जल या पानी अनेक अर्थों में जीवनदाता है। इसीलिए कहा भी गया है। जल ही जीवन है। मनुष्य ही नहीं जल का उपयोग सभी सजीव प्राणियों के लिए अनिवार्य होता है। पेड़ पौधों एवं वनस्पति जगत के साथ कृषि फसलों की सिंचाई के लिए भी यह आवश्यक होता है। यह उन पांच तत्वों में से एक है जिससे हमारे शरीर की रचना हुई है और हमारे मन, वाणी, चक्षु, श्रोत तथा आत्मा को तृप्त करती है। इसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते। शरीर में इसकी कमी से हमें प्यास महसूस होती है और इससे पानी शरीर का संतुलन बनाए रखने में मदद करता है। अत: यह हमारे जीवन का आधार है। अब तक प्राप्त जानकारियो के अनुसार यह स्पष्ट हो गया है कि जल अस्तित्व के लिए बहुत आवश्यक है इसलिए इसका शुद्ध साफ होना हमारी सेहत के लिए जरूरी है। शुद्ध और साफ जल का मतलब है वह मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक अशुद्धियों और रोग पैदा करने वाले जीवाणुओं से मुक्त होना चाहिए वरना यह हमारे पीने के काम नहीं आ सकता है।
रोगाणुओं जहरीले पदार्थों एवं अनावश्यक मात्रा में लवणों से युक्त पानी अनेक रोगों को जन्म देता है। विश्व भर में 80 फीसदी से अधिक बीमारियों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रदूषित पानी का ही हाथ होता है। प्रति घंटे 1000 बच्चों की मृत्यु मात्र अतिसार के कारण हो जाती है जो प्रदूषित जल के कारण होता है।
''याज्ञवल्क्य संहिता'' ने जीवाणुयुक्त गंदले, फेनिल, दुर्गन्धयुक्त, खारे, हवा के बुलबुल उठ रहे जल से स्नान के लिए भी निषेध किया है। लेकिन आज की स्थिति बड़ी चिन्ताजनक है। शहरों में बढ़ती हुई आबादी के द्वारा उत्पन्न किए जाने वाले मल मत्र कूड़े करकट को पाइप लाइन अथवा नालों के जरिए प्रवाहित करके नदियों एवं अन्य सतही जल को प्रदूषित किया जा रहा है। इसी प्रकार विकास के नाम पर कल कारखानों छोटे-बड़े उद्योगों द्वारा भी निकले बहि:स्रावों द्वारा सतही जल प्रदूषित हो रहे हैं। जहां भूमिगत एवं पक्के सीवर/नालों की व्यवस्था नहीं है यदि है भी तो टूटे एवं दरार युक्त हैं अथवा जहां ये मल/कचरे युक्त जल भूमिगत पर या किसी नीची भूमि पर प्रवाहित कर दिए जाते हैं वहां ये दूषित जल रिस-रिसकर भूगर्भ जल को भी प्रदूषित कर रहे हैं।
कैसी विडम्बना है कि हम ऐसे महत्वपूर्ण जीवनदायी जल को प्रगति एवं विकास की अंधी दौड़ में रोगकारक बना रहे हैं। जब एक निश्चित मात्रा के ऊपर इनमें रोग संवाहक तत्व विषैली रसायन सूक्ष्म जीवाणु या किसी प्रकार की गन्दगी/अशुद्धि आ जाती है तो ऐसा जल हानिकारक हो जाता है। इस प्रकार के जल का उपयोग सजीव प्राणी करते हैं तो जलवाधित घातक रोगों के शिकार हो जाते हैं। दूषित जल के माध्यम से मानव स्वास्थ्य को सर्वाधिक हानि पहुंचाने वाले कारक रोगजनक सूक्ष्म जीव हैं। इनके आधार पर दूषित जल जनक रोगों को निम्न प्रमुख वर्गों में बांटा जा सकता है।
दूषित जल से रोगजनक जीवों से उत्पन्न रोग
विषाणु द्वारा- पीलिया, पोलियो, गैस्ट्रो-इंटराइटिस, जुकाम, संक्रामक यकृत षोध, चेचक।
जीवाणु द्वारा- अतिसार, पेचिस, मियादी बुखार, अतिज्वर, हैजा, कुकुर खांसी, सूजाक, उपदंश, जठरांत्र शोथ, प्रवाहिका, क्षय रोग।
प्रोटोजोआ द्वारा - पायरिया, पेचिस, निद्रारोग, मलेरिया, अमिबियोसिस रूग्णता, जियार्डियोसिस रूग्णता।
कृमि द्वारा - फाइलेरिया, हाइडेटिड सिस्ट रोग तथा पेट में विभिन्न प्रकार के कृमि का आ जाना जिसका स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
लैप्टास्पाइरल वाइल्स रोग।
