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भगीरथ - जुलाई-सितम्बर 2011, केन्द्रीय जल आयोग, भारत
आज सम्पूर्ण विश्व का वैज्ञानिक जगत और पर्यावरणविद जल एवं पर्यावरण की बाबत काफी चिन्तित हैं। वैज्ञानिक आये दिन भविष्य में होने वाली इन आपदाओं और इनसे होने वाली भारी धन-जन की क्षति के बारे में सावधान भी करते रहते हैं। जल संकट तो इस कदम विकराल रूप लेता जा रहा है कि कहीं इसका बँटवारा राष्ट्रों के बीच संघर्ष का रूप न ले ले। विशेषकर भारत चीन, रूस, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश आदि काफी प्रभावित हो सकते हैं। पाँच जनवरी, 1985 को राष्ट्र के नाम अपने सन्देश में प्रधानमंत्री पद से स्व. राजीव गाँधी ने कहा था, ‘‘गंगा भारतीय संस्कृति का प्रतीक, पुराणों एवं काव्य का स्रोत तथा लाखों की जीवनदायिनी है, किन्तु खेद का विषय है कि आज वह सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में से एक है। हम एक केन्द्रीय गंगा प्राधिकरण का गठन कर रहे हैं जो गंगा का पानी साफ करेगा और गंगा की पवित्रता बनाए रखेगा, इसी तरह हम देखेंगे कि देश के अन्य भागों में हवा और पानी (पर्यावरण और जल) साफ हो।’’
इसी प्रकार केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन राज्यमंत्री जयराम रमेश ने भी कन्नौज से बनारस तक गंगा नदी में अविरल व निर्मल जल के वायदे को पूरा करने के लिये कहा है। उन्होंने कहा, ‘‘अब केन्द्र सरकार प्रदेश पर निर्भर नहीं रहेगी। वह कन्नौज से बनारस के बीच प्रदूषण फैलाने वाली 170 औद्योगिक इकाइयों को बन्द कराने के लिये उ.प्र. की सरकार को पत्र लिख-लिखकर तंग आ चुके हैं। अब केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इन उद्योगों के खिलाफ खुद कार्यवाही करेगा। उन्होंने यह भी घोषणा की कि इस अविरल धारा के लिये गोमुख से उत्तरकाशी तक भागीरथी को ‘सेंसटिव जोन’ घोषित किया जाएगा। इस बारे में यह बात स्पष्ट करते चलना ठीक जान पड़ रहा है कि गंगा में 75 प्रतिशत सीवेज प्रदूषण जाता है और 25 प्रतिशत औद्योगिक! आद्योगिक प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। गंगा में सबसे ज्यादा प्रदूषण कन्नौज से बनारस के बीच 450 कि.मी. के हिस्से में है। यहाँ 170 फैक्टरियाँ हैं जो सीधे अपना प्रदूषण गंगा में डाल रही हैं। इसमें टेनरी, पेपर, चीनी, डिस्टलरी तथा कुछ केमिकल फैक्टरियाँ हैं। इसी सन्दर्भ में गाजियाबाद और नोएडा में केन्द्र द्वारा फैक्टरी बन्द की गई थी। तब श्री राजनाथ सिंह ने घबराकर कई प्रतिनिधि मण्डल भेजे थे। उन्होंने प्रदेशों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्षों की बैठक भी बुलाई थी और गंगा एक्शन प्लान एक व दो को क्लीन चिट देते हुए कहा था कि इन दोनों प्लान में 960 करोड़ रुपए खर्च न किये गए होते तो गंगा की हालत और खराब होती। परिणाम आज भी सबके सामने है, गंगा और प्रदूषित ही हुई है।”
