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‘पानी के लिये युद्ध’ पुस्तक से साभार, नवधान्य प्रकाशन
सम्पूर्ण इतिहास में मानव समुदाय इन बुनियादी प्रश्नों से जूझता रहा है कि पानी पर किसका अधिकार है? यह निजी स्वामित्व की चीज है या सामुदायिक सम्पदा है? इस पर आम लोगों के किस प्रकार के अधिकार हैं, या होने चाहिए? राज्य के क्या अधिकार है? निगमों तथा व्यापारिक हितों के क्या अधिकार हैं?
वर्तमान में हम जिस वैश्विक जल संकट का सामना कर रहे हैं वह संकेत दे रहा है कि अगले दशकों में स्थिति और भी बदतर होने वाली है। इस संकट के गहराते जाने के साथ ही पानी के अधिकार को पुनर्परिभाषित करने के नए प्रयास भी चल रहे हैं। वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था जल को सामुदायिक सम्पदा मानने के बजाय इसे निजी लाभ के लिये मुक्त रूप से निकालने और बेचने की चीज मान रही है। इसके साथ ही वैश्विक अर्थव्यवस्था जल के उपयोग को नियंत्रित करने वाले अधिनियमों को समाप्त करके जल का बाजार स्थापित करने की मांग करती है। जल के मुक्त व्यापार के प्रस्तावक निजी स्वामित्व को राज्य के स्वामित्व का विकल्प और मुक्त बाजार को जल संसाधनों के नौकरशाही नियंत्रण का विकल्प मानते हैं।
जल संसाधनों का लोकहित और सामुदायिक प्रबन्धन में कायम रहना किसी भी अन्य संसाधन से ज्यादा आवश्यक है। दरअसल, अधिकांश समाजों में पानी का निजीकरण प्रतिबन्धित रहा है। इंस्टिट्यूट ऑफ जस्टिनियन जैसे प्राचीन ग्रंथों से पता चलता है कि पानी तथा अन्य नैसर्गिक संसाधन सार्वजनिक सम्पदा है: “प्रकृति के नियमों के तहत हवा, बहता पानी तथा समुद्र के तट मनुष्य जाति की सार्वजनिक सम्पदा हैं।”(1) भारत में आकाश, हवा, जल और उर्जा को परम्परागत रूप से सम्पत्ति के सम्बन्धों के दायरे से बाहर समझा जाता रहा है। इस्लामिक परम्परा में शरियत (जो मूलतः ‘पानी का मार्ग’ बतलाता है) लोगों के जल के अधिकार को निश्चित आधार प्रदान करता है। यहाँ तक कि संयुक्त राज्य अमेरिका में भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो पानी को सार्वजनिक सम्पदा मानते हैं। विलियम ब्लैक स्टोन ने लिखा है, “पानी एक गतिशील, भ्रमणशील चीज है, प्रकृति के नियमों के तहत इसका सामुदायिक हित में बने रहना आवश्यक है। इसलिये इस पर मेरा केवल अल्पकालिक और स्थाई उपयोग आदि उपयोगाधिकार ही हो सकता है। (2)
जल दोहन की नई प्रौद्योगिकी के आने से जल प्रबन्धन में राज्य की भूमिका बन गई है। जैसे ही नई प्रौद्योगिकी स्वयं प्रबन्धित व्यवस्थाओं की जगह लेती है, वैसे ही लोगों की जनतांत्रिक प्रबन्धन व्यवस्था का ह्रास होता है और जल संरक्षण में उनकी भूमिका सिमट जाती है। जल संसाधनों के वैश्वीकरण और निजीकरण के माध्यम से सामुदायिक स्वामित्व को कारपोरेट नियंत्रण में बदलने तथा आम लोगों के अधिकारों को पूरी तरह समाप्त करने के नए प्रयास जारी हैं। निजीकरण के दौर में यह बात अक्सर भुला दी जाती है कि आम लोगों तथा समुदायों की वास्तविक आवश्यकताएँ राज्य तथा बाजार के द्वारा पूरी नहीं होतीं।
पूरी दुनिया के सम्पूर्ण इतिहास में जल सम्बन्धी अधिकारों का निर्धारण पारिस्थितिकीय सीमाओं तथा लोगों की जरूरतों का ध्यान रखते हुए किया जाता रहा है। दरअसल उर्दू शब्द ‘आबादी’ आब (पानी) से बना है, जो जलस्रोतों के अगल-बगल बसी मानव बस्तीयों और सभ्यताओं को प्रतिबिम्बित करता है। ‘आब’ की अवधारणा से ही जल-व्यवस्था विशेषकर नदी व्यवस्था पर आधारित तटवर्ती निवासियों के जल उपयोग का अधिकार उद्भूत हुआ है। परम्परागत रूप से पानी के अधिकार को मानव प्रकृति, ऐतिहासिक परिस्थितियों, बुनियादी जरूरतों तथा न्याय के धारणा से उत्पन्न एक नैसर्गिक अधिकार माना जाता है। नैसर्गिक अधिकार के रूप में पानी का अधिकार राज्य उद्भूत नहीं होता, यह माननीय अस्तित्व के निश्चित पारिस्थितिकीय सन्दर्भ से उभरता या विकसित होता है।
नैसर्गिक अधिकार के रूप में पानी का अधिकार उपयोगाधिकार है। पानी का उपयोग किया जा सकता है, लेकिन इस पर स्वामित्व स्थापित नहीं किया जा सकता। जीवन और उसको टिकाने वाले जल पर लोगों का नैसर्गिक अधिकार है। जीवन के लिये आवश्यक होने के कारण पानी के अधिकार को कस्टमरी (परम्परागत) कानूनों के तहत नैसर्गिक, सामाजिक वास्तविकता माना गया है: -
हमारे धर्मशास्त्रों और इस्लामी कानूनों समेत सभी प्राचीन संहिताओं में वर्णित है कि पानी पर लोगों का अधिकार रहा है और आधुनिक दौर में भी यह कस्टमरी कानून के रूप में मौजूद है। इस तथ्य से यह बात पूरी तरह खारिज हो जाती है कि पानी का अधिकार राज्य या कानून द्वारा प्रदत्त कोई कानूनी अधिकार है। (छत्रपति सिंह, ‘वाटर एंड लॉ’)
उपयोगाधिकार तथा सामुदायिक सम्पदा और संतुलित उपयोग जैसी अवधारणाओं पर आधारित नदीतटीय अधिकारों ने पूरी दुनिया में मानव बस्तियों का पथ प्रदर्शन किया है। भारत में हिमालय से जुड़ी नदीतटीय व्यवस्थाएँ लंबे समय से मौजूद रही हैं। कावेरी बेसिन की उल्लार नदी पर बना प्रसिद्ध एनीकट (नहर) हजारों वर्ष पुराना है और ऐसा माना जाता है कि भारत की नदियों के प्रवाह को नियंत्रित करने वाली संरचनाओं में यह सबसे पुराना है। यह अभी भी कार्यरत है। उत्तर पूर्व में डोंग्स जैसी पुरानी नदीतटीय प्रणालियाँ पानी के उपयोग का पथ प्रदर्शन करती हैं। महाराष्ट्र में पानी का संरक्षण करने वाली संरचनाओं को बन्धारा कहा जाता था।
