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जल चौपाल, सप्रे संग्रहालय, संस्करण 2013
चौपालों का संदेश है कि बरसात की भविष्यवाणियों के अनुमानों को खेती, पेयजल, जलाशयों और नदियों की आवश्यकताओं के अनुसार होना चाहिए और उनके कहावतों सम्बन्धी विश्वास को परखा जाये। आधुनिक और पुरातन के बीच समन्वय बैठाया जाये। आधुनिक और सामाजिक मान्यता प्राप्त परम्परागत विधियों के समन्वित प्रयास से भविष्यवाणियों को सटीक बनाया जाये।
संस्कारवान लोग अपनी बात सुसंस्कृत तरीकों और संकेतों के माध्यम से कहते हैं। बहुधा इन संकेतों में आग्रह छुपा होता है जो पूरी गम्भीरता से अपने भावों का इजहार करता है। भारतीय संस्कृति में अपनी बात कहने का सांकेतिक तरीका वास्तव में सम्प्रेषण का सबसे प्रभावी तरीका है। लोग इसका उपयोग अपनी बात को दूसरों तक पहुँचाने के लिये करते हैं। उल्लेखनीय है कि सुसंस्कृत संकेतों के माध्यम से कड़वी बात भी शालीन तरीके से सम्प्रेषित की जा सकती है। संकेतों में कही वह बात सुनने वाले का मान रखती है, सौहार्द्र बनाए रखती है और प्रभाव भी छोड़ती है।संकेत, कई बार आइसबर्ग की तरह होते हैं। उनका बहुत छोटा हिस्सा प्रकट और बड़ा हिस्सा अभिव्यक्ति के संकोची आवरण में ढका होता है। आवरण के पीछे बहुत से अनकहे तथ्य, नई सुबह का इंतजार करते हैं। लोग आते हैं। आइसबर्ग को देखते हैं। अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। कुछ लोग उस आइसबर्ग का अध्ययन सांख्यिकी के नजरिये से करना चाहते हैं। वे लोग प्राथमिक और द्वितीयक आँकड़े एकत्रित करते हैं। उनका विश्लेषण कर प्रस्तुत करते हैं। आज के युग में सांख्यिकी विज्ञान पर आधारित अध्ययनों का महत्त्व बढ़ रहा है।
जानकारियों और संकेतों में अन्तर होता है। इस अन्तर को रंगहीन प्रकाश और उसमें छुपे सात रंगों के उदाहरण से समझा जा सकता है। इस उदाहरण के अनुसार, जानकारी एकत्रित करने वाला व्यक्ति प्रकाश को जैसा देखता (रंगहीन) है, वैसा वर्णित करता है। वहीं संकेतों को समझने वाला व्यक्ति, पानी की बूँदों के आवरण से निकलकर सतरंगी (इन्द्रधनुष) छटा दिखाते रूप को भी देख पाता है। वास्तव में संकेत, प्रकाश के सतरंगी रूप को पूरी गम्भीरता से पेश करते हैं।
मध्य प्रदेश की लोक संस्कृति में जल विज्ञान और प्रकृति को समझने और समाज के विचारों के पीछे छुपे संकेतों को पहचानने के लिये हमारी टीम ग्यारह चौपालों में गई। चौपालों में स्थानीय संस्कृति में रचे-बसे 13 जानकार व्यक्ति हमारे सम्पर्क सूत्र और सहयोगी थे। उनकी मदद से लगभग 367/1078 जानकार लोगों के विचार और भावनायें जानीं। इसके लिये हमने सांख्यिकी के बेतरतीब सर्वेक्षण तरीके का उपयोग नहीं किया। हमने केवल जल विज्ञान और प्रकृति को समझने वाले लोगों के विचार और भावनाओं को संकलित कराया और उनके पीछे छुपे संकेतों को समझने की कोशिश की। संकेतों पर अनेक वैज्ञानिकों, चिकित्सकों और समाजशास्त्रियों से चर्चा की। यह प्रयास तथ्यों और संकेतों को समग्रता में समझने और जानने के लिये था। यह प्रयास सांख्यिकी सर्वेक्षणों के परिणामों तक पहुँचने के परम्परागत तरीके से एकदम भिन्न है।
