लेखक
दुर्भाग्यपूर्ण है कि उत्तराखंड त्रासदी के बावजूद भी शासन आज हरिद्वार प्रशासन को भेजकर प्रोफेसर अग्रवाल को अनशन तुड़वाने की कोशिश तो कर रहा है, लेकिन हिमालय, गंगा और उत्तराखंड को तबाही से बचाने की कोई नीतिगत घोषणा नहीं कर रहा। नदी किनारे निर्माण पर रोक का बयान भी आधा-अधूरा ही है। यह रोक कब तक रहेगी? यह रोक किस नदी में दोनों ओर कितनी चौड़ाई में रहेगी? यह स्पष्ट नहीं है। अनशन, अनशन और फिर अनशन! आखिर कोई तो बात है कि जो गंगा दशहरा - 13 जून, 2008 को पहली बार शुरू हुआ प्रो. जी. डी. अग्रवाल के गंगा अनशन का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। इस वर्ष वह फिर 13 जून से अनशन पर हैं और अब प्रतिदिन के हिसाब से सेहत पर संकट गहरा रहा है। सावधान होने की बात है कि इस बार उनका अनशन ऐसी जगह पर है, जिसके बारे में धारणा है कि कोई साथ देने आये, न आये..वहां लिए संकल्प जान देकर भी पूरे किए जाते हैं। मातृसदन - कनखल रोड, हरिद्वार! स्वामी शिवानंद सरस्वती का आश्रम! यही वह स्थान है, जहां गंगा के लिए अनशन करते हुए इसी आश्रम के सन्यासी स्वामी निगमानंद ने प्राण त्यागे। उनकी शहादत की अग्नि के दाह से मातृसदन अभी पूरी तरह उबरा नहीं है। एक सन्यासी फिर मृत्यु की ओर अग्रसर है।
सरकारें लोभी हों, संगठन दिखावटी और समाज सुप्त; ऐसे में प्रोफेसर जी डी अग्रवाल का वर्तमान अनशन आत्मघात जैसा ही कदम है। इसे देखते हुए आप कह सकते हैं – “आई आई टी कानपुर का यह बूढ़ा प्रोफेसर या तो पागल है या सनकी।’’ लेकिन उत्तराखंड में हुई तबाही ने एक बार फिर चेता दिया है कि स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद का चोला पहन चुके प्रो. जी. डी. अग्रवाल न तो पागल हैं और न सनकी। वह दुःखी हैं और मां गंगा के साथ-साथ देवभूमि की दुर्दशा देख आहत भी। अपना पहला आमरण अनशन करते वक्त प्रो अग्रवाल ने गोमुख से उत्तरकाशी तक गंगा के अविरल प्रवाह की मांग की थी। फिर उन्होने ऐसी ही मांग गंगा की शेष मुख्य धाराओं -मंदाकिनी, अलकनंदा, पिंडर आदि के लिए की। नरोरा बैराज से 50 प्रतिशत न्यूनतम प्रवाह की मांग उठाई। उद्योगों को गंगा से दूर खदेड़ने की बात की। धारी देवी की प्रतिमा के विस्थापन का विरोध किया। क्या हुआ? धारी देवी की प्रतिमा को मंदिर के पुरोहितों ने ही विस्थापित कर दिया। कह सकते हैं कि उत्तरकाशी के ऊपर लोहारी-नाग-पाला परियोजनाएं रद्द हुईं।
गंगोत्री से उत्तराकाशी तक के इलाके को संवेदनशील घोषित करने की अधिसूचना जारी हुई। लेकिन भगीरथी के दोनों ओर मात्र दो-दो किलोमीटर के दायरे को शामिल करने के कारण अधिसूचना मकसद पूर्ति में असफल ही साबित हुई। न तो रद्द परियोजनाओं के मलबे का सही निपटान हुआ और न उत्तरकाशी शहर में नदी किनारे बेतरतीब निर्माण रोका गया। प्रोफेसर अग्रवाल ने औद्योगिक इकाइयों को नदियों से दूर रखने की मांग की थी। बी के चतुर्वेदी गंगा अंतरमंत्रालयी समूह की रिपोर्ट ने नदी और औद्योगिक इकाइयों के बीच की दूरी पर साफ-साफ कुछ नहीं कहा। गोलमोल लिखा कि महाराष्ट्र के अनुभवों को परखकर तद्नुसार गंगा बेसिन में लागू किया जाये। बताइये, यह बूढ़ा प्रोफेसर क्या करे?