बिहार की 'आहर-पइन’ प्रणाली भी नदीतटीय सिद्धांत से उद्भूत है। इस प्रणाली में कच्ची मिट्टी वाले आप्लावित नहर (पइन) जलधारा को आहर में पहुंचाते हैं। ब्रिटिश काल में निर्मित सोन नहर लोगों की सिंचाई की जरूरतें पूरी नहीं कर सका है, जबकि आहर और पइन से अभी भी किसानों को पानी मिलता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में स्पेनिश लोगों ने नदी तटीय व्यवस्था का प्रारम्भ किया था। स्पेनिश लोग इबेरियन प्रायद्वीप से ले गए थे।(4) ये प्रणालियाँ कोलोराडो, न्यू-मैक्सिको और अरिजोना के साथ-साथ पूर्वी उपनिवेशों में भी अपना ही गई।
प्रारम्भिक नदी तटीय सिद्धांत सार्वजनिक जलस्रोतों के साझा उपयोग और संरक्षण की धारणा पर आधारित थे। यह सिद्धांत निजी स्वामित्व की धारणा से सम्बन्ध नहीं थे। जैसाकि इतिहासकार डोनाल्ड वर्सटर ने लिखा है :-
प्राचीन काल में नदीतटीय सिद्धांत निजी स्वामित्व के अधिकार को जानने का तरीका नहीं था, बल्कि यह प्रकृति के साथ छेड़छाड़ न करने की मनोवृत्ति को अभिव्यक्त करता था। प्राचीनतम सिद्धांत के अनुसार नदी किसी की निजी सम्पत्ति नहीं मानी जाती थी। जो लोग नदी के किनारे निवास करते थे, उन्हें नदी का जल पीने, कपड़े धोने या अपने पशुओं को पानी पिलाने का केवल उपयोग का अधिकार था- उन्हें उसी हद तक इसका उपयोग करने का अधिकार था, जितने से नदी का ह्रास न हो। (5)
पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका में जाकर सर्वप्रथम बस जाने वाले यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने भी इन बुनियादी मान्यताओं का अनुसरण किया। लेकिन जैसे ही वे इस देश के दक्षिणी हिस्से में बसने लगे। उपयोगाधिकार के बात समाप्त हो गई। उपयोगाधिकार वाली धारणा के बदले यह मान लिया गया कि नदी तटीय अवधारणा ब्रिटिश सार्वजनिक कानून से उद्भुत हुई है। परिणामतः यह निजी स्वामित्व की धारणा के इर्द-गिर्द चली गई, वर्सटर कहते हैं, ‘अमेरिकन वेस्ट में बसने वाले स्त्री-पुरुष उस पुरानी दुनिया के नहीं थे... उन्होंने परम्परागत नदी तटीयता की अवधारणा को खारिज कर दिया। इसके बदले उन्होंने अधिकांश इलाकों पर प्रथम कब्जे के सिद्धांत का चयन किया, जिससे उन्हें प्रकृति का अधिकतम दोहन करने की पूरी स्वतंत्रता मिल गई।’(6) इससे पानी के सर्व प्रयोजनीय अधिकारों को गहरी क्षति पहुंची।
‘जो पहले आया उसका पहला अधिकार’ - वाली काउब्वाय अवधारणा पर आधारित निजी स्वामित्व और प्रथम कब्जे का सिद्धांत सर्वप्रथम अमेरिकन वेस्ट के खनन शिविरों में प्रकट हुआ। प्रथम कब्जे का सिद्धांत के आधार पर निजी सम्पत्ति का अधिकार संस्थापित हुआ, जिसमें जल की बिक्री और उसका व्यापार भी शामिल था। इससे जल का नया बाजार विकसित हुआ और शीघ्र ही सर्वप्रथम बसने वाले एकाधिकारी उपनिवेशी लोगों ने जल के नैसर्गिक अधिकारों को समाप्त करके जल का मूल्य निर्धारित किया। प्रथम कब्जे के सिद्धांत में ‘नदी तटीय भू स्वामियों को कोई तरज़ीह नहीं दी गई, बल्कि सभी उपयोगकर्ताओं को यह इजाजत दे दी गई कि वह पानी को नदी की धारा से दूर ले जाने और उसका विकास करने की प्रतिस्पर्धा में उतरें।’(7)
“जिसकी लाठी, उसकी भैंस” वाली इस काउब्वाय भावना का अर्थ यह हुआ कि जो आर्थिक रूप से शक्तिशाली हैं, वह दूसरों की जरूरतों तथा जल प्रणाली की सीमाओं का ख्याल रखे बिना पानी पर कब्जा करने के लिये पूंजी प्रधान साधनों में निवेश कर सकता है। इस तर्क से प्रथमतः कब्जा करने वालों को पानी का सम्पूर्ण अधिकार मिल गया। बाद में आने वाली इसी शर्त पर पानी का अधिकार पा सकते थे कि वह अपने आए लोगों के अधिकारों का सम्मान करें। काउब्वाय अर्थशास्त्र में नदियों के जल को उपयोग के लिये गैर तटीय क्षेत्रों में ले जाने की अनुमति दी। अगर कोई कब्ज़ाधारी पानी का उपयोग नहीं करता था तो उसे उसके अधिकार से बलपूर्वक वंचित कर दिया जाता था।
काउब्वाय वाले तर्क ने व्यक्तियों के बीच जल अधिकारों के हस्तांतरण और आदान-प्रदान की अनुमति दी। ये व्यक्ति अक्सर जल के पारिस्थितिकीय उपयोग या खनन के अतिरिक्त अन्य प्रकार के उपयोगों की उपेक्षा करते थे। यद्यपि ये अधिकार प्रथमतः बसने के आधार पर प्राप्त किए गए, लेकिन असली प्रथम बाशिंदों-नेटिव अमेरिकी लोगों को जल के अधिकार से वंचित कर दिया गया। खनिकों और उपनिवेशवादियों ने खुद को प्रथम बाशिंदा मान लिया और जल संसाधनों के उपयोग का अधिकार प्राप्त कर लिया।(8)
जलचक्र के प्राथमिक सीमाओं की अवहेलना का अर्थ था- नदियों के जल का अत्यधिक दोहन और खनन कचरे से उसका प्रदूषण। दूसरों के नैसर्गिक अधिकारों की अवहेलना का परिणाम यह हुआ कि लोगों को पानी से वंचित किया जाने लगा और पूरे अमेरिकन वेस्ट में जल के असमान तथा गैरटिकाऊ उपयोग का दौर शुरू हुआ और जल का अपव्यय करने वाली कृषि व्यवस्थाएँ में फैलने लगीं।
सामुदायिक जलस्रोतों के निजीकरण के वर्तमान प्रयासों की जड़ें काउब्वाय अर्थशास्त्र में मौजूद थीं। कंजरवेटिव केटो इंस्टिट्यूट के टेरी एंडरसन और पामेला स्नाइर जैसे जल के निजीकरण के पक्षधर न केवल निजीकरण के वर्तमान प्रयासों और काउब्वाय जल-कानूनों के बीच के सम्बन्धों का उल्लेख करते हैं बल्कि कब्जा जमाने वाले प्रारम्भिक पश्चिमी दर्शन को भविष्य के आदर्श के रूप में भी देखते हैं -
