जीवन-जनक जल की उपेक्षा क्यों

Submitted by RuralWater on Thu, 07/02/2015 - 10:02
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योजना, जून 2003
जल जीवन है, जीवन का जनक और पोषक भी। फिर जल के निहायत जरूरीपन के प्रति आम जन में जागरुकता क्यों नहीं? राजनीति और शासन की विभिन्न इकाइयों में आवश्यक संवेदनशीलता का अभाव क्यों है? राष्ट्रीय जल समस्या का समाधान राष्ट्रीय सहमति के आधार पर ही हो सकेगा। इसका कोई विकल्प नहीं है।जल जीवन है, जीवन का जनक और पोषक भी। फिर जल के निहायत जरूरीपन के प्रति आम जन में जागरुकता क्यों नहीं? राजनीति और शासन की विभिन्न इकाइयों में आवश्यकत संवेदनशीलता का अभाव क्यों है? विज्ञान द्वारा सिद्ध है कि जल से जीवन का प्रादुर्भाव हुआ जब प्रोटोजोआ ग्रुप में ‘आमीबा’—एक कोशकीय जीवन ने जल में जन्म लिया जिससे कालांतर में ‘पोरीफेरा’ यथा—स्पॉन्ज श्रेणी के जीवों का जन्म हुआ। तदंतर समुद्र से लेकर पृथ्वी की सतह पर युगों-युगों तक जीव-जंतुओं की विभिन्न प्रजातियों के अनुवांशिक विकास की अनवरत शृंखला जारी है। निस्संदेह जीव और जल का जन्म से जीवनपर्यंत और जन्मांतर तक अटूट एवं अभिन्न संबंध है।

जीवन-जनक जल की उपेक्षा क्योंप्रागैतिहासिक काल से ऐतिहासिक काल के परिदृश्य से सामूहिक जीवनयापन में जल की भूमिका सदैव महत्त्वपूर्ण रही है। ब्लूचिस्तान में ई.पू. तीसरी शताब्दी में और समकालीन गुजरात की ऐतिहासिक सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेषों में जल संग्रहण एवं निकास प्रणाली के अवशेष मिले हैं। ई.पू. प्रथम शताब्दी में इलाहाबाद के समीप शृंगवेरपुर नगरी में गंगा के पानी से जलग्रहण प्रणाली के स्पष्ट संकेत मिलते हैं। इसी प्रकार कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वर्षा जल से सिंचाई की तकनीक विकसित होने की झलक मिलती है जिसका मूर्त्त रूप मौर्यकालीन इतिहास में भी मिलता है। ग्यारहवीं शताब्दी में भोपाल के राजा भोज द्वारा बनवाई गई विशाल झील आज भी उस नगरी के लिए अत्यंत उपयोगी एवं शोभनीय सिद्ध हो रही है। बारहवीं शताब्दी में कश्मीर के कवि कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में डल झील के आसपास एक व्यवस्थित सिंचाई प्रणाली का उल्लेख मिलता है।

अकाल की पृष्ठभूमि में एंव अन्यथा भी राजस्थान की पूर्व रियासतों में राजा-महाराजाओं ने अपने शासनकाल में झीलों, जलाशयों, बाँधों, बावड़ियों आदि का बड़े पैमाने पर निर्माण कराया जिनमें अधिकांश आज भी उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं। इतिहास से पता चलता है कि चित्तौड़गढ़ के विभिन्न जलस्रोतों पर लगभग 4 वर्ष तक 50 हजार की फौज एवं अन्य लोग बेखटका निर्भर रह सकते थे। यह एक विचित्र विरोधाभास है कि आज चितौड़गढ़ के दुर्ग की 3000 की जनसंख्या को शहर के जल विभाग द्वारा पाइपलाइन के माध्यम से जलापूर्ति की जा रही है। प्रसिद्ध रणथंभौर दुर्ग के जलस्रोत 5000 की आबादी की जलापूर्ति के लिए पर्याप्त थे।