मध्य प्रदेश की लोक संस्कृति में जल विज्ञान और प्रकृति की अध्ययन यात्रा में हमें लगा कि हमारा ग्रामीण समाज प्रवाहमान नदी, जो लोक संस्कृति का पर्याय है, के किनारे चल रहा है। नदी के प्रवाह को एक ओर से परम्परागत ज्ञान और दूसरी ओर से पाश्चात्य ज्ञान मिल रहा है। परम्परागत ज्ञान, समाज की जड़ों से जुड़ा और अवचेतन में रचा-बसा ज्ञान है तो पाश्चात्य ज्ञान, मौजूदा व्यवस्था की देन है। दोनों ज्ञान मिलकर मिश्रित संस्कृति गढ़ रहे हैं। समाज इसी मिश्रित संस्कृति के दोराहे पर खड़ा है। उसने चौपालों में अपनी कुछ बातें कही हैं। वे बातें कहीं सीधी और सपाट शैली में कही हैं तो कहीं संकेतों में कही गई हैं।
चौपालों में लोगों ने पहली बात शुद्ध पानी के उपयोग के बारे में कही। उन्होंने बताया कि उनके पूर्वजों ने जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में शुद्ध पानी का उपयोग सुनिश्चित किया था। इसे सुनिश्चित करने के लिये उन्होंने अनेक तौर तरीके, आचार-विचार, रीति-रिवाज, व्यवस्थायें, वर्जनायें, सीखें, हिदायतें, कर्मकाण्ड गढ़े थे। उन्होंने शुद्ध पानी के उपयोग की जिम्मेदारी से समाज के हितग्राही तबके को जोड़ा और लगभग स्वावलम्बी व्यवस्था कायम की। समाज ने लोकाचारों की मदद से सचेतक की भूमिका निभाई।
स्वाभाविक है कि पूर्वजों द्वारा शुद्ध पानी के उपयोग के लिये अपनाई गई व्यवस्था पर प्रश्न उठाये जा सकते हैं। पहला सवाल, व्यवस्था के समय की कसौटी पर खरे उतरने का और दूसरा सवाल शुद्ध पानी के उपयोग को सुनिश्चित करने का हो सकता है। दूसरे, उस व्यवस्था पर तत्कालीन समाज की जीवनशैली का प्रभाव रहा होगा। सम्भव है इसके कारण उसमें कुछ दोष या विसंगतियाँ पनपीं होंगी, पर लगभग 100 साल पहले प्रकाशित किसी भी गजेटियर में शुद्ध पानी के उपयोग या अपनाई व्यवस्था में दोष या विसंगतियों का उल्लेख नहीं है। यह तथ्य इंगित करता है कि तत्कालीन व्यवस्था समय की कसौटी पर खरी उतरती थी और उसे अपना लक्ष्य हासिल था।
व्यवस्था के सटीक होने के बावजूद, समाज ने चौपालों में यह संकेत हरगिज नहीं दिया कि उस कालखंड की व्यवस्था की नकल की जाये या उसे ज्यों का त्यों लागू किया जाये। चौपालों से संकेत मिलता है कि शुद्ध जल के उपयोग की समाज हितैषी व्यवस्था कायम रखी जाये। प्रस्तावित व्यवस्था को समाज की व्ययशक्ति की पहुँच में रखा जाये। पुराने समय की पानी सम्बन्धी अवधारणा को कायम रखा जाये।
लोगों ने दूसरी बात परम्परागत जल संरचनाओं के टिकाऊ होने और उनके पानी की शुद्धता के बारे में कही। उन्होंने बताया कि हमारे पूर्वजों ने टिकाऊ, दीर्घजीवी, मजबूत, पक्के कुएँ, बावड़ी और तालाब बनवाये थे। सही निर्माण सामग्री का उपयोग किया था। चौपालों में लोगों ने यह भी बताया कि जल संरचनाओं के पानी को शुद्ध बनाये रखने के लिये कतिपय सावधानियों, लोकाचारों और कर्मकाण्डों को लागू कर सचेतक की भूमिका निभाई थी।
परम्परागत जल संरचनाओं के टिकाऊ होने और उनके पानी की शुद्धता के लिये अपनाई व्यवस्था पर प्रश्न उठाये जा सकते हैं। पहला सवाल, उनके टिकाऊ होने और दूसरा सवाल उनके पानी की शुद्धता का हो सकता है। संरचनाओं के अवलोकन से पता चलता है कि उनका निर्माण स्थानीय पत्थरों से हुआ था। वे कठोर और मजबूत थे। उन पर मौसम का कम-से-कम असर होता था। जुड़ाई में चूने की परम्परागत विधि का उपयोग हुआ था। चूने की परम्परागत जुड़ाई की उम्र सीमेंट की जुड़ाई से कई गुना अच्छी होती है। इसलिये पुरानी संरचनायें टिकाऊ थीं।