पश्चिमी सीमा से, और विशेषकर खनन शिविरों से प्रथम कब्जे का सिद्धांत और जल के व्यवसायीकरण का आधार प्राप्त हुआ। इस व्यवस्था ने जल के सक्षम बाजार के लिये आवश्यक उपादान प्रदान किए, इसमें निजी स्वामित्व के अधिकार स्पष्टतः परिभाषित थे, इन अधिकारों को लागू किया जा सकता था और यह हस्तांतरणीय थे। (9)
पश्चिमी सीमा क्षेत्र की उस अव्यवस्था को पुनः स्थापित करने और वैश्वीकृत करने का वर्तमान प्रयास हमारे दुर्लभ जल संसाधनों को नष्ट करने और गरीब लोगों को जल की हिस्सेदारी से वंचित करने का एक नुस्खा है। अमीर और शक्तिशाली लोग प्रकृति तथा आम लोगों से जल हथियाने के लिये छद्म बाज़ार की तरह इठलाते हुए प्रथम कब्जे कस सिद्धांत के माध्यम से राज्य का उपयोग कर रहे हैं। निजी हित समूह सुनियोजित रूप से जल के सामुदायिक नियंत्रण वाले विकल्प की उपेक्षा करते हैं। चूँकि धरती पर जल बिखरे रूप में गिरता है और हर सजीव प्राणी को जल की आवश्यकता होती है, इसलिये विकेंद्रित प्रबन्धन और जनतांत्रिक स्वामित्व ही सबों के पोषण की एकमात्र सक्षम, टिकाऊ और न्यायपूर्ण व्यवस्था है। सामुदायिक भागीदारी की शक्ति राज्य और बाजार से परे होती है और जल जनतंत्र का भविष्य नौकरशाही और कॉरपोरेट शक्ति से परे होता है।
जल सामुदायिक सम्पदा है, क्योंकि यह सभी सजीवों का पारिस्थितिकीय आधार है और इसकी सत्त पोषणीयता और इसके न्याय पूर्ण वितरण पर समुदाय के सदस्यों का परस्पर का सहकार निर्भर होता है। यद्यपि पूरे मानव इतिहास में सभी संस्कृतियों के बीच जल-संसाधनों का प्रबन्धन और उपयोग सामुदायिक सम्पदा के रूप में किया जाता रहा है, और आज भी अधिकांश समुदाय जल संसाधनों का प्रबन्धन और उपयोग उसी रूप में करते हैं। फिर भी जल संसाधनों के निजीकरण की गति तेज हो रही है।
अंग्रेजों के आने से पूर्व दक्षिण भारत के विभिन्न समुदाय जल प्रणालियों का प्रबन्धन ‘कुदीमरमथ’ (स्वयं मरम्मत) नामक व्यवस्था के द्वारा सामुहिक रूप से करते थे। 18वीं सदी में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन आने से पूर्व वहाँ का हर किसान अपने अन्न उत्पादन की एक हजार इकाई में से 300 ईकाई सार्वजनिक कोष में देता था, जिसमें से 250 ईकाई अन्न सार्वजनिक निर्माण या मरम्मत कार्य के लिये गाँव में ही रह जाता था।(10)
1830 आते-आते किसानों की अदायगी बढ़कर 650 इकाई हो गई, जिसकी 590 इकाईयाँ सीधे ईस्ट इंडिया कंपनी को जाने लगीं। बढ़ती अदायगी और मरम्मत और रख-रखाव वाले राजस्व में कमी के कारण किसान तबाह हो गए और उनकी सामुदायिक शानदार व्यवस्था समाप्त हो गई, अंग्रेजो के आने के पूर्व सैकड़ों वर्षों के दौरान निर्मित सभी तीन लाख तालाब मरम्मत के अभाव में नष्ट हो गए। परिणामतः कृषि उत्पादन और आय में अत्यधिक कमी आ गई।
1857 में आजादी की पहली लड़ाई के दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी को खदेड़ दिया गया था। 1858 में अंग्रेजों ने ‘मद्रास कम्पल्सरी लेबर एक्ट 1858’ बनाया जिसके तहत जल तथा सिंचाई व्यवस्थाओं के रख-रखाव के लिये किसानों को श्रम करने का आदेश था। यह भी ‘कुदीमरमथ’ कानून के नाम से चर्चित हुआ।(11) चूँकि यह कानून स्व-प्रबन्धन पर आधारित था न कि किसी दबाव पर, इसलिये सामुदायिक भागीदारी जुटाने और सार्वजनिक जल-संसाधनों के पूनर्निर्माण में असफल रहा।
स्व-प्रबन्धन वाले समुदाय न केवल ऐतिहासिक वास्तविकता रहे हैं बल्कि वे आज के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक हैं। राजकीय हस्तक्षेप और निजीकरण भी इसे पूरी तरह समाप्त नहीं कर सके हैं। सात राज्यों की उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों के विभिन्न जिलों में किए गए एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण में एन एस जोधा ने पाया कि पूरे भारत में गरीबों की ईंधन और चारे की सबसे बुनियादी जरूरतों की पूर्ति सार्वजनिक तथा सामुदायिक संसाधनों से होती है।(12) थार मरुस्थल में किए गए अध्ययनों में जोधा ने पाया कि अभी भी सामुदायिक परिषदें चाराई के अधिकार का फैसला करती हैं। प्रतिबन्धित चराई की अवधि, चराई की चक्रीय पद्धति, चराई वाले पशुओं की संख्या तथा प्रकार, गोबर तथा ईंधन की लकड़ी इकट्ठा करने के अधिकार और हरे चारे के लिये वृक्षों की कटाई-छंटाई का निर्धारण संस्थागत नियम-कानूनों के द्वारा होता है। ग्राम परिषदें अपना पहरेदार भी नियुक्त करती हैं, ताकि समुदाय का कोई सदस्य या बाहरी व्यक्ति उन नियमों का उल्लंघन न करे। तथा कुओं तथा तालाबों के रख-रखाव के लिये भी इस प्रकार के नियम मौजूद हैं।
जॉन लॉक ने सम्पत्ति सम्बन्धी अपने प्रबन्धग्रंथ ‘ट्रीटॉयज ऑन प्रॉपर्टी’ के माध्यम से यूरोप में 17वीं शताब्दी के एनक्लोजर आन्दोलन के दौरान सामुदायिक सम्पदा की हुई चोरी को प्रभावी ढंग से वैधता प्रदान की थी। अमीर माता-पिता का पुत्र जॉन लॉक इस तर्क के साथ पूंजीवाद और अपने विशाल सम्पत्ति की रक्षा में आगे आया कि सम्पत्ति तभी उत्पन्न होती है, जब प्राकृतिक संसाधनों के मूल स्वरूप को श्रम के उपयोग के द्वारा रूपांतरित किया जाता है-
“प्रकृति ने किसी वस्तु के जिस अवस्था में रख छोड़ा है, उसमें अपना श्रम लगाकर जो उसकी अवस्था को रूपांतरित कर देता है, वह उसे अपनी सम्पत्ति बना लेता है।”(13) उसके अनुसार श्रम के माध्यम से भूमि, वनों तथा नदियों पर स्वामित्व स्थापित करने की स्वतंत्रता पर ही व्यैक्तिक स्वतंत्रता निर्भर है। जॉन लॉक की सम्पत्ति सम्बन्धी पुस्तकें आज भी सामुदायिक संसाधनों का क्षरण और धरती का विनाश करने वाली परिकल्पनाओं तथा रिवाजों की याद दिलाती हैं।
