‘जलमेव जीवनम्’ जल की महत्ता अर्थात जल ही जीवन है। वेद, पुराणों में लिखी गई, यह उक्ति भारतीय संस्कृति में जल की महत्ता को प्रदर्शित करती है। पृथ्वी की उत्पत्ति व मानवीय सभ्यता के विकास में जल की अहम भूमिका रही है। जल को हमारे प्राचीन ग्रंथों में विदित पांच तत्वों (जल, वायु; अग्नि, पृथ्वी एवं आकाश) में स्थान दिया गया है, जिनसे मानव शरीर की रचना हुई है। इस प्रकार जल एवं वायु जीवन के अस्तित्व के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। प्राचीन काल से ही प्रत्येक मांगलिक अवसर पर जल देवता, जल स्रोत का पूजन-अर्चन किया जाता रहा है। रहीम जी की निम्न कविता भी यही इंगित करती है कि - जल बिना जग अधूरा है, जीवन में प्रतिष्ठा का पर्याय जल ही है।
- रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
- पानी गए न ऊबरे, मोती मानस चून।।
प्रकृति ने मानव शरीर में भी 70 प्रतिशत जल एवं पृथ्वी पर भी 70 प्रतिशत भाग में जल प्रदान किया है। जल की आवश्यकता की पूर्ति करने हेतु ही मनुष्य प्राचीन काल से नदियों के तट पर निवास करता आया है। आज भी गंगा बेसिन में देश की एक तिहाई जनसंख्या निवास करती है।
1. जलीय गुणधर्म
1. 1 (क) रासायनिक संरचना :-जल का रासायनिक सूत्र H2O हैं। अर्थात् दो परमाणु हाइड्रोजन एवं एक परमाणु ऑक्सीजन मिलकर पानी का निर्माण करते हैं। प्रीस्टले (1781) ने हाईड्रोजन तथा ऑक्सीजन के मिश्रण में विद्युत स्पार्क कर प्रयोगशाला में जल का निर्माण किया था। पुनः प्रयोग में विद्युत प्रवाह करने पर उसने पाया कि जल के विघटन के पश्चात् हाइड्रोजन कैथोड पर एवं ऑक्सीजन ऐनोड पर संग्रहीत होती है। अत: जल हाइड्रोजन का ऑक्साइड है। जल या पानी एक आम रासायनिक पदार्थ है जिसका अणु दो हाइड्रोजन परमाणु और एक ऑक्सीजन परमाणु से बना है - H2O। यह सारे प्राणियों के जीवन का आधार है। आमतौर पर जल शब्द का प्रयोग द्रव अवस्था के लिए उपयोग में लाया जाता है पर यह ठोस अवस्था (बर्फ) और गैसीय अवस्था (भाप या जल वाष्प) में भी पाया जाता है। पानी जल-आत्मीय सतहों पर तरल-क्रिस्टल के रूप में भी पाया जाता है।
1. 2 (ख) pH :- स्वच्छ एवं शुद्ध जल की pH 7 होती है अर्थात् जल न ही अम्ल और न ही क्षार। समुद्री जल में लवणों की बहुतायत के कारण समुद्री जल खारा एवं कड़वा होता है। मुख्यतः समुद्री जल में क्लोराइड पाया जाता है।
1.2 (ग) पारदर्शिता एवं रंग :- स्वच्छ जल पूर्ण रूप से पारदर्शी एवं रंगहीन होता है। इसमें किसी प्रकार का रंग मिलाने पर उसी रंग का हो जाता है। जल का कोई आकार नहीं होता है एवं पात्र में डालने पर उसी आकार का हो जाता है।
1.2 (घ) गुरुजल (भारी जल) :- यूरे (1932) ने भारी जल की खोज की, जिसे डयूटीरियम ऑक्साइड D20 के नाम से जाना गया। यह साधारण जल में 1/5000 भाग में पाया जाता है। इसका प्रयोग मुख्यतः नाभिकीय भट्टियों में प्रशीतक के रूप में होता है।
1.2 (च) सार्वत्रिक विलायक :- कई पदार्थ पानी में आसानी से घुलनशील होते हैं, विलायकता अधिक होने के कारण ही इसे सार्वत्रिक विलायक कहा जाता है। यह किसी भी घुलनशील पदार्थ को अपने अन्दर घोलने की क्षमता रखता है।
पृथ्वी पर जल की मात्रा
एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी पर जल की कुल मात्रा 1,460,106,000 घन किलो मी0 है। इसका 97.25 प्रतिशत भाग महासागरों एवं अन्तर्देशीय सागरों में एकत्रित है।
सारणी : पृथ्वी पर जल का वितरण |
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स्रोत |
कुल मात्रा का प्रतिशत |
सागर एवं महासागर |
97.25 |
बर्फ की चादरे एवं धुवीय क्षेत्र |
2.05 |
भूजल |
0.68 |
झीलें |
0.01 |
मृदा नमीं |
0.005 |
वायुमंडल |
0.001 |
नदियाँ |
0.0001 |
जैव मण्डल |
0.00004 |
कुल योग |
100.00 |
(स्रोत: एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका, 1990 पृष्ठ 715) |
परन्तु महासागरों का जल पीने के योग्य नहीं है। यह अत्यन्त लवणीय एवं खारा है। इसे पीने योग्य बनाने में अत्यधिक धन की आवश्यकता होती है तथा इससे जुड़ी तकनीक पूर्णरूप से सुविधाजनक नहीं है।
2. जलीय स्रोत
2.1 समुद्री जल :- समुद्री जल में घुलित लवणों का प्रतिशत 3.5 है एवं इसका घनत्व 2.75 ग्राम/घन से.मी. है। यह अत्यंत खारा एवं नमकीन होता है इसमें मुख्यतया ऑक्सीजन सल्फर क्लोराइड, सोडियम, मैग्नीशियम, कैल्शियम, पोटेशियम एवं कार्बन पाए जाते हैं।
2.2 सतही जल (नदियां एवं झीलें) :- वर्षा तथा हिमखंड के पिघलने से जल पर्वतों से धारा के रूप में मैदानी क्षेत्र में अनवरत गति से बहता रहता है, जबकि झीलों में मैदानी क्षेत्रों का जल वर्षा ऋतु में बहकर एकत्रित हो जाता है। पर्वतों से निस्तारित जल प्रारंभ में पूर्णतः स्वच्छ होता हैं, परन्तु मैदानी क्षेत्र में पहुँचते-2 इसमें घुलन एवं अघुलनशील अशुद्धियाँ मिल जाती हैं। मानवीय कृत्यों एवं उद्योगों के कारण नदियों में असंख्य कार्बनिक एवं अकार्बनिक अपद्रव्य, जीवाणु, मल-मूत्र मिल जाता है। जिससे यह जल निरंतर अशुद्ध होता रहता है। वर्षा ऋतु में नदियों में मृदा अपरदन के कारण यह जल मटमैला हो जाता है।
2.3 वर्षा जल :- वर्षा जल प्रकृति में उपलब्ध जल में से शुद्धतम जल है। यह समुद्र एवं अन्य सतही जल स्रोतों से वाष्पीकरण एवं संघनन से प्राप्त होता है। वर्तमान में वायु प्रदूषण के कारण वायुमंडल में उपस्थित गैसों जैसे - सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड एवं कार्बन डाइऑक्साइड से क्रिया कर यह अम्ल बना देता है। इसी कारण अमेरिका में अम्लीय वर्षा की कुछ घटनाएं हो चुकी हैं।
2.4 भूजल :- जब वर्षा जल भूमि की परतों से रिसकर भूगर्भ में एकत्रित होता रहता है। तब उसमें अनेक भूगर्भीय, भौतिक व रासायनिक प्रक्रमों से कैल्शियम, सोडियम, मैग्नीशियम, क्लोराइड, पोटेशियम, एल्युमिनियम तथा लौह जैसे तत्व के लवण मिल जाते है। मृदा में डाले गये उर्वरकों एवं कीटनाशकों का भी कुछ अंश रिसकर इसमें मिल जात्ता हैं। जिससे भूजल भी प्रदूषित हो जाता है।
3. जलीय उपयोग
3.1 गृह कार्य, स्वच्छता एवं पेयजल :- पानी हमारी दैनिक दिनचर्या एवं घरेलू कार्य जैसे बर्तन साफ करना, कपड़े धोना, भोजन बनाना एवं सफाई कार्य में उपयोग होता है। स्वच्छ जल को ही पेयजल के रूप में उपयोग में लिया जाना चाहिए। यह जल पूर्णतः शुद्ध होना चाहिए। शहरों में गांव की अपेक्षा अधिक जल का प्रयोग होता है। शहरी भागों में प्रत्येक मनुष्य प्रतिदिन 150 ली. पानी का उपयोग करता है वही गाँव में यह केवल 50 ली. ही है। जल का उपयोग रहन-सहन एवं दैनिक आदतों पर भी निर्भर करता है यही कारण है कि अमेरिका जैसे विकसित देशों में विकासशील देशों की अपेक्षा तीन गुणा जल प्रति व्यक्ति द्वारा प्रतिदिन उपयोग में लाया जाता है। वहाँ केवल शौच कर्म में ही 10 ली0 एवं बाथटब स्नान में 200 ली. पानी व्यर्थ कर दिया जाता है।