यह सच है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। आदिकाल से मनुष्य अपनी आवश्यकताओं के अनुसार आविष्कार करता रहा है। उसका प्रचार-प्रसार भी करता रहा है। परन्तु यह कटु सत्य है कि आविष्कारों का दुरुपयोग खतरनाक भी साबित हुआ है और आज भी हो रहा है। द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका द्वारा जापान के नागासाकी, हिरोशिमा पर बमबारी का आज भी प्रमाण है। अभी हाल में (विगत मार्च 2011 प्रारम्भ सप्ताहान्त में) जापान में जो कुछ दुःखद घटित हुआ सबको पता है। भविष्य की कौन जाने.....किसको पता।
ग्लोबल वार्मिंग, भूकम्प, ज्वालामुखी, नाना प्रकार की बीमारियाँ, सुनामी जैसा चक्रवाती भयंकर तूफान या फिर सोलन तूफान ये सभी प्राकृतिक आपदाएँ जल व पर्यावरण के लिये अभिशाप सिद्ध हुई हैं। जो सम्पूर्ण विश्व को लील जाने के लिये व्यग्र होती जा रही हैं। जो भी हो, यह मानव जगत के लिये शुभ संकेत नहीं है और-तो-और इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि पृथ्वी विनाश के कगार पर जा पहुँची है। वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी पर मौजूद तमाम जीवों के अस्तित्व पर ठीक उसी प्रकार का खतरा मँडरा रहा है जिससे साढ़े पाँच करोड़ वर्ष पहले डायनासोर का नाम धरती से मिटा दिया था।
यदि पृथ्वी पर मौजूद विभिन्न जीवों के विलुप्तीकरण की वर्तमान दर पर काबू नहीं पाया गया तो आने वाले तीन सौ सालों में धरती से दो तिहाई प्रजातियों का सफाया हो जाएगा। वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं की मानें तो वैश्विक स्तर पर बड़ी संख्या में विभिन्न प्रजातियों का अस्तित्व मिट रहा है। पेड़-पौधे हों या मछली अथवा उभयचर और स्तनधारी जीव, कोई भी विलुप्तीकरण की प्रक्रिया से अछूता नहीं रह सका है।
आज सम्पूर्ण विश्व का वैज्ञानिक जगत और पर्यावरणविद जल एवं पर्यावरण की बाबत काफी चिन्तित हैं। वैज्ञानिक आये दिन भविष्य में होने वाली इन आपदाओं और इनसे होने वाली भारी धन-जन की क्षति के बारे में सावधान भी करते रहते हैं। जल संकट तो इस कदम विकराल रूप लेता जा रहा है कि कहीं इसका बँटवारा राष्ट्रों के बीच संघर्ष का रूप न ले ले। विशेषकर भारत चीन, रूस, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश आदि काफी प्रभावित हो सकते हैं। यहाँ पर्यावरण और प्रदूषण पर साथ-साथ चर्चा करते चलने का हमारा प्रयास है ताकि तारतम्य बना रहे और अन्तर्सम्बन्धों को समझने में भी आसानी हो।
जहाँ तक पर्यावरण और उसके संरक्षण की बात है उसके विषय में इतना भर कहना है कि बातें तो बहुत होती हैं। परन्तु प्रदूषण तो जीवन और व्यवहार के क्षेत्र में भी पसर चुका है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, भौगोलिक और न्यायिक सब क्षेत्र प्रदूषण की मार झेल रहे हैं। तो क्या इन सब का प्रभाव पर्यावरण पर नहीं पड़ेगा? अवश्य पड़ेगा। अतिवादी स्वार्थपूर्ण लोलुप नीति, गिरती नैतिकता, धार्मिक एवं मानवीय चेतना का अभाव और सहिष्णुता व संवेदना की कमी ये सभी कारण हैं जो सम्पूर्ण धरती और आकाश को प्रभावित कर रहे हैं। जिससे पर्यावरणविदों तथा पूरे मानवीय जगत को सोच में डाल दिया है।