समकालीन दौर में जल का निजीकरण गैरेट हार्डिंन (GaUkett Hardin) की पुस्तक “ट्रेजेडी ऑफ़ द कॉमन्स” पर आधारित है, जो सर्वप्रथम 1968 में प्रकाशित हुई थी। अपने सिद्धांत की व्याख्या करने के लिये गैरेट हार्डिंन एक परिदृश्य की कल्पना करने की अपील करता है-
सबके लिये खुले एक चारागाह की कल्पना कीजिये। यह उम्मीद की जाती है कि प्रत्येक चरवाहा इस सामूहिक-समुदायिक भूमि पर जितना सम्भव हो, उतनी संख्या में पशु रखने का प्रयास करेगा। इस प्रकार की व्यवस्था सदियों तक संतोषजनक तरीके से चल सकती है, क्योंकि कबिलाई लड़ाइयों, शिकार तथा बीमारियों के कारण मनुष्यों और पशुओं दोनों की संख्या भूमि की वहन क्षमता से कम ही रहती है। लेकिन अंततः वह वक्त आता है, जब सामाजिक स्थायित्व की बहुप्रतीक्षित आकांक्षा हकीकत बन जाती है। इस बिंदु पर आकर सामुदायिकता का अंतरभूत तर्क निष्ठुरतापूर्वक त्रासदी को जन्म देता है।(14)
गैरेट हार्डिंन का मानना है कि सामुदायिक सम्पदा सामाजिक रूप से अप्रबन्धित थीं, उसकी खुली उपलब्धता थी और उसका कोई स्वामित्व नहीं था। निजी स्वामित्व की अनुपस्थिति को गैरेट हार्डिंन अव्यवस्था का नुस्खा समझता है।
यद्यपि सामुदायिक सम्पदा के सन्दर्भ में गैरेट हार्डिंन का सिद्धांत बहुत लोकप्रिय हुआ लेकिन उस सिद्धान्त में बहुत सी विसंगतियाँ हैं। सामुदायिक सम्पदा को अप्रबन्धित और खुली उपलब्धता वाला समझने की उसकी मान्यता उसके इस विश्वास पर टिकी है कि केवल निजी व्यक्ति के हाथों में ही प्रबन्धन प्रभावी होता है। लेकिन समुदाय भी स्वयं प्रबन्धन करते हैं और उनका प्रबन्धन ज्यादा बेहतर होता है। जैसा गैरेट हार्डिंन प्रस्तुत करते हैं, वैसा नहीं है, सामुदायिक सम्पदा खुली उपलब्धता वाले संसाधन नहीं होते। दरअसल उनमें भी स्वामित्व की अवधारणा सन्निहित होती हैं। लेकिन उनमें व्यक्तिगत स्वामित्व की बजाय समूह का स्वामित्व होता है। समूह और समुदाय ही उनके उपयोग सम्बन्धी नियमों और प्रतिबन्धों का निर्धारण करते हैं। उपयोग सम्बन्धी नियमन ही चरागाहों को अति चराई से, वनों को विनाश से और जल संसाधनों को निःशेष होने से बचाते हैं।
सामुदायिक सम्पदा की नियति के सम्बन्ध में गैरेट हार्डिंन की भविष्यवाणी के केंद्र में यह विचार निहित है कि प्रतियोगिता मानव समाज की चालक शक्ति है। अगर व्यक्ति सम्पत्ति अर्जित करने की प्रतियोगिता में सफल नहीं होता तो कानून और व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। जब तीसरी दुनिया के ग्रामीण समाजों के बहुतेरे हिस्सों में इस तर्क की जाँच-परख की गई तो इसका कोई आधार आधार नहीं मिला, क्योंकि वहाँ अभी भी व्यक्तियों के बीच प्रतियोगिता की बजाय सहयोग का सिद्धांत प्रभावी है। अपने सदस्यों के बीच सहयोग और आवश्यकता आधारित उत्पादन वाली सामाजिक व्यवस्था में लाभ प्राप्ति के तर्क प्रतियोगिता वाले समाजों से पूर्णतः भिन्न होता है। गैरेट हार्डिंन “ट्रेजेडी ऑफ द कॉमन्स” में यह महत्वपूर्ण बिंदु अनुपस्थित है कि किसी खास परिस्थिति में जब सामुदायिक भूमि आबादी की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाती है तो प्रतियोगिता हो या ना हो, त्रासदी अवश्यंभावी हो जाती है।
कोलोराडो की रियो ग्रैंडे घाटी के ऊपरी हिस्सों में अभी भी जल का प्रबन्धन सामुदायिक सम्पदा के रूप में किया जाता है। मुझे सैन लूईस जाने का मौका मिला था, जहाँ मिट्टी, पौधों और पशुओं का पोषण करने वाली परंपरागत एसेकुइयाँ (Acequia) प्रणाली (गुरुत्वाकर्षण से संचालित सिंचाई वाली खाइयाँ) का प्रचलन है। कोलोराडो के स्थानीय समुदाय वहाँ की सामुदायिक सम्पदा और जल अधिकार की इस प्राचीनतम प्रणाली की रक्षा के लिये संघर्षरत थे। मैं उनके संघर्ष को समर्थन देने गई थी। उनकी सिंचाई की खाइयाँ मात्र बाजार की वस्तु पैदा नहीं करती, बल्कि जीवन की सघनता का भी सृजन करती हैं। सैन लूईस में अपनी पुश्तैनी जमीन पर खेती करने वाला किसान जोसेफ गैले गोस कहता है, “इस ठंडे विरान मरुस्थल में इन खाइयों के कारण ही पेड़-पौधों का उगना सम्भव होता है। पर्याप्त पेड़-पौधों के रहने पर जंगली जीवों पक्षियों और पशुओं को आश्रय स्थल प्राप्त होता है। पर्यावरणवादी इसे जैव-विविधता कहते हैं। मैं इसे जीवन कहता हूं।”(15)
जब रियो ग्रैंडे के जल की नीलामी सबसे ऊंची बोली लगाने वालों के हाथों होती है तो सामुदायिक जलसम्पदा के रख-रखाव की जिम्मेदारी से जुड़े कृषि चारागाही वाले समुदायों के हाथों से जल का अधिकार छिन जाता है।(16)
बाजार विविध मूल्यों के महत्व को समझने में अक्षम होता है और पारिस्थितिकीय मुल्यों के विनाश को प्रतिबिंबित करने में असफल रहता है। पारिस्थितिकीय व्यवस्थाओं की पुनर्भरण में लगने वाले जल को जल की बर्बादी मान लिया जाता है। जोसेफ गैले गोस एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाते हुए कहता है:-
यह किसका दृष्टिकोण है? एसेकुइयाँ के किनारे-किनारे लगे वृक्ष के बारे सोच है कि जल बर्बाद हो गया। उन वृक्षों पर रहने वाले पक्षी ऐसा नहीं सोचते। यह खाईयाँ वन्य जीवों के आश्रय स्थलों का सृजन करती हैं, जो पशु-पक्षियों और किसानों के लिये हितकर है। अगर वास्तव में आप शहरी डेवलपर नहीं हैं, जो शहरों की उन्मत्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जल को लालच भरी नजरों से देखते हैं तो आप उसको बर्बादी नहीं मानेगें। गिर्गो लोग जल को मात्र एक व्यावसायिक वस्तु समझते हैं। आप इस कहावत से परिचित होंगे कि “पैसे के लिये कोलोराडो का जल पहाड़ी की ऊंचाई की तरफ बहता है।”(17)
