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योजना, अगस्त 2008
वर्षा ऋतु हमारे लिए हजार नेमते लेकर आती है, लेकिन मुश्किलें भी कम नहीं। इस मौसम में शरीर का मेटाबालिज़्म कम जाता है जो हमारी पाचन क्षमता को प्रभावित करता है। गन्दे पानी से पैदा होने वाली बीमारियाँ भी कम नहीं होतीं। मच्छरों और अन्य कीटों का प्रकोप बढ़ जाता है और वे बीमारियों का दूसरा बड़ा जरिया बनते हैं। वरिष्ठ चिकित्सक ने प्रस्तुत लेख में ऐसी ही कुछ बीमारियों के कारण और निदान की चर्चा की हैहैजा एक संक्रामक रोग है, जो विविरियो कोल्री नामक जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है। ये जीवाणु साधारण दूषित जल के माध्यम से रोगी से स्वस्थ मनुष्य के शरीर में पहुँचते हैं। कई बार सीधे रोगी के सम्पर्क में आने से स्वस्थ मनुष्य को हैजे का संक्रमण हो सकता है। हैजा को कॉलरा भी कहा जाता है। एक स्वस्थ मनुष्य के शरीर में मुँह के माध्यम से पहुँच कर विवरियो-कोल्री जीवाणु छोटी आँत का संक्रमण करते हैं। यह संक्रमण इन जीवाणुओं द्वारा स्रावित एक जहरीले पदार्थ के कारण होता है जिसे ‘इण्टीरोटॉक्सिन’ कहा जाता है। यह केवल मानव शरीर में स्थित छोटी आँत की दीवारों पर ही अपना दुष्प्रभाव डालता है जिसके फलस्वरूप रोगी को दस्त की शिकायत हो जाती है। आमतौर पर लगभग नब्बे प्रतिशत रोगियों में यह सामान्य अतिसार की तरह उत्पन्न होती है परन्तु कुछ लोगों में यह जानलेवा भी सिद्ध हो सकती है। यह रोग सभी आयु वर्गों में पाया जाता है, परन्तु छोटे बच्चे इसके कुप्रभाव से ज्यादा ग्रसित होते हैं।
हैजा का उल्लेख आयुर्वेद में भी मिलता है तथा सुश्रुत संहिता में भी इसका वर्णन किया गया है। गन्दे कुओं, नहरों, पोखरों, तालाबों तथा दूषित नदियों का पानी इस रोग को फैलाने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। कई बार रोगी के मल व उसकी उल्टी के सम्पर्क में आने से भी यह रोग हो जाता है। मेलों तथा पर्वों के दौरान जब बहुत से लोग एक स्थान पर इकट्ठा होते हैं, तब इस रोग के फैलने की सम्भावना और भी बढ़ जाती है। यह रोग उन लोगों में ज्यादा पाया जाता है, जिनमें साफ-सफाई का अभाव होता है तथा बहुत से लोग एक छोटी जगह पर निवास करते हैं। मक्खियाँ कुछ सीमा तक इस बीमारी को फैलाने में अपनी भूमिका निभाती हैं। जब वे रोगी के मल अथवा उल्टी पर बैठती हैं तो हैजे के जीवाणु उनके शरीर से चिपक जाते हैं। यही मक्खियाँ जब अन्य खाद्य पदार्थों पर जाकर बैठती है तो उस खाद्य पदार्थ में हैजा के जीवाणु पहुँच जाते हैं तथा उसमें पनपने लगते हैं। इस खाद्य पदार्थ को अगर कोई स्वस्थ मनुष्य खा ले तो उससे हैजा हो जाने की सम्भावना होती है।
हैजा के लक्षणों में दस्त सर्वप्रमुख है। रोगी को दस्त ज्यादा मात्रा में, बिना पेट में दर्द हुए और पतले चावल के पानी की तरह आता है। दस्तों की संख्या 40-50 प्रतिदिन तक हो सकती है। दस्तों के साथ ही उल्टी शुरू हो जाती है। कई बार उल्टी की शिकायत रोगी दस्त लगने से पहले ही करते हैं। इस प्रकार दस्त और उल्टी के कारण रोगी के शरीर में पानी और लवणों की कमी हो जाती है। शरीर में हो रही पानी की कमी का पता आम आदमी इस प्रकार लगा सकता है कि रोगी की आँखें अन्दर धँस जाती हैं, गाल पिचक जाते हैं, त्वचा की चमक समाप्त हो जाती है, पेट अन्दर धंस जाता है, शरीर का तापमान सामान्य से कम हो जाता है, नब्ज पतली हो जाती है और कई बार रिकॉर्ड ही नहीं की जा सकती। पैरों तथा पेट की मांसपेशियों में खिंचाव तथा दर्द का अनुभव होता है, पेशाब कम आता है और जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती है, पेशाब आना बिल्कुल बन्द हो जाता है, इससे गुर्दे काम करना बन्द कर देते हैं। रोग की इस अवस्था को ‘अक्यूट रीनल फेल्योर’ कहा जाता है। रोगी को बहुत बेचैनी होती है और उसे बार-बार प्यास की अनुभूति होती है। अगर इस अवस्था में भी उपचार न हो पाए तो रोगी मूर्छित हो जाता है। यह अवस्था इस बात पर निर्भर करती है कि रोगी के शरीर से तरल पदार्थ की समाप्ति कितनी जल्दी और कितने समय में हुई है। पानी की कमी के कारण डिहाइड्रेशन, शरीर में तेजाबी मात्रा ज्यादा हो जाने के कारण, एसिडॉसिस तथा लवण पदार्थों का सन्तुलन बिगड़ जाने के कारण, डिस्इलैक्ट्रोलाइटीमिया से रोगी की मृत्यु हो जाती है।