वैज्ञानिक अनुसन्धान, आविष्कार व उसके अतिशय प्रयोग भी पर्यावरण को दूषित करने में कम भूमिका नहीं निभा रहे। अभी हाल में जापान में परमाणु रिएक्टरों का गड़बड़ होना, उससे हो रहे रेडिएशन साथ ही परमाणु कचरों द्वारा उत्पन्न रेडिएशन यह सब पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित करने में सक्षम हैं। निश्चय ही आज नहीं तो कल पूरी दुनिया इस खतरे से प्रभावित होगी। इसलिये समय रहते मानव जगत नहीं चेता, अपनी नैतिकता को शुद्ध और आदर्शमय तथा उत्कृष्ट नहीं बनाया तो परिणाम भयंकर ही हो सकता है।
नैतिकता और सद्चरित्र ही मानव को मानव बनाता है। इस बाबत क्षमा प्रार्थना के साथ एक वाकिए की इस आलेख में चर्चा करना चाहूँगा। बात उस वक्त की है जब मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में (1972-73) शिक्षा ग्रहण कर रहा था। स्थान-गायकवाड़ केन्द्रीय ग्रंथालय का मुख्य प्रवेश द्वार जहाँ पुस्तकनुमा सफेद संगमरमर पर उर्दू और अंग्रेजी में उकेरा गया था। आज वह चीज यहाँ नहीं है। लिखा था, ‘साकी की मुहब्बत में दिल साफ हुआ इतना, सर झुकाता हूँ, शीशा नजर आता है।’ अंग्रेजी में अनुवाद थाः- ‘Self Control is the Center of Charactor’ और इसे हिन्दी में अपनी समझ से अपने लिये मैंने अनुवाद किया- ‘आत्म नियंत्रण ही चरित्र का केन्द्र बिन्दु है।’ परन्तु आप आज यह महसूस कर सकते हैं कि नियंत्रण और चरित्र दोनों का अभाव है।
आज लोग-बाग अपने गिरेबान में कम, औरों में अधिक ताकझाँक करने में मशगूल हैं। हमारा स्वभाव जब इतना स्वार्थपूर्ण हो जाएगा तब भला नेचर (प्रकृति) कैसे नहीं बदलेगा। वनों की बेतहाशा कटाई, वन्य जीवजन्तुओं का शिकार प्लास्टिक का धुआँधार प्रयोग, जहरीली गैसों का उत्सर्जन, मोटर वाहनों में प्रेशर हार्न, हूटर का प्रयोग और समुद्र के पानी में हजारों लीटर तेल का बहना यह सब क्या है? यद्यपि पर्यावरण एवं स्वास्थ्य मंत्रालय गाहे-ब-गाहे लोगों को आगाह करता रहता है पर कौन सुनता और मानता है। खनिज पदार्थों के लिये भूमि उत्खनन धरती को कमजोर ही तो करता है। फिर भूकम्प की मार भी तो हमीं को सहनी पड़ेगी न। और-तो-और मनमाना ढंग से जल दोहन के चलते जल संकट बुरी तरह गहराने लगा है और जल स्तर घटता जा रहा है, विशेषकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में। लहलहाती धरती का बंजर हो जाने का डर गहराने लगा है।
यदि हम सब अब भी नहीं चेते तो बूँद-बूँद के लिये तरसना पड़ सकता है। प्रदेश के 24 जिलों में से तो 22 पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ही हैं। मतलब यह कि उक्त प्रदेश भी बुन्देलखण्ड की ही राह पर है। नलकूपों और बोरिंग से आवश्यकता से अधिक जल दोहन तथा उस मात्रा में धरती में जल को न लौटा पाने से संकट और बढ़ता जा रहा है। जिससे चलते भूमि की उर्वरता एवं जल की गुणवत्ता बुरी तरह से प्रभावित हो रही है।
