मध्यप्रदेश के बुन्देलखंड, बघेलखंड, मालवा तथा महाकोशल अंचलों में परम्परागत तालाबों की समृद्ध परम्परा रही है। इस परम्परा के प्रमाण सर्वत्र मिलते है। उनके निर्माण का आधार मौटे तौर पर स्थानीय जलवायु, भौगोलिक और खेती की भिन्नता है।
बुन्देलखंड अंचल
बुन्देलखंड में प्राचीन तालाबों का निर्माण कलचुरी, चन्देला और बुन्देला राजाओं ने किया था। इसके अन्तर्गत एकल तालाब, ड्रेनेज लाइन पर तालाबों की श्रृंखला और खेतों के निचले हिस्से में कच्ची और अस्थायी बन्धियाओं का निर्माण गया था। चन्देला तालाबों का आकार चन्द्राकार या अर्ध-चन्द्राकार था। पानी की लहरों का वेग कम करने के लिए विशाल तालाबों के बीच में अकसर टापू छोडा जाता था। उनके द्वारा बनवाए तालाबों को उत्तरप्रदेश के झांसी, हमीरपुर, जालौन, महोबा, चित्रकूट, ललितपुर और बांदा में और मध्यप्रदेश के टीकमगढ़, छतरपुर, दतिया और पन्ना जिलों में आसानी से देखा जा सकता है।
बुन्देलखंड की जलवायु मुख्यतः अर्ध-शुष्क तथा बरसात का औसत 75 सेन्टीमीटर से 125 सेन्टीमीटर है। बुन्देलखंड का दक्षिणी इलाका मुख्यतः चट्टानी है। इलाके की जमीन पठारी और उबड़-खाबड़ है। बुन्देलखंड में कम ऊँची पहाडियाँ, संकरी घाटियाँ और उनके बीच खुले मैदान हैं। उन मैदानों में हल्की मिट्टी मिलती है। इस कारण अनेक कठिनाईयाँ है। उन कठिनाईयों को कम करने में इन तालाबों ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था।
मध्य बुन्देलखंड में तालाबों का निर्माण ग्रेनाइट या समान गुणों वाली चट्टानो पर हुआ है। वहीं उत्तरी बुन्देलखंड में तालाबों का निर्माण कछारी मिट्टी की अपेक्षाकृत अधिक मोटी परतों पर हुआ है। यदि तालाबों की समीक्षा की जाए तो पता चलता है कि बुन्देलखंड में तालाब निर्माण करते समय स्थानीय मिट्टी और चट्टान के गुणों के साथ-साथ क्वार्टज रीफ की भूमिका को ध्यान में रखकर निर्णय लिया गया है। अनेक जगह क्वार्टज रीफ का उपयोग पाल के तौर पर हुआ है। चन्देला-बुन्देला काल में छोटी जल धारा पर तालाबों की श्रृंखला का भी निर्माण हुआ है। इसे काम में लेने से सिल्ट का नियोजन हुआ है। अधिकांश मात्रा ऊपर के तालाब में जमा हुई है। इसी व्यवस्था ने तालाबों को दीर्घजीवी बनाया है।
बुन्देलखंड में स्थानीय भूविज्ञान और भूगोल को ध्यान में रख कहीं-कहीं छोटी-छोटी नदियों की मुख्य जल धारा पर तालाबों की श्रृंखला भी बनाई जाती थी। उनका निर्माण मुख्य रुप से पहाड पर मिलने वाले छोटे-छोटे सपाट या तस्तरीनुमा क्षेत्र से प्रारंभ कर तली के निकट स्थित मैदानी इलाकों में किया था। तालाबों की श्रेणी का निर्धारण उस क्षेत्र की चट्टानों के गुणों के आधार पर तय होता था। इन तालाबों की पाल मिट्टी की और पाल के दोनों तरफ पत्थर की पिचिंग की जाती थी। कछारी क्षेत्र को छोड़कर बाकी बुन्देलखंड अंचल में पाल का दायित्व मुख्यतः क्वार्टज रीफ ने निभाया है।
बघेलखंड अंचल
बघेलखंड अंचल का भूगोल बुन्देलखंड के भूगोल से काफी भिन्न है। इसलिए बघेलखंड अंचल में मिट्टी की पाल का निर्माण कर बरसाती पानी रोका। यहाँ के निस्तारी तालाबों को मुख्यतः खोदकर बनाया है। कहीं कहीं उनका निर्माण नदी की धारा रोक कर किया तो कहीं हवेली व्यवस्था को अपनाया है। हवेली व्यवस्था के अंतर्गत खेतों में जो जल संचय किया गया है उसका उद्देश्य सुरक्षात्मक सिंचाई है। उस व्यवस्था ने बघेलखंड अंचल में खरीफ के मौसम में मुख्यतः धान को और रबी सीजन में गेहूँ या चने की खेती को सम्बल प्रदान किया है।
