उत्तराखंड में कभी पानी को लेकर कोई समस्या नहीं रही है कुछ एक क्षेत्रों को छोड़ दें तो लोगों को पानी के संकट से कभी जूझना नहीं पड़ा है। लेकिन हाल ही के दिनों में पर्यावरण में बदलाव के चलते उत्तराखंड जैसे राज्य जहाँ से सबसे अधिक नदियां बहती है वहां भी अब जल संकट गहरा रहा है। आये दिन पहाड़ और मैदानी इलाकों से जल संकट की कई समस्या सामने आ रही है। प्रदेश में बढ़ रहे जल संकट का सबसे बड़ा कारण बारिश का ना होना माना जा रहा है। जिसके कारण राज्य के 50 प्रतिशत जल स्त्रोत सुख गए है।पेयजल विभाग के आंकड़ों के मुताबिक राज्य के 3 पर्वतीय क्षेत्रों में सबसे ज्यादा पानी पानी की समस्या सामने आई है। जिसमें पौड़ी ,टिहरी और अल्मोड़ा प्रमुख है लेकिन हालही के दिनों में उत्तरकाशी इससे अछूता नही रहा है।
इसलिए राज्य में बढ़ रहा है जल संकट
उत्तराखंड जल संकट के कई कारण है लेकिन सबसे बड़ा कारण प्रदेश में पिछले कुछ सालों से बारिश और बर्फबारी का कम होना है जिससे जंगलों में नमी घटने से आग धधक रही है, यही नही अधिकतर नदियों का स्तर भी कम हुआ है।साथ ही प्रदेश के प्रमुख जलाशय भी सूख रहे है। उत्तराखंड में बीते कुछ सालों में कई प्राकृतिक जलस्रोत सूख चुके हैं. जिसके वजह से राज्य में नदियों में पानी के बहाव में काफी कमी आई है।
प्रदेश में 53,483 वर्ग किलोमीटरका भूगौलिक क्षेत्र है जिसमें से करीब 24,295 वर्ग किलोमीटर यानी 45.43 ℅ वन एवं 3,550 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में लगभग 917 हिमनद हैं। जहां उत्तर भारत की प्रमुख बारहमासी नदियों का उद्गम स्थल है देश के इस पहाड़ी राज्य में औसतम 1,495 मिलीमीटर (मिमी) पानी बरसता है।लेकिन इसमें सबसे बड़ी समस्या यह है कि अधिकांश पानी साल के 3 महीने ही बरसता है। जो ढलानों के कारण तेजी से बह जाता है।
एक रिसर्च के मुताबिक प्रदेश के करीब 1150 जलस्रोत ऐसे हैं, जो पूरी तरह से सूखे हैं. जिन्हें पुनर्जीवित करने की जरूरत है । वही राज्य के 330 स्रोतों ऐसे है जिनके बहाव में 50 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है इसके अलावा प्रदेश की 1229 स्प्रिंग स्रोतों के जल स्तर पर्यावरण के बदलाव के चलते सूख चुके है ऐसे में कुल मिलाकर प्रदेश के छोटे बड़े करीब 5,000 जल स्रोतों को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है ।वही इन दिनों जो बारिश लगतार 2 से 3 घंटे हो रही है । इतनी वर्षा पहले कई दिनों तक हो ती थी। एक साथ लगातार 2 से 3 घंटे बारिश होने से जल स्त्रोतों को रिचार्ज का समय नही मिल पा रहा है।
वनों के कटान से स्रोतों में पानी घटा
नैनीताल जिले में गौला नदी के जलागम क्षेत्र को लेकर किये गए अहम अध्ययन में वल्दिया और बड़त्या ने दिखाया कि जल स्रोतों से पानी कम आने का कारण वनों का कटान है। उन्होंने 41 जल स्रोतों के जल प्रवाह का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि 1952-53 और 1984-85 के बीच जलागम क्षेत्र में वन आवरण में 69.6 प्रतिशत से 56.8 प्रतिशत की कमी हुई है। वर्ष 1956 और 1986 के बीच भीमताल तथा जलागम क्षेत्र में 33 प्रतिशत की कमी आई। परन्तु जल स्रोतों में कमी 25 से 75 प्रतिशत की रही, जिससे अध्ययन क्षेत्र के 40 प्रतिशत गाँव प्रभावित हुए। कुछ जल स्रोत तो पूरी तरह से सूख गए थे। कुमाऊँ के 60 जल स्रोतों के एक अन्य अध्ययन से पता चला कि 10 (17 प्रतिशत) में पानी का प्रवाह बंद हो गया था, 18 (30 प्रतिशत) मौसमी स्रोत बन कर रह गए थे और बाकी 32 (53 प्रतिशत) में प्रवाह में कमी दर्ज की गई। इसका कारण यह बताया गया कि इन स्रोतों के आसपास के बाँज के जंगल कट चुके थे।
