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कादम्बिनी, मई 2016
जल की मर्यादा का भगवान राम, हिन्दू सभ्यता में साक्षात सर्वशक्तिमान ईश्वर के अवतार भी उल्लंघन नहीं कर सकते। जल-धर्म की मर्यादा सुनिश्चित है। प्रथमतः समुद्र के भीतर जलचर का विशाल समुदाय-समाज है, द्वितीय पृथ्वी पर जो सृष्टि है उसमें जो भी जीवन जल पर आधारित है उसे आवश्यकता के अनुरूप जल की आपूर्ति करनी है, यानी जो भी जलाधारित जीवन है उसकी रक्षा में समुद्र कोई कोताही नहीं बरत सकता। समुद्र का यही मूल धर्म है। न राम, न राम का कोई वंशज जल की या प्रकृति की मर्यादा का उल्लंघन कर सकता है। समाजवादी चिन्तक डॉ. राममनोहर लोहिया का लिखा एक यात्रा विवरण है। वे दक्षिण भारत की किसी नदी में स्नान कर रहे थे। वहाँ किसी नाविक या मछुआरे ने उनसे पूछ लिया- ‘बाबू आपका मुलुक किस नदी के किनारे है?’ अत्यन्त वाक्पटु नेता हतप्रभ रहे गया था। कुछ चिन्तन-विमर्श के बाद उत्तर दिया था- ‘सरयू पुत्र हूँ।’
नाविक ने लौटकर कहा- “अच्छा! राजा रामचंद्र के गाँव के हो!”
लोहिया ने लिखा है- ‘मैं मुस्कुराकर रह गया, कुछ भी कहने में असमर्थ था।’
इस किस्से का मेरे दिमाग की संरचना पर गहरा असर है। मेरी निजी चेतना में यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि व्यक्ति का आत्म परिचय और नागरिकता की परिभाषा मूलतः पानी/नदी/घाटी आधारित होती है। सामाजिक चरित्र के सन्दर्भ में भी भौगोलिक पहचान सर्वथा महत्त्वपूर्ण घटक है। मानव सृजनात्मकता में यह तथ्य बुनियादी घटक है। पंचतत्व से बने समस्त जीव-जन्तु, जीवाणु, वनस्पति, पदार्थ और प्राणी मात्र की मूल जाति भौगोलिक होती है। पंजाबी भाषा में परस्पर परिचय का प्रचलित मुहावरा है- ‘पिच्छे पिंड कोडा?’ अर्थात जो पाकिस्तान में पीछे छूट गया, वह मूल स्थान कौन-सा है?
पंचतत्व से बना मानव ‘पिंड’ और पंजाबी भाषा में मूल वतन के लिये प्रयुक्त होने वाले ‘पिंड’ का मुहावरा भारत की समस्त सांस्कृतिक चेतना में स्थानीयता (धरती को ‘माँ’ मानने की प्रतिबद्धता) के सिद्धान्त का अनोखा प्रतीक है। मानव पिंड की संरचना में जल तत्व की प्रधानता होती है।
भारतीय परम्परा में गाँव, मौजा से लेकर जिला, अंचल, प्रदेश, देश-राष्ट्र तक का सीमांकन जल-निर्गम के आधार से होता था। भारत की तो यह ऐसी विशेषता है कि देश का नामकरण तक जलसूचक है। भारतवर्ष अर्थात ऐसी भारत भूमि जहाँ वर्षा का चक्र साल भर (एक बरस) में पूरा होता है। फ्रैंच का इंदै, अंग्रेजी का इंडिया तो ‘सिंधु’ (इंडस) का पर्याय है। अरबी एवं फारसी का हिन्दुस्तान भी सिंधु का ही रूप है। अतः भारतीय कला और सृजनात्मकता के सन्दर्भ में हमारी सर्वोपरि प्रथम स्थापना यही है कि भारतीय संस्कृति का मूल कारक/घटक जल की उपलब्धि, उसके उपयोग-उपभोग की विधि, संरक्षण और व्यवस्था के विधान/तंत्र से आरम्भ होती है।
पानी की समस्त व्यवस्था-तंत्र और विविध प्रक्रियाओं जैसे घरेलू जल संचयन एवं उपयोग से लेकर कृषि-उद्योग तक का सूत्रबद्ध विधान है।
