1.0. पृष्ठभूमि
इस अध्याय में गोंड कालीन तालाबों के स्थल चयन में भारतीय जल विज्ञान की भूमिका और उनके योगदान का संक्षिप्त विवरण दिया गया है। इस विवरण में क्षेत्र परिचय, तालाब निर्माण की गोंड कालीन समझ, जबलपुर नगर में भूजल विज्ञान के आधार पर तालाबों का वितरण और प्राचीन तालाबों की भूमिका की बहाली की सम्भावनाओं को सम्मिलित किया गया है। यह विवरण दर्शाता है कि वर्तमान युग में भी भारतीय जल विज्ञान की प्रासंगिकता है। वह विज्ञान धरती की सामर्थ्य के साथ तालमेल बिठाते और सैकड़ों सालों के अनुभवों पर आधारित एवं समय सिद्ध हैं। इस अध्याय में दिया दिया विवरण, प्राचीन जलाशय विज्ञान को समझने के लिये दृष्टिबोध प्रदान करता है। यह दृष्टिबोध गोंड कालीन तालाबों के दीर्घ जीवन का रहस्य, स्थल चयन तथा बारहमासी चरित्र का वैज्ञानिक आधार, निर्माण कर्ताओं के सामाजिक दायित्व और उन्हें दीर्घजीवी बनाने वाले कुशल शिल्पियों के तकनीकी कौशल का साक्ष्य है।
गोंडों का अभ्युदय, बुन्देलों के बाद हुआ था। सतपुड़ा की पहाड़ियों में बसा, गढ़ा का राज्य, सबसे अधिक शक्तिशाली गोंड राज्य था। इस राज्य की राजधानी गढ़ा थी। गोंड साम्राज्य के निवासियों का मुख्य व्यवसाय खेती था। यह क्षेत्र बुन्देलखण्ड से लगा है, इस कारण गोंड कालीन तालाबों और खेती की पद्धतियों पर बुन्देलाकालीन समझ का प्रभाव दिखाई देता है। यह शाशवत ज्ञान और लम्बे अनुभव की निरन्तरता का सहज प्रवाह है। यह सहज प्रभाव, संरचनाओं की विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में उपयोगिता के भी कारण है। बूंदों की विरासतों की यही उपयोगिता समाज की धरोहर है। यह धरोहर उनकी सटीक समझदारी और अनुभव का परिचायक है।
1.1 क्षेत्र परिचय
विदित है कि गोंड राजाओं में सबसे अधिक प्रतापी राजा संग्रामशाह था। संग्रामशाह के राज्य की सीमायें पूर्व में छत्तीसगढ़ के विलासपुर के लाफागढ़, पश्चिम में मकड़ाई, उत्तर में पन्ना के दक्षिणी भूभाग और दक्षिण में महाराष्ट्र राज्य के भंडारा तक थीं। उसने सन 1510 से सन 1541 तक शासन किया था। अकबर के दरबारी अबुलफजल के अनुसार, संग्रामशाह की पुत्रवधु रानी दुर्गावती का राज्य विलासपुर के रतनपुर से रायसेन तक और रीवा से सतपुड़ा के दक्षिण (दक्षिणापथ) तक था। उसके राज्य की पूर्व-पश्चिम लम्बाई लगभग 480 किलोमीटर और उत्तर-दक्षिण चौड़ाई लगभग 256 किलोमीटर थी।
गोंड राजाओं के समय में निर्मित तालाबों की सर्वाधिक सघनता गढ़ा (जबलपुर) के आस-पास है। इस सघनता के कारण, इस अध्याय में गोंडों के साम्राज्य के सांकेतिक परिचय के बाद जबलपुर के आस-पास के क्षेत्र का विवरण दिया जा रहा है। इस इलाके का मुख्य नगर जबलपुर है। यह नगर मुम्बई-हावड़ा मुख्य रेल मार्ग पर स्थित है। सड़क मार्ग से, मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से इसकी दूरी 320 किलोमीटर है। इस नगर का क्षेत्रफल लगभग 400 वर्ग किलोमीटर और समुद्र की सतह से औसत ऊँचाई 390 मीटर है। जबलपुर के दक्षिण में मंडला और दक्षिण-पूर्व में डिन्डोरी जिला स्थित है। इन दोनों जिलों की पूर्वी सीमा छत्तीसगढ़ राज्य से मिलती हैं। भोपाल से सड़क मार्ग से मंडला की दूरी 466 किलोमीटर और डिन्डोरी की दूरी 470 किलोमीटर है। दोनों जिले आदिवासी बहुल जिले हैं। समूचा क्षेत्र लगभग पहाड़ी है।
तालाबों के निर्माण के कारणों (धरती से सह-सम्बन्ध) को समझने के पहले इस क्षेत्र के भूविज्ञान की जानकारी आवश्यक है। जबलपुर नगर क्षेत्र को भूविज्ञान का म्यूजियम माना जाता है क्योंकि इस छोटे से इलाके में विभिन्न गुणधर्मों और उत्पत्ति वाली चट्टानें मिलती हैं। इनमें कछारी मिट्टी, बेसाल्ट, लमेटा संस्तर, बलुआपत्थर, क्ले, ग्रेनाइट, नाइस, शिस्ट, और संगमरमर प्रमुख हैं। जबलपुर के दक्षिण और दक्षिण-पूर्व में स्थित मंडला और डिन्डोरी जिलों के अधिकांश भाग में बेसाल्ट और उससे निर्मित मिट्टियाँ पाई जाती हैं। इन चट्टानों और उनसे बनी मिट्टियों ने तालाबों के निर्माण के उद्देश्यों को पूरा करने में बहुमूल्य योगदान दिया है।
1.2. जल संचय की गोंड कालीन परम्परा
जल संचय की गोंड कालीन परम्परा वैज्ञानिक और समयसिद्ध है। यह परम्परा आजीविका और जल स्वावलम्बन को आधार देती प्रतीत होती है। उस जल परम्परा पर चन्देल और बुन्देला परम्पराओं का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। सम्भव है यह प्रभाव, चन्देल और बुन्देला राजाओं के शासन काल में बने तालाबों और बावड़ियों के वैज्ञानिक पक्ष, सामाजिक मान्यता और निरापद खेती के कारण हो। गोंड कालीन तालाबों बावड़ियों इत्यादि को देखकर अनुमान लगता है कि गोंडों के सत्ता में आने तक तालाबों, बावड़ियों की तकनीक पूरी तरह विकसित हो चुकी थी। इस विकास के कारण, स्थल चयन विशेषज्ञ, जमीन खोदने एवं पत्थर काटने वाले औजार एवं उनका उपयोग करने वाले शिल्पकारों तथा मजदूरों की उपलब्धता सहज रही होगी। इन परिस्थितियों के कारण गोंडों ने बुन्देलखण्ड में प्रचलित जलाशय और बावड़ियों के निर्माण की परिपाटी को आगे बढ़ाया। बसाहट के निकट तालाबों का और व्यापारिक मार्गों पर बावड़ियों का निर्माण कराया। माना जाता है कि तालाब निर्माण में सबसे अधिक रुचि सग्रामशाह और हृदयशाह ने ली थी। हृदयशाह की रानी ने भी अनेक तालाबों का निर्माण कराया था। इनके अतिरिक्त रानी दुर्गावती एवं दलपतिशाह, वीरनारायण, छत्रशाह, नरेन्द्रशाह और निजामशाह ने भी अनेक तालाबों का निर्माण कराया था।