बघेलखंड अंचल की हवेली व्यवस्था बहुत प्राचीन व्यवस्था है। इसके अन्तर्गत कैमूर पर्वत माला की तलहटी में विभिन्न साईज के हवेली बन्धानों का निर्माण हुआ है। हवेली बन्धानों द्वारा धान की फसल को सुरक्षात्मक सिंचाई तथा रबी को दो पानी तक उपलब्ध कराया जा सकता है। इन बांधों में कैचमेंट ईल्ड का लगभग 5 से 15 प्रतिशत पानी रोका जाता है। ये बांध नदी-नाले की धारा पर या अन्य उपयुक्त स्थानों पर बनाए गए हैं। सामान्यतः इन पानी को बांधों की श्रृंखला बनाई जाती थी। नीचे के बांध क्रमशः छोटे होते जाते हैं। प्रत्येक बांध में जल संचय के लिए पाल डाली जाती थी। पानी के भराव के लिए वह स्थान चुना जाता है जहाँ पानी की गहराई सबसे अधिक होती है। बांध से पानी की निकासी के लिए सामान्यतः तीन स्तरीय व्यवस्था बनाई जाती है। पानी जमा करने के लिए निकासी व्यवस्था के हर स्तर पर पत्थर का पटिया लगाया जाता था। इस व्यवस्था के कारण अलग अलग स्तर तक पानी भर जाता था। पटिया हटाकर पानी की निकासी संभव होती थी। पानी की निकासी गुरुत्व बल के कारण होती है। अर्थात पानी के परिवहन पर कोई राशि खर्च नही होती थी। जहाँ तक हवेली बांध की गहराई का प्रश्न है तो वे सामान्यतः गहरे होते हैं। रीवा जिले का कर्चुलियान ब्लाॅक का दलपतसागर लगभग आठ मीटर गहरा है। उसका जल भराव क्षेत्र लगभग 31 हैक्टर और कैचमेंट 251 हैक्टर है। यह तालाब लगभग 400 साल पुराना है। इसके तीन तरफ तालाब हैं। इस तालाब का भराव रीचार्ज पद्धति से, आसपास के तालाबों से, होता है।
मालवा अंचल
मालवा अंचल में विकसित जल परम्परा के प्रमाण विन्ध्याचल पर्वतमाला के अन्तिम छोर पर बसे माण्डु के पठार में दिखाई देते हैं। कहते हैं माण्डु में 40 तालाब थे। इसके अलावा, धार नगर में तालाबों की श्रृंखला मौजूद है। मालवा अंचल के तालाबों के निर्माण का सिलसिला परमार काल (सन् 800 से सन् 1300) से प्रारंभ हुआ था। परमार राजाओं खासकर राजा भोज तथा राजा मुंज ने अपने शासन काल में अनेक तालाबों का निर्माण कराया था। धार नगर में पुराने साढ़े बारह तालाबों की श्रृंखला है। उनमें मुंज तालाब और देवी तालाब आज भी देखे जा सकते हैं। सभी तालाब मुख्यतः काले पत्थर अर्थात बेसाल्ट पर स्थित हैं। धार के अलावा अन्य इलाकों में भी उनके साक्ष्य पाए जाते हैं। मालवा के अधिकांश तालाब काले पत्थर अर्थात बेसाल्ट पर बनाए गए हैं। कुछ जगह तालाब भरने में भूजल का उपयोग हुआ है।
महाकोशल अंचल
महाकोशल अंचल के अधिकांश परम्परागत तालाबों का निर्माण गोंडों ने कराया था। उन्होंने जबलपुर के गढ़ा इलाके में एकल और श्रृंखलाबद्ध तालाबों का भी निर्माण किया था। कछारी तालाबों की पाल मिट्टी की है। पहाड पर बने तालाबों के वेस्टवियर का निर्माण कहीं कहीं चट्टान काटकर किया गया है। उल्लेखनीय है कि पहाड पर बने श्रृंखलाबद्ध तालाबों का पानी, ग्रेनाइट के जोड़ों तथा सन्धिओं से जमीन में रिसकर कछार को भूजल की सौगात देता है। गढ़ा क्षेत्र में बने श्रृंखलाबद्ध तालाब स्टोरेज और रीचार्ज श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। प्राचीन काल में तालाबों की साइज सामान्यतः छोटी और गहराई अधिक हुआ करती थी। कहीं कहीं अपवाद स्वरुप मिट्टी की पाल वाले विशाल तालाबों का भी निर्माण हुआ है।
गोंड़ों ने तालाबों के निर्माण में पानी के विकेन्द्रीकृत संचय के सिद्धान्त का पालन किया था। यह सिद्धान्त, नदी की मुख्य धारा पर बाँध बनाने के स्थान पर, कछार में छोटे-छोटे कैचमेंट वाले अनेक गहरे तालाबों को बनाने पर जोर देता है। ऐसे तालाबों का क्षेत्रफल सामान्यतः छोटा होता है। कैचमेंट ईल्ड का बहुत थोड़ा हिस्सा उनमें जमा होता है। इस सिद्धान्त का पालन करने के कारण जल संचय के लिए अनेक तालाबों का निर्माण करना होता है। तालाबों के जगह-जगह बनाए जाने के कारण हर जगह पानी की उपलब्धता सुनिश्चित होती है। भूजल स्तर की गिरावट पर लगाम लगती है। मिट्टी में नमी बनी रहती है। इस माॅडल को अपनाने से कछार में अधिक पानी जमा होता है। कैचमेंट ईल्ड के विकेन्द्रीकरण के कारण तालाबों में बहुत कम मात्रा में गाद तथा गंदगी जमा होती है। पानी स्वच्छ बना रहता है। बायोडायवर्सिटी समृद्ध रहती है। उनमें जलीय जीवन फलता-फूलता है। यह माडल पानी की इष्टतम उपलब्धता का बीमा है।
तालाबों के जल विज्ञान की सीरीज में ये भी पढ़े - मध्यप्रदेश के परम्परागत तालाबों का जल विज्ञान (भाग-1)