दूसरा सवाल उनके पानी की शुद्धता का है तो उस कालखंड में खेती में रासायनिक खाद, कीटाणुनाशक या खरपतवार नाशकों का उपयोग नहीं होता था। कल-कारखाने नहीं थे। खनन गतिविधियाँ नहीं के बराबर थीं। आगोर सुरक्षित थे। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन या उपयोग प्रकृति की सुधारवादी क्षमता के अन्तर्गत था। इसलिये बरसात के मौसम के अपवादों को छोड़कर बाकी सभी स्रोतों का पानी शुद्ध और प्रदूषण मुक्त था। लगभग 100 साल पहले प्रकाशित किसी भी गजेटियर में जल संरचनाओं के टिकाऊपन और उनके पानी की शुद्धता को लेकर कोई विपरीत टीप, निर्माण दोष या विसंगतियों का उल्लेख नहीं है। जल संरचनायें टिकाऊ थीं और अपवादों को छोड़कर उनका पानी शुद्ध था।
जल संरचनाओं के टिकाऊपन और उनके पानी की शुद्धता सुनिश्चित होने के बावजूद, समाज ने चौपालों में यह संकेत नहीं दिया कि पुरानी व्यवस्था की नकल की जाये। चौपालों का संकेत था कि आधुनिक युग में बनने वाली जल संरचनायें टिकाऊ बनें, उपयोगी हों, अपना दायित्व निभायें, उनकी उम्र पुरानी संरचनाओं जैसी हो और उनमें उपलब्ध जल शुद्ध हो।
तीसरी बात बघेल खंड और मध्य बुन्देलखण्ड के परम्परागत तालाबों के गादमुक्त निर्माण के बारे में कही है। तालाबों का निर्माण मुख्यतः स्थानीय लोग करते थे। सँकरी पहाड़ी घाटी को जोड़कर पाल तथा उपयुक्त स्थान पर पानी निकालने के लिये वेस्टवियर बनाया जाता था।
सभी जानते हैं कि तालाबों में जमा गाद का स्रोत कैचमेंट होता है। कैचमेंट में जितना अधिक भूमि कटाव होगा उतनी अधिक गाद तालाब में पहुँचेगी। उल्लेखनीय है कि रीवा रियासत के तालाब मुख्यतः कैमूर पर्वत माला की तलहटी के निकट एवं मैदानी इलाकों में बने थे। सौ साल पहले रीवा रियासत में लगभग 80 प्रतिशत क्षेत्र में घने जंगल तथा चारागाह थे। यही जंगल एवं चारागाह तालाबों के कैचमेंट थे। कैचमेंटों में खूब घना जंगल, मिट्टी की मोटी परत, बाँस के झुरमुट तथा घास की बहुतायत थी। सघन वानस्पतिक आच्छादन एवं घास के कारण जंगलों तथा चारागाहों में मिट्टी का कटाव बहुत कम था। बरसाती पानी के लगभग 80 प्रतिशत हिस्से को वन क्षेत्रों तथा चारागाहों की जमीन सोख लेती थी।
बुन्देलखण्ड के पुराने तालाबों का निर्माण मुख्यतः चंदेलों ने केन नदी और बेतवा नदी के बीच के अभावग्रस्त इलाकों में दसवीं सदी से चौदहवीं सदी के बीच कराया था। दसवीं सदी से चौदहवीं सदी में बुन्देलखण्ड में भी, रीवा रियासत की ही तरह लगभग 80 प्रतिशत या उससे अधिक क्षेत्र पर अत्यंत घने जंगल रहे होंगे। यही घने जंगल, बुन्देलखण्डी तालाबों के कैचमेंट थे। घने वानस्पतिक आच्छादन, झाड़ियों, लताओं एवं घास के कारण कैचमेंटों से मिट्टी का कटाव बहुत कम हुआ होगा और बहुत कम गाद तालाबों में पहुँचती होगी।
बघेलखंड और मध्य बुन्देलखण्ड के परम्परागत तालाबों के कैचमेंट बड़े तथा तालाबों का डूब क्षेत्र बहुत छोटा होता था। वे कैचमेंट ईल्ड का बहुत थोड़ा हिस्सा संचित करते थे। उदाहरण के लिये रीवा रियासत के सबसे बड़े गोविन्दगढ़ बाँध की कैचमेंट ईल्ड लगभग 4860 लाख घन फुट और मूल भंडारण क्षमता लगभग 145 लाख घन फुट (3.4 प्रतिशत) थी। जल भंडारण क्षमता कम होने के कारण वे बहुत जल्दी भर जाते थे। कैचमेंटों से बरसात के बाद आने वाले जल प्रवाह के कारण अधिकांश गाद बह जाती थी। उपर्युक्त कारणों से बघेलखंड और मध्य बुन्देलखण्ड के परम्परागत तालाबों में गाद जमा नहीं हुई। वे गादमुक्त बने रहे। प्रसंगवश उल्लेख है कि किसी भी गजेटियर में अपवादों को छोड़कर तालाबों के सूखने का उल्लेख नहीं है। तालाबों के सूखने का सिलसिला तो बहुत बाद की घटना है।
