निमाड़ की जल चौपाल

Submitted by birendrakrgupta on Thu, 07/03/2014 - 17:02
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जल चौपाल, सप्रे संग्रहालय, संस्करण 2013

'जल चौपाल' नाम से प्रकाशित पुस्तक सप्रे संग्रहालय और राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद की सहयोग से प्रकाशित हुई है। मध्य प्रदेश के विभिन्न अंचलों के लोक संस्कृति में जलविज्ञान व प्रकृति की खोज यात्रा है 'जल चौपाल'। ' निमाड़ की जल चौपाल' अध्याय 'जल चौपाल' का दूसरा अध्याय है।

निमाड़ अंचल की लोक संस्कृति में जलविज्ञान और प्रकृति को समझने के लिए हम लोग बडवानी जिले की ठीकरी तहसील के ग्राम दवाना गए। दवाना की चौपाल में छोगालाल कुमरावत ‘सुजस’ तथा रमेश चन्द्र तोमर ‘निमाड़ी’ ने स्थानीय संयोजक का दायित्व संभाला। यह हमारी पहली चौपाल थी। लोक संस्कृति में जलविज्ञान और प्रकृति पर समाज से चर्चा का यह पहला अनुभव भी था।

दवाना ग्राम की चौपाल में अनुभवों के आदान-प्रदान तथा चर्चा के लिए आसपास के ग्रामों के साथी इकट्ठे हुए। इन साथियों में अधिकतर किसान थे। इनका पुश्तैनी काम खेती था। इन साथियों ने निमाड़ के परंपरागत समाज की जीवनशैली तथा संस्कारों, जंगल, जलवायु, वर्षा, अकाल, आबादी, आजीविका के साधनों, स्वास्थ्य, खेती, फसलों, कृषि पद्धतियों, मिट्टियों, सिंचाई एवं सिंचाई साधनों, कृषि उपकरणों और पुरानी जल संरचनाओं इत्यादि के बारे में विस्तार से जानकारी दी।

चौपाल में परिचर्चा का प्रारंभ छोगलाल कुमरावत और रमेशचन्द्र तोमर ने सरल शैली और अनौपचारिक तरीके से कराया। छोटे-छोटे प्रश्न पूछे। हमारी टीम ने परिचर्चा के दौरान अधिक से अधिक लोगों के विचारों को सुना। दो साथियों की मदद से उत्तरों को स्थानीय बोली में ज्यों का त्यों लिखवाया। उनसे उत्तर देने वाले किसानों और अन्य लोगों के नाम, पेशा तथा ग्राम का नाम दर्ज कराया। प्राप्त उत्तर की लोगों से पुष्टि कराई। निमाड़ी बोली में लिखे उत्तरों का छोगालाल कुमरावत से हिन्दी रूपांतरण कराया।

हमने चौपाल में व्यक्त विचारों की समीक्षा करते समय अपनी मान्यताओं तथा पूर्वग्रह के चश्मे से समाज की समझ को देखने, समझने या उसके आधार पर निष्कर्ष निकालने से परहेज किया। लोगों के विचारों को समझने के लिए वसन्त निरगुणे, छोगालाल कुमरावत और रमेशचन्द्र तोमर से लंबी चर्चाएं कीं। भोपाल आमंत्रित कर उनके साथ बैठकें आयोजित कीं। समीक्षा परिणामों पर पहुंचते समय हमने अपनी और ज्ञान की सीमाओं को ध्यान में रखा। खुले मन से जानकारों तथा विशेषज्ञों के विचार जाने। उनकी राय ली। उसकी समीक्षा की और पूरी तरह समझने के बाद ही उसे किताब में स्थान दिया।

हमारी टीम का भरसक प्रयास रहा है कि चौपाल में व्यक्त विचारों को यथावत पेश कर उनका वैज्ञानिक पक्ष सामने लाया जाए। इस सब का मूल उद्देश्य निमाड़ लोक संस्कृति में जलविज्ञान और प्रकृति की बिखरी कड़ियों को समझकर पाठकों से साझा करना है।

छोगालाल कुमरावत और रमेशचन्द्र तोमर ने चौपाल में छूटी जानकारियों और शंकाओं तथा प्रश्नों के उतरों को भेजने का क्रम जारी रखा। लोक संस्कृति के विद्वान वसन्त निरगुणे ने शंकाओं का समाधान किया। अगले पन्नों में निमाड़ की चौपाल का अनुभव, अनुभवों की समीक्षा और उसके सम्प्रेषण की विधियों का वर्णन, निम्न उप-शीर्षों के अंतर्गत किया जा रहा है।