वंशावली और शकावलियों के अनुसार गोंडों द्वारा सम्भवतः 2280 तालाब बनवाए गये थे। गोंडों की राजधानी गढ़ा (वर्तमान में जबलपुर शहर का उपनगर) में थी। यह इलाका नर्मदा नदी से थोड़ा दूर, पहाड़ी एवं चट्टानी है। इलाके के पहाड़ी होने के कारण सम्भव है बसाहटों में गम्भीर जल संकट पनपता हो इसलिये गढ़ा और उसके आस-पास के लगभग सभी ग्रामों में नहर विहीन तालाब बनवाए गये। ये तालाब ग्रामों की बसाहट के निकट बनवाए गये। लगता है, ये नहर विहीन तालाब, लोगों की निस्तार जरूरतों की पूर्ति करने के लिये बनवाए गये थे। जबलपुर क्षेत्र के पश्चिम में नर्मदा कछार के ग्रामों में बसाहट के पास और बसाहटों से दूर तालाब पाये जाते हैं। इन तालाबों को क्षेत्रीय टोपोशट में आसानी से देखा जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में गोसांई सम्प्रदाय के लोगों और स्थानीय सम्पन्न लोगों ने भी बड़ी संख्या में तालाबों का निर्माण कराया था। गढ़ा के पश्चिम में, नर्मदा नदी का कम ढाल वाला कछारी इलाका है। इस इलाके में भी गोंडों ने बड़ी संख्या में मुख्यतः बारहमासी तालाबों का निर्माण कराया था। जबलपुर के पश्चिम की लगभग हर बसाहट के आस-पास निस्तारी तालाब हैं।
सागर और दमोह इलाके में भी गोंडों की सत्ता रही है। उन्होंने सागर जिले में विजय सागर (सिंगौरगढ़), मालथान (मालथौन तालाब), बलेह तालाब (बलेह ग्राम), मदन सागर (शाहगढ़) और तला (कुन्डलपुर) बनवाया था। दमोह जिले में कनौरा तालाब (कनौरा ग्राम), बरात तालाब (बरात ग्राम), फुटैरा तालाब और स्नेह ग्राम में तीन तालाब बनवाए थे। इन तालाबों के अतिरिक्त इन दोनों जिलों में अनेक छोटे बड़े तालाब हैं। इन इलाकों में कुछ तालाब कलचुरि राजाओं ने भी बनवाए थे। मराठा और अंग्रेजों के शासनकाल में तालाब निर्माण का सिलसिला घट गया था पर उनके शासनकाल में भी कुछ तालाब बनवाए गये। सागर का तालाब किसी बंजारे ने बनवाया था। सभी तालाबों का निर्माण भारतीय जल विज्ञान के अनुसार हुआ था। अंग्रेजों ने जब इस क्षेत्र पर अधिकार कायम किया तो उन्होंने पाश्चात्य जल विज्ञान के आधार पर तालाबों तथा जलाशयों का निर्माण कराया है। अंग्रेजों के कब्जे के बाद पुरातन विज्ञान आधारित तालाबों और जल प्रणालियों की अनदेखी और पतन का सिलसिला शुरू हो गया।
अनुपम मिश्र ने जबलपुर क्षेत्र के आस-पास चार विशाल तालाबों का जिक्र किया है। इन चारों विशाल तालाब का निर्माण चार भाइयों ने कराया था। अनुपम मिश्र लिखते हैं कि बुढ़ागर में बूढ़ासागर, मझगंवा में सरमन सागर, कुआंग्राम में कौंराई सागर और कुंडम में कुंडम सागर (वर्तमान नाम कुंडेश्वर तालाब) बना है। आज भी ये चारों पुराने तालाब अस्तित्व में हैं। अनुपम मिश्र कहते हैं कि तालाब बनाने के लिये यों तो दसों दिशाएं खुली हैं फिर भी जगह का चुनाव करते समय कई बातों का ध्यान रखा जाता था। गोचर की तरफ है यह जगह। ढाल है, निचला क्षेत्र है। जहाँ से पानी आएगा वहाँ की जमीन मुरम वाली है।
तालाब निर्माण की सनातन परम्परा में महूर्त देखकर पूरे विधि विधान से काम किया जाता था इसीलिये जबलपुर से प्रकाशित तीज-त्योहार दर्शाने वाले कलेंडरों में तालाब और कुआँ निर्माण की शुभ तिथियों और मूहूर्तों का उल्लेख मिलता है। अनेक लोग कलेन्डरों में उल्लेखित तिथियों और मूहूर्तों पर विश्वास करते हैं। आवश्यक पूजा-पाठ के बाद ही कुओं एवं तालाबों के निर्माण का कार्य आरम्भ करते हैं। सरकारी संरचनाओं के शिलान्यास में जन प्रतिनिधियों द्वारा अमूमन पूजा-अर्चना की जाती है। नारियल फोड़ा जाता है और प्रसाद का वितरण किया जाता है। यह कर्मकांड नहीं है, पानी के प्रति आस्था और विश्वास का प्रतीक है।
अनुपम मिश्र के अनुसार गोंड राजा न सिर्फ खुद तालाब बनवाते थे, वरन तालाब बनवाने वाले लोगों का सम्मान करते थे। गोंड राजाओं ने उत्तर भारत से तालाब बनाने वाले कोहली समाज के अनुभवी लोगों को, महाराष्ट्र के भंडारा जिले में लाकर बसाया था इसीलिये भंडारा जिले में आज भी बहुत अच्छे तालाब मिलते हैं। अनुपम मिश्र कहते हैं कि गोंड राजाओं के राज्य की सीमाओं में जो भी व्यक्ति तालाब बनाता या बनवाता था, उसे तालाब के नीचे की जमीन का लगान नहीं देना पड़ता था। तालाबों का नामकरण भी बनवाने वाले के नाम पर किया जाता था। जबलपुर नगर सीमा में स्थित अधारताल, चेरीताल और ठाकुर ताल इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। चेरी ताल का निर्माण रानी दुर्गावती की दासी (चेरी) ने और अधारताल एवं ठाकुरताल का निर्माण उनके अमात्य अधारसिंह एवं महेश ठाकुर ने कराया था। ये सभी तालाब लगभग 400 साल पहले बनाये गये थे। चेरीताल और ठाकुरताल का अस्तित्व समाप्त हो गया है। अधारताल अभी जिंदा है। इस तालाब में गर्मियों में भी पानी रहता है।
चित्र अट्ठाईस में रानी दुर्गावती के अमात्य अधारसिंह द्वारा बनवाया तालाब दर्शाया गया है। यह तालाब जबलपुर नगर के पूर्व में जबलपुर-कटनी राजमार्ग पर जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के सामने, अधारताल उपनगर में स्थित है। वर्तमान में, इस तालाब का डूब क्षेत्र लगभग 10.18 हेक्टेयर और गहराई लगभग 5 मीटर है। इस तालाब की पाल पर प्राचीन पंचमठा मंदिर स्थित है। इस मंदिर का संरक्षण आर्कियोलॉजी विभाग द्वारा किया जाता है। इस तालाब का उपयोग मछली उत्पादन और कपड़े धोने में किया जाता है। पिछले कुछ सालों में इसके कैचमेंट का भूमि उपयोग बदल गया है। उसके चारों ओर बसाहटें बस गई हैं। बसाहटों का ठोस अपशिष्ट, गंदगी और गंदा पानी इस तालाब में जमा हो रहा है। वर्तमान में, इस तालाब की प्रमुख समस्या गाद का जमाव, सीवर के पानी द्वारा प्रदूषण, तालाब में ठोस अपशिष्ट निपटान और अवांछित वानस्पतिक उत्पादन है। उपर्युक्त कारणों से उसके जल विज्ञान की भूमिका घट गई है।
नर्मदा नदी का दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी भाग, जिसमें मुख्यतः वर्तमान मंडला एवं डिन्डोरी जिले आते हैं, उथली काली मिट्टी का असमतल चट्टानी इलाका है। इस इलाके में गोंडों ने वन भूमि के निकट तराई और निचली जमीन में अनेक छोटे बड़े तालाब बनवाए थे। सम्भव है बंजारों ने भी इस इलाके में कुछ तालाबों का निर्माण कराया हो। बंजारों द्वारा बनवाए तालाबों की पहचान लुप्त हो गई है। विलुप्त योगदान और स्थानीय जल विज्ञान की हकीकत को जानने के लिये इतिहासकारों और जल विज्ञानियों द्वारा प्रयास एवं अध्ययन किये जाने की आवश्यकता है। यह अध्ययन गोंड कालीन जल संरचनाओं पर वक्त की जमी धुन्ध को साफ करेगा। कुछ नये और नवाचारी विकल्प पेश करेगा और मौजूदा कार्य-संस्कृति के दायरों को विस्तृत कर उन्हें समाज से जोड़ेगा।