स्वतंत्रता पश्चात प्राकृतिक जल संसाधनों की उपेक्षा का ही परिणाम है कि आज देश की 5.87 लाख बस्तियों में से लगभग 15 हजार बस्तियों में पीने का पानी उपलब्ध नहीं है जबकि 2 लाख बस्तियों में आंशिक रूप से ही जल उपलब्ध है। दूसरी ओर अन्य 2.17 लाख बस्तियों में जल की गुणवत्ता पर अनेक प्रश्नचिन्ह लगे हैं। सुविख्यात पर्यावरण स्वैच्छिक संस्था ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट’ के एक अध्ययन एवं गणनानुसार यदि देश की औसत 1170 एम.एम. वर्षा जल की आधी मात्रा भी प्रत्येक गाँव की 1.12 हेक्टेयर भूमि में एकत्रित कर ली जाए तो इस प्रकार संग्रहित 6.57 मिलियन लीटर वर्षा जल समस्त गाँव के पीने एवं खाना बनाने की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकेगा। इसी परिप्रेक्ष्य में विभिन्न इतिहास कालखंडों में कम वर्षा वाले क्षेत्रों के गाँवों में जल संग्रहण संसाधनों का न केवल निर्माण किया गया वरन सदियों तक उनका भलीभांति रख-रखाव किया जाता रहा।

देश के सबसे बड़े भू-भाग (10 प्रतिशत) वाले प्रदेश राजस्थान ने जलापूर्ति के लिए वर्षा जल संग्रहण के संसाधनों की एक अनूठी मिसाल कायम की है। देश की 100 करोड़ से अधिक जनसंख्या के 5.5 प्रतिशत लोग राजस्थान में निवास करते हैं जबकि देश के जल संसाधनों का लगभग एक प्रतिशत ही इस राज्य को प्रकृतिदत्त है। जल संग्रहण संसाधनों में सामूहिक जनजीवन के लिए निर्मित तालाब, नाड़ी, जोहड़ बाँध, सागर, समंद, सरोवर के अतिरिक्त मरुस्थलीय क्षेत्रों में कम गहरे कुएँ ‘बेयरा’ ‘बेरी’ का भी निर्माण किया गया। ये सभी जल संग्रहण संसाधन अलग-अलग क्षमता एवं आगोर (कैचमेंट) की स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए बनाए गए ताकि मनुष्यों और पशुओं—दोनों की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। प्रकृति के साथ तादातम्य स्थापित कर सामूहिक संसाधनों का निर्माण कराया गया। इस प्रकार मानव की प्रकृति पर निर्भरता के प्रतीक परंपरागत जल संग्रहण संसाधन ग्राम्य परंपरा के अभिन्न अंग बनकर सतत जीवन की आधारशिला सिद्ध हुए हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ के जनसंख्या कोष संगठन के एक अध्ययन के अनुसार यदि समय रहते जल संग्रहण के माध्यम से जल संसाधनों का विकास नहीं किया गया तो वर्ष 2050 तक विश्व की विशाल जनसंख्या हेतु ताजा पेय उलपब्ध नहीं हो पाएगा। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि पृथ्वी पर उपलब्ध 1.4 बिलियन क्यूबिक किलोमीटर जल में से 97 प्रतिशत खारा है और समुद्रों में समाहित है।वर्तमान में शहरोन्मुखी सभ्यता के विकास के परिदृश्य में गाँवों से पलायन कर रहे लोगों की विशाल जनसंख्या नगरों में पेयजल समस्या को विकराल बनाती जा रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ के जनसंख्या कोष संगठन के एक अध्ययन के अनुसार यदि समय रहते जल संग्रहण के माध्यम से जल संसाधनों का विकास नहीं किया गया तो वर्ष 2050 तक विश्व की विशाल जनसंख्या हेतु ताजा पेय उलपब्ध नहीं हो पाएगा। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि पृथ्वी पर उपलब्ध 1.4 बिलियन क्यूबिक किलोमीटर जल में से 97 प्रतिशत खारा है और समुद्रों में समाहित है। इस प्रकार पृथ्वी पर कुल 36 बिलियन क्यूबिक किलोमीटर जल उपलब्ध है जिसमें से 77 प्रतिशत (28 बिलियन क्यूबिक कि.मी.) अंटार्कटिका एवं ग्रीनलैंड में बर्फ के रूप में विद्यमान है और उपयोग के लिए मात्र 0.5 प्रतिशत, अर्थात 8 मिलियन क्यूबिक कि.मी. ही पानी नदियों, झीलों अथवा भूमिगत रूप में उपलब्ध है। अतः विश्व की बढ़ती जनसंख्या के संदर्भ में जल संग्रहण के विभिन्न उपायों की ओर समस्त विश्व के लोगों का ध्यान तत्काल आकर्षित करना होगा और एकजुट होकर ठोस प्रयासों की व्यूहरचना बनानी होगी।