केन्द्रीय सूचना के आधार को देखें तो 42 जिले जलदोहन के शिकार हैं। इनमें 12 पूर्वांचल के जिले हैं, 4 मध्य उत्तर प्रदेश के, 22 पश्चिमी यू.पी. और 4 बुन्देलखण्ड के जिले हैं। यदि मानसून साथ न दे तो प्रभावित पश्चिमी जिलों में सूखे से हालत और विकट हो सकती है। दो राय नहीं कि हरित प्रदेश बंजर का रूप न ले लें। यमुना नदी के जल के प्रदूषण के सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से जानकारी माँगी है। दिल्ली जल बोर्ड ने कहा था कि जनवरी, 2012 तक यमुना नदी के जल को प्रदूषण मुक्त करने की परियोजना पूरी कर ली जाएगी। परन्तु सम्भव नहीं जान पड़ता।
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन रोकने के लिये तकनीक एवं विकास के इस दौर में कोई ठोस उपाय नहीं हो रहा है। सबमर्सिबल पम्पों का चलन बढ़ने से शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में भूजल का बेतहाशा दुरुपयोग जारी है। सरकारी शासनादेश से रोक लगाने की कोशिश नाकाफी साबित हो रही है। सरकारी, अर्द्धसरकारी संस्थानों में नियमों का पालन नहीं हो पा रहा है। भूगर्भ विभाग के उच्चाधिकारी प्रदेश को रेगिस्तान या बंजन में परिवर्तित होने से रोकने के लिये आम आदमी को ही आगे आने की बात कर रहे हैं या कि करते हैं।
बहरहाल इसके लिये जन जागरुकता परमावश्यक तो है ही, ताकि भूजल रिचार्ज को बढ़ाया जा सके। जलस्तर गिरावट की वार्षिक दर कम-से-कमतर हो सके। साथ ही गुणवत्ता में भी सुधार हो सके। एक बात का उल्लेख करना समीचीन जान पड़ता है। पिछले दिनों राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण के सदस्य और पर्यावरण विज्ञानी प्रो. वी.डी. तिवारी ने केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भारत सरकार को गंगा की दशा से आगाह किया था।
जाँच के हवाले को देखा जाये तो केमिकल के बढ़ते मिश्रण से गंगा में घुलित ऑक्सीजन (Dissolved Oxygen) की मात्रा 06 मिग्रा. प्रतिलीटर से घटकर 02 मिग्रा. तक जो पहुँची है। इसी प्रकार जैव रासायनिक ऑक्सीजन (Bio Chemical Oxygen Demand - BOD) लोड 3 से बढ़कर 9 मिग्रा. तक जा पहुँचा है। इसी तरह से अन्य रासायनिक तत्व जैसे मल सम्बन्धी कोलीफार्म, हानिकारक कोलीफार्म जीवाणु, नाइट्रेट आदि गंगाजल में मिलकर उसे विषाक्त बनाते जा रहे हैं। विशेषज्ञों का तो यहाँ तक मानना है कि वह दिन दूर नहीं जब गंगा का पानी फिल्टर कर पीने की बात तो दूर सिंचाई योग्य भी नहीं रहेगा।
जहरीले केमिकल्स की बढ़ती मात्रा जीवनदायिनी गंगा को इस तरह विषाक्त बनाती जा रही है कि धीरे-धीरे यह मौत बाँटने वाली नदी का स्वरूप लेती जा रही है। गंगा जल में लेड, क्रोमियम और कैडमियम की बढ़ती मात्रा जीवों के लिये खतरे का संकेत है।
गंगा पाँच राज्यों- उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और पश्चिम बंगाल के 25 बड़े शहरों से बहती है। इसकी कुल लम्बाई 2525 कि.मी. है। गंगा सफाई अभियान में जो कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में बनी कमेटी चलाती है, सन 1986 से 1995 तक एक हजार करोड़ खर्च हुआ। गत वर्ष द्वितीय चरण के लिये 500 करोड़ की राशि दी गई और अब वर्तमान में गंगा की सफाई के लिये चार राज्यों में 43 परियोजनाओं के लिये 2476 करोड़- (उत्तर प्रदेश के लिये 1314 करोड़, 64 करोड़ उत्तराखण्ड, 442 करोड़ बिहार तथा पश्चिम बंगाल के लिये 650 करोड़) की मंजूरी दी गई है।