पर्यावरण संरक्षण एवं आदिवासी विकास केन्द्र, जबलपुर के पी. एस. राहुल, जो मंडला और डिंडोरी जिलों में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और वाटरशेड कार्यक्रमों से जुड़े हैं, बताते हैं कि गोंडों ने नर्मदा के दक्षिणी भूभाग में बसाहटों के निकट तलैया (छोटे तालाब) और जंगलों की तस्तरीनुमा निचली जमीन पर सामान्यतः 4.05 हेक्टेयर से बड़े तालाबों का निर्माण कराया था। इन सभी तालाबों की पाल मिट्टी की है। इसके अलावा गोंडों ने इस क्षेत्र के ऊँचे पठारी भागों में कहीं-कहीं चारों ओर से घिरी लगभग समतल जमीन पर बंधियानुमा तालाब बनवाए थे। उल्लेखनीय है कि पठारों पर बने इन तालाबों में केवल उनके डूब क्षेत्र में बरसा पानी और उनके चारों ओर से रिसा या ढाल से आया पानी जमा होता था। लगता है, इन तालाबों के निर्माण का उद्देश्य धरती में नमी बढ़ाना और जीव जन्तुओं को पीने का पानी उपलब्ध कराना था। नर्मदा नदी के उत्तर और दक्षिण में बने पुराने तालाबों से नहर निकालने के प्रमाण लगभग अनुपलब्ध हैं इसलिये माना जा सकता है कि वे क्षेत्रीय जलचक्र और धरती में नमी को संरक्षित रख खेती को सम्बल प्रदान करते होंगे।
1.3. जबलपुर नगर के पुराने तालाब एवं बावड़ियाँ
अंग्रेजों द्वारा लिखे जबलपुर जिले के डिस्ट्रिक्ट गजेटियर में नगर के तालाबों का उल्लेख नहीं मिलता। महेश चौबे और मदन मोहन उपाध्याय ने जबलपुर नगर के पुराने 52 तालाबों की जानकारी दी है। वर्तमान में अधिकांश तालाबों का अस्तित्व समाप्त हो गया है। उनके डूब क्षेत्र पर खेल मैदान, बाजार, माल तथा आवासीय कॉलोनियाँ बन गई हैं। जबलपुर क्षेत्र के पुराने 52 तालाबों के नाम तथा मौजूदा स्थिति, निम्नानुसार है-
क्रमांक तालाब का नाम कहाँ स्थित है |
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01 |
हनुमान ताल |
हनुमान ताल मोहल्ले में स्थित है। |
02 |
फूटाताल |
फूटाताल मोहल्ले में स्थित है। सूख गया। |
03 |
भंवरताल |
बस स्टैंड के पास। अब यहाँ तालाब पार्क है। |
04 |
महानद्दा |
अब कचरे के ढ़ेर और दलदल में बदल गया है। |
05 |
रानी ताल |
शहीद स्मारक के पास। आवासीय कॉलोनी। |
06 |
संग्राम सागर |
गढ़ा क्षेत्र में, बाजना मठ के पास। |
07 |
चेरी ताल |
गढ़ा क्षेत्र के निकट, ताल समाप्त। |
08 |
गुलौआ ताल |
गढ़ा क्षेत्र में, गौतमजी की मढ़िया के पास। |
09 |
सूपा ताल |
मेडिकल कॉलेज मार्ग पर बजरंग मठ से लगा हुआ। |
10 |
गंगा सागर |
गढ़ा क्षेत्र में। |
11 |
कोलाताल |
देवताल के पीछे स्थित है। |
12 |
देवताल |
गढ़ा क्षेत्र में स्थित है। |
13 |
ठाकुर ताल |
ताल का निर्माण अमात्य महेश ठाकुर ने कराया था। |
14 |
तिरहुतिया हाल |
स्थिति अज्ञात। |
15 |
गुड़हाताल |
गंगासागर के पास, गढ़ा क्षेत्र। |
16 |
सुरजला ताल |
शाहीनाके से गढ़ा मार्ग के अंतिम छोर पर स्थित। |
17 |
अवस्थी ताल |
ताल की स्थिति अज्ञात। |
18 |
भानतलैया |
बड़ी खेरमाई मंदिर के निकट स्थित है। |
19 |
बैनीसिंह की तलैया |
मिलोनीगंज के उत्तर में थी। अब अस्तित्व में नहीं। |
20 |
श्रीनाथ की तलैया |
अंजुमन स्कूल के पीछे थी। अब अस्तित्व में नहीं। |
21 |
जूड़ी तलैया |
स्थिति अज्ञात। |
22 |
अलफखां की तलैया |
तिलक भूमि तलैया के निकट। अब अस्तित्व में नहीं। |
23 |
सेवाराम की तलैया |
स्थिति अज्ञात। |
24 |
कदम तलैया |
गुरन्दी बाजार के पास। |
25 |
मुड़चरहाई |
गोलबाजार के पीछे। अब अस्तित्व में नहीं। |
26 |
माढ़ोताल |
स्थिति मनमोहन नगर तथा आई.टी.आई. के पास। |
27 |
अधारताल |
कृषि विश्वविद्यालय के सामने। |
28 |
साईं तलैया |
गढ़ा (रेलवे केबिन 2 के पास) |
29 |
नौआ तलैया |
स्थिति गौतमजी की मढ़िया के पास। गढ़ा। |
30 |
सूरज तलैया |
त्रिपुरी चौक के बाजू में। |
31 |
फूलहारी तलैया |
शाहीनाके के आगे। गढ़ा रोड। |
32 |
जिंदल तलैया |
पुराने गढ़ा थाने से श्रीकृष्ण मंदिर मार्ग पर स्थित। |
33 |
मछरहाई |
शाहीनाके के पास। कन्याशाला के बाजू में। |
34 |
बघा |
हितकारणी स्कूल गढ़ा के पीछे। |
35 |
बसा |
रेलवे की भूलन चौकी के पास गढ़ा। |
36 |
बाल सागर |
मेडीकल कॉलेज क्षेत्र, अस्पताल के पीछे। |
37 |
बल सागर |
तेवर ग्राम में स्थित। |
38 |
हिनौता ताल |
भेड़ाघाट मार्ग पर आमहिनौता ग्राम के पास। |
39 |
सगड़ा ताल |
मेडीकल कॉलेज के थोड़ा आगे। |
40 |
चौकीताल |
लम्हेटा घाट मार्ग पर सिथत। |
41 |
हाथी ताल |
इस पर हाथी ताल कॉलोनी बन गई। |
42 |
सूखा ताल |
जबलपुर-पाटन मार्ग पर सूखाग्राम में स्थित। |
43 |
महाराज सागर |
देवताल के निकट। |
44 |
कूडन ताल |
भेड़ाघाट मार्ग पर कूडन ग्राम के निकट। |
45 |
अमखेरा ताल |
अधारताल के पीछे अमखेरा ग्राम में स्थित। |
46 |
बाबा ताल |
हाथीताल श्मशान घाट के निकट। |
47 |
ककरैया तलैया |
महानद्दा से पहले छोटी लाइन से लगी। |
48 |
खम्बाताल |
सदर क्षेत्र में केन्टोनमेंट अस्पताल के निकट। |
49 |
गनेश ताल |
गणेश मंदिर के पास, एम. पी. इ. बी. क्षेत्र। |
50 |
कटरा ताल |
सूख गया। वर्तमान नाम शंकर तलैया। |
51 |
उखरी ताल |
विजयनगर के पास स्थित था। |
52 |
मढ़ा ताल |
नगर के मध्य में स्थित था। |
इतिहास की किताबों या जबलपुर के गजेटियर में उपर्युक्त तालाबों के निर्माण में भारतीय जलविज्ञान की भूमिका, निर्माण का उद्देश्य और उनके योगदान के बारे में विवरण अनुपलब्ध है। इन विवरणों में जल उपयोग, जल प्रबन्ध, जल प्रबन्ध पर वर्ण व्यवस्था/राजतंत्र का प्रभाव और उनके आजीविका को सहयोग देने वाले आर्थिक पक्ष को सम्मिलित नहीं किया गया है। यही वक्तव्य महेश चौबे एवं मदन मोहन उपाध्याय की किताब पर भी लागू है।