कुछ मामूली-सी सावधानियाँ बरत कर हम सभी हैजा जैसे भयंकर रोग से बचाव कर सकते हैं। कभी भी गन्दे कुओं, तालाब, पोखरों, नहरों तथा दूषित नदियों के पानी को न पिएँ। जो हैण्ड-पम्प इन तालाबों, पोखरों तथा नदियों के किनारे स्थित हैं तथा कम गहराई के हैं, उनका पानी भी खतरनाक सिद्ध हो सकता है। खाना खाने से पहले हाथ साबुन से अच्छी तरह से धोएँ। बाजार में बिक रहे कटे फल कभी न खाएँ। हो सके तो पानी को उबाल कर फिर उसे ठण्डा करके पिएँ। साफ व ताजे बने भोजन का सेवन करें। छोटे बच्चों को कभी भी बोतल से दूध न पिलाएँ। हैजा के रोगी के सम्पर्क में आने के बाद अपने हाथों को तुरन्त साबुन-पानी से धोएँ। ऐसे रोगी का मल तथा उल्टी कभी भी खुले स्थान पर अथवा नदियों, नहरों आदि में न फेंके।
इन सब बातों का ध्यान रखने के बाद भी अगर किसी अनजानी गलती की वजह से दस्त लग जाते हैं तो तुरन्त जीवनरक्षक घोल का सेवन शुरू कर देना चाहिए। इस घोल का मुख्य उद्देश्य शरीर में हो रहे पानी व लवणों की कमी को पूरा करना है और इससे हैजा के रोगियों में हो रही मृत्युदर को कम किया जा सकता है।
अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्रों में हैजे से बचाव के टीके भी लगाए जाते हैं। यह टीकाकरण दो टीकों के रूप में होता है, जो 4 से 6 सप्ताह के अन्तराल पर लगाए जाते हैं और 6 महीने के पश्चात बूस्टर टीका लगाया जाता है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि यह टीका एक साल से कम उम्र के बच्चों को नहीं दिया जा सकता। यह टीका बहुत ज्यादा उपयोगी सिद्ध नहीं हो पा रहा क्योंकि इससे प्राप्त प्रतिरोधकता की अवधि कम होती है।
हैजा रोग को पूरी तरह से नियन्त्रित किया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि हम इससे बचाव पर पूर्णरूप से ध्यान दें।
अतिसार उन बीमारियों का एक समूह है जिसका मुख्य लक्षण दस्त होता है। यह बीमारी हमारे शरीर में स्थित अँतड़ियों के संक्रमण के कारण होती है। ये संक्रमण विभिन्न जीवाणु, विषाणु एवं प्रोटोजोवा द्वारा हो सकता है।
अतिसार रोग हमारे देश की स्वास्थ्य सम्बन्धी एक बड़ी समस्या है। इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि भारत में प्रतिवर्ष कई लाख बच्चे इस रोग से मरते हैं।
कुछ मामूली सावधानियाँ बरत कर हम हैजा, दस्त, अतिसार, पीलिया अथवा हैपेटाइटिस-ए सरीखे रोगों से बचाव कर सकते हैं। ये सभी रोग पूरी तरह से नियन्त्रित किए जा सकते हैं। जरूरत केवल इस बात की है कि हम छोटी-छोटी सी सावधानियाँ बरतें, साफ-सफाई बनाए रखें, जरूरत पड़ने पर चिकित्सक की सलाह लें और इस तरह बचाव के उपायों पर पूरा-पूरा ध्यान देंअतिसार एक संक्रामक रोग है। यह रोग बच्चों में सबसे ज्यादा पाया जाता है। इस रोग का संक्रमण किसी भी आयु वर्ग के व्यक्ति में हो सकता है परन्तु बच्चों में, खासतौर पर 6 माह से 2 वर्ष की आयु वर्ग वाले बच्चों में यह सबसे अधिक कुप्रभाव डालता है। जिन बच्चों को बोतल से दूध पिलाया जाता है उनमें अतिसार रोग होने की सम्भावना और भी ज्यादा बढ़ जाती है। इसका मुख्य कारण यह है कि बोतल साधारणतः ठीक ढंग से साफ नहीं हो पाती, जिसके कारण अतिसार उत्पन्न करने वाले जीवाणु उसमें पनपते रहते हैं और दूध के माध्यम से बच्चे के शरीर में पहुँच जाते हैं। कमजोर लोग अतिशीघ्र इस रोग के शिकार हो जाते हैं। गरीबी, स्वच्छता की कमी, एक स्थान पर ज्यादा लोगों का निवास करना, रोग के फैलाने में अहम भूमिका निभाते हैं।