रोग उत्पन्न करने वाले जीवों के अतिरिक्त अनेकों प्रकार के विषैले तत्व भी पानी के माध्यम से हमारे शरीर में पहुंचकर स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। इन विषैले तत्वों में प्रमुख हैं कैडमियम, लेड, भरकरी, निकल, सिल्वर, आर्सेनिक आदि। जल में लोहा, मैंगनीज, कैल्सीयम, बेरियम, क्रोमियम कापर, सीलीयम, यूनेनियम, बोरान, तथा अन्य लवणों जैसे नाइट्रेट, सल्फेट, बोरेट, कार्बोनेट, आदि की अधिकता से मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जल में मैग्नीशियम व सल्फेट की अधिकता से आंतों में जलन पैदा होती है। नाइट्रेट की अधिकता से बच्चों में मेटाहीमोग्लाबिनेमिया नामक बीमारी हो जाती है तथा आंतों में पहुंचकर नाइट्रोसोएमीन में बदलकर पेट का केंसर उत्पन्न कर देता है। फ्लोरीन की अधिकता से फ्लोरोसिस नामक बीमारी हो जाती है। इसी प्रकार कृषि क्षेत्र में प्रयोग की जाने वाली कीटनाशी दवाईयों एवं उर्वरकों के विषैले अंष जल स्रोतों में पहुंचकर स्वास्थ्य की समस्या को भयावह बना देते हैं। प्रदूषित गैसे कार्बन डाइआक्साइड तथा सल्फर डाइआक्साइड जल में घुसकर जलस्रोत को अम्लीय बना देते हैं। अनुमान है कि बढ़ती हुई जनसंख्या एवं लापरवाही से जहां एक ओर प्रदूषण बढ़ेगा वहीं ऊर्जा की मांग एवं खपत के अनुसार यह मंहगा हो जाएगा। इसका पेयजल योजनाओं पर सीधा प्रभाव पड़ेगा। ऊर्जा की पूर्ति हेतु जहां एक ओर एक विशाल बांध बनाकर पनबिजली योजनाओं से लाभ मिलेगा वहीं इसका प्रभाव स्वच्छ जल एवं तटीय पारिस्थितिक तंत्र पर पड़ेगा जिसके कारण अनेक क्षेत्रों के जलमग्न होने व बड़ी आबादी के स्थानान्तरण के साथ सिस्टोमायसिस तथा मलेरिया आदि रोगों में वृद्धि होगी। जल प्रदूषण की मात्रा जो दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। विकराल रूप धारण करेगी। अत: सभी प्रकार के जल प्रदूषण से बचने के लिए आवश्य़क हे कि पूरे जल प्रबंधन में जल दोहन उनके वितरण तथा प्रयोग के बाद जल प्रवाहन की समुचित व्यवस्था हो। सभी विकास योजनाएं सुविचरित और सुनियोजित हो। कल-कारखानें आबादी से दूर हों। जानवरों-मवेशियों के लिए अलग-अलग टैंक और तालाब की व्यवस्था हो। नदियां झरनों और नहरों के पानी को दूषित होने से बचाया जाए। इसके लिए घरेलू और कल-कारखानों के अवशिष्ट पदार्थों को जल स्रोत में मिलने से पहले भली-भांति नष्ट कर देना चाहिए। डिटरजेंट्स का प्रयोग कम करके प्राकृतिक वनस्पति पदार्थ का प्रचलन करना होगा। इन प्रदूषणों को रोकने के लिए कठोर नियम बनाना होगा और उनका कठोरता से पालन करना होगा। मोटे तौर पर घरेलू उपयोग में पानी का प्रयोग करने से पहले यह आश्वस्त हो जाना चाहिए कि वह शुद्ध है या नहीं? यदि संदेह हो कि यह शुद्ध नहीं है तो निम्न तरीकों से इसे शुद्ध कर लेना चाहिए।
पीने के पानी को स्वच्छ कपड़े से छान लेना चाहिए अथवा फिल्टर का प्रयोग करना चाहिए।
कुएं के पानी को कीटाणु रहित करने के लिए उचित मात्रा में ब्लीचिंग पाउडर का उपयोग प्रभावी रहता है। वैसे समय-समय पर लाल दवा डालते रहना चाहिए।पानी को उबाल लें फिर ठंडा कर अच्छी तरह हिलाकर वायु संयुक्त करने के उपरान्त इसका प्रयोग करना चाहिए।
पीने के पानी को धूप में, प्रकाश में रखना चाहिए। तांबे के बर्तन में रखे तो यह अन्य बर्तनों की अपेक्षा सर्वाधिक शुद्ध रहता है। एक गैलेन पानी को दो ग्राम फिटकरी या बीस बूंद टिंचर आयोडीन या तनिक या ब्लीचिंग पाउडर मिलाकर शुद्ध किया जा सकता है। चारकोल, बालू युक्त बर्तन से छानकर भी पानी शुद्ध किया जा सकता है। सम्पन्न लोग हैलोजन की गोलियां डालकर भी पानी साफ रखते हैं।
टी. के सिन्हा