लेखक
आह्वान
सरकारी नीतियां तथाकथित विकास की तृष्णा को बढ़ाने वाली हैं। योजनाएं ऐसी हैं, जिनमें प्रकृति का इस हद तक दोहन होता है कि प्रकृति चीं बोल जाए। अकाल, भुखमरी, बेरोजगारी, प्राकृतिक असंतुलन आदि संकट आता है, तो सरकार लूट का बाजार खोल देती है। राहत के नाम पर भ्रष्टाचार बंटता है। नतीजा ऋणात्मक रहता है। विरोधाभासी स्थिति यह है कि व्यवस्था के संचालक यह बराबर कहते सुने जाते हैं कि देश स्वावलंबी बने। जनता अपने काम स्वयं करे। यह बात भारतीय परम्पराओं के अनुरूप ही है कि गांव के लोग अपनी व्यवस्था स्वयं सम्भालें। यह कथन पूर्णतः अनुभव पर आधारित है। अतीत में गांवों की अपनी न्याय व सुरक्षा व्यवस्था थी। आपसी सामंजस्य व मेल-मिलाप वाला ऐसा सामाजिक ढांचा था कि गांव के नागरिकों की मूल आवश्यकताएं आपस में ही पूर्ण हो जाती थीं। एक ही गांव में किसान, पुरोहित, व्यापारी, लुहार, कुम्हार, नाई, बुनकर, चर्मकार और दर्जी सभी आसानी से मिल जाते थे। भूमिधर काश्तकार होते थे। काश्तकारों के बाकी कामों को अपनी काश्तकारी मानकर कारीगर वर्ग अपना काम करता था। भूमिहीन होते हुए भी कारीगर वर्ग भूमि-खेती-बागवानी के सभी आनंद साधिकार पाता था। इसमें किसी की मेहरबानी नहीं; स्वयं हासिल हकदारी थी। समाज एक-दूसरे की जरूरतों की पूर्ति के जरिए एक-दूसरे से बंधा था। यह बंधन...आपसी प्रेम, आशा व सद्भाव का बंधन था।
अब क्या है? आज गांवों की हालत बहुत खस्ता है। सारे देश की अधिसंख्य जनता गांवों में बसी है। बावजूद इसके गांवों को अपने आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शहर की ओर ताकना पड़ता है। मुनाफाखोर भी चाहते हैं कि ग्रामीण जन अधिक शहरों पर ही आश्रित रहें जिससे कि उनकी उपभोक्ता वस्तुओं को बाजार मिले और मुनाफा बढ़े। ‘रूरल मार्केटिंग’- आज विपणन जगत में बड़ा आकर्षित करने वाला नारा व लक्ष्य बन गया है।
आज गांवों के स्वावलम्बन पर बहस होनी चाहिए। लेकिन बहस होती है, गांवों को शहर बनाने वाली योजनाओं के हक में। गांवों के उत्थान हेतु ऐसी योजनाएं बनाना आवश्यक है, जिनसे गांव वाले अपनी व्यवस्था को स्वयं संभाल सकें। सत्ता और न्याय का विकेंद्रीकरण हो। ताकि ग्रामीण जनों को भी उनके उत्तरदायित्व का बोध हो। सरकारें सहयोग व प्रोत्साहन देने वाली भूमिका में हों। लेकिन सरकारें ऐसा चाहती कहां हैं? कब और कैसे चाहेंगी यह चुनौती प्रश्न है। वे तो हर काम पर अपना कब्जा चाहती हैं। वे चाहती हैं कि सब जगह उन्हीं का डंडा चले। लोकतंत्र में भी तानाशाही बनी रहे। भ्रष्टाचार भी यही चाहता है।
दरअसल सरकारी नीतियां तथाकथित विकास की तृष्णा को बढ़ाने वाली हैं। योजनाएं ऐसी हैं, जिनमें प्रकृति का इस हद तक दोहन होता है कि प्रकृति चीं बोल जाए। अकाल, भुखमरी, बेरोजगारी, प्राकृतिक असंतुलन आदि संकट आता है, तो सरकार लूट का बाजार खोल देती है। राहत के नाम पर भ्रष्टाचार बंटता है। नतीजा ऋणात्मक रहता है। विरोधाभासी स्थिति यह है कि व्यवस्था के संचालक यह बराबर कहते सुने जाते हैं कि देश स्वावलंबी बने। जनता अपने काम स्वयं करे। लेकिन जब जनता काम को अपने हाथ में ले लेती है, तो सरकारें इन्हें सहन नहीं कर पाती हैं। उन्हें अनधिकृत कह कर उनकी कमर तोड़ने की साजिश शुरू कर देती हैं। गांव में ऐसी प्रेरणा देने वालों को कई बार नक्सलवादी आदि कहकर भी उन्हें झूठे मुकदमों में फंसा दिया जाता है। ऐसे में जनता ठीक से कुछ समझ ही नहीं पाती कि सरकार की नीतियां क्या हैं? वह चाहती क्या है। काम कैसे किया जाए?