रोगी के मल द्वारा अतिसार रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु, विषाणु तथा प्रोटोजोवा शरीर से बाहर आते हैं। इस मल द्वारा जल एवं अन्य खाद्य पदार्थों के दूषित हो जाने से स्वस्थ मनुष्य में यह रोग फैलता है। कई बार जानवरों के माध्यम से भी यह रोग स्वस्थ मनुष्य तक पहुँचता है और कई बार सीधे रोगी के सम्पर्क में आने से यह उसके द्वारा उपयोग में लाई गई संक्रमित वस्तुओं का उपयोग करने से भी यह रोग फैल सकता है। ऐसी वस्तुओं में रोगी का बिस्तर, तौलिया, बर्तन आदि प्रमुख होते हैं। गन्दे कुओं, नहरों, तालाबों तथा दूषित नदियों के पानी के सेवन से भी इस रोग की उत्पत्ति हो सकती है। मेलों, शादियों तथा पर्वों के दौरान जब बहुत से लोग एक स्थान पर इकट्ठा होते हैं, तब इस रोग के फैलने की सम्भावना और भी बढ़ जाती है। मक्खियाँ भी इस बीमारी को फैलाने में अपनी भूमिका निभाती हैं।
पतले दस्त आना अतिसार रोग का मुख्य लक्षण है। ये दस्त शरीर की अँतड़ियों के संक्रमण के फलस्वरूप होता है। ये दस्त पानी की तरह पतले होते हैं और बार-बार आते हैं। इस अवस्था को ‘डायरिया’ कहा जाता है। कई बार इन दस्तों में खून भी पाया जाता है, इस अवस्था को ‘खूनी पेचिस’ या ‘डाइसैंटरी’ कहा जाता है। दस्तों के साथ-साथ रोगी को बुखार आना, उल्टी होना, सिर दर्द, भूख न लगता और कमजोरी की शिकायत भी हो सकती है। बहुत से रोगी पेटदर्द और मांसपेशियों में खिंचाव तथा दर्द की शिकायत भी करते हैं। साधारणतः ऐसी अवस्था 3 से 7 दिन के लिए होती है। अगर ठीक ढंग से उपचार न किया जाए तो दस्तों तथा उल्टियों के कारण रोगी के शरीर में पानी और लवणों की कमी हो जाती है। इस अवस्था में रोगी का रक्तचाप (ब्लड-प्रेशर) भी रिकॉर्ड नहीं हो पाता। पेशाब कम आता है और जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती है, पेशाब आना बिल्कुल बन्द हो जाता है। गुर्दे काम करना बन्द कर देते हैं। इस अवस्था को ‘अक्यूट रीनल फेल्योर’ कहा जाता है। इससे रोगी को बहुत बेचैनी होती है और उसे बार-बार प्यास की अनुभूति होती है। अगर इस अवस्था में भी उपचार न हो पाए तो रोगी मूर्छित हो जाता है और बाद में रोगी की मृत्यु हो सकती है।
अतिसार के संक्रमण से कुछ मामूली-सी सावधानियाँ बरत कर हम इस रोग से बचाव कर सकते हैं। बच्चों को कभी भी बोतल से दूध न पिलाएँ। जहाँ तक सम्भव हो कटोरी-चम्मच से ही बच्चों को दूध पिलाएँ। माँ का दूध बच्चे को हमेशा देना चाहिए। यह देखा गया है कि जो बच्चे माँ का दूध पीते हैं, उनमें अतिसार होने की सम्भावना अन्य बच्चों के मुकाबले बहुत कम होती है। इसका कारण यह है कि माँ के दूध में रोग रक्षक तत्व होता है। दस्त के दौरान भी माँ का दूध बच्चे को देते रहना चाहिए। जो बच्चे भोजन खा सकते हैं, उन्हें दस्त के दौरान भोजन का सेवन करते रहना चाहिए। इससे बचाव के लिए हम सभी को उन सभी बातों का ध्यान रखना है जो हैजा से बचाव के लिए जरूरी हैं।
इन सभी बातों का ध्यान रखने के बाद भी, अगर किसी अनजानी गलती की वजह से किसी को दस्त होते हैं तो तुरन्त जीवनरक्षक घोल का सेवन शुरू कर देना चाहिए। यह घोल अतिसार रोग के उपचार में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, जीवनरक्षक घोल, अतिसार रोग में पानी की कमी (डिहाइड्रेशन) के कारण हो रही लगभग 10 लाख मृत्यु को प्रतिवर्ष बचा पाने में सफल रहा है। यह तथ्य जीवनरक्षक घोल की एक महान उपलब्धि है। इस घोल का मुख्य उद्देश्य शरीर में हो रही पानी व लवणों की कमी को पूरा करना है।
अतिसार रोग को पूरी तरह से नियन्त्रित किया जा सकता है अगर हम इससे बचाव पर पूर्णरूप से ध्यान दें।