इसी परिप्रेक्ष्य में हाल में जापान के क्योटो शहर में संपन्न ‘विश्व जल फोरम’ (16-23 मार्च, 2003) की बैठक में विश्व की जल समस्या के हल के लिए लगभग 100 संकल्प पारित किए गए जिनमें निर्धन वर्ग को प्राथमिकता से जल उपलब्ध करना भी शामिल है। इस फोरम में लगभग 182 देशों के लगभग 24000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया और 351 सत्रों में जल से संबंधित विषयों पर व्यापक चर्चा की गई, जिनमें स्थानीय प्रबंधन क्षमता विकसित करने तथा सांस्कृतिक अनेकता में समाहित परंपरागत ज्ञान को शामिल करने के दूरगामी संकल्प एवं प्रस्ताव पारित किए गए। आशा है इन अंतरराष्ट्रीय मंचों से प्रारंभ किए गए प्रयासों को राष्ट्रीय एवं अन्य स्तरों पर वांछनीय गति मिल सकेगी।

हमारे देश के परिदृश्य में समस्त उपलब्ध जल के 90 प्रतिशत का उपयोग कृषि उत्पादन में किया जाता है, जिसमें खाद्य उत्पादन का अनुपात 35 प्रतिशत है। यदि कृषि उत्पादन में समुचित जल-निकासी एंव जल-उपयोग के वैज्ञानिक तरीके अपनाए जाएँ तो 20 प्रतिशत तक जल की बचत हो सकती है। किंतु यह कैसे संभव है जब अधिकांश सिंचाई परियोजनाओं में रख-रखाव के अभाव में खस्ताहाल हैं। सिंचित क्षेत्र के किसानों से रख-रखाव की कीमत का मात्र 7.5 प्रतिशत वसूल किया जाता है। इस प्रकार सिंचाई संसाधनों की वार्षिक मरम्मत एवं रख-रखाव संबंधी कार्य नहीं किए जा पाते जिनमें डिस्टिलिंग का कार्य भी शामिल है। एक अध्ययन के अनुसार सिंचित क्षेत्र की औसत फसल की कीमत का केवल 2 से 5 प्रतिशत ही सिंचाई कर लिया जाता है। अतः किसान चाहें तो अपने स्तर पर भी जल उपयोग में कमी कर कुल जल उपलब्धता में अभिवृद्धि कर सकते हैं।

इस संदर्भ में 21 प्रदेशों के 68 जिलों में केंद्र-प्रवर्तित स्वजलधारा योजना उल्लेखनीय है। इसके अंतर्गत पंचायत एवं स्थानीय सामुदायिक संगठनों को पेयजल योजनाओं के निर्माण, क्रियान्वयन, संचालन एवं प्रबंधन की जिम्मेदारी सौंपे जाने का प्रावधान है। स्थानीय पंचायत अथवा समुदाय को केवल 10 प्रतिशत व्यय का योगदान देना पड़ता है इसमें भी उन ग्राम पंचायतों एवं गाँवों में 50 प्रतिशत की छूट दी जाती है जिसमें आधी जनसंख्या अनुसूचित जाति एवं जनजाति वाले व्यक्तियों की हो। इस वर्ष देश के समस्त जिलों के लिए इस योजना के अंतर्गत 2060 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है जिसमें लगभग 590 करोड़ रुपए की स्वीकृति अब तक जारी की गई है। खेद का विषय है कि इस परियोजना में केवल 178.6 करोड़ का व्यय किया जा सका है क्योंकि कुल 20 लाख लोगों ने अपने हिस्से की 10 प्रतिशत धनराशि का योगदान दिया है। राष्ट्रीय स्तर पर जल समस्या को हल करने हेतु इस परियोजना को ग्राम पंचायत एवं स्वैच्छिक संस्थाओं के माध्यम से सफल बनाना अत्यंत आवश्यक है। मीडिया एवं समाचार-पत्रों द्वारा प्रचार-प्रसार करवाकर जल के प्रति जागरुकता को एक मूक क्रांति या आंदोलन का रूप देना होगा।