1. दैनिक जीवन, धार्मिक एवं सामाजिक संस्कारों में विज्ञान
2. जलस्रोत - विज्ञान की झलक
3. स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य संबंधी संस्कारो का विज्ञान
4. मिट्टी, परंपरागत खेती, वर्षा तथा वर्षा का वनों से रिश्ता
5. लोक संस्कृति का प्रकृति से नाता और अंचल की वाचिक परम्परा में लोक-विज्ञान की उपस्थिति

1. दैनिक जीवन, धार्मिक एवं सामाजिक संस्कारों में विज्ञान


दवाना की चौपाल मे आए लोगों ने कहा कि निमाड़ अंचल के लोक संस्कारों में दैनिक जीवन से जुड़ें अनेक कर्मकांड, क्रियाकलाप तथा प्रथाएं व्यवहार में थीं। पुराने समय में लोग उन प्रथाओं का निष्ठापूर्वक पालन करते थे। आज भी पूरी तो नहीं, पर अनेक परिपाटिओं का पालन किया जाता है। अगले पन्नों में दैनिक जीवन से जुड़े कुछ कर्मकांडों, क्रियाकलापों तथा प्रथाओं के पीछे के विज्ञान तथा सम्प्रेषण के बारे में चौपालों में मिली समझ का संभावित पक्ष प्रस्तुत हैं।

1.1 दैनिक जीवन में पानी
निमाड़ के परंपरागत समाज के दैनिक जीवन से जुड़े कतिपय संस्कारों, कर्मकांडों, क्रियाकलापों तथा प्रथाओं के संक्षिप्त विवरण के साथ-साथ उनका संभावित वैज्ञानिक पक्ष दिया जा रहा है। इस विवरण के साथ यथासंभव अपनाई संप्रेषण विधि का प्रकार भी उल्लेखित है।

दवाना ग्राम की चौपाल में उपस्थित सभी लोगों ने एक स्वर से कहा कि उनका समाज प्रातः सोकर उठने से लेकर रात्रि में सोने तक अनेक गतिविधियों में साफ पानी का उपयोग करता है। अनेक लोग रात्रि में तांबे के पात्र में पानी भर कर रखते हैं और प्रातः काल उठकर उसे पीते हैं। उनका विश्वास है कि तांबे के पात्र में रखा पानी शुद्ध बना रहता है। उसमें मौजूद कीटाणु मर जाते हैं। नये कीटाणु नहीं पनपते। तांबे के पात्र में रखे पानी को सबेरे-सबेरे पीने से पेट साफ होता है। यह हाजमा ठीक रखने के देशज तरीका है।

चौपाल में उपस्थित महिलाओं ने बताया कि उनके अंचल की लगभग सभी महिलाएं ब्रह्ममुहूर्त में उठकर सर्वप्रथम एक बेड़ा पानी भर कर लाती थीं। वे, इस पानी को रसोईघर में रखती थीं। उसी पानी से भोजन बनाया जाता था। पेयजल के रूप में उपयोग किया जाता था। हर घर में अनिवार्य रूप से पानी लाने वाले एवं उसका संचय करने वाले बर्तनों की रोज साफ-सफाई की जाती थी। पुराना पानी रोज बदला जाता था।

निमाड़ अंचल में घर लौटने पर हाथ-पैर धोने की परंपरा रही है। भोजन के पहले तथा बाद में कुल्ला कर हाथ धोए जाते हैं। भोजन पात्रों को साफ पानी से धोकर और मांजकर रखा जाता है। साफ-सुथरे बर्तन ही रसोई बनाने में प्रयुक्त होते हैं। शादी में बारातियों के पैर धोने की परंपरा थी। यह व्यवस्था साफ-सफाई का द्योतक है। रमेशचन्द्र तोमर ने पानी और दैनिक लोक-व्यवहार के बारे में निम्नलिखित निमाड़ी कहावतें सुनाईं-

जसो पेवां पाणी। वसी उपज ऽ वाणी।।

हम जैसा पानी पिएंगे वैसी हमारी वाणी होगी।

ठण्डो न्हाव, तातो खाय। ओका घर वैद्य नी आय।।

जो आदमी ठण्डे पानी से स्नान करेगा और ताजा गर्म भोजन करेगा उसके घर वैद्य नहीं आएगा।