जिगर (लिवर) के संक्रमण से उत्पन्न रोग को साधारण भाषा में पीलिया कहा जाता है। आमतौर पर गर्मियों तथा बरसात की ऋतु में और दूषित जल एवं भोजन के सेवन से उत्पन्न पीलिया को चिकित्सकीय भाषा में हैपेटाइटिस-ए कहा जाता है। इस रोग का मूल कारण हैपेटाइटिस-ए नामक विषाणु होता है। हैपेटाइटिस-ए के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकार के विषाणु हैं जो पीलिया रोग उत्पन्न करते हैं। इनमें प्रमुख हैपेटाइटिस-बी, हैपेटाइटिस-सी, हैपेटाइटिस-डी, हैपेटाइटिस-ई, नॉन ए हैपेटाइटिस, नॉन ए नॉन बी हैपेटाइटिस आदि हैं। इनमें से हैपेटाइटिस-बी वायरस खून और खून के विभिन्न भागों द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे में जाता है। इंजेक्शन की दूषित सूइयों के माध्यम से भी यह वायरस एक रोगी से दूसरे व्यक्ति में जा सकता है। जबकि हैपेटाइटिस नॉन ए नॉन बी का एक हिस्सा हैपेटाइटिस-बी की भाँति रक्त व इसके विभिन्न हिस्सों से एक व्यक्ति से दूसरे में जाता है, तो दूसरी ओर इसका दूसरा भाग हैपेटाइटिस-ए की तरह रोगी के मल द्वारा खाद्य पदार्थों के दूषित हो जाने से एक रोगी से अन्य स्वस्थ व्यक्ति में संक्रमण करता है। यहाँ हम केवल हैपेटाइटिस-ए व अन्य उन वायरसों पर ही चर्चा करेंगे जो खाद्य पदार्थों के इन वायरसों द्वारा दूषित हो जाने के कारण होता है।
हैपेटाइटिस-ए एक संक्रामक रोग है जो विषाणुओं द्वारा जिगर की कोशिकाओं के संक्रमण से उत्पन्न होता है। यह रोग सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है। उन्नत देशों में यह रोग न के बराबर रह गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि यह रोग संक्रमित व्यक्ति के मल द्वारा पानी और भोजन के दूषित होने के कारण होता है। संक्रमित व्यक्ति के मल द्वारा विषाणु शरीर से बाहर आते हैं और जल तथा अन्य खाद्य पदार्थों के इस मल द्वारा दूषित हो जाने के माध्यम से एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में यह रोग पहुँचता है।
इससे जिगर की कोशिकाओं को नुकसान पहुँचता है और इसके फलस्वरूप संक्रमित व्यक्ति को पीलिया रोग हो जाता है। भारत में शुद्ध पेयजल वितरण व्यवस्था की कमी और साफ-सफाई व मल व्ययन का समुचित प्रबन्धन न होने के कारण यह रोग बहुत ज्यादा मात्रा में पाया जाता है, इसके विपरीत पश्चिमी देशों में वहाँ की अच्छी जल वितरण व्यवस्था और सही मल-निष्कासन माध्यम होने के कारण यह रोग लगभग खत्म हो गया है।
हैपेटाइटिस-ए के विषाणु काफी समय तक गर्मी और रासायनिक पदार्थों के प्रकोप को झेल सकते हैं। यह भी देखा गया है कि ये विषाणु पानी में भी काफी समय तक जीवित रह सकते हैं। जल को वितरण हेतु साफ करने के लिए आमतौर पर क्लोरीन की जो मात्रा उपयोग में लाई जाती है, उससे भी ये विषाणु नहीं मरते हैं। हाँ, अगर पानी को 10-15 मिनट तक उबाला जाए तो ये विषाणु मर जाते हैं।
हैपेटाइटिस-ए में रोगी को बुखार आता है जो आमतौर पर बहुत तेज नहीं होता। उसे ठण्ड लगती है। सिरदर्द, थकान और निरन्तर बढ़ती हुई कमजोरी का अनुभव होता है। रोगी की भूख धीरे-धीरे खत्म हो जाती है। जी मचलाता है। उल्टी आती है। पेशाब का रंग गाढ़ा पीला हो जाता है तथा आँखें व त्वचा पर पीलापन आ जाता है। रोगी को खारिश भी हो सकती है। इस रोग में लिवर की कार्य प्रणाली फेल हो जाने के कारण होने वाली मृत्यु केवल 0.1 प्रतिशत रोगियों में देखी गई है और वह भी ज्यादा आयु वर्ग के रोगियों में अधिक पाई गई है।
इस रोग के रोगी को पूर्णरूप से आराम करना चाहिए। साफ-सुथरे तरीके़ से बनी हुई मीट्ठी वस्तुओं का सेवन लाभदायक होता है। घी, चिकने पदार्थ तथा तले हुए खाद्य पदार्थों से परहेज करना चाहिए।
हैपेटाइटिस-ए एक पूर्णरूप से बचाई जा सकने वाली बीमारी है। अगर दिन-प्रतिदिन की कार्यशैली में थोड़ी-सी सावधानियाँ बरती जाएँ तो इस रोग से पूरी तरह से बचाव सम्भव है।