क्या करने की आवश्यकता है
- कई शताब्दी पहले ऋषि कश्यप ने पानी और जंगलों के बीच सहजीवी रिश्ते की बात प्रतिपादित की थी। इन संसाधनों के लिए समन्वित प्रबंधन की आवश्यकता होती है। आज जल संसाधनों का प्रबंधन प्राथमिक रूप से ऐसे अभियंताओं की जिम्मेदारी है जो जीवन प्रणाली की कोई समझ नहीं रखते हैं। उन्हें केवल जल संसाधनों के दोहन का प्रशिक्षण दिया जाता है। कम से कम इतना तो किया जाना चाहिए कि जल संसाधनों का प्रबंधन करने वाले संस्थानों में अभियन्ताओं के साथ ही वानिकी के लोग भी होने चाहिए।
- इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि राज्य में जलागम क्षेत्रों को फिर से प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है। इसके लिए वनीकरण और खास तौर पर ऊपरी ढलान पर चौड़ी पत्तियों वाले विभिन्न प्रजाति के पेड़ लगाने की जरूरत है। चीड़ के पेड़ों का वैज्ञानिक तरीकों से कटान होना चाहिए और उनके स्थान पर चौड़ी पत्तियों वाले पेड़ लगाये जाने चाहिए। वनीकरण के साथ ही जंगलों में वर्षा जल के संचयन के लिए गड्ढे खोदे जाने चाहिए और पानी की निकासी वाले नाले बंद किये जाने चाहिए।
- परम्परागत जल रोक ढाँचों और उनके जलागम क्षेत्र को पुनः उपयोगी बनाया जाना चाहिए। ऐसे किसी ढाँचे और जलागम क्षेत्र को पुनः उपयोगी बनाने में प्रायः 50,000 रु. से कम ही खर्च होते हैं। ऐसे ढांचे कम से कम 25 से 50 परिवारों के लिए साल भर पानी की आपूर्ति सुनिश्चित कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि हमें पानी की नियमित आपूर्ति वाले स्रोत पर 500 रु. प्रति व्यक्ति से अधिक निवेश की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए।
- वर्षा जल संग्रहण का काम स्थानीय लोगों द्वारा सेवा की भावना से किया जाना चाहिए। लोगों को नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता रखने वाले स्वयंसेवी संगठन इस दिशा में पहल कर सकते हैं। कई व्यक्तियों, समुदायों और संगठनों ने उत्तराखंड में नियमित आधार पर वर्षा जल के संग्रहण के क्षेत्र में अनुकरणीय काम किया है। दूधातोली लोक विकास संस्थान ने सच्चिदानन्द भारती के नेतृत्व में उत्तराखंड में विशाल जल अभयारण्य विकसित किया है और सूख चुकी जलधारा को पुनः जीवित किया है। कोसी के ऊपरी जलागम क्षेत्रों में कई गाँवों में महिला मंगल दल की महिलाओं ने स्वयं कठिनाई में पड़ने के बावजूद अपने जंगलों की रक्षा का संकल्प किया है। इसी साल इससे पहले पौड़ी और चमोली जिलों में कई लोगों ने दावानल से जूझते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी। सुरईखेत में एक शिक्षक मोहन चन्द्र काण्डपाल ने बड़ी संख्या में ग्रामीणों को अपने जंल संग्रह तंत्र और जलागम क्षेत्र को संरक्षित करने के लिए सक्रिय किया।
- वनों का संरक्षण वन विभागों द्वारा नहीं किया जा सकता है। इसमें सामुदायिक भागीदारी परम आवश्यक है। परन्तु वन संरक्षण का नतीजा यह भी होता है कि स्थानीय लोग आसानी से मिलने वाले ईंधन और चारे से वंचित हो जाते हैं तथा जंगल से होकर जाने वाले सीधे रास्तों के बजाय उन्हें लम्बे घुमावदार रास्तों से आना जाना पड़ता है। पहाड़ों के गाँवों में वन संरक्षण को इस रूप में देखा जाना चाहिए कि स्थानीय समुदाय देश के बाकी हिस्सों के लिए परिस्थितिकी संतुलन की सेवा प्रदान कर रहे हैं। इसलिए उन्हें इस सेवा के बदले भुगतान मिलना चाहिए। वनों को कार्बन का कचरा घर कहा जाता है। वनों की रक्षा की एवज में स्थानीय लोगों को पुरस्कृत करने के लिए कार्बन ट्रेडिंग का लाभ उठाया जाना चाहिए।