पयल ऽ पे योगी, बीच म ऽ पे भोगी।
आखरी म ऽ खोब पे उ रोगी।।

अर्थात जो व्यक्ति भोजन करने के पहले पानी पीता है, वह योगी होता है। जो व्यक्ति भोजन के बीच में पानी पीता है, वह भोगी होता है और जो भोजन करने के बाद पानी पीता है, उसे बीमार पड़ने से कोई नहीं रोक सकता।

छोगालाल कुमरावत ने निमाड़ में प्रचलित घाघ की कहावतें सुनाईं-
प्रायःकाल खटिया से उठिके, पीये तुरत जो पानी।
ता घर वैद्य कभी न आवे, बात घाघ ने जानी।।

सुबह उठ कर बिना कुल्ला किए दो पैरों पर उकडू बैठकर जो व्यक्ति खूब पानी पीता है, उसके घर वैद्य नहीं आता अर्थात वह सदा स्वस्थ रहता है।

उठकर सुतै, खाकर मुतै, हर्रे चुसे।

ता घर वैद्य कभी न घुसे।।

अर्थात जो व्यक्ति प्रातःकाल उठ कर पानी पीता है, भोजन के बाद लघुशंका करता है और भुनी छोटी हर्र चूसता है, उसके घर में कभी भी वैद्य नहीं आता।

यही अभिलाषा हृदय की, कबहु न होय जुकाम।
पानी पीजे नाक से, पहुंचाये आराम।।

अर्थात यदि आप की दिली इच्छा है कि आपको कभी जुकाम नहीं हो तो आपको नाक से पानी पीना चाहिए। छोगालाल कुमरावत का कहना है कि यह योग सम्मत क्रिया है।

बाईं करवट सोइये, जल बायें स्वर पीव।
दाहिने स्वर भोजन करे, तो सुख पावे अति जीव।।

बाएं करवट सोने, जब बायां स्वर चले तब पानी पीने और जब स्वर दाहिने चले, तब भोजन करने से मनुष्य सुखी रहता है। छोगालाल कुमरावत इन्हें योग सम्मत क्रिया मानते हैं।

चौपाल में बताया कि निमाड़ के बहुत से लोग इन कहावतों का पालन करते हैं। वे सबेरे उठकर सबसे पहले पानी पीते हैं। कुछ लोग नाक से पानी पीते हैं तो कुछ लोग बाएं करवट सोते हैं। उपर्युक्त सभी कहावतें, सम्प्रेषण का बेहतरीन उदाहरण हैं, जिसमें मूल बात कहने के लिए कम से कम शब्दों का प्रयोग कर उसे सहज संप्रेषणीय बना दिया है। कुछ लोगों के अनुसार, मकर संक्रान्ति को पवित्र नदियों में स्नान और होली के बाद मनाए जाने वाले धुलेंडी और रंगपंचमी के त्योहार स्वास्थ्य चेतना के प्रतीक हैं। उनके अनुसार, शीत ऋतु के बाद मनाए जाने वाले इन त्योहारों के दिन व्यक्ति के शरीर की पूरी साफ-सफाई सुनिश्चित होती है। संभव है स्वास्थ्य चेतना को ध्यान में रख धुलेंडी और रंगपंचमी को त्योहार का दर्जा दिया।

कहावतों में निहित संदेशों पर हमारी टीम ने अनेक वैज्ञानिकों की राय ली। वैज्ञानिकों के अनुसार निमाड़ के समाज के दैनिक जीवन के जल-संस्कार पूरी तरह वैज्ञानिक हैं। पानी का नित्यकर्मों में प्रयोग, आरोग्य को सुनिश्चित करता है। पानी को तांबे के बर्तन में रखने से उसमें कीटाणु उत्पन्न नहीं होते। कीटाणु उन्मूलन के लिए ताम्र पात्र का उपयोग विज्ञान सम्मत है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि निमाड़ अंचल पानी के उपयोग के अधिकांश तरीके विज्ञान सम्मत हैं। तांबे के बर्तन में रखे पानी के गुणों और उसके पीछे के विज्ञान के बारे में आधुनिक वैज्ञानिकों का अभिमत बघेलखंड अंचल में दिया गया।