ज्यादा वक्त नहीं बीता जब प्रोफेसर अग्रवाल, राजेन्द्र सिंह और भरत झुनझुनवाला को श्रीनगर गढ़वाल के स्थानीय नागरिकों ने बाहरी बताकर बाहर खदेड़ा था। प्रोफेसर अग्रवाल के तर्क को उत्तराखंड सरकार द्वारा एक सठियाए बूढे का कुतर्क और लीलाधर जगुड़ी जैसे बांध समर्थकों के कुतर्क को स्थानीय बुद्धिजीवियों का सुतर्क समझने का नतीजा आज पूरे उत्तराखंड के सामने है। देखने गए लोगों को खुद जगुड़ी जी का घर रेत और मलबे से पटा मिला। ‘ऐसोचैम’ ने तबाही से साढ़े आठ हजार करोड़ के नुकसान का अनुमान लगाया है। इसमें अनगिनत मवेशी, वन्य जीव, वनस्पति व दिवंगत हुए इंसानों के जान की कीमत शामिल नहीं है। आज भी उत्तराखंडवासियों के सामने कायम अंधेरा, भूख और तकलीफ की कीमत तो खैर कोई क्या लगायेगा!!
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि बावजूद इस सबक के उत्तराखंड शासन आज भी हरिद्वार प्रशासन को भेजकर प्रोफेसर अग्रवाल का अनशन तुड़वाने की कोशिश तो कर रहा है, लेकिन हिमालय, गंगा और उत्तराखंड को तबाही से बचाने की कोई नीतिगत घोषणा नहीं कर रहा। नदी किनारे निर्माण पर रोक का बयान भी आधा-अधूरा ही है। यह रोक कब तक रहेगी? यह रोक किस नदी में दोनों ओर कितनी चौड़ाई में रहेगी? यह स्पष्ट नहीं है। इसके अलावा हो चुके निर्माणों को हटाने की बाबत कुछ नहीं कहा गया। “टिहरी बांध न होता, तो तबाही और अधिक होती।’’ बांधों को लेकर आया मुख्यमंत्री का बयान भी प्रोफेसर की थ्योरी से उलट ही है।
इस उलट बात के खिलाफ गौरा देवी, राधा भट्ट, सुशीला भंडारी, चंडीप्रसाद भट्ट, सुंदरलाल बहुगुणा, सुरेश भाई, लक्ष्मण सिंह नेगी, बिहारी भाई, राजीव लोचन शाह, शेखर पाठक, कवि अतुल शर्मा, गीतकार चंद्रसिंह राही और नरेंद्र नेगी समेत कितनी ही ठेठ उत्तराखंडी आवाजें लंबे अरसे से सरकारों को आगाह करती रही हैं। अब तक के अनुभव से साफ है कि दल कोई भी हो, उत्तराखंड राज्य और केन्द्र की अब तक की सभी सरकारें डैम लॉबी, भूमि और वनमाफिया के साथ खड़ी दिखाई देती रही हैं। कुदरत और इंसानियत के साथ खड़े होने वालों की संख्या अब समाज में भी घटती जा रही है। नया राज्य बनने के बाद से देवभूमि भी अपना देवत्व खोती जा रही है। पत्रकारिता की अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर अलग उत्तराखंड राज्य की मांग में आगे दिखे शमशेर सिंह बिष्ट और सुरेश नौटियाल जैसे कठिन आंदोलनकारी भी आज सोचने को मजबूर हैं कि गलती कहां हुई।