पुराने दीर्घजीवी तालाबों के लगभग गाद रहित होने की हकीकत की जानकारी देने के बाद भी समाज ने चौपालों में यह संकेत नहीं दिया कि पुरानी व्यवस्था की यथावत नकल की जाये। चौपालों का संकेत था कि आधुनिक युग में बनने वाले तालाब, जलाशय और अन्य जल संरचनाओं के निर्माण का प्रयास पुराने भारतीय सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर किया जा सकता है। इस प्रयास से उनकी उपयोगी आयु हजारों साल होगी और वे गादमुक्त रहेंगे।
चौपालों में लोगों ने चौथी बात परम्परागत जल संरचनाओं के देशज विज्ञान के बारे में कही। उन्होंने बताया कि हमारे पूर्वजों ने जहाँ की परिस्थितियाँ तालाब के लिये उपयुक्त थीं वहाँ तालाब बनवाया। जहाँ की परिस्थितियाँ कुएँ के लिये उपयुक्त थीं वहाँ कुआँ बनवाया। जहाँ की परिस्थितियाँ बावड़ी के लिये उपयुक्त थीं वहाँ बावड़ी बनवाई। यही नियम खेतों में बँधिया बनाते समय भी अपनाया। कैचमेंट के पानी के थोड़े हिस्से को तालाब में सहेजकर नदियों के प्रवाह को जिंदा रखा। आवश्यकता प्रतीत हुई तो तालाबों की श्रृंखला बनाई। कम पानी रोककर तालाबों में गाद संचय की सम्भावना को कम किया। लगता है, लोगों ने परम्परागत जल संरचनाओं को बनवाते समय, अपनी आँखें खुली रखी थीं। जल संरचनाओं की शुचिता और निरन्तरता के लिये समाज ने लोकाचारों और कर्मकाण्डों इत्यादि की मदद से सचेतक की भूमिका निभाई। किसी भी गजेटियर में तालाबों, कुओं और बावड़ियों के तकनीकी दोषों का उल्लेख नहीं है।
गौरतलब है कि पूर्वजों द्वारा बनवाई जल संरचनाओं के तकनीकी पक्ष पर बहुत कम सवाल उठाये जा सकते हैं। चौपालों का संदेश है कि मौजूदा युग में भी कुओं, बावड़ियों, तालाबों और जलाशयों का निर्माण ऐसा हो कि वे पानी की कमी और प्रदूषण से मुक्त हों। जलाशयों में गाद नहीं जमे। वे और नदियाँ अपनी सामाजिक भूमिका का सही तरीके से निर्वाह करें। संकेत साफ है और इंगित करता है कि मौजूदा परिवेश को ध्यान में रखकर आवश्यक संशोधनों के साथ उचित तकनीकों को लागू किया जाये।
चौपालों में लोगों ने पाँचवीं बात कुओं और नलकूपों के स्थल चयन की परम्परागत विधियों के बारे में कही। उन्होंने बताया कि कुछ लोग वृक्षों की टहनियों, कतिपय जीवों, वनस्पतियों और प्राकृतिक संकेतों के आधार पर जमीन के नीचे उपलब्ध पानी की जानकारी देते हैं।
उपर्युक्त परम्परागत विधियों के बारे में आधुनिक वैज्ञानिकों की राय बँटी हुई है। कुछ उसकी मुखालफत करते हैं पर उनके पास अपनी बात को सिद्ध करने के लिये कोई प्रामाणिक आधार नहीं होता। इसी तरह जो लोग उसके पक्ष में हैं उनके पास भी अपनी बात को सिद्ध करने के लिये कोई प्रामाणिक अध्ययनों का आधार नहीं होता।
चौपालों का संदेश है कि परम्परागत विधियों का अध्ययन किया जाये। जो नकारने लायक हैं उसे नकारा जाये। जो स्वीकार्य हैं उसे स्वीकार किया जाये। आधुनिक और स्वीकार्य परम्परागत विधियों के समन्वित प्रयास से स्थल खोज की विधियों को सटीक बनाया जाये।
चौपालों में महिलाओं ने छठवीं बात प्रसूता के स्वास्थ्य के सही पुनर्वास के बारे में कही। उन्होंने बताया कि प्रसव से जुड़ी प्राचीन परिपाटियाँ सद्यः प्रसूता के स्वास्थ्य की बहाली के लिये बहुत उपयोगी हैं। वे उसे प्रसवोत्तर प्रभावों से बचाती हैं।