जल संग्रहण परियोजना में एक प्रमुख बाधा भूमि-संसाधनों का गाँवों में विषम विरतण मानी जा सकती है। ‘नेशनल सैंपल सर्वे संगठन’ के एक अध्ययन के अनुसार यद्यपि ग्रामीण क्षेत्रों के 80 प्रतिशत परिवारों के पास भूमि का स्वामित्व है किंतु वे अपनी जीविका का 50 प्रतिशत से अधिक हिस्सा मजदूरी करके कमाते हैं क्योंकि उनकी जोतें बहुत छोटी हैं। इस संदर्भ में जलग्रहण योजना में शिवालिक पर्वतीय शृंखला की तलहटी में बसे हरियाणा के सुखोमाजरी गाँव ने एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। इस गाँव के लोगों ने अपने अभिनव प्रयासों द्वारा गत शताब्दी के 80 के दशक में जल को सार्वजनिक संसाधन मानकर एकजुट स्थानीय प्रयासों के माध्यम से जलग्रहण की एक न्यायपूर्ण प्रणाली विकसित की जिसमें सभी को जल संरक्षण का लाभ मिला। समस्त ग्रामवासियों को शामिल करके 3 डेमों में संग्रहित पानी का हक प्रत्येक परिवार को दिया गया। एक स्थानीय निर्णय के अनुसार निर्धन व्यक्तियों को अपने हिस्से का पानी बेचने का भी अधिकार दिया गया और भूमि संरक्षण के लिए खेतों में सामुदायिक बाड़ लगाने की प्रक्रिया अपनाई गई जिससे स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप कृषि एवं अकृषि गतिविधियों की शृंखला का जन्म हुआ और प्राकृतिक संसाधन पुनर्जीवित किए जा सकें।

समग्र जल समस्या के निदान हेतु संवैधानिक एवं शासकीय इकाइयों का न केवल ध्यान आकर्षित करना होगा वरन उनमें शक्तियाँ प्रत्यायोजित कर स्थानीय स्वशासी एवं स्वैच्छिक संस्थाओं के माध्यम से जल परियोजनाओं की क्रियान्विति की जिम्मेदारी भी उन्हें सौंपनी होगी।महाराष्ट्र के रालेगाँव सिद्धी, गुजरात की लीमडी नगरपालिका और हरियाणा के सुखोमाजरी की उपलब्धियों के अतिरिक्त राजस्थान के अजमेर और उदयपुर जिलों के कतिपय गाँवों में भी जलग्रहण परियोजना की सफल क्रियान्विति की गई जिसके आश्चर्यजनक और सुखद परिणामों पर विश्वास देखने पर ही किया जा सकता है। किंतु ये सभी सफल परियोजनाएं अपवाद स्वरूप हैं। समग्र जलसंकट पेयजल सहित एक विशाल राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय समस्या है जिसका समय रहते निदान नहीं किया गया तो इसका विकराल स्वरूप अत्यंत भयावह त्रासदी में परिवर्तित हो सकता है। ‘कल्पवृक्ष’ स्वैच्छिक संगठन द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन (अप्रकाशित) के अनुसार देश की बड़ी नदियों के घाटी जलग्रहण क्षेत्र में पर्यावरण की दबावयुक्त, कठोर, विषम स्थिति बनती जा रही है। विशाल पैमाने पर खनन द्वारा दक्षिणी भारत के पश्चिमी एवं पूर्वी घाट क्षेत्रों, अरावली की तलहटी, मध्य-भारत, पूर्वोत्तर सीमा और हिमालय के पर्वतीय क्षेत्रों में अपूर्णनीय क्षति हो रही है। दूसरी ओर देश के वन्य जीव अभ्यारण्यों एवं राष्ट्रीय पार्कों में से 90 प्रतिशत भौगोलिक एवं वन्य जीव दृष्टि से संवेदनशील घोषित किए जा चुके हैं। छत्तीसगढ़ के बेलाडिला क्षेत्र में नदियों में सांखनी नदी का रंग लाल हो गया है। अतः पर्यावरण की दृष्टि से अवैधानिक खनन प्रभाव का आकलन करना अत्यंत आवश्यक हो गया है। ‘कल्पवृक्ष’ की रिपोर्ट में देश में समग्र खनन नीति बनाने की आवश्यकता रेखांकित की गई है।