गोंडों ने अपने शासन काल में तालाबों के अतिरिक्त बावड़ियाँ और कुएँ भी बनवाए थे। गोंड काल में बनी अधिकांश बावड़ियाँ, उत्तर से दक्षिण की ओर जाने वाली ग्रेेण्ड डेक्कन रेाड के दोनों ओर स्थित पमुख नगरों, व्यापारिक केन्द्रों, धार्मिक स्थानों एवं व्यस्त सड़क मार्गों के किनारे बनवाई गई थीं। उनके शासनकाल में जबलपुर नगर में अनेक बावड़ियों का निर्माण हुआ था। इन बावड़ियों का उल्लेख जी.के. अग्निहोत्री ने किया है। अग्निहोत्री के आलेख में बावड़ियों के स्थल चयन, जल विज्ञान या जल प्राप्ति में स्थानीय चट्टानों तथा भूगोल के योगदान का विवरण अनुपलब्ध है। अग्निहोत्री के अनुसार जबलपुर की प्रमुख बावड़ियाँ निम्नानुसार हैं-
जबलपुर नगर के गोपाल बाग में एक पुरानी बावड़ी है। यह बावड़ी उपरेनगंज-उखरी नाले के बाजू में स्थित है। इस बावड़ी का निर्माण काल ज्ञात नहीं है। वर्तमान में यह बावड़ी अस्तित्व के लिये संघर्षरत है और उसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। जबलपुर के ही रानीताल वार्ड के पास, उजर-पुरवा में 16-17वीं सदी में बनी, गोंड कालीन, पाँच मंजिला संरचना मौजूद है। जबलपुर के ब्लूम चौक के पास चोर-बावड़ी थी। यह बावड़ी मुख्य बस-स्टैंड के पास स्थित थी। यह बावड़ी विलुप्त हो चुकी है। महर्षि विद्या मंदिर, गोरखपुर के बसोड़ मोहल्ले में 18-19वीं सदी का और शाही नाके के मोड़ के पास 17-18वीं सदी का गोंड कालीन, अष्टकोणीय कुआँ मौजूद है। बादशाह हलवाई मंदिर के पास और शारदा मंदिर रोड पर मदन महल की पहाड़ियों में 16-17वीं सदी की, गोंड कालीन और बादशाह हलवाई मंदिर के पास पुरानी अनुपयोगी किन्तु जबलपुर नगर निगम द्वारा संरक्षित बावड़ियाँ मौजूद हैं। इसी तरह, घमापुर के शीतला माई वार्ड में दुर्गा मंदिर के पास 18-19वीं सदी की गोंड कालीन बावड़ी है। जबलपुर के पास स्थित सगरा ग्राम में असंरक्षित बावड़ी है। इस बावड़ी में चारों ओर से नीचे जाने के लिये 12 सीढ़ियां हैं जिनमें तीन कोण वाले पत्थरों का उपयोग किया गया है। यह बावड़ी नीचे की ओर संकरी है। इसका निर्माण 17-18वीं सदी का माना जाता है। इसके अलावा पाली पाथर (बजरिया) में पुराना लाल कुआँ एवं ग्वारीघाट की पुरानी बस्ती में एक परित्यक्त बावड़ी है। उल्लेख है कि जबलपुर के पास स्थित तेवर ग्राम में 13-14वीं सदी की कलचुरी कालीन बावड़ी है जो स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। मोटे तौर पर लगभग सभी बावड़ियाँ बदहाल और उपेक्षित हैं और अलग अलग भूवैज्ञानिक परिवेशों में बनी हैं।
1.4. तालाब निर्माण की गोंड कालीन समझ
गोंडों के उत्कर्ष काल में उनकी राजधानी गढ़ा जो वर्तमान में जबलपुर शहर का उपनगरीय क्षेत्र है, में थी। जबलपुर शहर में गोंडों द्वारा बनवाए तालाब प्रचुर संख्या में मिलते हैं इसलिये इस पुस्तक में तालाब निर्माण की गोंड कालीन समझ का दायरा जबलपुर क्षेत्र तक सीमित रखा गया है। लेखक का मानना है कि किसी भी कालखंड में बनी जल संरचनाओं की मूल भूमिका को समझने के लिये उस कालखंड के बहुसंख्य समाज की पेयजल, खेती और निस्तार की आवश्यकताओं को समझना आवश्यक होता है। यह आवश्यकता ही क्षेत्र विशेष में जल संरचनाओं के विकल्प चयन और उनके निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर, शासकों को राजधर्म और सम्पन्न लोगों को सामाजिक दायित्व का पालन करने हेतु प्रेरित करती हैं। बहुसंख्य समाज की आवश्यकताओं को समझ कर भले ही जल संरचनाओं के निर्माण के कारणों को समझा जा सके लेकिन उनके निर्माण के पीछे का विज्ञान, उस काल खंड में प्रयुक्त प्रचलित विज्ञान ही होता है। इस क्रम में उल्लेख है कि गोंड काल की संरचनाओं पर निकटवर्ती बुन्देलखण्ड का प्रभाव था। चूँकि बुन्देलखण्ड की जल संरचनाओं के निर्माण का विज्ञान भारतीय जल विज्ञान था इसलिये कहा जा सकता है कि गोंड काल के तालाब इत्यादि के निर्माण में भी भारतीय जल विज्ञान का उपयोग हुआ है।
जबलपुर और उसका निकटवर्ती क्षेत्र नर्मदा नदी के कछार में आता है जो इस इलाके की मुख्य नदी है। इस सम्पूर्ण क्षेत्र में नर्मदा की प्रतिष्ठा धार्मिक नदी के रूप में है। नर्मदा की प्रमुख सहायक नदियाँ बंजर, गौर, हिरन और परियट हैं। इन नदियों के अलावा यहाँ छोटी-छोटी पहाड़ी नदियों की भरमार है। गोंडों के शासन काल में इस क्षेत्र में काफी घने जंगल रहे होंगे और उनके प्रभाव से सम्भवतः अधिकांश नदी नाले बारहमासी होंगे। इस क्षेत्र की नदियों में पर्यावरणी प्रवाह रहा होगा, वे अपनी प्राकृतिक भूमिका का निर्वाह करती होंगी और क्षेत्र में पाई जाने वाली मिट्टी की परत भी अपेक्षाकृत अधिक उपजाऊ और मोटी रही होगी। आज की तुलना में भूमि कटाव बहुत कम होगा। बरसात, लगभग आज जैसी ही होती होगी पर आबादी की कमी के कारण, अंचल पर खेती का दबाव बहुत कम होगा।
गौरतलब है कि गोंड शासित क्षेत्र में मुख्यतः काली मिट्टी मिलती है। अपवाद स्वरूप कहीं-कहीं दूसरे प्रकार की मिट्टियाँ भी पाई जाती हैं। जबलपुर का पश्चिमी भाग जो मुख्यतः गहरी काली मिट्टी वाला मैदानी इलाका है, को छोड़कर मंडला और डिंडोरी सहित अधिकांश क्षेत्रों में उथली काली मिट्टी मिलती है। उथली काली मिट्टी वाले क्षेत्र की जमीन मुख्यतः ऊँची-नीची है। मंडला और डिन्डोरी के अधिकांश क्षेत्रों में काली मिट्टी की परत के नीचे कोपरा (कच्चा पत्थर) या मुरम मिलती है। कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि अच्छा उत्पादन लेने के लिये उथली जमीन बहुत मुफीद नहीं होती इसलिये माना जा सकता है कि गोंड काल में उथली मिट्टी वाले इलाकों में किसानों ने खेती को निरापद बनाने के लिये नमी संरक्षण सहित अनेक प्रयास किये होंगे। लगभग यही प्रयास मध्य बुन्देलखण्ड में हुए थे। इन्हीं प्रयासों ने बुन्देलखण्ड में सूखी खेती की राह आसान की थी।