प्रसव से जुड़ी प्राचीन परिपाटियों के बारे में समाज का सोच बँटा हुआ है। जीवनशैली के बदलाव और संयुक्त परिवारों के बिखराव जैसे सामाजिक कारण भले ही परिस्थितियों एवं सोच पर प्रभाव डालते हों पर मूल प्रश्न प्रसूता की सेहत के सही पुनर्वास का है। यह सही है कि अधिकांश आधुनिक चिकित्सक, प्राचीन प्रणाली और प्रसवोत्तर परिपाटियों के पक्षधर नहीं हैं। वे उसकी मुखालफत करते हैं। उनकी खिलाफत, गहन अध्ययन या लम्बे शोध परिणामों के आधार पर होना चाहिये।
चौपालों का संदेश है कि दोनों परिपाटियों पर शोध होना चाहिये और सही वस्तु-स्थिति सामने लाई जाना चाहिए।
चौपालों में लोगों ने स्वास्थ्य से जुड़ी अनेक कहावतों का जिक्र किया। वे कहावतों को उपयोगी मानते हैं। कुछ कहावतें प्राकृतिक चिकित्सा का हिस्सा हैं तो कुछ का सम्बन्ध अनुभव और आयुर्वेद से है।
स्वास्थ्य से जुड़ी कहावतों के बारे में चिकित्सकों, नगरीय और ग्रामीण समाज का सोच बँटा हुआ है। अधिकांश आधुनिक चिकित्सक और नगरीय लोग कहावतों को नकारते हैं, वहीं वैद्य और प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली से जुड़े लोग उन्हें सही मानते हैं।
चौपालों का संदेश है कि स्वास्थ्य से जुड़ी कहावतों की सच्चाई सामने लाना चाहिए। यदि वे सही हैं तो हमें उन्हें नकारना बंद करना चाहिये। उनके उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए।
लोगों ने सातवीं बात स्थानीय वर्षा, खेती के सह-सम्बन्धों, परम्परागत और हाइब्रिड बीजों, खेती की लागत, जमीन की सेहत इत्यादि के बारे में कही। उन्होंने कहा कि परम्परागत बीजों की तुलना में आधुनिक बीजों का उत्पादन अधिक है इसलिये दूरगामी दुष्परिणाम समझते हुए भी किसान आधुनिक खेती को अपना रहा है। उनके अनुसार खेतों की प्राकृतिक उत्पादकता को बहाल करने वाली परम्परागत प्रणाली खत्म हो रही है। कीटनाशक और खरपतवार नाशक दवाओं और रासायनिक खादों के बढ़ते उपयोग के कारण अनाजों का स्वाद खत्म हो रहा है। उत्पादित अनाज बीमारियाँ पैदा कर रहे हैं। मिट्टी का गुण और चरित्र खराब हो रहा है। कुओं, नलकूपों, तालाबों और स्टॉपडैमों के समय-पूर्व सूखने के कारण जल संकट बढ़ रहा है और जल स्रोतों का योगदान घट रहा है। परम्परागत बीजों, जैविक खादों और परम्परागत खेती का स्थान हाइब्रिड बीजों, रासायनिक खादों और आधुनिक खेती ने ले लिया है।
इसके कारण किसान की बाजार पर निर्भरता बढ़ रही है। खेती की लागत बढ़ रही है, पर उस अनुपात में आय नहीं हो रही है। कुछ किसानों की सम्पन्नता बढ़ रही है पर छोटी जोत वाले किसानों का भविष्य खतरे में नजर आ रहा है। अर्थात गाँवों के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे पर दबाव बढ़ रहा है। खेती की स्वावलम्बी व्यवस्था परावलम्बी बनती जा रही है। गाँव का अधिकतम पैसा शहरों की ओर जा रहा है। किसान की जीवनशैली भले ही बदल रही है पर विभिन्न कारणों से खेती करना कठिन हो रहा है। टिकाऊ परम्परागत खेती व्यापारिक खेती में बदलती दिख रही है। कम निवेश वाली सस्ती खेती कम हो रही है। पानी की कमी के कारण ऐसे बीजों की आवश्यकता बढ़ रही है जो जलवायु बदलाव और वर्षा के अन्तरालों को सफलतापूर्वक झेलने में सक्षम हों और विपरीत परिस्थितियों में भी किसान को उत्पादन लेने का अवसर प्रदान करते हों।