वर्तमान में हम जिस वैश्विक जल संकट का सामना कर रहे हैं वह संकेत दे रहा है कि अगले दशकों में स्थिति और भी बदतर होने वाली है। इस संकट के गहराते जाने के साथ ही पानी के अधिकार को पुनर्परिभाषित करने के नए प्रयास भी चल रहे हैं। वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था जल को सामुदायिक सम्पदा मानने के बजाय इसे निजी लाभ के लिये मुक्त रूप से निकालने और बेचने की चीज मान रही है। इसके साथ ही वैश्विक अर्थव्यवस्था जल के उपयोग को नियंत्रित करने वाले अधिनियमों को समाप्त करके जल का बाजार स्थापित करने की मांग करती है। जल के मुक्त व्यापार के प्रस्तावक निजी स्वामित्व को राज्य के स्वामित्व का विकल्प और मुक्त बाजार को जल संसाधनों के नौकरशाही नियंत्रण का विकल्प मानते हैं।
जल संसाधनों का लोकहित और सामुदायिक प्रबन्धन में कायम रहना किसी भी अन्य संसाधन से ज्यादा आवश्यक है। दरअसल, अधिकांश समाजों में पानी का निजीकरण प्रतिबन्धित रहा है। इंस्टिट्यूट ऑफ जस्टिनियन जैसे प्राचीन ग्रंथों से पता चलता है कि पानी तथा अन्य नैसर्गिक संसाधन सार्वजनिक सम्पदा है: “प्रकृति के नियमों के तहत हवा, बहता पानी तथा समुद्र के तट मनुष्य जाति की सार्वजनिक सम्पदा हैं।”(1) भारत में आकाश, हवा, जल और उर्जा को परम्परागत रूप से सम्पत्ति के सम्बन्धों के दायरे से बाहर समझा जाता रहा है। इस्लामिक परम्परा में शरियत (जो मूलतः ‘पानी का मार्ग’ बतलाता है) लोगों के जल के अधिकार को निश्चित आधार प्रदान करता है। यहाँ तक कि संयुक्त राज्य अमेरिका में भी ऐसे लोग मौजूद हैं जो पानी को सार्वजनिक सम्पदा मानते हैं। विलियम ब्लैक स्टोन ने लिखा है, “पानी एक गतिशील, भ्रमणशील चीज है, प्रकृति के नियमों के तहत इसका सामुदायिक हित में बने रहना आवश्यक है। इसलिये इस पर मेरा केवल अल्पकालिक और स्थाई उपयोग आदि उपयोगाधिकार ही हो सकता है। (2)
जल दोहन की नई प्रौद्योगिकी के आने से जल प्रबन्धन में राज्य की भूमिका बन गई है। जैसे ही नई प्रौद्योगिकी स्वयं प्रबन्धित व्यवस्थाओं की जगह लेती है, वैसे ही लोगों की जनतांत्रिक प्रबन्धन व्यवस्था का ह्रास होता है और जल संरक्षण में उनकी भूमिका सिमट जाती है। जल संसाधनों के वैश्वीकरण और निजीकरण के माध्यम से सामुदायिक स्वामित्व को कारपोरेट नियंत्रण में बदलने तथा आम लोगों के अधिकारों को पूरी तरह समाप्त करने के नए प्रयास जारी हैं। निजीकरण के दौर में यह बात अक्सर भुला दी जाती है कि आम लोगों तथा समुदायों की वास्तविक आवश्यकताएँ राज्य तथा बाजार के द्वारा पूरी नहीं होतीं।
नैसर्गिक अधिकार के तौर पर जल अधिकार
पूरी दुनिया के सम्पूर्ण इतिहास में जल सम्बन्धी अधिकारों का निर्धारण पारिस्थितिकीय सीमाओं तथा लोगों की जरूरतों का ध्यान रखते हुए किया जाता रहा है। दरअसल उर्दू शब्द ‘आबादी’ आब (पानी) से बना है, जो जलस्रोतों के अगल-बगल बसी मानव बस्तीयों और सभ्यताओं को प्रतिबिम्बित करता है। ‘आब’ की अवधारणा से ही जल-व्यवस्था विशेषकर नदी व्यवस्था पर आधारित तटवर्ती निवासियों के जल उपयोग का अधिकार उद्भूत हुआ है। परम्परागत रूप से पानी के अधिकार को मानव प्रकृति, ऐतिहासिक परिस्थितियों, बुनियादी जरूरतों तथा न्याय के धारणा से उत्पन्न एक नैसर्गिक अधिकार माना जाता है। नैसर्गिक अधिकार के रूप में पानी का अधिकार राज्य उद्भूत नहीं होता, यह माननीय अस्तित्व के निश्चित पारिस्थितिकीय सन्दर्भ से उभरता या विकसित होता है।
नैसर्गिक अधिकार के रूप में पानी का अधिकार उपयोगाधिकार है। पानी का उपयोग किया जा सकता है, लेकिन इस पर स्वामित्व स्थापित नहीं किया जा सकता। जीवन और उसको टिकाने वाले जल पर लोगों का नैसर्गिक अधिकार है। जीवन के लिये आवश्यक होने के कारण पानी के अधिकार को कस्टमरी (परम्परागत) कानूनों के तहत नैसर्गिक, सामाजिक वास्तविकता माना गया है: -
हमारे धर्मशास्त्रों और इस्लामी कानूनों समेत सभी प्राचीन संहिताओं में वर्णित है कि पानी पर लोगों का अधिकार रहा है और आधुनिक दौर में भी यह कस्टमरी कानून के रूप में मौजूद है। इस तथ्य से यह बात पूरी तरह खारिज हो जाती है कि पानी का अधिकार राज्य या कानून द्वारा प्रदत्त कोई कानूनी अधिकार है। (छत्रपति सिंह, ‘वाटर एंड लॉ’)
नदी तटीय अधिकार
उपयोगाधिकार तथा सामुदायिक सम्पदा और संतुलित उपयोग जैसी अवधारणाओं पर आधारित नदीतटीय अधिकारों ने पूरी दुनिया में मानव बस्तियों का पथ प्रदर्शन किया है। भारत में हिमालय से जुड़ी नदीतटीय व्यवस्थाएँ लंबे समय से मौजूद रही हैं। कावेरी बेसिन की उल्लार नदी पर बना प्रसिद्ध एनीकट (नहर) हजारों वर्ष पुराना है और ऐसा माना जाता है कि भारत की नदियों के प्रवाह को नियंत्रित करने वाली संरचनाओं में यह सबसे पुराना है। यह अभी भी कार्यरत है। उत्तर पूर्व में डोंग्स जैसी पुरानी नदीतटीय प्रणालियाँ पानी के उपयोग का पथ प्रदर्शन करती हैं। महाराष्ट्र में पानी का संरक्षण करने वाली संरचनाओं को बन्धारा कहा जाता था।
बिहार की 'आहर-पइन’ प्रणाली भी नदीतटीय सिद्धांत से उद्भूत है। इस प्रणाली में कच्ची मिट्टी वाले आप्लावित नहर (पइन) जलधारा को आहर में पहुंचाते हैं। ब्रिटिश काल में निर्मित सोन नहर लोगों की सिंचाई की जरूरतें पूरी नहीं कर सका है, जबकि आहर और पइन से अभी भी किसानों को पानी मिलता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में स्पेनिश लोगों ने नदी तटीय व्यवस्था का प्रारम्भ किया था। स्पेनिश लोग इबेरियन प्रायद्वीप से ले गए थे।(4) ये प्रणालियाँ कोलोराडो, न्यू-मैक्सिको और अरिजोना के साथ-साथ पूर्वी उपनिवेशों में भी अपना ही गई।