सेन्ट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के पी.जी. अड्यालकर ने गहरे खोजी नलकूपों की सहायता से, नर्मदा घाटी का अध्ययन किया था। इस अध्ययन की रिपोर्ट 1975 में प्रकाशित हुई थी। अध्ययन के आधार पर अड्यालकर ने पता लगाया था कि सतह से 40 से 100 मीटर की गहराई पर पर्याप्त पानी देने वाली रेत एवं बजरी की मोटी अनेक परतें मिलती हैं। इन परतों के ऊपर क्ले और काली मिट्टी की परतें मौजूद हैं। गौरतलब है कि गोंडों ने इन्हीं काली मिट्टी और क्ले की अपारगम्य परतों के ऊपर बारहमासी तालाब बनवाए हैं। अपारगम्य परतों के ऊपर निस्तारी तालाब बनवाना सिद्ध करता है कि गोंडों को काली मिट्टी और क्ले के जल सहेजने वाले गुणों की व्यावहारिक और वैज्ञानिक समझ थी। यह समझ परम्परागत ज्ञान का अविवादित उदाहरण तथा पुरातन भारतीय जल विज्ञान का साक्ष्य है।
नर्मदा घाटी क्षेत्र की गहरी काली मिट्टी वाली जमीन काफी उपजाऊ है। पर्यावरण संरक्षण एवं आदिवासी विकास केन्द्र, जबलपुर के पी.एस. राहुल बताते हैं कि 1960 के दशक के पहले जबलपुर के पश्चिमी भूभाग की गहरी काली मिट्टी वाले इलाके में खेती की हवेली पद्धति का प्रचलन था। मंडला और डिन्डोरी जिले की निचली भूमि पर बंधिया डाल कर धान की और अपेक्षाकृत ऊँचाई पर स्थित असमतल जमीन पर कोदों कुटकी जैसे मोटे अनाजों की खेती की जाती थी। वे कहते हैं कि यही परम्परागत खेती थी। यह खेती, किसी हद तक निरापद थी। विपरीत मौसम में भी, गरीबी और संसाधनों की कमी के बावजूद, किसान की रोजी रोटी चल जाती थी। दायित्व निर्वाह और देनदारियों के बावजूद उसे कभी जिंदगी बोझ नहीं लगती थी। सोयाबीन के आने के बाद पुरानी कृषि प्रणालियाँ धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं।
जबलपुर, मंडला और डिंडोरी जिलों में खूब बरसात हाती है। गर्मी के मौसम में खूब गर्मी और ठंड के मौसम में खूब ठंड पड़ती है। इस अंचल में लगभग 90 प्रतिशत वर्षा जून से सितम्बर के बीच होती है। जुलाई और अगस्त सबसे अधिक गीले महीने हैं। वर्तमान आंकड़ों के अनुसार, जबलपुर की औसत वर्षा 1386 मिलीमीटर और मंडला जिले की औसत वर्षा 1528.4 मिलीमीटर है। सम्भवतः यही स्थिति गोंड काल में भी रही होगी। मानसूनी जलवायु होने के कारण सारा पानी जून से लेकर सितम्बर के चार माहों में बरस जाता होगा और साल के बाकी आठ माह सूखे गुजरते होंगे। यह सूखा अन्तराल, गैर मानसूनी मौसम में कहीं-कहीं पीने के पानी की किल्लत और रबी की फसल के लिये कठिनाई पैदा करता होगा। गोंड कालीन कृषि प्रणालियों को देख कर लगता है कि तत्कालीन किसानों के लिये वह लाइलाज समस्या नहीं थी। उन्होंने प्रकृति से सहयेाग कर निरापद कृषि पद्धति विकसित कर ली थी।
जबलपुर जिले का 60092 हेक्टेयर क्षेत्र बरगी सिंचाई परियोजना के कमान्ड के बाहर के 383774 हेक्टेयर क्षेत्र बरगी कमांड के बाहर है। जिले के विभिन्न विकासखंडों के कमांड के बाहर के असिंचित रकबे में सिंचाई का प्रमुख साधन कुएँ और नलकूप हैं। मार्च 2009 की स्थिति में जबलपुर जिले का भूजल दोहन 28184 हेक्टेयर मीटर तथा विकास का स्तर 51 प्रतिशत है। पिछले सालों में इस जिले में कमांड क्षेत्र के बाहर बहुत बड़ी संख्या में नलकूप खोदे गये हैं। वर्षात में प्राकृतिक रीचार्ज के कारण भूजल की पूर्ति तो होती है पर रबी के मौसम में दोहन की मात्रा के लगातार बढ़ने के कारण भूजल स्तर की गिरावट में वृद्धि दिखने लगी है। मंडला और डिन्डोरी जिलों में भूजल का दोहन क्रमशः 15.00 प्रतिशत और 8.00 प्रतिशत है। ये दोनों जिले, भूजल दोहन की दृष्टि से सुरक्षित श्रेणी में हैं। इन दोनों जिलों में भूजल स्तर की गिरावट, अपेक्षाकृत कम है।
राय बहादुर डॉ. हीरालाल सहित अनेक पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों ने बंधियाओं को छोड़कर तालाबों और बावड़ियों के पुरातात्विक पक्ष पर शोध किया है। यह शोध उपलब्ध है लेकिन उसमें गोंड कालीन तालाबों और बावड़ियों एवं बंधियाओं के निर्माण में प्रयुक्त तकनीकों, उनके जल विज्ञान, उनके धरती से सम्बन्धों, प्रभावों और सामाजिक-आर्थिक पक्ष, वर्ण व्यवस्था के प्रभाव और जल प्रबन्ध का विवरण अनुपलब्ध है।
उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण के उपरान्त अगले पन्नों में जबलपुर एवं उसके निकटवर्ती इलाकों में बने पुराने तालाबों के विज्ञान पक्ष की चर्चा की जा रही है। उल्लेखनीय है कि इन संरचनाओं पर चन्देलकालीन समझ का असर है। ज्ञातव्य है कि जिस तरह मध्य बुन्देलखण्ड में ग्रेनाइट को काटती क्वार्टज-रीफ ने और दक्षिण बुन्देलखण्ड में बेसाल्ट पर जमा काली मिट्टी की माटी परत ने जल संरचनाओं के निर्माण में भूमिका का निर्वाह किया है उसी तरह गोंड शासित प्रदेश में कछारी क्षेत्रों में काली मिट्टी ने और बेसाल्ट क्षेत्र में काली मिट्टी और कोपरा ने जल संचय करने में भूमिका का निर्वाह किया है। कहा जा सकता है कि स्थानीय भूविज्ञान ने मिट्टियों के विकास, जल संचय की परम्परा, कृषि प्रणाली और बहुसंख्य समाज की आजीविका को प्रभावित किया है। यह देशज जल विज्ञान का उदाहरण है।
1.5. जबलपुर के पुराने तालाबों का भूवैज्ञानिक आधार पर निर्माण
अंग्रेजों के काबिज होने के पहले जबलपुर में अनेक तालाबों का निर्माण हुआ था। इन तालाबों का वितरण असमान है। कुछ क्षेत्रों में अधिक तो कुछ क्षेत्रों में बहुत कम तालाब बने हैं। अधिकांश जगह पहाड़ियों से घिरे इलाकों में गहरे तालाब बनाये गए थे। अपवाद स्वरूप केवल एक जगह चौकोर तालाब बनाया गया है। कुछ जगह छोटे कैचमेंट वाले नदी या नाले पर तालाब निर्माण को तरजीह दी गई है। लेखक का मानना है कि तालाबों का यह वितरण आकस्मिक नहीं है। प्रतीत होता है कि इन तालाबों का निर्माण जुदा-जुदा उद्देश्यों की पूर्ति के लिये किया गया था। माना जा सकता है कि तालाब बनवाने वाले व्यक्ति ने पहले समाज की आवश्यकताओं को समझा, धरती के गुणों को परखा, जगह तय की, निर्माण पूरा कर, उद्देश्यों को हासिल किया। सही और सार्थक काम करने का यही कारगर और वैज्ञानिक तरीका है। व्यवस्था का यही सामाजिक दायित्व है।
