‘जल’ का सामान्य अर्थ पानीय अथवा पानी है। वह पानी जिसे पीकर हम अपनी प्यास बुझाते हैं। जिसके द्वारा हम नहाते और अपने कपड़े धोते हैं। जिसके द्वारा हम अपने दूषित-अंगों को स्वच्छ करते हैं। जिसके द्वारा अपने बर्तन साफ करते हैं। जिसके द्वारा हम अपने घर के पेड़-पौधों की सिंचाई करते हैं। जिसके द्वारा हम जल में घुलनशील पदार्थों का पतला या तरल करते हैं। जिसकी हमारे शरीर में कमी हो जाने पर हम ‘डिहाइड्रेशन’ के शिकार हो जाते हैं और मृत्यु हमारा इन्तजार करने लग जाती है। तात्पर्य यह कि ‘जल’ हमारा जीवन है। हमारे जीवन का ‘आधार’ है और ‘जल’ के बिना हम अपने अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकते।
आधुनिक वैज्ञानिको का कहना है कि हमारे शरीर का तीन-चौथाई भाग ‘जलमय’ है। हमारी धरती का भी तीन चौथाई भाग ‘जलमय’ है। जल है तो हम हैं, जल नहीं तो हम भी नहीं। संसार का प्रत्येक जीवधारी, प्रत्येक प्राणी जल का ‘तलबगार’ है। शायद यही कारण है कि प्राचीन शास्त्र-ग्रन्थों में जल को ‘जीवन’ कहा गया है।
जल हमारे लिए ईश्वर का सबसे बड़ा ‘वरदान’ है, जो हमें वर्षा, पर्वतों के झरनों, धरती के स्त्रोतों, नदियों, तालों, देवखातों, कूपों, वाउरियों, पोखरों, तालाबों और समुद्रों आदि से प्राप्त होता है। किन्तु हमारी ‘स्वार्थपरता’ और हमारे वैज्ञानिक प्रयोगों ने इस युग में जल को हमारे लिए दुर्लभ-सा कर दिया है। वह दिनोंदिन और भी दुर्लभ होता जा रहा है। अतः अब हमारा कर्तव्य हो गया है कि हम जल के बारे में अधिक से अधिक जानें ताकि हमारा यह जीवनदाता हमसे कहीं अधिक दूर न चला जाये।
‘जल’ एक बहुश्रुत शाश्वत वाक्य ‘जन्मात् लयपर्यंतं यत् स्थितं तज्जलम्’ का प्रत्याहार या ‘शॉर्टफॉर्म’ है। अर्थात जो वस्तु इस संसार के जन्म से लेकर उसके समाप्त होने तक मौजूद रहे, वह ‘जल’ कहलाती है। ‘ज’ अर्थात् जन्म और ‘ल’अर्थात् ‘लय’ (अथवा प्रकृति में लीन हो जाना) इन दो क्रियाओं का वाचक जल कहलाता है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती का कथन है कि ‘जल’ किसी वस्तु या पदार्थ का नहीं, बल्कि ‘परब्रह्म’ का वाचक है। क्योंकि इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार –तीनों ही अवस्थाओं या दशाओं में एकमात्र ‘परब्रह्म’ ही शेष रहता है। इसीलिए स्वामी जी ने ‘जल’ की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से बतलायी है-
‘जल घातने’ इस धातु से ‘जल’ शब्द सिद्ध होता है। ‘जलति घातयति दुष्टान् संघातय ति अव्यक्त परमाण्वादीन् तद ब्रह्म जलम्’ अर्थात जो दुष्टों का ताड़न और अव्यक्त तथा परमाणुओं का अन्योSन्य संयोग या वियोग करता है, वह परमात्मा ‘जल’ संज्ञक कहलाता है (- सत्यार्थ प्रकाश, प्रथम उल्लास)।
संसार के सबसे प्राचीन लिखित-साहित्य ‘वेद’ या ‘वैदिक वाङ्मय’ में जल के पूरे एक सौ पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है-
आधुनिक वैज्ञानिको का कहना है कि हमारे शरीर का तीन-चौथाई भाग ‘जलमय’ है। हमारी धरती का भी तीन चौथाई भाग ‘जलमय’ है। जल है तो हम हैं, जल नहीं तो हम भी नहीं। संसार का प्रत्येक जीवधारी, प्रत्येक प्राणी जल का ‘तलबगार’ है। शायद यही कारण है कि प्राचीन शास्त्र-ग्रन्थों में जल को ‘जीवन’ कहा गया है।
जल हमारे लिए ईश्वर का सबसे बड़ा ‘वरदान’ है, जो हमें वर्षा, पर्वतों के झरनों, धरती के स्त्रोतों, नदियों, तालों, देवखातों, कूपों, वाउरियों, पोखरों, तालाबों और समुद्रों आदि से प्राप्त होता है। किन्तु हमारी ‘स्वार्थपरता’ और हमारे वैज्ञानिक प्रयोगों ने इस युग में जल को हमारे लिए दुर्लभ-सा कर दिया है। वह दिनोंदिन और भी दुर्लभ होता जा रहा है। अतः अब हमारा कर्तव्य हो गया है कि हम जल के बारे में अधिक से अधिक जानें ताकि हमारा यह जीवनदाता हमसे कहीं अधिक दूर न चला जाये।
‘जल’ एक बहुश्रुत शाश्वत वाक्य ‘जन्मात् लयपर्यंतं यत् स्थितं तज्जलम्’ का प्रत्याहार या ‘शॉर्टफॉर्म’ है। अर्थात जो वस्तु इस संसार के जन्म से लेकर उसके समाप्त होने तक मौजूद रहे, वह ‘जल’ कहलाती है। ‘ज’ अर्थात् जन्म और ‘ल’अर्थात् ‘लय’ (अथवा प्रकृति में लीन हो जाना) इन दो क्रियाओं का वाचक जल कहलाता है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती का कथन है कि ‘जल’ किसी वस्तु या पदार्थ का नहीं, बल्कि ‘परब्रह्म’ का वाचक है। क्योंकि इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार –तीनों ही अवस्थाओं या दशाओं में एकमात्र ‘परब्रह्म’ ही शेष रहता है। इसीलिए स्वामी जी ने ‘जल’ की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से बतलायी है-
‘जल घातने’ इस धातु से ‘जल’ शब्द सिद्ध होता है। ‘जलति घातयति दुष्टान् संघातय ति अव्यक्त परमाण्वादीन् तद ब्रह्म जलम्’ अर्थात जो दुष्टों का ताड़न और अव्यक्त तथा परमाणुओं का अन्योSन्य संयोग या वियोग करता है, वह परमात्मा ‘जल’ संज्ञक कहलाता है (- सत्यार्थ प्रकाश, प्रथम उल्लास)।
संसार के सबसे प्राचीन लिखित-साहित्य ‘वेद’ या ‘वैदिक वाङ्मय’ में जल के पूरे एक सौ पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है-