दक्षिण में कन्याकुमारी से उत्तर में कश्मीर-लद्दाख-तिब्बत तक और पूर्व में अराकान से बलूच के पठार तक जो देश दक्षिण एशिया कहलाता है, उसमें सैकड़ों जल घाटियाँ, नदी व्यवस्थाएँ और विविध जलस्रोत और इन पर आधारित आंचलिक समाज और उनकी संस्कृति का अस्तित्व मिला हुआ है। विशेष ध्यानाकार्षण का विषय है कि प्रत्येक देश (अंचल) की स्थानीय आकाशीय वस्तुस्थिति के अनुरूप नक्षत्र आधारित काल गणना का विधान है। सभी की अपनी-अपनी खगोल विद्या/गणित है और सभी अंचलों का अपना-अपना कृषि शास्त्र है, जो पूरी तरह से स्थानीय पंचांग (कैलेंडर) पर निर्भर है।
सभी अंचल एक-दूसरे से जुड़े हैं, पारस्परिक निर्भरता से मुक्त नहीं, लेकिन सभी की प्रकृति की स्वायत्तता कायम है। विविधता की स्वायत्तता कायम है। अतः समस्त सांस्कृतिक सौन्दर्यबोध और आडम्बर देस-काल आधारित है।
जोधपुर, अहमदाबाद, उदयपुर की बावड़ियाँ, झीलें और विविध तालाब पत्थर में उकेरी गई कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। विश्व का सर्वथा अचरजकारी अचम्भा तो बुन्देलखण्ड के विशाल तालाब और उनकी प्रेरणास्रोत से बहने वाली दस सदानीरा नदियाँ- बेतवा, धसान, केन, सिंध, बाघेन, गरारा, पाई सूनी, पहूज, जामिनी तथा मंदाकिनी मानव कौशल का अनोखा अचम्भा हैं।
बुन्देलखण्ड एक अर्द्धचन्द्राकार घाटी है, जिसे विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वतमाला दक्षिण में बाँधती है और उत्तरी सीमा पर बहने वाली यमुना इस समूची घाटी के जल को समेटकर गंगा में पहुँचा देती है
गौर करने लायक विषय यह है कि बुन्देलखण्ड अंचल का दक्षिण से उत्तर एवं उत्तर-पूर्व पनढाल की रचना तो उतनी ही पुरानी होनी चाहिए जितना कि हिमालय का उद्भव और विकास।
लगभग समूचे अंचल में मानसून के दोनों भारतीय प्रवाह अरब सागर की तरफ से और बंगाल की खाड़ी से जाने वाले आते हैं। पिछले पचास बरस में मानसून के ऊक-चूक होने से पहले भोपाल, सागर, दमोह आदि अनेक स्थानों पर 250 सेमी. वर्षा हुई है।
इस क्षेत्र की प्रमुख नदी बेतवा का उद्गम स्रोत भोपाल ताल इस तथ्य का पुख्ता प्रमाण है कि इस क्षेत्र की समस्त नदियाँ मानव उत्साह की अभिव्यक्ति हैं न कि प्रकृति की निज प्रवृत्ति।
वर्तमान भारतीय समाज ऐसे विलक्षण आत्मगौरव से अपरिचित है। कारण स्पष्ट है। हाल-फिलहाल इंडोलॉजी की जितनी भी रचना हो सकी है, उसमें बुन्देलखण्ड की जलप्रवाह प्रणाली का उल्लेख ही नहीं हुआ तो ‘आत्मगौरव’ का प्रश्न ही नहीं उठता।
भारत में विकसित मान-प्रकृति की अन्तरंग परस्परता का एक अन्य आदर्श नमूना भरतपुर का ‘केवलादेव घना’ नाम से विश्व विख्यात पक्षी विहार है। यह बन्नी या छोटा-सा घना वन मात्र 29 वर्ग किलोमीटर के भूखण्ड पर स्थित है।
भरतपुर के जाट राजवंश ने इस छोटे से वन में अंजान बाँध से पानी पहुँचाकर एक-डेढ़ दर्जन अस्थायी झीलों का सिलसिला व्यवस्थित कर दिया। जैसे-जैसे पक्षियों के आने-जाने, स्थायी रूप से/अस्थायी रूप से प्रवास का अनुभव होता रहा वैसे-वैसे छिटपुट व्यवस्थाएँ जैसे चन्द झीलों में थड़े बनाकर उन पर देसी कीकर के वृक्ष उगा दिये। इस तरह झील के भीतर टापुओं पर पक्षियों ने शरण ली और आश्वस्त भाव से जीवन जिया तो विश्व भर में पक्षी जगत में यह सूचना स्वतः प्रसारित हो गई कि केवलादेव सुरक्षित शरण-स्थली है।