तालाब निर्माण के उद्देश्य की पूर्ति का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण घटक उसकी जगह का चुनाव है। सब जानते हैं कि निस्तारी तालाब का निर्माण रिसाव मुक्त जमीन पर किया जाना चाहिए। अन्य शर्तों में कैचमेंट से शुद्ध एवं पर्याप्त पानी की प्राप्ति और निर्माण स्थल पर वांछित मात्रा में जल संचय उल्लेखनीय हैं। तालाब की लम्बी उपयोगी उम्र के लिये सिल्ट का न्यूनतम संचय उल्लेखनीय घटक हैं।
भूजल रीचार्ज के लिये निर्मित तालाब में, अधिकतम रिसाव वाली धरती (तली), न्यूनतम सिल्ट जमाव की परिस्थितियाँ और सम्बद्ध एक्वीफर अनिवार्य घटक बन जाते हैं। भूजल रीचार्ज के लिये यही आदर्श स्थिति है। यही स्थिति, वांछित अवधि तक एक्वीफर में पानी सहेजने और स्थानीय नदी-नालों को जिंदा रखने में सहयोग देती है। पुराने लोग बताते हैं कि जबलपुर के अधिकांश तालाब बारहमासी थे। यह सर्वविदित है कि तालाब का बारहमासी होना, जलाशय के पानी के उपयोग की मात्रा, उसकी तली से रिसाव, वाष्पीकरण और प्रभाव क्षेत्र से भूजल दोहन जैसे गुणों से नियंत्रित होता है। इसी प्रकार, गाद जमाव का सम्बन्ध कैचमेंट से आने वाले पानी की मात्रा, तालाब की स्टोरेज क्षमता और वेस्टवियर से जल निकासी की मात्रा के अन्तर्सम्बन्ध पर निर्भर होता है।
अगले पृष्ठों में जबलपुर के तालाबों और भूविज्ञान के बीच के सम्बन्ध को समझने का प्रयास किया गया है। यह प्रयास, हंडी के एक चावल को देखने जैसा है पर वह पुरानी वैज्ञानिक समझ का आईना अवश्य है। यह प्रयास, जबलपुर के 48 तालाबों तक सीमित है क्योंकि केवल 48 तालाबों की स्थिति ही टोपोशीट और समाज की स्मृति में शेष है। इन तालाबों का स्थानीय भूविज्ञान से सम्बन्ध स्थापित करते समय तालाब की तली और उससे स्थानीय चट्टान की दूरी को ध्यान में रखा है। अर्थात, यदि तालाब की तली के नीचे, काफी गहराई तक मिट्टी मिलती है तो उसे कछारी तालाब माना है। इसके विपरीत यदि तालाब की तली के निकट चट्टान मौजूद है तो उसे, उस चट्टान विशेष पर बना माना है। नीचे दी गई तालिका में 48 तालाब की स्थिति को भूविज्ञान समेत दर्शाया गया है-
क्रमांक |
तालाब का नाम |
भूविज्ञान |
01 |
हनुमान ताल |
कछारी मिट्टी |
02 |
फूटाताल |
कछारी मिट्टी |
03 |
भंवरताल |
बलुआ पत्थर |
04 |
महानद्दा |
बलुआ पत्थर |
05 |
रानीताल |
कछारी मिट्टी |
06 |
संग्राम सागर |
ग्रेनाइट |
07 |
चेरीताल |
कछारी मिट्टी |
08 |
फूलहारी तलैया |
लमेटा |
09 |
सूपाताल |
बलुआ पत्थर |
10 |
गंगा सागर |
कछारी मिट्टी |
11 |
केालाताल |
ग्रेनाइट |
12 |
देवताल |
ग्रेनाइट |
13 |
गनेश ताल |
कछारी मिट्टी |
14 |
कटार ताल |
ग्रेनाइट |
15 |
गुड़हाताल |
कछारी मिट्टी |
16 |
सुरजला ताल |
कछारी मिट्टी |
17 |
उखरी ताल |
कछारी मिट्टी |
18 |
भान तलैया |
ग्रेनाइट |
19 |
बेनीसिंह की तलैया |
कछारी मिट्टी |
20 |
श्रीनाथ की तलैया |
कछारी मिट्टी |
21 |
जूड़ी तलैया |
कछारी मिट्टी |
22 |
कूडन ताल |
कछारी मिट्टी |
23 |
मढ़ा ताल |
कछारी मिट्टी |
24 |
कदम तलैया |
ग्रेनाइट |
25 |
मुड़चरहाई |
कछारी मिट्टी |
26 |
मढ़ोताल |
कछारी मिट्टी |
27 |
अधारताल |
कछारी मिट्टी |
28 |
साई तलैया |
कछारी मिट्टी |
29 |
नौआ तलैया |
कछारी मिट्टी |
30 |
सूरज तलैया |
ग्रेनाइट |
31 |
गुलौआ ताल |
कछारी मिट्टी |
32 |
जिन्दल तलैया |
कछारी मिट्टी |
33 |
मछरहाई |
ग्रेनाइट |
34 |
बघा |
ग्रेनाइट |
35 |
बसा |
कछारी मिट्टी |
36 |
बाल सागर |
कछारी मिट्टी |
37 |
हिनौता ताल |
कछारी मिट्टी |
38 |
सगड़ा ताल |
बलुआ पत्थर |
39 |
ककरैया तलैया |
ग्रेनाइट |
40 |
हाथी ताल |
ग्रेनाइट |
41 |
सूखा ताल |
कछारी मिट्टी |
42 |
महाराज सागर |
ग्रेनाइट |
43 |
अलफखां की तलैया |
कछारी मिट्टी |
44 |
अमखेरा ताल |
कछारी मिट्टी |
45 |
बाबा ताल |
ग्रेनाइट |
46 |
चौकी ताल |
बलुआ पत्थर |
47 |
खम्बाताल |
बलुआ पत्थर |
साभारः प्रोफेसर वी. के. खन्ना, जबलपुर |
उपर्युक्त सूची से पता चलता है कि 48 तालाबों में से 28 तालाब कछारी मिट्टी पर, 13 तालाब ग्रेनाइट पर, 6 तालाब बलुआ पत्थर पर और एक तालाब लमेटा संस्तर पर बनाया गया था। आंकड़ों की भाषा में, कछारी मिट्टी में 58.33 प्रतिशत, ग्रेनाइट में 27.08 प्रतिशत, बलुआ पत्थर में 12.5 प्रतिशत और लमेटा संस्तर में 2.08 प्रतिशत तालाब बनाए गये हैं। उल्लेखित विवरण, तालाब निर्माण के पीछे के जल विज्ञान का योगदान दर्शाता है। इसी कारण कछारी क्षेत्र की अपारगम्य परतों के ऊपर निस्तारी तालाब और ग्रेनाइट की पानी सोखने वाली अपक्षीण परत पर भूजल रीचार्ज के लिये परकोलेशन तालाब बनाए गये हैं। अनुपयुक्त चट्टानों पर बहुत कम संख्या में तालाब बनाए गये थे। तालाबों के स्थल चयन की उपर्युक्त प्राथमिकता सिद्ध करती है कि गोंड कालीन तालाबों के निर्माण का आधार पूरी तरह वैज्ञानिक था।
उल्लेखनीय है कि जबलपुर का पश्चिमी इलाका कछारी है। इस इलाके में सतह के निकट गहरी काली मिट्टी और उसके नीचे क्ले की मोटी अपारगम्य परत मिलती है। इसी इलाके में सर्वाधिक निस्तारी तालाब बनवाए गये हैं। विदित है कि काली मिट्टी और क्ले की परतें भूजल रीचार्ज के लिये अनुपयुक्त होती हैं इसलिये इस प्रकार की मिट्टी वाले क्षेत्र में निस्तारी तालाब बनाना तर्कसंगत और उपयुक्त है। यह विकल्प चयन इंगित करता है कि तालाबों को बनाने वाले शिल्पियों और बनवाने वाले समाज की समझ जल विज्ञान सम्मत, जल स्वावलत्बन और आजीविका को आधार देने वाली थी। यह भारतीय प्रज्ञा का विलक्षण साक्ष्य है।