प्रारम्भिक नदी तटीय सिद्धांत सार्वजनिक जलस्रोतों के साझा उपयोग और संरक्षण की धारणा पर आधारित थे। यह सिद्धांत निजी स्वामित्व की धारणा से सम्बन्ध नहीं थे। जैसाकि इतिहासकार डोनाल्ड वर्सटर ने लिखा है :-
प्राचीन काल में नदीतटीय सिद्धांत निजी स्वामित्व के अधिकार को जानने का तरीका नहीं था, बल्कि यह प्रकृति के साथ छेड़छाड़ न करने की मनोवृत्ति को अभिव्यक्त करता था। प्राचीनतम सिद्धांत के अनुसार नदी किसी की निजी सम्पत्ति नहीं मानी जाती थी। जो लोग नदी के किनारे निवास करते थे, उन्हें नदी का जल पीने, कपड़े धोने या अपने पशुओं को पानी पिलाने का केवल उपयोग का अधिकार था- उन्हें उसी हद तक इसका उपयोग करने का अधिकार था, जितने से नदी का ह्रास न हो। (5)
पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका में जाकर सर्वप्रथम बस जाने वाले यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने भी इन बुनियादी मान्यताओं का अनुसरण किया। लेकिन जैसे ही वे इस देश के दक्षिणी हिस्से में बसने लगे। उपयोगाधिकार के बात समाप्त हो गई। उपयोगाधिकार वाली धारणा के बदले यह मान लिया गया कि नदी तटीय अवधारणा ब्रिटिश सार्वजनिक कानून से उद्भुत हुई है। परिणामतः यह निजी स्वामित्व की धारणा के इर्द-गिर्द चली गई, वर्सटर कहते हैं, ‘अमेरिकन वेस्ट में बसने वाले स्त्री-पुरुष उस पुरानी दुनिया के नहीं थे... उन्होंने परम्परागत नदी तटीयता की अवधारणा को खारिज कर दिया। इसके बदले उन्होंने अधिकांश इलाकों पर प्रथम कब्जे के सिद्धांत का चयन किया, जिससे उन्हें प्रकृति का अधिकतम दोहन करने की पूरी स्वतंत्रता मिल गई।’(6) इससे पानी के सर्व प्रयोजनीय अधिकारों को गहरी क्षति पहुंची।
काउब्वाय अर्थशास्त्र: प्रथम कब्जे का सिद्धांत और निजीकरण का प्रादुर्भाव
‘जो पहले आया उसका पहला अधिकार’ - वाली काउब्वाय अवधारणा पर आधारित निजी स्वामित्व और प्रथम कब्जे का सिद्धांत सर्वप्रथम अमेरिकन वेस्ट के खनन शिविरों में प्रकट हुआ। प्रथम कब्जे का सिद्धांत के आधार पर निजी सम्पत्ति का अधिकार संस्थापित हुआ, जिसमें जल की बिक्री और उसका व्यापार भी शामिल था। इससे जल का नया बाजार विकसित हुआ और शीघ्र ही सर्वप्रथम बसने वाले एकाधिकारी उपनिवेशी लोगों ने जल के नैसर्गिक अधिकारों को समाप्त करके जल का मूल्य निर्धारित किया। प्रथम कब्जे के सिद्धांत में ‘नदी तटीय भू स्वामियों को कोई तरज़ीह नहीं दी गई, बल्कि सभी उपयोगकर्ताओं को यह इजाजत दे दी गई कि वह पानी को नदी की धारा से दूर ले जाने और उसका विकास करने की प्रतिस्पर्धा में उतरें।’(7)
“जिसकी लाठी, उसकी भैंस” वाली इस काउब्वाय भावना का अर्थ यह हुआ कि जो आर्थिक रूप से शक्तिशाली हैं, वह दूसरों की जरूरतों तथा जल प्रणाली की सीमाओं का ख्याल रखे बिना पानी पर कब्जा करने के लिये पूंजी प्रधान साधनों में निवेश कर सकता है। इस तर्क से प्रथमतः कब्जा करने वालों को पानी का सम्पूर्ण अधिकार मिल गया। बाद में आने वाली इसी शर्त पर पानी का अधिकार पा सकते थे कि वह अपने आए लोगों के अधिकारों का सम्मान करें। काउब्वाय अर्थशास्त्र में नदियों के जल को उपयोग के लिये गैर तटीय क्षेत्रों में ले जाने की अनुमति दी। अगर कोई कब्ज़ाधारी पानी का उपयोग नहीं करता था तो उसे उसके अधिकार से बलपूर्वक वंचित कर दिया जाता था।
काउब्वाय वाले तर्क ने व्यक्तियों के बीच जल अधिकारों के हस्तांतरण और आदान-प्रदान की अनुमति दी। ये व्यक्ति अक्सर जल के पारिस्थितिकीय उपयोग या खनन के अतिरिक्त अन्य प्रकार के उपयोगों की उपेक्षा करते थे। यद्यपि ये अधिकार प्रथमतः बसने के आधार पर प्राप्त किए गए, लेकिन असली प्रथम बाशिंदों-नेटिव अमेरिकी लोगों को जल के अधिकार से वंचित कर दिया गया। खनिकों और उपनिवेशवादियों ने खुद को प्रथम बाशिंदा मान लिया और जल संसाधनों के उपयोग का अधिकार प्राप्त कर लिया।(8)
जलचक्र के प्राथमिक सीमाओं की अवहेलना का अर्थ था- नदियों के जल का अत्यधिक दोहन और खनन कचरे से उसका प्रदूषण। दूसरों के नैसर्गिक अधिकारों की अवहेलना का परिणाम यह हुआ कि लोगों को पानी से वंचित किया जाने लगा और पूरे अमेरिकन वेस्ट में जल के असमान तथा गैरटिकाऊ उपयोग का दौर शुरू हुआ और जल का अपव्यय करने वाली कृषि व्यवस्थाएँ में फैलने लगीं।
समसामयिक काउब्वाय अर्थशास्त्र
सामुदायिक जलस्रोतों के निजीकरण के वर्तमान प्रयासों की जड़ें काउब्वाय अर्थशास्त्र में मौजूद थीं। कंजरवेटिव केटो इंस्टिट्यूट के टेरी एंडरसन और पामेला स्नाइर जैसे जल के निजीकरण के पक्षधर न केवल निजीकरण के वर्तमान प्रयासों और काउब्वाय जल-कानूनों के बीच के सम्बन्धों का उल्लेख करते हैं बल्कि कब्जा जमाने वाले प्रारम्भिक पश्चिमी दर्शन को भविष्य के आदर्श के रूप में भी देखते हैं -
पश्चिमी सीमा से, और विशेषकर खनन शिविरों से प्रथम कब्जे का सिद्धांत और जल के व्यवसायीकरण का आधार प्राप्त हुआ। इस व्यवस्था ने जल के सक्षम बाजार के लिये आवश्यक उपादान प्रदान किए, इसमें निजी स्वामित्व के अधिकार स्पष्टतः परिभाषित थे, इन अधिकारों को लागू किया जा सकता था और यह हस्तांतरणीय थे। (9)