देश की विकट जल समस्या को हल करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर ही सार्थक एवं सतत प्रयास करने हेतु राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय सहमति के आधार पर ठोस कदम उठाने की पहल करनी होगी। तभी इसके दूरगामी एवं सार्थक परिणाम निकल सकेंगे। राष्ट्रीय स्तर पर बनाई गई जल नीति पर सार्वजनिक सूचना प्रकाशित कर सहमति बनाने की दिशा में सार्वजनिक संवाद (पब्लिक डिबेट) प्रारंभ करने होंगे। गोष्ठियाँ, कार्यशालाएँ, राजनैतिक दलों की बैठकों की शृंखला सुनिश्चित करनी होगी ताकि विस्तृत सहमति के आधार पर राष्ट्रीय जल नीति को अंतिम रूप दिया जा सके। विभिन्न सरकारों द्वारा समय-समय पर जल को राष्ट्रीय संसाधन घोषित करने के लिए संकल्प तो किए गए किंतु उसकी क्रियान्विति के लिए जल नीति का प्रारूप बनाने के अतिरिक्त उपाय नहीं किए गए। इस उपायों में सर्वोच्च न्यायालय से राय-मशविरा भी शामिल की जा सकती है।

राज्य स्तर पर राष्ट्रीय जल नीति के अनुरूप नीति बनानी होगी एवं केंद्रीय सरकार के दिशानिर्देशों को भी ध्यान में रखना होगा। राज्य स्तर पर गिरते भूजल-स्रोतों की मॉनिटरिंग के लिए सूचनातंत्र विकसित करना होगा। सार्वजनिक संवाद को व्यापक स्वरूप देने में समाचार-पत्रों के अतिरिक्त संचार मीडिया को भी अहम भूमिका निभानी होगी। इसके लिए उनके द्वारा स्पॉट्स, स्लोगन, नारे एवं निःशुल्क विज्ञापन प्रसारित करने की व्यवस्था करनी होगी ताकि आम जन को यह महसूस हो सके कि जल एक राष्ट्रीय समस्या है और सभी के सहयोग से ही इसका हल संभव है।

राज्य सरकार द्वारा किए गए उपायों से तत्कालीन हल तो निकल सकेगा किंतु जल की गहन समस्या के दूरगामी हल के लिए परंपरागत जलस्रोतों यथा—मरुस्थलीय क्षेत्रों में स्थित ‘बेरी’, ‘पार’, टांकों आदि को पुनर्जीवित करते हुए उनके रख-रखाव की भी व्यवस्था सुनिश्चित करनी होगी एवं इस हेतु आवश्यक वित्तीय व्यवस्था भी करनी होगी।जिला एवं शहरी स्तर पर एक नागरिक परिषद का गठन किया सकता है जिसका अध्यक्ष जिले का कलेक्टर हो और सचिव के कार्य के लिए प्रमुख स्वैच्छिक संगठन अथवा बैंक/वित्तीय संस्था के प्रतिनिधि को नामित किया जा सकता है। नागरिक परिषद को आम लोगों में जागरुकता पैदा करने के लिए जन-जागरण अभियान आयोजित करने होंगे एवं दूर-दराज की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए व्यापक प्रचार-प्रसार करना होगा। पंचायत समिति क्षेत्र में कार्यरत प्रमुख स्वैच्छिक संगठनों को अहम भूमिका निभाने की जिम्मेदारी सौंपनी होगी और स्वैच्छिक संगठनों के उपलब्ध न होने पर क्षेत्र में कार्यरत बैंक, वित्तीय संस्थाओं को आगे आना होगा क्योंकि सिंचाई के निर्माण कार्यों के लिए ऋण भी उनके द्वारा किया जाता है। पंचायत एंव ग्राम स्तर पर जल का उपयोग करने वाली समितियों का गठन करना होगा जिसमें राजस्व, विकास, कृषि एवं जलदाय विभाग के अतिरिक्त स्वास्थ्य एवं महिला बाल विकास विभाग के प्रतिनिधियों को भी शामिल करना होगा। साथ ही सेवानिवृत्त राजकीय कर्मी अथवा पर्वू सैनिकों को भी इस समिति में आमंत्रित किया जा सकता है।