गढ़ा, गोंडों की राजधानी था। उनकी अधिकांश प्रजा इसी बस्ती में निवास करती हेगी। प्रजा की निस्तार जरूरतों को पूरा करने के लिये साल भर पानी की आवश्यकता थी। पानी का स्थायी स्रोत अर्थात नर्मदा नदी काफी दूर थी इसलिये उन्होंने गढ़ा क्षेत्र में बहुत से रीचार्ज तालाब बनवाए ताकि पूरे साल पानी उपलब्ध रहे। लगता है कि गढ़ा क्षेत्र में, ग्रेनाइट पर बने अधिकांश तालाबों का उद्देश्य भूजल रीचार्ज को सुनिश्चित करना था। भूजल रीचार्ज के कारण जल संकट का प्रश्न नहीं था। ये तालाब आजीविका को भी सहयोग देते होंगे। इन तालाबों का असर अभी भी बाकी है। इस इलाके में भूजल स्तर की गिरावट कम और पानी सतह के काफी निकट उपलब्ध है।
गढ़ा क्षेत्र में संग्राम शाह ने संग्राम सागर तालाब का निर्माण कराया था। यह तालाब चारों ओर से ग्रेनाइट पहाड़ियों से घिरा है और इसकी तली में जल संग्रह करने वाली ग्रेनाइट की अपक्षीण परत मौजूद है। इस तालाब के किनारे स्थित पहाड़ी पर प्रसिद्ध बाजना मठ स्थित है। ग्रेनाइट पर निर्मित तालाबों की भूजल रीचार्ज क्षमता को सिद्ध करने के लिये गहन अध्ययन की आवश्यकता है। गोंड काल में बनवाए तालाबों की पाल, चन्देल तालाबों की तरह, मिट्टी की है। कहीं-कहीं तालाब में उतरने के लिये सीढ़ियों का निर्माण किया गया है।
पर्याप्त कैचमेंट-ईल्ड और धरती के भूजलीय गुणों के आधार पर बने तालाबों का निर्माण सिद्ध करता है कि स्थानीय परिस्थितियों से तालमेल बिठाती उपयुक्त संरचनाओं को बनाने में वे पारंगत थे। इसी कारण नर्मदा कछार के हर गाँव में बने निस्तारी तालाबों में साल भर पानी मिलता है और खेती में हवेली पद्धति का उपयोग भरपूर एक फसल की गारन्टी देता था। इस व्यवस्था के कारण नदी नालों में पर्यावरणी प्रवाह रहता था। नदी-नालों और भूजल रिसाव के येगदान के कारण नर्मदा के प्रवाह को स्थायित्व मिलता था। प्रसंगवश उल्लेख है कि जबलपुर के जिन इलाकों में पुराने तालाब बचे हैं उन इलाकों में आज भी बहुत कम गहराई पर भरपूर पानी मिलता है। उन इलाकों के कुओं और नलकूपों की जल क्षमता अपेक्षाकृत बेहतर है। यह आशा की किरण है। यह स्थिति जल संकट के समाधान की दिशा को इंगित करती है। इन संकेतों का अनुसरण कर इस क्षेत्र के काफी बड़े इलाके के जल संकट को हल किया जा सकता है।
2.0 गोंड कालीन जल विज्ञान और आजीविका
2.1 गोंड कालीन जल विज्ञान
पूर्व में कहा जा चुका है कि गोंड राजाओं, मुख्यतः संग्रामशाह, दुर्गावती, हृदयशाह, दलपतिशाह, छत्रशाह, नरेन्द्रशाह और निजामशाह ने सत्ता में आने के बाद तालाब निर्माण की परिपाटी को आगे बढ़ाया था पर वह चन्देल और बुन्देला परिपाटी का अंधानुकरण नहीं था। उल्लेखनीय है कि गोंड शासित प्रदेश की जमीनी हकीकत मध्य-बुन्देलखण्ड या दक्षिण बुन्देलखण्ड से अलग थी इसलिये उन्होंने जो कुछ किया वह कई मायनों में एकदम अलग था। प्रथम दृष्टि में भले ही उन संरचनाओं में एकरूपता नजर आये पर उन पर स्थानीय पारिस्थितिकी का पूरा-पूरा असर था। उनका निर्माण इस क्षेत्र की जलवायु, बरसात की मात्रा, धरती के चरित्र और फसलों इत्यादि से नियंत्रित था।
गोंड कालीन तालाबों की लम्बी उम्र और बारहमासी चरित्र (जल उपलब्धता) को देखकर लगता है कि उनका निर्माण भारतीय जल विज्ञान के अनुसार हुआ था। इसके अतिरिक्त, गोंडों ने, संरचनाओं से सम्बन्धित जो भी विकल्प चुने वे उपयुक्तता और आवश्यकता के आधार पर थे। वे विकल्प गैर-मानसूनी सीजन के सूखे और वर्षा के अन्तरालों की चुनौतियों को कम करते थे। प्रसंगवश यह उल्लेख करना तर्कसंगत लगता है कि कलकल करती नदियों और बारहमासी तालाबों के कारण बसाहटें स्थायी होंगी। तालाबों पर निर्भर समाज की आजीविका सम्बन्धी व्यवस्था सहज और टिकाऊ होगी। उनके द्वारा बनवाए तालाब लगभग 450 साल बाद भी जिंदा हैं इसलिये लगता है वे गाद नियंत्रण की विधा से वाकिफ थे। यह निर्माण प्राचीन जल विज्ञान का साक्ष्य है। पुराने तालाबों की बदहाली और गाद जमाव पिछले 50-60 सालों के अविवेकी विकास और पर्यावरण की अनदेखी की देन है।
संक्षेप में, गोंड कालीन जल विज्ञान की फिलासफी के अन्तर्गत केवल उन्हीं प्रयासों को बढ़ावा दिया गया था जो खेती को निरापद और जल स्वावलंबन को सफल बनाते थे। इसे, जल विज्ञान का गोंड कालीन गाँधीवादी मॉडल कहा जा सकता है। यह मॉडल, मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति के लिये पानी का इष्टतम उपयोग करता है। इस मॉडल में लालच की पूर्ति के लिये कोई प्रावधान नहीं हैं। कुछ लोग मानते हैं कि आधुनिक विज्ञान, आधुनिक इनपुट और बाजार की मदद से खेती को लाभ का धन्धा बनाया जा सकता है तो दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनको लगता है कि खेती के समयसिद्ध परम्परागत मॉडल की अनदेखी के कारण कृषि क्षेत्र में समस्याएं जन्म ले रही हैं। जलवायु बदलाव की पृष्टभूमि में दोनों प्रणालियों का अध्ययन उपयोगी हो सकता है।
2.2 आजीविका
गोंडकाल में अधिकांश लोगों की आजीविका का आधार खेती और उससे जुड़ी सहायक गतिविधियाँ रही होंगी। उल्लेख है कि गोंड राजाओं द्वारा बनवाए अधिकांश तालाब नहर विहीन थे नहरों की अनुपस्थिति का अर्थ है कि तालाबों का उपयोग, आधुनिक तरीके से खेतों की सिंचाई के लिये नहीं किया जाता था। प्रतीत होता है कि तालाबों में जमा पानी की भूमिका मुख्यतः नमी और भूजल स्तर बढ़ाने, जलवायु का सन्तुलन कायम करने, पेयजल स्रोतों को भरोसेमन्द बनाने, आजीविका (मछली, सिंघाड़ा कमलगट्टा और खेती) को स्थायित्व प्रदान करने की थी। बारहमासी तालाबों के कारण जलसंकट अकल्पनीय था। बारहमासी तालाब, निर्भर समाज के लिये आय के टिकाऊ साधन थे। इस व्यवस्था पर चन्देल और बुन्देलाकालीन व्यवस्था का प्रभाव (नकल नहीं) नजर आता है।
माना जा सकता है कि चन्देल और बुंदेला राजाओं के शासनकाल में विकसित बुन्देलखण्ड इलाके की आजीविका से जुड़ी खेती की निरापद पद्धतियों ने गोंड कालीन किसानों को प्रभावित किया होगा। उन्होंने महाकोशल क्षेत्र की क्षेत्रीय और स्थानीय विशिष्टताओं को ध्यान में रख वांछित बदलाव किये होंगे। इन्हीं बदलावों ने गोंड कालीन कृषि पद्धति तथा आजीविका को नये आयाम दिये। गोंड काल की जलवायु से सम्बन्धित आंकड़े अनुपलब्ध हैं इसलिये खेती की तत्कालीन निरापद पद्धतियों को समझने के लिये, वर्तमान काल की परिस्थितियों और आंकड़ों को आधार बनाना होगा।