यह सीवर नेटवर्क सीवेज योजना, सीवेज पम्पिंग स्टेशन, शवदाहगृह, सामुदायिक शौचालय और नदी के संरक्षण आदि के लिये है। मंत्रालयी विज्ञप्ति के अनुसार तीन साल की इस परियोजना पर केन्द्र 70 प्रतिशत व राज्य 30 प्रतिशत वहन करेंगे। वाराणसी में गंगाजल के बाबत विभिन्न घाटों पर होने वाले प्रदूषण की भयावहता की चर्चा करना न्यायसंगत लग रहा है। अस्सीघाट पर लेड की मात्रा होनी चाहिए 0.05 और है 0.84 पीपीएम। चेतसिंह घाट पर कैडमियम की मात्रा चाहिए 0.01 और है 0.051 पीपीएम। आनंदमयी घाट पर क्रोमियम 0.05 चाहिए और है 0.072 पीपीएम, इसी प्रकार हरिश्चंद्र घाट, दशाश्वमेध और मणिकर्णिका घाट भी, प्रदूषण से प्रभावित हैं। इस प्रदूषण के चलते कालरा, टाइफाइड, दस्त पीलिया, कैंसर, लीवर डैमेज की शिकायत तथा गर्भस्थ शिशु बुद्धिमंदता से प्रमुख रूप से प्रभावी होंगे।
जल प्रदूषण के विभिन्न कारणों में जैसे गन्दे नाले, मरे पशुओं को बहाना, अधजले मानव शवों को फेंकना, पशुओं को धोना, जल में उनका मलमूत्र करना, साबुन से नहाना व कपड़े धोना, उर्वरकों का अधिक प्रयोग आदि गंगा-यमुना तथा अन्य नदियों के साथ-साथ अन्य स्रोतों से प्राप्त जल को प्रदूषण युक्त करते ही हैं, जल को अम्लीय, क्षारीय व खारा बनाते हैं और जल की गुणवत्ता को भी प्रभावित करते हैं। जहाँ तक पर्यावरण प्रदूषण की बात है इसके लिये कई कारक और कारण जिम्मेदार हैं जैसे- प्लास्टिक का बहुतायत प्रयोग, उनको खुले में जलाना, कूड़ा, कचरा, खुले में शौच, औद्योगिक कचरा, अत्यधिक शोर-शराबा, आतिशबाजी आदि। इस पर हम सबको मिलजुल कर चर्चा करनी चाहिए। इसके निस्तारण हेतु ठोस कदम उठाने व सहभागिता की आवश्यकता है।
पर्यावरण को शुद्ध रखने वाले कुछ जीव-जन्तु विलुप्त प्राय हो चुके हैं और बचे खुचे भी एन-केन-प्रकारेण समाप्त होने के कगार पर हैं। इतना ही नहीं इन सब पर रोक लगाने हेतु सरकार विधेयक तो लाती है परन्तु उसे कानून का रूप नहीं दे पाती। इधर अब बीड़ी व सिगरेटे निर्माताओं के लिये एक पैमाने के तहत बीड़ी और सिगरेटों का उत्पादन करने की बात की जा रही है। उन्हें बीयर और शराब की तरह इसके अवयवों की जानकारी पैकिंग पर देनी होगी। स्वास्थ्य मंत्रालय की मानें तो नए नियमों को लागू करने के पहले, देश के विभिन्न हिस्सों- चंडीगढ़, मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता और गाजियाबाद में तम्बाकू जाँच प्रयोगशालाएँ स्थापित कर ली जाएँगी और इन प्रयोगशालाओं को सर्वोच्च लैब राष्ट्रीय जीव विज्ञान प्रयोगशाला (एन.आई.बी.) नोएडा के तहत काम करना होगा।
पर्यावरण संरक्षण में आने वाली एक और बाधा की ओर संकेत करना चाहूँगा। बेतहाशा मोबाइल टावरों, रेडियो, टीवी टावरों की (सरकारी व निजी दोनों) बढ़ती संख्या, अरबों की संख्या में मोबाइलों का विश्वस्तर पर प्रयोग, इन सबसे निकलने वाली रेंज स्वास्थ्य व पर्यावरण दोनों के लिये हानिकारक साबित हो रही हैं। विश्व भर के सरकारी, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) सरकारी, गैर-सरकारी संगठनों-यूनिसेफ व रेडक्रॉस आदि को तत्काल कठोर निर्णय लेना चाहिए। साथ ही कड़ा-से-कड़ा अध्यादेश और कानून लागू करना चाहिए। इसके लिये पूरी ईमानदारी व संकल्प शक्ति के साथ पहल करने के साथ सख्त कदम भी उठाना चाहिए, ताकि इस पर रोक लगाई जा सके।