चौपालों में कही बातों पर लोगों की राय बँटी हुई है। कई मंचों पर हो रही बहस भी सीधी और सच्ची नहीं रही। इसलिये ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन की सम्भावित चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में प्रतीत होता है कि भविष्य में खेती की वही प्रणाली बचेगी जो प्रकृति के करीब और मौसम के चरित्र से तालमेल बैठाकर आगे बढ़ेगी।
चौपालों का संदेश है कि कृषि क्षेत्र की समस्याओं का निरापद हल खोजा जाये। जो नकारने लायक है उसे नकारा जाये। जो सही है उसे स्वीकार किया जाये।
चौपालों में लोगों ने आठवीं बात बरसात के जंगलों से सम्बन्ध के बारे में कही। उन्होंने बताया कि घने जंगल बादलों को आकर्षित करते हैं और पानी बरसाने में उनकी भूमिका है।
वन अधिकारियों का मत है कि जंगलों के कारण बरसात होती है। अधिकांश लोग इस विचार से सहमत हैं पर उनके पास अपनी बात को सिद्ध करने के लिये कोई प्रामाणिक आधार नहीं होता। इसी तरह जो लोग उसके पक्ष में हैं उनके पास भी अपनी बात को सिद्ध करने के लिये कोई प्रामाणिक अध्ययनों का आधार नहीं होता। हमारा मानना है कि घने जंगलों में मौजूद मिट्टी की मोटी परत में जज्ब हुआ बरसाती पानी, नदियों के गैर-मानसूनी प्रवाह को मदद देता है।
चौपालों में लोगों ने नौवीं बात मौसम खासकर बरसात की भविष्यवाणी के बारे में कही। उन्होंने बताया कि उनकी आवश्यकता सही समय पर सही बरसात की है। उन्होंने यह भी बताया कि खेती का बहुत-सा काम अभी भी पुरानी कहावतों और आकाश में दिखने वाले संकेतों के आधार पर होता है।
चौपालों का संदेश है कि बरसात की भविष्यवाणियों के अनुमानों को खेती, पेयजल, जलाशयों और नदियों की आवश्यकताओं के अनुसार होना चाहिए और उनके कहावतों सम्बन्धी विश्वास को परखा जाये। आधुनिक और पुरातन के बीच समन्वय बैठाया जाये। आधुनिक और सामाजिक मान्यता प्राप्त परम्परागत विधियों के समन्वित प्रयास से भविष्यवाणियों को सटीक बनाया जाये।
इंडियन जर्नल ऑफ मीटियोरालाजी एंड जियोफिजिक्स (खंड 4, जनवरी 1953 क्रमांक 1) में छपे सम्पादकीय में उल्लेख है कि सन 1948 में भारतीय कहावतों का अध्ययन करने के लिये वी.वी. सोहनी की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई थी। इस कमेटी ने तमिल, पंजाबी, गुजराती, कन्नड़, बांग्ला, मलयालम, तेलुगु, हिन्दी, ओडिशी, मराठी और असमिया भाषाओं में कही जाने वाली 5200 से अधिक कहावतों का संकलन किया था। इन कहावतों में बृहतसंहिता में उपलब्ध 204 श्लोक सहित कुल 567 कहावतों का सम्बन्ध मौसम से था। कमेटी ने 567 कहावतों को 37 वर्गों में बाँटकर उनका सांख्यिकी अध्ययन किया। आजादी के बाद यह सम्भवतः पहला अध्ययन था। इस अध्ययन में जो कहावत जिस क्षेत्र में सर्वाधिक प्रचलन में थी, उसका चयन किया गया। तदुपरान्त निकटतम मौसम केन्द्रों से लम्बी अवधि के मौसम सम्बन्धी आँकड़े जुटाये गये और सांख्यिकी की बेतरतीब सर्वे विधि से अध्ययन किया। कमेटी की रिपोर्ट एस. बसु द्वारा उपर्युक्त जर्नल में सन 1953 में प्रकाशित हुई थी। एस. बसु का अभिमत था कि-
While it may be of academic interest to verify each one of the vast store of folk-lore, the preliminary examination reported by the committee did not lend encouragement to further efforts to prove or disprove every one of the large number of items collected.