वर्तमान परिस्थितियों और आंकड़ों की पृष्ठभूमि में माना जा सकता है कि पुराने समय में खेती को प्रभावित करने वाली प्रमुख परिस्थितियाँ निम्नानुसार रही होंगी-
1. पश्चिमी जबलपुर के कछारी क्षेत्र की जमीन मुख्यतः गहरी काली और उपजाऊ थी। उसमें लम्बे समय तक पानी सहेजने का गुण विद्यमान था।
2. आज की तुलना में प्रति व्यक्ति खेती की जमीन का रकबा अधिक था। स्वावलम्बी कृषि के कारण आजीविका का संकट कम रहा होगा।
3. मंडला और डिन्डोरी जिलों की जमीन मुख्यतः उथली, असमतल और अपेक्षाकृत कम उपजाऊ रही होगी। उसमें लम्बे समय तक पानी सहेजने के गुण का अभाव रहा होगा। बाकी इलाकों में स्थिति थोड़ी बेहतर रही होगी।
4. स्थानीय स्तर पर बीज और खेती में लगने वाली सामग्री सरलता से उपलब्ध होगी।
अब कुछ चर्चा चन्देल, बुन्देला और गोंड कालीन समझ के अंतर की। इस समझ के अनुसार स्थानीय किसानों ने जैसी जमीन वैसी खेती की तर्ज पर फसलें लीं। इस क्रम में उन्होंने घाटी में स्थित असमतल खेतों में उत्पादन की सम्भावना को बेहतर बनाने के लिये खेतों को समतल किया। छोटी-छोटी बंधियाएं डाली और मौसम से तालमेल बैठाती फसलें लीं। बंधिया की ऊँचाई का निर्धारण फसल की आवश्यकता और बरसात की मात्रा के आधार पर किया। उन्होंने मध्य बुन्देलखण्ड की नकल नहीं की। समतल खेतों में गेहूँ की फसल तथा असमतल ऊँचे इलाकों में कोदों, कुटकी और ज्वार जैसी फसलें लीं। उनके सारे प्रयास के पीछे जल विज्ञान की समझ की उल्लेखनीय भूमिका थी।
सेंटर फार साइंस एंड एनवायरनमेंट, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तक बूंदों की संस्कृति (पेज 166-175) में बुन्देलखण्ड के दक्षिणी हिस्से अर्थात गोंड शासित जबलपुर, नरसिंहपुर, दमोह इत्यादि की काली मिट्टी वाले क्षेत्र में प्रचलित हवेली व्यवस्था के बारे में लिखा है। यह व्यवस्था हलकी ढलान वाली समतल जमीन पर काबर (अधिक पानी सोखने वाली गहरी काली मिट्टी) और मुंड (हलकी चूना और पथरीले कंकड़ वाली कम उपजाऊ) मिट्टी में अपनाई जाती है। सामान्यतः मेढ़ की ऊँचाई एक मीटर या उससे अधिक रखी जाती है। खेत का आकार चौकोर से लेकर अनियमित और रकबा 2 हेक्टेयर से लेकर 10-12 हेक्टेयर तक हो सकता है। खेत में पानी अक्टूबर के पहले सप्ताह तक रोका जाता है। उसके बाद उसे सावधानी से निकाल दिया जाता है। जमीन में बतर आने पर फसल बो दी जाती है। यह सारा काम किसान की सूझबूझ, अनुभव और खेती पर उसकी गहरी पकड़ के आधार पर किया जाता है। जमीन में पर्याप्त नमी बचने के कारण रबी की फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती थी।
सोयाबीन की फसल आने के पहले यह कृषि पद्धति जबलपुर, नरसिंहपुर, सागर और दमोह जिलों के लगभग 1.4 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में अपनाई जाती थी। बूंदों की संस्कृति में कहा गया है कि इस पद्धति का विकास सबसे पहले जबलपुर के उत्तर-पश्चिम की उपजाऊ समतल जमीन पर हुआ। इस पद्धति का सूत्रपात, उत्तर दिशा से आये खेतिहर लोगों ने, स्थानीय गोंडों को खदेड़ कर किया। बाद में यह पद्धति नर्मदा के उस पार और नरसिंहपुर जिले में अपनाई जाने लगी। इस इलाके के शासकों ने भी किसानों को खेतों में मेढ़ बनाने के लिये प्रोत्साहित किया। बूंदों की संस्कृति में कहा गया है कि यह व्यवस्था अधिक से अधिक पानी सोखने वाली, काली मिट्टी वाले इलाके में ही अपनाई जा सकती है। गौरतलब है कि काली मिट्टी वाला इलाका कपास या धान जैसी खरीफ फसलों के लिये उपयुक्त नहीं होता, लेकिन वह गेहूँ की फसल के लिये मुफीद है। इस इलाके में हवेली पद्धति के विकास की एक और वजह है। इस क्षेत्र में कांस नामक घास होती है। कांस, हकीकत में कृषि उत्पादन को घटाने वाली खरपतवार है। इसे नष्ट करने के लिये निरापद तरीका खोजा गया। इस तरीके के अन्तर्गत, कुछ समय तक खेत में पानी जमा कर कांस को सड़ा कर नष्ट किया। इसके अलावा यहाँ की जलवायु कुछ ऐसी है कि भारी वर्षा के बावजूद फसल लेना मुश्किल है। इन परिस्थितियों में स्थानीय किसानों ने हवेली पद्धति विकसित की ताकि कम-से-कम एक फसल ठीक से ली जा सके। गौरतलब है कि इस इलाके के किसानों ने हवेली पद्धति को अपनाया अवश्य पर बुन्देलखण्ड में प्रचलित कृषि प्रणालियों की नकल नहीं की।
सोयाबीन आने के बाद इस भारतीय पद्धति को ग्रहण लग गया है। हवेली पद्धति लगभग विलुप्त हो चुकी है। हवेली पद्धति के विलुप्त होने के कारण नर्मदा घाटी में भूजल रिचार्ज की समानुपातिक मात्रा कम हुई है। नर्मदा सहित उसकी सहायक नदियों का गैर-मानसूनी प्रवाह घट रहा है। यह उदाहरण इंगित करता है कि पुरानी पद्धति के समाप्त होने और नई पद्धति के चलन के बाद कुछ प्राकृतिक घटकों का सन्तुलन प्रभावित हुआ है।
3.0 प्राचीन तकनीक और आशा की किरण
पिछले कई सालों से गोंड कालीन तालाबों को प्रतिकूल तरीके से प्रभावित करने वाले प्राकृतिक और मानवीय कारक सक्रिय हैं। इन कारकों के संयुक्त प्रभाव से तालाबों का योगदान घटा है। उनका रकबा कम हुआ है। पानी की गुणवत्ता, भूजल रीचार्ज और आजीविका प्रदान करने वाली भूमिका हाशिये पर है। पुराने तालाबों में से कुछ तालाब अभी जिंदा हैं। उनके निर्माण का उद्देश्य, निर्माण में अपनाया जल विज्ञान/सिद्धान्त और उपयोगिता सामने हैं। इस बारे में पूर्व में विस्तार से चर्चा की जा चुकी है। पुराने दृष्टिबोध को अपनाकर तालाबों की घटती क्षमता और भूमिका को बहाल किया जा सकता है। यही आशा की किरण है जो मौजूदा प्रयासों को दिशा प्रदान कर, मौजूदा हालात में बदलाव ला सकती है।
भारत का परम्परागत जल विज्ञान (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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