हाईरिस्क समूह के लोगों को (वे लोग जो उस स्थान पर जा रहे हैं जहाँ हैपेटाइटिस-ए (पीलिया) फैला हो या रोगी के साथ रह रहे व्यक्तियों को) बचाव के लिए ‘हियुमन इम्युनोग्लोबुलिनए’ के इंजेक्शन लगवाने चाहिए। ये इंजेक्शन ऐसे व्यक्तियों के शरीर में हैपेटाइटिस-ए के विषाणुओं के खि़लाफ लड़ने की क्षमता प्रदान करते हैं जिसे ‘पैसिव इम्युनिटी’ कहा जाता है। इन इंजेक्शन का उपयोग केवल चिकित्सक की सलाह के उपरान्त ही करना चाहिए।
हैपेटाइटिस-ए से बचाव के लिए रोग रक्षक टीके अब विकसित हो गए हैं, जिनका उपयोग चिकित्सक की सलाह उपरान्त किया जा सकता है।
(लेखक एस्कॉर्ट हॉस्पिटल एण्ड रिसर्च सेण्टर, फरीदाबाद में मुख्य चिकित्सा अधिकारी , सीएमओ हैं)
ई-मेल : drrakeshsingh@yahoo.com
हैजा का उल्लेख आयुर्वेद में भी मिलता है तथा सुश्रुत संहिता में भी इसका वर्णन किया गया है। गन्दे कुओं, नहरों, पोखरों, तालाबों तथा दूषित नदियों का पानी इस रोग को फैलाने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। कई बार रोगी के मल व उसकी उल्टी के सम्पर्क में आने से भी यह रोग हो जाता है। मेलों तथा पर्वों के दौरान जब बहुत से लोग एक स्थान पर इकट्ठा होते हैं, तब इस रोग के फैलने की सम्भावना और भी बढ़ जाती है। यह रोग उन लोगों में ज्यादा पाया जाता है, जिनमें साफ-सफाई का अभाव होता है तथा बहुत से लोग एक छोटी जगह पर निवास करते हैं। मक्खियाँ कुछ सीमा तक इस बीमारी को फैलाने में अपनी भूमिका निभाती हैं। जब वे रोगी के मल अथवा उल्टी पर बैठती हैं तो हैजे के जीवाणु उनके शरीर से चिपक जाते हैं। यही मक्खियाँ जब अन्य खाद्य पदार्थों पर जाकर बैठती है तो उस खाद्य पदार्थ में हैजा के जीवाणु पहुँच जाते हैं तथा उसमें पनपने लगते हैं। इस खाद्य पदार्थ को अगर कोई स्वस्थ मनुष्य खा ले तो उससे हैजा हो जाने की सम्भावना होती है।
हैजा के लक्षणों में दस्त सर्वप्रमुख है। रोगी को दस्त ज्यादा मात्रा में, बिना पेट में दर्द हुए और पतले चावल के पानी की तरह आता है। दस्तों की संख्या 40-50 प्रतिदिन तक हो सकती है। दस्तों के साथ ही उल्टी शुरू हो जाती है। कई बार उल्टी की शिकायत रोगी दस्त लगने से पहले ही करते हैं। इस प्रकार दस्त और उल्टी के कारण रोगी के शरीर में पानी और लवणों की कमी हो जाती है। शरीर में हो रही पानी की कमी का पता आम आदमी इस प्रकार लगा सकता है कि रोगी की आँखें अन्दर धँस जाती हैं, गाल पिचक जाते हैं, त्वचा की चमक समाप्त हो जाती है, पेट अन्दर धंस जाता है, शरीर का तापमान सामान्य से कम हो जाता है, नब्ज पतली हो जाती है और कई बार रिकॉर्ड ही नहीं की जा सकती। पैरों तथा पेट की मांसपेशियों में खिंचाव तथा दर्द का अनुभव होता है, पेशाब कम आता है और जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती है, पेशाब आना बिल्कुल बन्द हो जाता है, इससे गुर्दे काम करना बन्द कर देते हैं। रोग की इस अवस्था को ‘अक्यूट रीनल फेल्योर’ कहा जाता है। रोगी को बहुत बेचैनी होती है और उसे बार-बार प्यास की अनुभूति होती है। अगर इस अवस्था में भी उपचार न हो पाए तो रोगी मूर्छित हो जाता है। यह अवस्था इस बात पर निर्भर करती है कि रोगी के शरीर से तरल पदार्थ की समाप्ति कितनी जल्दी और कितने समय में हुई है। पानी की कमी के कारण डिहाइड्रेशन, शरीर में तेजाबी मात्रा ज्यादा हो जाने के कारण, एसिडॉसिस तथा लवण पदार्थों का सन्तुलन बिगड़ जाने के कारण, डिस्इलैक्ट्रोलाइटीमिया से रोगी की मृत्यु हो जाती है।
बचाव
