनाकर कानून बनाये। सरकार को इस हेतु बाध्य करने के लिए रणनीति बनाई जायेगी।

प्रेस वार्ता में उद्धृत उक्त विचारों, संदर्भों ने प्राधिकरण की निष्क्रियता पर तो निशाना साधा ही, राज्य सरकारों द्वारा राज्य प्राधिकरण व नदियों की उपेक्षा पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। अब जरूरत है कि हमारी नदियों के प्रति समाज व संतों के रवैये पर भी कोई सवाल उठाये ? संभव है कि तब समाज, संत और सरकार.... तीनों की तरफ से जवाब आने शुरू हों और नदियों के प्रति मरी हमारी संवेदनायें जाग उठें।... नाला बन चुकी धारायें पुनः नदी बन जायें। काश! कि ऐसा हो।