श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित कृष्ण की बाल-लीला का क्षेत्र ब्रज/वृंदावन मूलतः कदम्ब पारिस्थितिकी क्षेत्र है। उसके वन की प्रमुख विशेषता कदम्ब के वृक्ष हैं। कदम्ब वास्तव में एक प्रतीक वनस्पति है जो अत्यन्त गहरी उपजाऊ मिट्टी, उपयुक्त आर्द्रता से सम वर्षा की पारिस्थितिकी को इंगित करता है। जहाँ कदम्ब के वृक्ष होते हैं, वहाँ अति विशिष्ट समृद्धि का क्षेत्र होता है। भरतपुर का घना उसी कदम्ब पारिस्थितिकी का प्रतीक और स्मृति चिह्न है।
विशेष रूप के कौवे कदम्ब में वास करते हैं। देशी विशेषज्ञों का कहना तथा पुरानी मान्यता है कि कौवों ने घोंसले कितनी ऊँचाई पर बनाए हैं, उससे वर्षा ऋतु का अनुमान लगाया जा सकता है। कौवों ने घोंसला पेड़ के शिखर पर बनाया तो स्पष्ट है कि मामूली बरसात का साल है। घोंसले ऊँचाई से थोड़ा नीचे बनाए गए हैं, तो सामान्य वर्षा का लक्षण है और यदि बिल्कुल मजबूत तनों के जोड़ में अत्यन्त सुरक्षित कोटर ढूँढकर घोंसले बनाए हैं, तो सुनिश्चित अनुमान लगाया जा सकता था कि सामान्य से बहुत अधिक बरसात होगी, तीव्र गति से आँधी और तूफान भी आएँगे।
जहाँ तक स्मरण है सन 1980 का वाकया है। सम्भवतः जून का गर्मियों का प्रथम सप्ताह था। हल्की-फुल्की बरसात हो चुकी थी। मुख्य वन संरक्षक पनेह सिंह केवलादेव में एक झील के निकटवर्ती खुले मैदान में ले गए थे। इस मैदान में सचमुच बड़ी चहल-पहल थी। हजारों की संख्या में सारस एकत्रित होकर शोर मचा रहे थे और निरन्तर नाच रहे थे। नाचते-नाचते कोई दो सारस एक साथ ठुमकने लगते। पनेह सिंह खुशी से चिल्लाते- ‘वह देखो, वहाँ एक जोड़ा और बन गया।’ और सच में इस तरह जो जोड़ा दिखाई पड़ता, वह तुरन्त ही आकाश में उड़ जाता।
यह सब जानकर मैं निकला, तो जुलाई के तीसरे सप्ताह में वापसी हुई। मैं फिर भरतपुर रुका। पनेह सिंह का बहुत उदास थे। बहुत ही दुख भरी उसास छोड़कर उन्होंने बताया था कि सारस ने घोंसले बनाए, अंडे भी दिये, लेकिन कुछ ही दिन बाद अंडों को बिना सेए छोड़कर अन्यत्र उड़ गए। लगभग सभी सारस जा चुके हैं।
‘मगर क्यों?’ मैंने घबराकर पूछा था।
पनेह सिंह ने बताया था- ‘इस बरस इस इलाके में भयंकर अकाल होना तय है। बारिश नहीं के बराबर ही समझो।’
फिर पनेह सिंह ने स्थानीय ‘घाघ-भड्डरी के किस्से’ सुनाए थे, जिनमें ब्रज बोली का प्रभाव था और उसी क्षेत्र में बरसात होने या न होने के लक्षण थे। उसी बरस समूचे राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र के इलाके में 80 के दशक में पड़ने वाले लम्बे अकाल की शुरुआत हुई थी।
उसी बरस यह पाठ पढ़ा था कि अपने देश में जितने ‘देश’ हैं उतने ही ‘घाघ-भड्डरी’ के अवतार हैं। जलचर पक्षी-पशु से अतिरिक्त मैदानी पक्षियों के सन्दर्भ में भी खाद्यान्न-चक्र को समझना होगा। इस सन्दर्भ में वेद व्यास ने जो व्याख्या महात्मा विदुर और भीष्म पितामह के मुख से कहलवाई है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