कुछ मामूली-सी सावधानियाँ बरत कर हम सभी हैजा जैसे भयंकर रोग से बचाव कर सकते हैं। कभी भी गन्दे कुओं, तालाब, पोखरों, नहरों तथा दूषित नदियों के पानी को न पिएँ। जो हैण्ड-पम्प इन तालाबों, पोखरों तथा नदियों के किनारे स्थित हैं तथा कम गहराई के हैं, उनका पानी भी खतरनाक सिद्ध हो सकता है। खाना खाने से पहले हाथ साबुन से अच्छी तरह से धोएँ। बाजार में बिक रहे कटे फल कभी न खाएँ। हो सके तो पानी को उबाल कर फिर उसे ठण्डा करके पिएँ। साफ व ताजे बने भोजन का सेवन करें। छोटे बच्चों को कभी भी बोतल से दूध न पिलाएँ। हैजा के रोगी के सम्पर्क में आने के बाद अपने हाथों को तुरन्त साबुन-पानी से धोएँ। ऐसे रोगी का मल तथा उल्टी कभी भी खुले स्थान पर अथवा नदियों, नहरों आदि में न फेंके।
इन सब बातों का ध्यान रखने के बाद भी अगर किसी अनजानी गलती की वजह से दस्त लग जाते हैं तो तुरन्त जीवनरक्षक घोल का सेवन शुरू कर देना चाहिए। इस घोल का मुख्य उद्देश्य शरीर में हो रहे पानी व लवणों की कमी को पूरा करना है और इससे हैजा के रोगियों में हो रही मृत्युदर को कम किया जा सकता है।
अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्रों में हैजे से बचाव के टीके भी लगाए जाते हैं। यह टीकाकरण दो टीकों के रूप में होता है, जो 4 से 6 सप्ताह के अन्तराल पर लगाए जाते हैं और 6 महीने के पश्चात बूस्टर टीका लगाया जाता है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि यह टीका एक साल से कम उम्र के बच्चों को नहीं दिया जा सकता। यह टीका बहुत ज्यादा उपयोगी सिद्ध नहीं हो पा रहा क्योंकि इससे प्राप्त प्रतिरोधकता की अवधि कम होती है।
हैजा रोग को पूरी तरह से नियन्त्रित किया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि हम इससे बचाव पर पूर्णरूप से ध्यान दें।
अतिसार रोग
अतिसार उन बीमारियों का एक समूह है जिसका मुख्य लक्षण दस्त होता है। यह बीमारी हमारे शरीर में स्थित अँतड़ियों के संक्रमण के कारण होती है। ये संक्रमण विभिन्न जीवाणु, विषाणु एवं प्रोटोजोवा द्वारा हो सकता है।
अतिसार रोग हमारे देश की स्वास्थ्य सम्बन्धी एक बड़ी समस्या है। इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि भारत में प्रतिवर्ष कई लाख बच्चे इस रोग से मरते हैं।
कुछ मामूली सावधानियाँ बरत कर हम हैजा, दस्त, अतिसार, पीलिया अथवा हैपेटाइटिस-ए सरीखे रोगों से बचाव कर सकते हैं। ये सभी रोग पूरी तरह से नियन्त्रित किए जा सकते हैं। जरूरत केवल इस बात की है कि हम छोटी-छोटी सी सावधानियाँ बरतें, साफ-सफाई बनाए रखें, जरूरत पड़ने पर चिकित्सक की सलाह लें और इस तरह बचाव के उपायों पर पूरा-पूरा ध्यान देंअतिसार एक संक्रामक रोग है। यह रोग बच्चों में सबसे ज्यादा पाया जाता है। इस रोग का संक्रमण किसी भी आयु वर्ग के व्यक्ति में हो सकता है परन्तु बच्चों में, खासतौर पर 6 माह से 2 वर्ष की आयु वर्ग वाले बच्चों में यह सबसे अधिक कुप्रभाव डालता है। जिन बच्चों को बोतल से दूध पिलाया जाता है उनमें अतिसार रोग होने की सम्भावना और भी ज्यादा बढ़ जाती है। इसका मुख्य कारण यह है कि बोतल साधारणतः ठीक ढंग से साफ नहीं हो पाती, जिसके कारण अतिसार उत्पन्न करने वाले जीवाणु उसमें पनपते रहते हैं और दूध के माध्यम से बच्चे के शरीर में पहुँच जाते हैं। कमजोर लोग अतिशीघ्र इस रोग के शिकार हो जाते हैं। गरीबी, स्वच्छता की कमी, एक स्थान पर ज्यादा लोगों का निवास करना, रोग के फैलाने में अहम भूमिका निभाते हैं।
रोगी के मल द्वारा अतिसार रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु, विषाणु तथा प्रोटोजोवा शरीर से बाहर आते हैं। इस मल द्वारा जल एवं अन्य खाद्य पदार्थों के दूषित हो जाने से स्वस्थ मनुष्य में यह रोग फैलता है। कई बार जानवरों के माध्यम से भी यह रोग स्वस्थ मनुष्य तक पहुँचता है और कई बार सीधे रोगी के सम्पर्क में आने से यह उसके द्वारा उपयोग में लाई गई संक्रमित वस्तुओं का उपयोग करने से भी यह रोग फैल सकता है। ऐसी वस्तुओं में रोगी का बिस्तर, तौलिया, बर्तन आदि प्रमुख होते हैं। गन्दे कुओं, नहरों, तालाबों तथा दूषित नदियों के पानी के सेवन से भी इस रोग की उत्पत्ति हो सकती है। मेलों, शादियों तथा पर्वों के दौरान जब बहुत से लोग एक स्थान पर इकट्ठा होते हैं, तब इस रोग के फैलने की सम्भावना और भी बढ़ जाती है। मक्खियाँ भी इस बीमारी को फैलाने में अपनी भूमिका निभाती हैं।