आज विकास के नाम पर विनाश का चक्र तेजी से चल रहा है। हमारी विकास योजनाओं से अमीरों की अमीरी और गरबों की गरीबी का ही विकास हो रहा है, वह भी बेशकीमती प्राकृतिक संसाधनों व जनस्वालंबन की कीमत पर!
वास्तव में इस तथाकथित विकास की तृष्णा में प्रकृति तथा मानवता का ह्रास हो रहा है, यह विकास नहीं...आर्थिक विकास की ऐसी दौड़ है, जो जीत को ही नष्ट करने में जीत मानती है। यह कालिदासी कार्य है-जिस पर बैठे, उसी आधार को काटे। जब तक इसे रोका नहीं जाएगा, तब तक समग्र विकास की गंगा गांव के अंतिम व्यक्ति तक नहीं पहुंच पाएगी। जब तक नीति-निर्धारण से लेकर क्रियान्वयन तक गांव के अंतिम व्यक्ति की भागीदारी नहीं होगी और उसे जागृत कर उसकी इच्छानुसार काम करने का अवसर नहीं दिया जाएगा, तब तक न लोक शक्ति सुदृढ़ होगी और न ही स्वालंबन का रास्ता निकलेगा। जब ऐसा हो जाएगा, तभी गांव अपने विकास की गति तथा दिशा तय कर पाएंगे तथा स्वयं को स्वावलंबी और स्वाभिमानी अनुभव करेंगे। तब विकास का असली चक्र स्वयं चल उठेगा।
जहाजवाली नदी क्षेत्र में ऐसी बहुत सारी प्राचीन कहावतें प्रचलित हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि न्याय प्रणाली से लेकर दैनिक उपयोग की वस्तुओं तक के लिए नदी क्षेत्र के लोगों को बाहर नहीं जाना पड़ता था। जहाज में वर्तमान में प्रचलित निचली थांई व उपरली थांई से जाहिर होता है कि वहीं पर मामले का निस्तारण होता था। यही उनके ग्राम न्यायालय थे। सरकारी व्यवस्था यदि अपनी कथनी-करनी में सामंजस्य रखे, तो वर्तमान व्यवस्था स्वतः शोषणकारी आचरण से मुक्त होने लगेगी। विकास की मृगतृष्णा भी विकराल न होकर शांत हो जाएगी। समाज अपना रास्ता खुद तय कर लेगा। जहाजवाली के गांव इसी रास्ते पर चल निकले हैं। गंगा जल बिरादरी जहाज के पुनर्जीवन में गंगा पुनर्जीवन का रास्ता देखती है। भारत की तरक्की का भी यही रास्ता है। इसी से भारत के आसमान में स्वालंबन का सूरज उगेगा इसी से भारत के देव जागेंगे और देवउठनी ग्यारस शुभ होगी।
आइए! हम भी जहाज का समाज बनें।
अरुण तिवारी
संयोजक, गंगा जलबिरादरी