इन विविध संवादों में यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि जिस राज में वन सुरक्षित रहते हैं वहाँ समवर्षा का विधान स्वतः विकसित हो जाता है, जिस राज में सम वर्षा होती है वहाँ की प्रजा सुखी होती है।
ऐसा ही एक उपदेश शान्ति पर्व में भीष्म पितामह ने नदियों के सन्दर्भ में किया है। राजधर्म की परिभाषा करते हुए भीष्म पितामह ने कहा है- ‘राजन युधिष्ठिर, जल के स्वच्छंद, किंतु संयमित प्रवाह को नदी कहते हैं। प्रकृति की व्यवस्था में मानव के लिये नदियों के स्वतंत्र प्रवाह से अधिक उपयोगी अन्य किसी व्यवस्था को मैं नहीं जानता। यह राजधर्म है। राजा का कर्तव्य है कि वह ऐसी व्यवस्था सुनियोजित करे कि उसके राज में बहने वाली नदियाँ सदैव समान रूप से वेगवती बनी रहें।’
राम जब समुद्र से रास्ता माँगते हैं तो वह इसे जल की मर्यादा के विरुद्ध बताता है। जल की मर्यादा (प्रकृति की प्रवृत्ति) का भगवान राम, हिन्दू सभ्यता में साक्षात सर्वशक्तिमान ईश्वर के अवतार भी उल्लंघन नहीं कर सकते। जल-धर्म की मर्यादा सुनिश्चित है। प्रथमतः समुद्र के भीतर जलचर का विशाल समुदाय-समाज है, द्वितीय पृथ्वी पर जो सृष्टि है उसमें जो भी जीवन जल पर आधारित है उसे आवश्यकता के अनुरूप जल की आपूर्ति करनी है, यानी जो भी जलाधारित जीवन है उसकी रक्षा में समुद्र कोई कोताही नहीं बरत सकता। समुद्र का यही मूल धर्म है। न राम, न राम का कोई वंशज जल की या प्रकृति की मर्यादा का उल्लंघन कर सकता है।
आचार-संहिता की यह परिभाषा बनी कि भारत देश में जल, यानी प्रकृति का उपभोग ऐसे कौशल से किया जाएगा, जिसमें भगवान राम अपनी सेना के साथ पार तो अवश्य जाएँगे, किन्तु समुद्र (जल भण्डारण) की किसी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेंगे। यही अनुशासन इस देश का जल-कौशल है।
अन्ततः राम जल की मर्यादा का मान रखते हैं, सहायक बनते हैं इसीलिये मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहलाते हैं।
रामायण आख्यान में उल्लिखित पुरुष+प्रकृति की परस्परता ही भारत का जल-कौशल है। आवश्यकता पड़ने पर सूझबूझ से पत्थर तिराए जा सकते हैं, किसी भी संकट का सामना करने के लिये प्रकृति का ध्वंस आवश्यक नहीं। प्रकृति के उपभोग में दोष नहीं, किन्तु मर्यादा का उल्लंघन नहीं चलेगा।
इसी आधार पर सिद्धान्त बना कि जल का उपभोग धरती की जल-निर्गम प्रणाली और आर्द्रता-विस्तारण प्रबन्धन को सुदृढ़ करे न कि नष्ट-भ्रष्ट कर दे। ‘जल-कौशल’ का अत्यन्त संवेदनशील विषय जल के निर्मलीकरण में सहयोग का है, न कि जल को प्रदूषित कर विषयुक्त बनाने का।
अनेक अर्थों में ‘जल-कौशल’ भारत देश का सांस्कृतिक गौरव भी है और उच्च कोटि की गुणवत्ता की जीवनशैली का मूलाधार भी।
औपनिवेशिक युग का गम्भीर शाप यही है कि भारत देश ने गुलाम मानस से ओत-प्रोत मदहोशी में जल की निर्गम व्यवस्था को अवरुद्ध किया और मलयुक्त बनाकर इस कदर प्रदूषित कर दिया कि आज समस्त जल विष समान है। इस जघन्य अपराध का प्रायश्चित आसान नहीं।
(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद थे)