पतले दस्त आना अतिसार रोग का मुख्य लक्षण है। ये दस्त शरीर की अँतड़ियों के संक्रमण के फलस्वरूप होता है। ये दस्त पानी की तरह पतले होते हैं और बार-बार आते हैं। इस अवस्था को ‘डायरिया’ कहा जाता है। कई बार इन दस्तों में खून भी पाया जाता है, इस अवस्था को ‘खूनी पेचिस’ या ‘डाइसैंटरी’ कहा जाता है। दस्तों के साथ-साथ रोगी को बुखार आना, उल्टी होना, सिर दर्द, भूख न लगता और कमजोरी की शिकायत भी हो सकती है। बहुत से रोगी पेटदर्द और मांसपेशियों में खिंचाव तथा दर्द की शिकायत भी करते हैं। साधारणतः ऐसी अवस्था 3 से 7 दिन के लिए होती है। अगर ठीक ढंग से उपचार न किया जाए तो दस्तों तथा उल्टियों के कारण रोगी के शरीर में पानी और लवणों की कमी हो जाती है। इस अवस्था में रोगी का रक्तचाप (ब्लड-प्रेशर) भी रिकॉर्ड नहीं हो पाता। पेशाब कम आता है और जैसे-जैसे बीमारी बढ़ती है, पेशाब आना बिल्कुल बन्द हो जाता है। गुर्दे काम करना बन्द कर देते हैं। इस अवस्था को ‘अक्यूट रीनल फेल्योर’ कहा जाता है। इससे रोगी को बहुत बेचैनी होती है और उसे बार-बार प्यास की अनुभूति होती है। अगर इस अवस्था में भी उपचार न हो पाए तो रोगी मूर्छित हो जाता है और बाद में रोगी की मृत्यु हो सकती है।
बचाव
अतिसार के संक्रमण से कुछ मामूली-सी सावधानियाँ बरत कर हम इस रोग से बचाव कर सकते हैं। बच्चों को कभी भी बोतल से दूध न पिलाएँ। जहाँ तक सम्भव हो कटोरी-चम्मच से ही बच्चों को दूध पिलाएँ। माँ का दूध बच्चे को हमेशा देना चाहिए। यह देखा गया है कि जो बच्चे माँ का दूध पीते हैं, उनमें अतिसार होने की सम्भावना अन्य बच्चों के मुकाबले बहुत कम होती है। इसका कारण यह है कि माँ के दूध में रोग रक्षक तत्व होता है। दस्त के दौरान भी माँ का दूध बच्चे को देते रहना चाहिए। जो बच्चे भोजन खा सकते हैं, उन्हें दस्त के दौरान भोजन का सेवन करते रहना चाहिए। इससे बचाव के लिए हम सभी को उन सभी बातों का ध्यान रखना है जो हैजा से बचाव के लिए जरूरी हैं।
इन सभी बातों का ध्यान रखने के बाद भी, अगर किसी अनजानी गलती की वजह से किसी को दस्त होते हैं तो तुरन्त जीवनरक्षक घोल का सेवन शुरू कर देना चाहिए। यह घोल अतिसार रोग के उपचार में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, जीवनरक्षक घोल, अतिसार रोग में पानी की कमी (डिहाइड्रेशन) के कारण हो रही लगभग 10 लाख मृत्यु को प्रतिवर्ष बचा पाने में सफल रहा है। यह तथ्य जीवनरक्षक घोल की एक महान उपलब्धि है। इस घोल का मुख्य उद्देश्य शरीर में हो रही पानी व लवणों की कमी को पूरा करना है।
अतिसार रोग को पूरी तरह से नियन्त्रित किया जा सकता है अगर हम इससे बचाव पर पूर्णरूप से ध्यान दें।
पीलिया (हैपेटाइटिस-ए)
जिगर (लिवर) के संक्रमण से उत्पन्न रोग को साधारण भाषा में पीलिया कहा जाता है। आमतौर पर गर्मियों तथा बरसात की ऋतु में और दूषित जल एवं भोजन के सेवन से उत्पन्न पीलिया को चिकित्सकीय भाषा में हैपेटाइटिस-ए कहा जाता है। इस रोग का मूल कारण हैपेटाइटिस-ए नामक विषाणु होता है। हैपेटाइटिस-ए के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकार के विषाणु हैं जो पीलिया रोग उत्पन्न करते हैं। इनमें प्रमुख हैपेटाइटिस-बी, हैपेटाइटिस-सी, हैपेटाइटिस-डी, हैपेटाइटिस-ई, नॉन ए हैपेटाइटिस, नॉन ए नॉन बी हैपेटाइटिस आदि हैं। इनमें से हैपेटाइटिस-बी वायरस खून और खून के विभिन्न भागों द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे में जाता है। इंजेक्शन की दूषित सूइयों के माध्यम से भी यह वायरस एक रोगी से दूसरे व्यक्ति में जा सकता है। जबकि हैपेटाइटिस नॉन ए नॉन बी का एक हिस्सा हैपेटाइटिस-बी की भाँति रक्त व इसके विभिन्न हिस्सों से एक व्यक्ति से दूसरे में जाता है, तो दूसरी ओर इसका दूसरा भाग हैपेटाइटिस-ए की तरह रोगी के मल द्वारा खाद्य पदार्थों के दूषित हो जाने से एक रोगी से अन्य स्वस्थ व्यक्ति में संक्रमण करता है। यहाँ हम केवल हैपेटाइटिस-ए व अन्य उन वायरसों पर ही चर्चा करेंगे जो खाद्य पदार्थों के इन वायरसों द्वारा दूषित हो जाने के कारण होता है।