पानी कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह चाहते हैं कि उत्तराखंड पुनर्वास योजना को अंतिम रूप दिए जाने तक मंजूरशुदा बांधों के भी निर्माण कार्य रोक दिए जाएं। वह पुनर्वास योजना के साथ-साथ जलविद्युत परियोजनाओं, कंपनियों के कामकाज के तरीके, जलनिकासी मार्गों व नदी किनारे क्षेत्रों में निर्माण तथा वनक्षेत्रों में परियोजनाओं को लीज पर देने जैसे मसलों पर भारत सरकार का अंतिम निर्णय सुनना चाहते हैं। प्रोफेसर जी डी अग्रवाल भी यही चाहते हैं। ऐसी घड़ी में संभवतः देश में अमन-चैन चाहने वाला हर शख्स यही चाहेगा कि उक्त मसलों पर सरकार अपना मत साफ करे। सरकार बताए कि नदियों पर बांध हों या न हों? अगर हो तो, कैसे, कहां और कितनी-कितनी दूरी पर हों? नदी किनारे निर्माण हो या न हो? हो तो किस नदी किनारे, कितने, कैसे और उससे कितनी दूरी पर?
बतौर विशेषज्ञ सदस्य राजेन्द सिंह ने राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की आपात बैठक बुलाने की मांग की है। उन्होंने प्रधानमंत्री से मिलने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय से गुहार लगाई है। लेकिन यह लेख लिखे जाने तक उनकी गुहार भी अनसुनी ही साबित हुई है। दुःखद यह भी है कि प्रोफेसर जी डी अग्रवाल की संकट में आ चुकी सेहत के प्रति संवेदना के स्वर तो सुनाई दे रहे हैं, लेकिन चिंता करने वालों की शक्ति कहीं दिखाई नहीं दे रही। जगद्गुरूशंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती जी को भी चिंता अपने शिष्य या उसकी मां गंगा की नहीं, केदारनाथ के रावल पद पर कौन बैठे... इसकी है। ऐसे में कोई सरकार जी डी की चिंता क्यों करे? मरने दो एक और बूढ़े को। एम्स, नई दिल्ली में अनशन तुड़वाने के लिए की जा रही कोशिशों को लेकर प्रोफेसर द्वारा दिया एक पुराना बयान मुझे आज भी याद है – “सरकार और मेरे शुभचिंतको को मेरी चिंता तो है, लेकिन मेरी मां गंगा की चिंता किसी को नहीं है।... मैं मर गया तो कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। मेरी मां गंगा मर गई तो आप सभी का क्या होगा; मुझे इसकी चिंता है।’’....तो क्या हम अपनी चिंता करनी शुरू करें?
पेजावर स्वामी द्वारा मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री को भेजे गए पत्र को पढ़ने के लिए अटैचमेंट देखें।