एस बसु ने अवलोकन या अनुभव आधारित कहावतों को सांख्यिकी विधि से किये अध्ययन में खारिज किया। कृषि वैज्ञानिक भी कहावतों पर बहुत विश्वास नहीं करते। सैकड़ों सालों से पूरी दुनिया में मौसम को जानने की उत्कण्ठा रही है। यह उत्कण्ठा किसानों, नाविकों और उस वर्ग के लोगों में देखी गई जिनकी रोजी-रोटी मौसम पर निर्भर थी। लोगों ने आकाश में दिखने वाली संकेतों, वनस्पतियों, पक्षियों और जानवरों के व्यवहार का उपयोग मौसम को समझने में किया है। इंटरनेट पर कहावतों से सम्बन्धित अनेक आलेख उपलब्ध हैं। उत्तर अमेरिका, इंग्लैंड और आयरलैंड, स्कॉटलैंड, डेनमार्क, नार्वे, इटली, फ्रांस इत्यादि देशों में लोगों ने सूर्योदय और सूर्यास्त के समय आकाश के गाढ़े लाल रंग को देखकर कहावतें गढ़ी हैं। निम्न उद्धरण लाल रंग के बारे में वैज्ञानिक जानकारी देता है-
Weather systems typically move from west to east and red clouds result when the sun shines on their undersides at either sunrise or sunset. At these two times of day, the sun’s light is passing at a very low angle through a great thickness of atmosphere commonly known as The Belt of Venus. The result of which is the scattering out of most of the shorter wavelengths - the greens, blues and violets - of the visible spectrum and so sunlight is heavy at the red end of the spectrum. If the morning skies are red, it is because clear skies to the east permit the sun to light the undersides of moisture-bearing clouds coming in from the west. Conversely, in order to see red clouds in the evening, sunlight must have a clear path from the west in order to illuminate moisture-bearing clouds moving off to the east. There are many variations on this piece of lore, but they all carry the same message.
चौपालों में लोगों का कहना था कि भारतीय पद्धति में अनुभव आधारित समझ को सम्प्रेषित करने के लिये सूचना, शिक्षा तथा संचार जैसी आधुनिक पद्धतियों की आवश्यकता नहीं थी। अनुभव के सम्प्रेषण के लिये कहावतें, गीत, मुहावरे, वर्जनाएँ इत्यादि गढ़ी जाती हैं जो अपनी बात अनेक तरीकों से सम्प्रेषित करती हैं। मौसम या अनुभव या नक्षत्र आधारित कहावतों का सम्प्रेषण आज भी प्रभावी है।
यह विडम्बना ही कही जायेगी कि मौसम की भविष्यवाणियों की आधुनिक पद्धति में भारतीय विधियों के प्रति अनदेखी या उपेक्षा का भाव देखा जाता है। धीरे-धीरे कहावतों के पक्ष में वातावरण बन रहा है। सम्भव है आने वाले दिनों में उनके दिन फिरें और फिर उनका उपयोग होने लगे।
जल चौपाल, सप्रे संग्रहालय, संस्करण 2013 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
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