खगोल वैज्ञानिकों की मानें तो निकट भविष्य में 2013 तक सोलर तूफान कट्रीना से पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित होगा और तबाही मचेगी। ग्लोबल कट्रीना तूफान पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लेगा। यह सूर्य में हो रहे शक्तिशाली विस्फोट के चलते होगा। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह तूफान सूर्य से उठ रही तरंगे हैं। खगोलविज्ञानियों ने सम्पूर्ण मानव जाति के लिये यह चेतावनी जारी की है।
यद्यपि कुछ वैज्ञानिक इससे न घबराने की भी बात कर रहे हैं। साथ ही यह आशंका भी जता रहे हैं कि अन्तरिक्ष तूफान का खतरा पूरी दुनिया पर मँडरा रहा है। ऐसे में भला जल और पर्यावरण का स्वच्छ और सुरक्षित रह पाना कैसे सम्भव है। सोलर तूफान से एक्स-रे और पैराबैंगनी किरणें उत्पन्न होंगी जो कुछ ही मिनटों में धरती को तबाह कर देंगी। रेडियो सिग्नल में बाधाओं के साथ ही उपग्रहों की प्रणाली भी नष्ट हो सकती है। धरती पर अन्धेरा छा जाएगा।
वैसे एक शुभ संकेत मिल रहा है कि पर्यावरण संरक्षण के लिये ‘ग्रीन इण्डिया’ मिशन को प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) की मंजूरी मिल गई है। प्रधानमंत्री के विशेष सलाहकार पैनल में अगले 10 वर्षों में देश की हरी छतरी के दायरे में एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र को जोड़ने हेतु मिशन पर 46 हजार करोड़ खर्च होंगे। इस सन्दर्भ में यह भी कहा गया है कि ग्रामसभाओं के तहत संयुक्त वन प्रबन्धन समिति के सहारे इसे अंजाम देने की तैयारी है। साथ ही राज्य और जिला स्तर पर वन विकास एजेंसी का भी कामकाज दुरुस्त किया जाना है।
‘ग्रीन इण्डिया’ मिशन के लिये हर एक गाँव को सहायता राशि आवंटित की जाएगी। सूत्रों के आधार पर ‘ग्रीन इण्डिया’ योजना की तैयारी के लिये 2011-12 के आम बजट में 300 करोड़ रुपए का विशिष्ट कोष सम्भावित है। इस मिशन से जहाँ पर्यावरण संरक्षण को एक नई गति और नई दिशा मिलेगी, वहीं तीस लाख परिवारों के जीवन-स्तर को सुधारने में भी मदद मिलेगी।
योजना के तहत 5000 गाँवों को शामिल किया जा सकता है। इसके लिये सम्पूर्ण विश्व के जनमानस को, तमाम संगठनों और बुद्धिजीवियों को पूरी ईमानदारी, लगन और परिश्रम के साथ एकजुट हो सहयोग करना होगा। तभी जल एवं पर्यावरण के क्षेत्र में सफल और प्रशसनीय सफलता व प्रयास की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी। सभ्यता की गन्दगी से जन्मे प्रदूषण की जड़ को काटे बिना केवल पत्तियाँ काटने से क्या बनेगा और फिर ‘बातें हैं बातों का क्या’ की जुगाली और जुगलबन्दी से ही सन्तोष करना होगा और अंजाम बद-से-बदतर ही साबित होगा।
पर्यावरण संग पानी को तुम स्वच्छ रखो,
हे मानव। स्वस्थ रहो और सुखी बनो।
-अभयना, मंगारी, वाराणसी-221202 (उत्तर प्रदेश)