सरकारें लोभी हों, संगठन दिखावटी और समाज सुप्त; ऐसे में प्रोफेसर जी डी अग्रवाल का वर्तमान अनशन आत्मघात जैसा ही कदम है। इसे देखते हुए आप कह सकते हैं – “आई आई टी कानपुर का यह बूढ़ा प्रोफेसर या तो पागल है या सनकी।’’ लेकिन उत्तराखंड में हुई तबाही ने एक बार फिर चेता दिया है कि स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद का चोला पहन चुके प्रो. जी. डी. अग्रवाल न तो पागल हैं और न सनकी। वह दुःखी हैं और मां गंगा के साथ-साथ देवभूमि की दुर्दशा देख आहत भी। अपना पहला आमरण अनशन करते वक्त प्रो अग्रवाल ने गोमुख से उत्तरकाशी तक गंगा के अविरल प्रवाह की मांग की थी। फिर उन्होने ऐसी ही मांग गंगा की शेष मुख्य धाराओं -मंदाकिनी, अलकनंदा, पिंडर आदि के लिए की। नरोरा बैराज से 50 प्रतिशत न्यूनतम प्रवाह की मांग उठाई। उद्योगों को गंगा से दूर खदेड़ने की बात की। धारी देवी की प्रतिमा के विस्थापन का विरोध किया। क्या हुआ? धारी देवी की प्रतिमा को मंदिर के पुरोहितों ने ही विस्थापित कर दिया। कह सकते हैं कि उत्तरकाशी के ऊपर लोहारी-नाग-पाला परियोजनाएं रद्द हुईं।
गंगोत्री से उत्तराकाशी तक के इलाके को संवेदनशील घोषित करने की अधिसूचना जारी हुई। लेकिन भगीरथी के दोनों ओर मात्र दो-दो किलोमीटर के दायरे को शामिल करने के कारण अधिसूचना मकसद पूर्ति में असफल ही साबित हुई। न तो रद्द परियोजनाओं के मलबे का सही निपटान हुआ और न उत्तरकाशी शहर में नदी किनारे बेतरतीब निर्माण रोका गया। प्रोफेसर अग्रवाल ने औद्योगिक इकाइयों को नदियों से दूर रखने की मांग की थी। बी के चतुर्वेदी गंगा अंतरमंत्रालयी समूह की रिपोर्ट ने नदी और औद्योगिक इकाइयों के बीच की दूरी पर साफ-साफ कुछ नहीं कहा। गोलमोल लिखा कि महाराष्ट्र के अनुभवों को परखकर तद्नुसार गंगा बेसिन में लागू किया जाये। बताइये, यह बूढ़ा प्रोफेसर क्या करे?
ज्यादा वक्त नहीं बीता जब प्रोफेसर अग्रवाल, राजेन्द्र सिंह और भरत झुनझुनवाला को श्रीनगर गढ़वाल के स्थानीय नागरिकों ने बाहरी बताकर बाहर खदेड़ा था। प्रोफेसर अग्रवाल के तर्क को उत्तराखंड सरकार द्वारा एक सठियाए बूढे का कुतर्क और लीलाधर जगुड़ी जैसे बांध समर्थकों के कुतर्क को स्थानीय बुद्धिजीवियों का सुतर्क समझने का नतीजा आज पूरे उत्तराखंड के सामने है। देखने गए लोगों को खुद जगुड़ी जी का घर रेत और मलबे से पटा मिला। ‘ऐसोचैम’ ने तबाही से साढ़े आठ हजार करोड़ के नुकसान का अनुमान लगाया है। इसमें अनगिनत मवेशी, वन्य जीव, वनस्पति व दिवंगत हुए इंसानों के जान की कीमत शामिल नहीं है। आज भी उत्तराखंडवासियों के सामने कायम अंधेरा, भूख और तकलीफ की कीमत तो खैर कोई क्या लगायेगा!!