1.2 धार्मिक या लोक संस्कारों में विज्ञान
चौपाल में मौजूद लोगों ने बताया कि उनके अंचल के लोक-संस्कारों में मौजूद परंपराओं, तीज-त्योहारों, हवन-पूजन, प्रथाओं और परिपाटियों को देखने से स्पष्ट होता है कि जल के बिना कोई भी पूजा-पाठ अनुष्ठान/संस्कार पूरा नहीं होता। सभी धार्मिक संस्कारों में जल का उपयोग अनिवार्य है। पूजा या अनुष्ठानों की शुरुआत के पहले पूजा-स्थल को पानी छिड़ककर एवं गाय के गोबर से लीप कर शुद्ध किया जाता है। फिर आटे से स्वस्तिक बनाने के बाद चौका पूरा जाता है। चौक पर पानी से भरा कलश रखा जाता है। उसके नीचे ज्वार के दाने रखे जाते हैं। सर्वप्रथम कलश का पूजन होता है। कलश पर सामान्यतः पानी वाला नारियल रखा जाता है। देवी-देवताओं की पूजा करते समय, सबसे पहले उन्हें स्नान कराया जाता है। सभी धार्मिक प्रक्रियाओं में पानी को कुश या पान के पत्ते की सहायता से छुआ जाता है। वसंत निरगुणे का कहना है कि यह प्रक्रिया सदियों से प्रचलन में है। उनका अनुमान है कि यह व्यवस्था, संभवतः अनुष्ठान के दौरान, जल एवं पूजा स्थल की शुद्धता को सुनिश्चित करने के लिए अपनाई गई है।

लोगों ने बताया कि आज भी पानी को हाथ में रखकर आचमन किया जाता है तथा संकल्प दिलाए जाते हैं। प्रातःकाल स्नान कर, सूर्य को जल का अर्घ्य चढ़ाया जाता है। गंगाजली या जलपात्र को हाथ में रख कर वचन पालन की सौगंध खाई जाती है। अक्षय तृतीया एवं असाढ़ माह में पहली बार हल चलाते समय पानी से भरे घट की पूजा का प्रचलन अभी खत्म नहीं हुआ है। लगता है पानी की शुद्धता का जीवन शैली का अंग बनाने के लिए, उसके उपयोग को अनुष्ठानों और संस्कारों का अनिवार्य हिस्सा बनाया गया है। छोगालाल कुमरावत का कहना था कि निमाड़ में कुएं, बावड़ी या तालाब बनाते समय सबसे पहले जलदेवी की स्थापना कर खुदाई प्रारंभ की जाती थी। पानी मिलने के बाद पुनः पूजा अर्चना की जाती थी। पूजा अर्चना के बाद ही परिवार के लोग जलस्रोत का पानी ग्रहण करते थे।

धार्मिक अनुष्ठानों में जल के उपयोग पर हमने खूब विचार किया। वैज्ञानिक पृष्ठभूमि वाले कुछ मित्रों से चर्चा की। उनका विचार था कि अनुष्ठानों में प्रयुक्त कर्मकाण्ड, संभवतः शुद्ध जल और अशुद्ध जल का भेद समझाने के लिए किया गया प्रयास है। संभव है, तत्कालीन समाज ने अशुद्ध जल के उपयोग को नकारने के लिए धार्मिक अनुष्ठानों का सहारा लिया हो। यही पुरातन भारतीय सम्प्रेषण शैली है। यह शैली, आधुनिक युग में जनजागृति पैदा करने वाले विज्ञापनों, कार्यशालाओं, प्रायोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों, नुक्कड़-नाटकों, प्रभात फेरियों तथा अभियानों से कम नहीं है।

चौपाल में लोगों के विचारों पर हमारे मित्रों का मानना है कि उपर्युक्त सारा उपक्रम (धार्मिक अनुष्ठान एवं कर्मकाण्ड) शुद्ध जल को केन्द्र में रखकर, निरापद जीवनशैली विकसित करना है। हमें लगता है कि परंपरागत समाज ने निरापद जीवनशैली को, संस्कारों के माध्यम से अवचेतन में स्थापित करने का प्रयास किया था। यही धार्मिक अनुष्ठानों एवं कर्मकाण्डों का वैज्ञानिक पक्ष है, जो निरापद जीवनशैली से जुड़े वैज्ञानिक तथ्यों को सिद्धांतों एवं सूत्रों की आधुनिक शैली में सजाकर प्रतिष्ठित करने के स्थान पर, लोक-संस्कारों, के माध्यम से, हर आम और खास आदमी के मन-मस्तिष्क में प्रतिष्ठित करता है।