हैपेटाइटिस-ए एक संक्रामक रोग है जो विषाणुओं द्वारा जिगर की कोशिकाओं के संक्रमण से उत्पन्न होता है। यह रोग सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है। उन्नत देशों में यह रोग न के बराबर रह गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि यह रोग संक्रमित व्यक्ति के मल द्वारा पानी और भोजन के दूषित होने के कारण होता है। संक्रमित व्यक्ति के मल द्वारा विषाणु शरीर से बाहर आते हैं और जल तथा अन्य खाद्य पदार्थों के इस मल द्वारा दूषित हो जाने के माध्यम से एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में यह रोग पहुँचता है।
इससे जिगर की कोशिकाओं को नुकसान पहुँचता है और इसके फलस्वरूप संक्रमित व्यक्ति को पीलिया रोग हो जाता है। भारत में शुद्ध पेयजल वितरण व्यवस्था की कमी और साफ-सफाई व मल व्ययन का समुचित प्रबन्धन न होने के कारण यह रोग बहुत ज्यादा मात्रा में पाया जाता है, इसके विपरीत पश्चिमी देशों में वहाँ की अच्छी जल वितरण व्यवस्था और सही मल-निष्कासन माध्यम होने के कारण यह रोग लगभग खत्म हो गया है।
हैपेटाइटिस-ए के विषाणु काफी समय तक गर्मी और रासायनिक पदार्थों के प्रकोप को झेल सकते हैं। यह भी देखा गया है कि ये विषाणु पानी में भी काफी समय तक जीवित रह सकते हैं। जल को वितरण हेतु साफ करने के लिए आमतौर पर क्लोरीन की जो मात्रा उपयोग में लाई जाती है, उससे भी ये विषाणु नहीं मरते हैं। हाँ, अगर पानी को 10-15 मिनट तक उबाला जाए तो ये विषाणु मर जाते हैं।
हैपेटाइटिस-ए में रोगी को बुखार आता है जो आमतौर पर बहुत तेज नहीं होता। उसे ठण्ड लगती है। सिरदर्द, थकान और निरन्तर बढ़ती हुई कमजोरी का अनुभव होता है। रोगी की भूख धीरे-धीरे खत्म हो जाती है। जी मचलाता है। उल्टी आती है। पेशाब का रंग गाढ़ा पीला हो जाता है तथा आँखें व त्वचा पर पीलापन आ जाता है। रोगी को खारिश भी हो सकती है। इस रोग में लिवर की कार्य प्रणाली फेल हो जाने के कारण होने वाली मृत्यु केवल 0.1 प्रतिशत रोगियों में देखी गई है और वह भी ज्यादा आयु वर्ग के रोगियों में अधिक पाई गई है।
इस रोग के रोगी को पूर्णरूप से आराम करना चाहिए। साफ-सुथरे तरीके़ से बनी हुई मीट्ठी वस्तुओं का सेवन लाभदायक होता है। घी, चिकने पदार्थ तथा तले हुए खाद्य पदार्थों से परहेज करना चाहिए।
बचाव
हैपेटाइटिस-ए एक पूर्णरूप से बचाई जा सकने वाली बीमारी है। अगर दिन-प्रतिदिन की कार्यशैली में थोड़ी-सी सावधानियाँ बरती जाएँ तो इस रोग से पूरी तरह से बचाव सम्भव है।
हाईरिस्क समूह के लोगों को (वे लोग जो उस स्थान पर जा रहे हैं जहाँ हैपेटाइटिस-ए (पीलिया) फैला हो या रोगी के साथ रह रहे व्यक्तियों को) बचाव के लिए ‘हियुमन इम्युनोग्लोबुलिनए’ के इंजेक्शन लगवाने चाहिए। ये इंजेक्शन ऐसे व्यक्तियों के शरीर में हैपेटाइटिस-ए के विषाणुओं के खि़लाफ लड़ने की क्षमता प्रदान करते हैं जिसे ‘पैसिव इम्युनिटी’ कहा जाता है। इन इंजेक्शन का उपयोग केवल चिकित्सक की सलाह के उपरान्त ही करना चाहिए।
हैपेटाइटिस-ए से बचाव के लिए रोग रक्षक टीके अब विकसित हो गए हैं, जिनका उपयोग चिकित्सक की सलाह उपरान्त किया जा सकता है।
(लेखक एस्कॉर्ट हॉस्पिटल एण्ड रिसर्च सेण्टर, फरीदाबाद में मुख्य चिकित्सा अधिकारी , सीएमओ हैं)
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