पश्चिमी सीमा क्षेत्र की उस अव्यवस्था को पुनः स्थापित करने और वैश्वीकृत करने का वर्तमान प्रयास हमारे दुर्लभ जल संसाधनों को नष्ट करने और गरीब लोगों को जल की हिस्सेदारी से वंचित करने का एक नुस्खा है। अमीर और शक्तिशाली लोग प्रकृति तथा आम लोगों से जल हथियाने के लिये छद्म बाज़ार की तरह इठलाते हुए प्रथम कब्जे कस सिद्धांत के माध्यम से राज्य का उपयोग कर रहे हैं। निजी हित समूह सुनियोजित रूप से जल के सामुदायिक नियंत्रण वाले विकल्प की उपेक्षा करते हैं। चूँकि धरती पर जल बिखरे रूप में गिरता है और हर सजीव प्राणी को जल की आवश्यकता होती है, इसलिये विकेंद्रित प्रबन्धन और जनतांत्रिक स्वामित्व ही सबों के पोषण की एकमात्र सक्षम, टिकाऊ और न्यायपूर्ण व्यवस्था है। सामुदायिक भागीदारी की शक्ति राज्य और बाजार से परे होती है और जल जनतंत्र का भविष्य नौकरशाही और कॉरपोरेट शक्ति से परे होता है।
सामुदायिक सम्पदा के रूप में जल
जल सामुदायिक सम्पदा है, क्योंकि यह सभी सजीवों का पारिस्थितिकीय आधार है और इसकी सत्त पोषणीयता और इसके न्याय पूर्ण वितरण पर समुदाय के सदस्यों का परस्पर का सहकार निर्भर होता है। यद्यपि पूरे मानव इतिहास में सभी संस्कृतियों के बीच जल-संसाधनों का प्रबन्धन और उपयोग सामुदायिक सम्पदा के रूप में किया जाता रहा है, और आज भी अधिकांश समुदाय जल संसाधनों का प्रबन्धन और उपयोग उसी रूप में करते हैं। फिर भी जल संसाधनों के निजीकरण की गति तेज हो रही है।
अंग्रेजों के आने से पूर्व दक्षिण भारत के विभिन्न समुदाय जल प्रणालियों का प्रबन्धन ‘कुदीमरमथ’ (स्वयं मरम्मत) नामक व्यवस्था के द्वारा सामुहिक रूप से करते थे। 18वीं सदी में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन आने से पूर्व वहाँ का हर किसान अपने अन्न उत्पादन की एक हजार इकाई में से 300 ईकाई सार्वजनिक कोष में देता था, जिसमें से 250 ईकाई अन्न सार्वजनिक निर्माण या मरम्मत कार्य के लिये गाँव में ही रह जाता था।(10)
1830 आते-आते किसानों की अदायगी बढ़कर 650 इकाई हो गई, जिसकी 590 इकाईयाँ सीधे ईस्ट इंडिया कंपनी को जाने लगीं। बढ़ती अदायगी और मरम्मत और रख-रखाव वाले राजस्व में कमी के कारण किसान तबाह हो गए और उनकी सामुदायिक शानदार व्यवस्था समाप्त हो गई, अंग्रेजो के आने के पूर्व सैकड़ों वर्षों के दौरान निर्मित सभी तीन लाख तालाब मरम्मत के अभाव में नष्ट हो गए। परिणामतः कृषि उत्पादन और आय में अत्यधिक कमी आ गई।
1857 में आजादी की पहली लड़ाई के दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी को खदेड़ दिया गया था। 1858 में अंग्रेजों ने ‘मद्रास कम्पल्सरी लेबर एक्ट 1858’ बनाया जिसके तहत जल तथा सिंचाई व्यवस्थाओं के रख-रखाव के लिये किसानों को श्रम करने का आदेश था। यह भी ‘कुदीमरमथ’ कानून के नाम से चर्चित हुआ।(11) चूँकि यह कानून स्व-प्रबन्धन पर आधारित था न कि किसी दबाव पर, इसलिये सामुदायिक भागीदारी जुटाने और सार्वजनिक जल-संसाधनों के पूनर्निर्माण में असफल रहा।
स्व-प्रबन्धन वाले समुदाय न केवल ऐतिहासिक वास्तविकता रहे हैं बल्कि वे आज के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक हैं। राजकीय हस्तक्षेप और निजीकरण भी इसे पूरी तरह समाप्त नहीं कर सके हैं। सात राज्यों की उष्णकटिबन्धीय क्षेत्रों के विभिन्न जिलों में किए गए एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण में एन एस जोधा ने पाया कि पूरे भारत में गरीबों की ईंधन और चारे की सबसे बुनियादी जरूरतों की पूर्ति सार्वजनिक तथा सामुदायिक संसाधनों से होती है।(12) थार मरुस्थल में किए गए अध्ययनों में जोधा ने पाया कि अभी भी सामुदायिक परिषदें चाराई के अधिकार का फैसला करती हैं। प्रतिबन्धित चराई की अवधि, चराई की चक्रीय पद्धति, चराई वाले पशुओं की संख्या तथा प्रकार, गोबर तथा ईंधन की लकड़ी इकट्ठा करने के अधिकार और हरे चारे के लिये वृक्षों की कटाई-छंटाई का निर्धारण संस्थागत नियम-कानूनों के द्वारा होता है। ग्राम परिषदें अपना पहरेदार भी नियुक्त करती हैं, ताकि समुदाय का कोई सदस्य या बाहरी व्यक्ति उन नियमों का उल्लंघन न करे। तथा कुओं तथा तालाबों के रख-रखाव के लिये भी इस प्रकार के नियम मौजूद हैं।
सामुदायिक संसाधनों की त्रासदी
जॉन लॉक ने सम्पत्ति सम्बन्धी अपने प्रबन्धग्रंथ ‘ट्रीटॉयज ऑन प्रॉपर्टी’ के माध्यम से यूरोप में 17वीं शताब्दी के एनक्लोजर आन्दोलन के दौरान सामुदायिक सम्पदा की हुई चोरी को प्रभावी ढंग से वैधता प्रदान की थी। अमीर माता-पिता का पुत्र जॉन लॉक इस तर्क के साथ पूंजीवाद और अपने विशाल सम्पत्ति की रक्षा में आगे आया कि सम्पत्ति तभी उत्पन्न होती है, जब प्राकृतिक संसाधनों के मूल स्वरूप को श्रम के उपयोग के द्वारा रूपांतरित किया जाता है-
“प्रकृति ने किसी वस्तु के जिस अवस्था में रख छोड़ा है, उसमें अपना श्रम लगाकर जो उसकी अवस्था को रूपांतरित कर देता है, वह उसे अपनी सम्पत्ति बना लेता है।”(13) उसके अनुसार श्रम के माध्यम से भूमि, वनों तथा नदियों पर स्वामित्व स्थापित करने की स्वतंत्रता पर ही व्यैक्तिक स्वतंत्रता निर्भर है। जॉन लॉक की सम्पत्ति सम्बन्धी पुस्तकें आज भी सामुदायिक संसाधनों का क्षरण और धरती का विनाश करने वाली परिकल्पनाओं तथा रिवाजों की याद दिलाती हैं।
समकालीन दौर में जल का निजीकरण गैरेट हार्डिंन (GaUkett Hardin) की पुस्तक “ट्रेजेडी ऑफ़ द कॉमन्स” पर आधारित है, जो सर्वप्रथम 1968 में प्रकाशित हुई थी। अपने सिद्धांत की व्याख्या करने के लिये गैरेट हार्डिंन एक परिदृश्य की कल्पना करने की अपील करता है-