1.3 सामाजिक संस्कारों में विज्ञान
दवाना की चौपाल में बरुड़ के मथुरालाल कुशवाहा, महेश्वर के हरीश दुबे तथा बरुड़ के धर्मेन्द्र कुमरावत ने बताया कि उनके अंचल में जन्म से लेकर मृत्यु तक, सभी 16 संस्कारों में शुद्ध जल का उपयोग होता है। प्रत्येक संस्कार के पहले स्नान का प्रावधान अर्थात शरीर की शुद्धि है। उदाहरण के लिए, नवजात शिशु को जन्म के तत्काल बाद गुनगुने शुद्ध जल से नहलाया जाता है। तीसरे दिन सद्यः प्रसूता एवं बच्चे को नीम के पत्ते डालकर उबाले पानी से नहलाने का रिवाज है। निमाड़ में स्वास्थ्य चेतना में कभी भी कमी नहीं थी। निमाड़ के लोग स्वास्थ्य से जुड़ी बातों तथा सावधानियों को समझते थे। छोटे बच्चों मुख्यतः दुधमुंहे बच्चों को होने वाली छोटी-छोटी बीमारियों का इलाज घर में ही हो जाता था। बुजुर्ग महिलाओं को देशी जड़ी-बूटियों की अच्छी जानकारी होती थी। उनका देशी जड़ी-बूटियों से संबंधित देशज ज्ञान पीढ़ी हस्तांतरित होता था। रमेशचंद्र तोमर ने बताया कि बरगद के नर्म पत्तों पर तेल लगाकर तथा आग पर गर्म करके, गर्म-गर्म पत्ते घुटने पर बांधने से जोड़ों का दर्द दूर होता है। उन्होंने आगे बताया कि दूध नहीं उतरने वाली सद्यः प्रसूता को यदि बताशे में रख कर बरगद का दूध, सबेरे-सबेरे पिला दें तो महिला को दूध उतरने लगता है। चौपाल में बताया गया कि चेहरे के दाग-धब्बे, किडनी की बीमारी, पीलिया या टायफाइड में गवांरपाठा का उपयोग लाभप्रद होता है।

निमाड़ अंचल में, दाह-संस्कार के बाद, शवयात्रा में सम्मिलित हर व्यक्ति, श्मशान भूमि के निकट स्थित जलस्रोत में स्नान करता है। वसंत निरगुणे का मानना है कि दाह-संस्कार करने से मृत व्यक्ति के शरीर के कीटाणु पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं। दाह-संस्कार के बाद घर जाकर स्नान करने की प्रथा के बारे में रमेशचंद्र तोमर का कहना था कि स्नान करने से कीटाणुओं का खतरा कम होता है। हमें बताया गया कि निमाड़ में दाह-संस्कार के बाद, गंगा या नर्मदा में अस्थि विसर्जन, दसवें दिन दशाकर्म या गंगा पूजन तथा मृत्यु भोज या प्रसाद वितरण किया जाता है।

श्रीमती लक्ष्मी बाई कुमरावत तथा श्रीमती छाया कुमरावत ने बताया कि निमाड़ में पगल्या, पांचवीं, छठीं एवं वायपूजा (जलवाय) प्रचलन में हैं। पगल्या में शिशु के जन्म का समाचार, प्रसूता के मायके को सात दिन के बाद भेजा जाता है। छठी पर बच्चे को स्नान करा कर उसके हाथ और पैर में हल्दी लगा, सूत का धागा बांधा जाता है। हल्दी लगा रोगाणुरोधी धागा, नवजात शिशु को बीमारियों से बचाने या उसकी सुरक्षा के लिए ही बांधा जाता होगा। निमाड़ी मान्यता है कि छठीं के दिन विधाता, नवजात शिशु का भाग्य लिखते हैं। इस प्रथा पर विचार करने से हमें लगा कि छठीं का संस्कार तो उन्हीं नवजात शिशुओं के लिए कहा जा सकता है जो प्रसूति के दौरान या प्रसूति के तत्काल बाद अकाल मृत्यु से बच गए हैं। इस क्रम में कहा जा सकता है यह संस्कार नवजात बच्चे के जिंदा बचे रहने के प्रतीक के रूप में मनाया जाने वाला संस्कार है। तेरहवें दिन या इक्कीसवें दिन जलवाय पूजा की जाती है। कुछ स्थानीय लोग एवं अन्य अंचलों में इस संस्कार को कुआं पूजन कहते हैं।

 

जल चौपाल, सप्रे संग्रहालय, संस्करण 2013

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

आओ बनायें पानीदार समाज

2

मध्य प्रदेश का सांस्कृतिक परिचय

3

निमाड़ की चौपाल

4

बघेलखंड की जल चौपाल

5

बुन्देलखण्ड की जल चौपाल

6

मालवा की जल चौपाल

7

जल चौपाल के संकेत