समग्र जल समस्या के निदान हेतु संवैधानिक एवं शासकीय इकाइयों का न केवल ध्यान आकर्षित करना होगा वरन उनमें शक्तियाँ प्रत्यायोजित कर स्थानीय स्वशासी एवं स्वैच्छिक संस्थाओं के माध्यम से जल परियोजनाओं की क्रियान्विति की जिम्मेदारी भी उन्हें सौंपनी होगी।

हाल ही में मध्य प्रदेश द्वारा विश्व जल दिवस पर 22 से 28 मार्च, 2003 तक ‘पानी रोको’ अभियान चलाया गया जिसमें सूखे की चुनौती का सामना करने के लिए गाँव-गाँव में पानी संरक्षण के लिए उभरते सशक्त नेतृत्व का आह्वान किया गया और हर गाँव में ‘पानी रोको’ समिति भी बनाई गई जिसके माध्यम से जल संवर्धन एवं संरक्षण की संरचनाएँ बनाने के लिए श्रमदान शिविर आयोजित किए गए। इस आंदोलन का संकल्प ‘खेत का पानी खेत में’, गाँव का पानी गाँव में’ घोषित किया गया और हर नागरिक को पानी की उपलब्धता के लिए चलाए जा रहे ‘पानी रोको’ अभियान से जोड़ने के सार्थक प्रयास किए गए।

राजस्थान प्रदेश चार वर्षों से अकाल से जूझ रहा है। वर्तमान कठिन दौर में राज्य सरकार द्वारा इस वर्ष फरवरी तक 9000 से अधिक क्षेत्रों में पीने का पानी पहुँचाया गय जिसमें 815 जयपुर जिले के स्थान हैं। जलापूर्ति के लिए 10000 टैंकरों की व्यवस्था की गई और जिला कलेक्टरों के पेयजल स्वीकृत करने का अधिकार 10 से बढ़ाकर 25 लाख कर दिया गया है। अकाल और पानी की समस्या के संदर्भ में अधिकारियों को ग्रामीण क्षेत्रों में दौरे एवं रात्रि-विश्राम के भी निर्देश दिए गए हैं और आगामी गर्मियों के लिए 11000 नए हैंड-पम्प प्राथमिकता से खोदे जाने की भी स्वीकृति दी गई है।

राज्य सरकार द्वारा किए गए उपायों से तत्कालीन हल तो निकल सकेगा किंतु जल की गहन समस्या के दूरगामी हल के लिए परंपरागत जलस्रोतों यथा—मरुस्थलीय क्षेत्रों में स्थित ‘बेरी’, ‘पार’, टांकों आदि को पुनर्जीवित करते हुए उनके रख-रखाव की भी व्यवस्था सुनिश्चित करनी होगी एवं इस हेतु आवश्यक वित्तीय व्यवस्था भी करनी होगी।

अकाल से जूझते आम लोगों के जनमानस में अब यह बात समा गई है कि जल की विशाल और विकरालतम होती समस्या का स्थायी हल निकालना अत्यंत आवश्यक है। अतः शासन के विभिन्न स्तरों पर एवं पंचायत क्षेत्रों में सक्षम नेतृत्व प्रदान करने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा परस्पर विरोध की राजनीति त्याग कर आम सहमति की राजनीति अपनानी होगी। राष्ट्रीय जल समस्या का समाधान राष्ट्रीय सहमति के आधार पर ही हो सकेगा, इसका कोई विकल्प नहीं हैं।

(लेखक राजस्थान राज्य खनिज विकास निगम लि., जयपुर में अध्यक्ष हैं)