सबके लिये खुले एक चारागाह की कल्पना कीजिये। यह उम्मीद की जाती है कि प्रत्येक चरवाहा इस सामूहिक-समुदायिक भूमि पर जितना सम्भव हो, उतनी संख्या में पशु रखने का प्रयास करेगा। इस प्रकार की व्यवस्था सदियों तक संतोषजनक तरीके से चल सकती है, क्योंकि कबिलाई लड़ाइयों, शिकार तथा बीमारियों के कारण मनुष्यों और पशुओं दोनों की संख्या भूमि की वहन क्षमता से कम ही रहती है। लेकिन अंततः वह वक्त आता है, जब सामाजिक स्थायित्व की बहुप्रतीक्षित आकांक्षा हकीकत बन जाती है। इस बिंदु पर आकर सामुदायिकता का अंतरभूत तर्क निष्ठुरतापूर्वक त्रासदी को जन्म देता है।(14)
गैरेट हार्डिंन का मानना है कि सामुदायिक सम्पदा सामाजिक रूप से अप्रबन्धित थीं, उसकी खुली उपलब्धता थी और उसका कोई स्वामित्व नहीं था। निजी स्वामित्व की अनुपस्थिति को गैरेट हार्डिंन अव्यवस्था का नुस्खा समझता है।
यद्यपि सामुदायिक सम्पदा के सन्दर्भ में गैरेट हार्डिंन का सिद्धांत बहुत लोकप्रिय हुआ लेकिन उस सिद्धान्त में बहुत सी विसंगतियाँ हैं। सामुदायिक सम्पदा को अप्रबन्धित और खुली उपलब्धता वाला समझने की उसकी मान्यता उसके इस विश्वास पर टिकी है कि केवल निजी व्यक्ति के हाथों में ही प्रबन्धन प्रभावी होता है। लेकिन समुदाय भी स्वयं प्रबन्धन करते हैं और उनका प्रबन्धन ज्यादा बेहतर होता है। जैसा गैरेट हार्डिंन प्रस्तुत करते हैं, वैसा नहीं है, सामुदायिक सम्पदा खुली उपलब्धता वाले संसाधन नहीं होते। दरअसल उनमें भी स्वामित्व की अवधारणा सन्निहित होती हैं। लेकिन उनमें व्यक्तिगत स्वामित्व की बजाय समूह का स्वामित्व होता है। समूह और समुदाय ही उनके उपयोग सम्बन्धी नियमों और प्रतिबन्धों का निर्धारण करते हैं। उपयोग सम्बन्धी नियमन ही चरागाहों को अति चराई से, वनों को विनाश से और जल संसाधनों को निःशेष होने से बचाते हैं।
सामुदायिक सम्पदा की नियति के सम्बन्ध में गैरेट हार्डिंन की भविष्यवाणी के केंद्र में यह विचार निहित है कि प्रतियोगिता मानव समाज की चालक शक्ति है। अगर व्यक्ति सम्पत्ति अर्जित करने की प्रतियोगिता में सफल नहीं होता तो कानून और व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। जब तीसरी दुनिया के ग्रामीण समाजों के बहुतेरे हिस्सों में इस तर्क की जाँच-परख की गई तो इसका कोई आधार आधार नहीं मिला, क्योंकि वहाँ अभी भी व्यक्तियों के बीच प्रतियोगिता की बजाय सहयोग का सिद्धांत प्रभावी है। अपने सदस्यों के बीच सहयोग और आवश्यकता आधारित उत्पादन वाली सामाजिक व्यवस्था में लाभ प्राप्ति के तर्क प्रतियोगिता वाले समाजों से पूर्णतः भिन्न होता है। गैरेट हार्डिंन “ट्रेजेडी ऑफ द कॉमन्स” में यह महत्वपूर्ण बिंदु अनुपस्थित है कि किसी खास परिस्थिति में जब सामुदायिक भूमि आबादी की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाती है तो प्रतियोगिता हो या ना हो, त्रासदी अवश्यंभावी हो जाती है।
समुदाय और सार्वजनिक सम्पदा
कोलोराडो की रियो ग्रैंडे घाटी के ऊपरी हिस्सों में अभी भी जल का प्रबन्धन सामुदायिक सम्पदा के रूप में किया जाता है। मुझे सैन लूईस जाने का मौका मिला था, जहाँ मिट्टी, पौधों और पशुओं का पोषण करने वाली परंपरागत एसेकुइयाँ (Acequia) प्रणाली (गुरुत्वाकर्षण से संचालित सिंचाई वाली खाइयाँ) का प्रचलन है। कोलोराडो के स्थानीय समुदाय वहाँ की सामुदायिक सम्पदा और जल अधिकार की इस प्राचीनतम प्रणाली की रक्षा के लिये संघर्षरत थे। मैं उनके संघर्ष को समर्थन देने गई थी। उनकी सिंचाई की खाइयाँ मात्र बाजार की वस्तु पैदा नहीं करती, बल्कि जीवन की सघनता का भी सृजन करती हैं। सैन लूईस में अपनी पुश्तैनी जमीन पर खेती करने वाला किसान जोसेफ गैले गोस कहता है, “इस ठंडे विरान मरुस्थल में इन खाइयों के कारण ही पेड़-पौधों का उगना सम्भव होता है। पर्याप्त पेड़-पौधों के रहने पर जंगली जीवों पक्षियों और पशुओं को आश्रय स्थल प्राप्त होता है। पर्यावरणवादी इसे जैव-विविधता कहते हैं। मैं इसे जीवन कहता हूं।”(15)
जब रियो ग्रैंडे के जल की नीलामी सबसे ऊंची बोली लगाने वालों के हाथों होती है तो सामुदायिक जलसम्पदा के रख-रखाव की जिम्मेदारी से जुड़े कृषि चारागाही वाले समुदायों के हाथों से जल का अधिकार छिन जाता है।(16)
बाजार विविध मूल्यों के महत्व को समझने में अक्षम होता है और पारिस्थितिकीय मुल्यों के विनाश को प्रतिबिंबित करने में असफल रहता है। पारिस्थितिकीय व्यवस्थाओं की पुनर्भरण में लगने वाले जल को जल की बर्बादी मान लिया जाता है। जोसेफ गैले गोस एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाते हुए कहता है:-
यह किसका दृष्टिकोण है? एसेकुइयाँ के किनारे-किनारे लगे वृक्ष के बारे सोच है कि जल बर्बाद हो गया। उन वृक्षों पर रहने वाले पक्षी ऐसा नहीं सोचते। यह खाईयाँ वन्य जीवों के आश्रय स्थलों का सृजन करती हैं, जो पशु-पक्षियों और किसानों के लिये हितकर है। अगर वास्तव में आप शहरी डेवलपर नहीं हैं, जो शहरों की उन्मत्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जल को लालच भरी नजरों से देखते हैं तो आप उसको बर्बादी नहीं मानेगें। गिर्गो लोग जल को मात्र एक व्यावसायिक वस्तु समझते हैं। आप इस कहावत से परिचित होंगे कि “पैसे के लिये कोलोराडो का जल पहाड़ी की ऊंचाई की तरफ बहता है।”(17)