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि बावजूद इस सबक के उत्तराखंड शासन आज भी हरिद्वार प्रशासन को भेजकर प्रोफेसर अग्रवाल का अनशन तुड़वाने की कोशिश तो कर रहा है, लेकिन हिमालय, गंगा और उत्तराखंड को तबाही से बचाने की कोई नीतिगत घोषणा नहीं कर रहा। नदी किनारे निर्माण पर रोक का बयान भी आधा-अधूरा ही है। यह रोक कब तक रहेगी? यह रोक किस नदी में दोनों ओर कितनी चौड़ाई में रहेगी? यह स्पष्ट नहीं है। इसके अलावा हो चुके निर्माणों को हटाने की बाबत कुछ नहीं कहा गया। “टिहरी बांध न होता, तो तबाही और अधिक होती।’’ बांधों को लेकर आया मुख्यमंत्री का बयान भी प्रोफेसर की थ्योरी से उलट ही है।
इस उलट बात के खिलाफ गौरा देवी, राधा भट्ट, सुशीला भंडारी, चंडीप्रसाद भट्ट, सुंदरलाल बहुगुणा, सुरेश भाई, लक्ष्मण सिंह नेगी, बिहारी भाई, राजीव लोचन शाह, शेखर पाठक, कवि अतुल शर्मा, गीतकार चंद्रसिंह राही और नरेंद्र नेगी समेत कितनी ही ठेठ उत्तराखंडी आवाजें लंबे अरसे से सरकारों को आगाह करती रही हैं। अब तक के अनुभव से साफ है कि दल कोई भी हो, उत्तराखंड राज्य और केन्द्र की अब तक की सभी सरकारें डैम लॉबी, भूमि और वनमाफिया के साथ खड़ी दिखाई देती रही हैं। कुदरत और इंसानियत के साथ खड़े होने वालों की संख्या अब समाज में भी घटती जा रही है। नया राज्य बनने के बाद से देवभूमि भी अपना देवत्व खोती जा रही है। पत्रकारिता की अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर अलग उत्तराखंड राज्य की मांग में आगे दिखे शमशेर सिंह बिष्ट और सुरेश नौटियाल जैसे कठिन आंदोलनकारी भी आज सोचने को मजबूर हैं कि गलती कहां हुई।
पानी कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह चाहते हैं कि उत्तराखंड पुनर्वास योजना को अंतिम रूप दिए जाने तक मंजूरशुदा बांधों के भी निर्माण कार्य रोक दिए जाएं। वह पुनर्वास योजना के साथ-साथ जलविद्युत परियोजनाओं, कंपनियों के कामकाज के तरीके, जलनिकासी मार्गों व नदी किनारे क्षेत्रों में निर्माण तथा वनक्षेत्रों में परियोजनाओं को लीज पर देने जैसे मसलों पर भारत सरकार का अंतिम निर्णय सुनना चाहते हैं। प्रोफेसर जी डी अग्रवाल भी यही चाहते हैं। ऐसी घड़ी में संभवतः देश में अमन-चैन चाहने वाला हर शख्स यही चाहेगा कि उक्त मसलों पर सरकार अपना मत साफ करे। सरकार बताए कि नदियों पर बांध हों या न हों? अगर हो तो, कैसे, कहां और कितनी-कितनी दूरी पर हों? नदी किनारे निर्माण हो या न हो? हो तो किस नदी किनारे, कितने, कैसे और उससे कितनी दूरी पर?
बतौर विशेषज्ञ सदस्य राजेन्द सिंह ने राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की आपात बैठक बुलाने की मांग की है। उन्होंने प्रधानमंत्री से मिलने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय से गुहार लगाई है। लेकिन यह लेख लिखे जाने तक उनकी गुहार भी अनसुनी ही साबित हुई है। दुःखद यह भी है कि प्रोफेसर जी डी अग्रवाल की संकट में आ चुकी सेहत के प्रति संवेदना के स्वर तो सुनाई दे रहे हैं, लेकिन चिंता करने वालों की शक्ति कहीं दिखाई नहीं दे रही। जगद्गुरूशंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती जी को भी चिंता अपने शिष्य या उसकी मां गंगा की नहीं, केदारनाथ के रावल पद पर कौन बैठे... इसकी है। ऐसे में कोई सरकार जी डी की चिंता क्यों करे? मरने दो एक और बूढ़े को। एम्स, नई दिल्ली में अनशन तुड़वाने के लिए की जा रही कोशिशों को लेकर प्रोफेसर द्वारा दिया एक पुराना बयान मुझे आज भी याद है – “सरकार और मेरे शुभचिंतको को मेरी चिंता तो है, लेकिन मेरी मां गंगा की चिंता किसी को नहीं है।... मैं मर गया तो कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। मेरी मां गंगा मर गई तो आप सभी का क्या होगा; मुझे इसकी चिंता है।’’....तो क्या हम अपनी चिंता करनी शुरू करें?
पेजावर स्वामी द्वारा मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री को भेजे गए पत्र को पढ़ने के लिए अटैचमेंट देखें।