3.2 औद्योगिक उपयोग :- किसी भी उद्योग को चलाने के लिए पानी अति आवश्यक है। कृत्रिम धागा रंगाई, कागज, शराब, खाद एवं खनिज तेल परिष्करण उद्योगों में जल अत्यधिक मात्रा में उपयोग होता है। प्रमुख उद्योगों में जल की आवश्यक मात्रा निम्न प्रकार है।
सारणी : प्रमुख उद्योगों में जल की आवश्यक मात्रा |
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उद्योग |
पानी की मात्रा |
कागज |
236,000 लीटर /टन |
वस्त्र |
30,000 लीटर /टन |
रसायन (एसिटिक अम्ल) |
417,000-10,00,000 लीटर /टन |
सल्फ्यूरिक अम्ल |
10,400 लीटर /टन |
डेरी उत्पाद |
20,000 लीटर /टन |
वीयर |
150,000 लीटर / किलो लीटर |
खनिज तेल परिष्करण उद्योग |
7,000-10,000 लीटर / किलो लीटर |
लौह उद्योग |
26000 लीटर /टन |
3.3 ताप विद्युत गृह :-
- शीतकरण :- उद्योगों में रासायनिक क्रियाओं एवं ऊष्मा आदान-प्रदान की प्रक्रिया से जल अत्यंत गर्म हो जाता है जिसे ठंडा करने के लिए भी जल का उपयोग किया जाता है। यदि यह अनुपयोगी गर्म जल नदियों मे छोडा जाता है तो इसे तापीय प्रदूषण कहते है इस कारण जल पारिस्थितिकी तंत्र व जल में रहने वाले जीव-जंतुओं की प्रजनन क्रियाएँ प्रभावित होती है।
- विद्युत निर्माण :- विद्युत निर्माण के लिए बॉयलर में पानी भरकर भाप से टरबाइन चलाया जाता है। जल विद्युत परियोजनाओं में जल को अत्यधिक ऊँचाई से एवं सुरंग बनाकर कई-बार गिराया जाता है। जिससे टरबाइन घूमने पर विद्युत उत्पन्न होती है। आज भारत में गंगा के उदगम स्थल एवं प्रारंभिक मार्ग मे लगभग 20 जल विधुत परियोजनाएं लगाई जा रही हैं। जिसके लिये गंगा के प्राकृतिक प्रवाह को रोककर उसे सुरंगो में प्रवाहित कर जल विद्युत का उत्पादन किया जा रहा है। इस कारण आजकल गंगा का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।
3.4 रासायनिक अभिक्रिया :- जल का उपयोग रासायनिक अभिक्रियाओं में विलायक, शोधन, आसवन आदि कई प्रक्रियाओं में किया जाता है। रासायनिक उद्योगों में जल का महत्वपूर्ण स्थान है।
3.5 .उद्यान एवं वानिकी :- पेड़-पौधों के जीवन एवं वृद्धि के लिए जल अत्यधिक आवश्यक है। नगरीय निकायों द्वारा विकसित उद्यानों में जल का काफी उपयोग किया जाता है आजकल अधिकांश उद्योग भी अपने अपशिष्ट जल का शोधन करके उद्यान एवं वानिकी विकास में उपयोग कर रहे है। यह उद्यान शहरों में मनोरंजन का प्रमुख साधन है।
3.6. कृषि कार्य :- कृषि में मुख्यतया नहरी जल एवं भूजल उपयोग में लाया जाता है। पानी की आवश्यकता, प्रदेश की हवा, फसल के प्रकार एवं भूमि के उपजाऊपन पर निर्भर करती है। कृषकों द्वारा आधिकारिक फसल उगाने के कारण जल की आवश्यकता कई गुणा बढ़ गयी है एवं नलकूपों द्वारा भूजल के अत्यधिक दोहन से भूजल स्तर काफी नीचे पहुँच गया है। कई नलकूप हर वर्ष जलस्तर नीचे जाने के कारण बंद हो जाते हैं।