मालवा की जल चौपाल

Submitted by admin on Thu, 07/03/2014 - 11:53
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जल चौपाल, सप्रे संग्रहालय, संस्करण 2013

‘जल चौपाल’ नाम की एक पुस्तक का पांचवां अध्याय है मालवा की जल चौपाल। सप्रे संग्रहालय और राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी परिषद के सामूहिक सहयोग से जल चौपाल पुस्तक तैयार की गई है।

मालवा अंचल के ग्रामीण इलाकों के लोग, अभी भी घर लौटने पर हाथ-पैर धोने के बाद घर के अंदर प्रवेश करते हैं। बरसों से साफ एवं स्वच्छ पानी से हाथ मुंह धोकर भोजन किया जाता है। भोजन के बाद अच्छी तरह हाथ मुंह धोया जाता रहा है। भोजन पात्रों को पानी से धोकर रखा तथा प्रयुक्त किया जाता है। साफ-सुथरे बर्तन ही खाना पकाने में प्रयुक्त होते हैं। यह मालवा की सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है। कमोबेश यही जानकारी शाजापुर के सोयतखुर्द और शिवपुरी के ग्राम मुढ़ैनी में मिली।

कृषि मालवा अंचल की लोक संस्कृति में जल विज्ञान और प्रकृति को समझने के लिए हम लोग नीमच जिले के मनासा, निपानिया आयुर्वेदाश्रम, मोडीमाता, मोरवन तथा झांतला गए। झांतला ग्राम, नीमच जिले के ठेठ पश्चिम में अरावली पर्वतमाला के पठार पर स्थित है।

इस ग्राम की बोली तथा संस्कृति पर राजस्थान के भीलांचल का असर है। मालवांचल में हमारे सम्पर्क सूत्र तथा सहयोगी थे मालव लोक संस्कृति अनुष्ठान मनासा के संचालक एवं मालवी के प्रतिष्ठित विद्वान डा. पूरन सहगल। उन्होंने पूरक जानकारियां भेजने का काम जारी रखां शिवपुरी जिले में हमारे सम्पर्क सूत्र एवं सहयोगी थे विवेक पेंढारकर।

मोड़ीमाता के धार्मिक मेले में अनेक वयोवृद्ध एवं अनुभवी किसानों से चर्चा हुई। इस मेले में मोड़ी, निपानिया, अल्हेड, बालागंज, रतनगढ़ जावद, मनासा, नीमच कंजार्डा, मालखेड़ी, सरवानिया, भाटखेडी, मोरवन और जाट ग्राम के लोग मौजूद थे। मोड़ीमाता में कुछ लोगों ने लगभग 400 साल पुरानी स्थानीय बावड़ी का विवरण दिया।

अगली चौपालें मोरवन तथा झांतला ग्रामों में आयोजित की। नीमच जिले की सभी चौपालें डा. पूरन सहगल के संयोजकत्व में सम्पन्न की गईं। मोरवन में संजय शर्मा और झांतला में नेमीचन्द छीपा और मोइनुद्दीन मंसूरी ने चौपाल संयोजन में डा. पूरन सहगल को सहयोग दिया।

सभी लोगों ने अपने क्षेत्र के परंपरागत समाज की जीवनशैली तथा संस्कारों, समाज, जंगल, जलवायु, वर्षा, अकाल, आबादी, आजीविका के साधनों, स्वास्थ्य, खेती, फसलों, कृषि पद्धतियों, मिट्टियों, सिंचाई एवं सिंचाई साधनों, कृषि उपकरणों और पुरानी जल संरचनाओं के बारे में सिलसिलेवार जानकारी दी।

हमने निपानिया आयुर्वेदाश्रम के पंडित सुरेश दत्त शास्त्री से गहन चर्चा की। नीमच जिले के अतिरिक्त हम शिवपुरी जिले के मुढ़ैनी ग्राम गए। यह गांव शिवपुरी विकासखंड में स्थित है। इस ग्राम में हमें बुंदेलखंड, मालवा तथा ग्वालियर के निकटवर्ती भदावरी अंचल की संस्कृति का प्रभाव नजर आया किंतु भाषा पर बुंदेलखंड अंचल का प्रभाव कुछ अधिक था।

मुढ़ैनी ग्राम में हमने समाज, जंगल, जलवायु, वर्षा, अकाल, आबादी आजीविका के साधनों, स्वास्थ्य, खेती, फसलों कृषि पद्धतियों, मिट्टियों, सिंचाई एवं सिंचाई साधनों, कृषि उपकरणों और पुरानी जल संरचनाओं के बारे में सिलसिलेवार जानकारी प्राप्त की। इसके अतिरिक्त उज्जैन के आर.सी. गुप्ता ने शाजापुर जिले के विकासखंड सुसनेर के ग्राम सोयतखुर्द से जानकारियां उपलब्ध कराईं।

मालवा के विभिन्न क्षेत्रों से ऊपर उल्लिखित साथियों द्वारा भेजी जानकारियों और नीमच, शाजापुर एवं शिवपुरी जिले की चौपालों का अनुभव, अनुभवों की समीक्षा और ज्ञान के सम्प्रेषण की विधियों का वर्णन, पूर्व में उल्लिखित निम्नलिखित उप-शिर्षों के अंतर्गत किया जा रहा है।

1. दैनिक जीवन, धार्मिक एवं सामाजिक संस्कारों में विज्ञान
2. जलस्रोत- विज्ञान की झलक
3. स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य संबंधी संस्कारों का विज्ञान
4. मिट्टी, परंपरागत खेती, वर्षा तथा वर्षा का वनों से रिश्ता
5. लोक संस्कृति का प्रकृति से नाता और अंचल की वाचिक परंपरा में लोक-विज्ञान की उपस्थिति

1. दैनिक जीवन, धार्मिक एवं सामाजिक संस्कारों में विज्ञान


मालवा की विभिन्न चौपालों में आए लोगों द्वारा बताई तथा सम्पर्क सूत्रों द्वारा भेजी जानकारियों का लब्बो-लुआब था कि पुरातन काल में उनके ग्रामों के लोक संस्कारों में दैनिक जीवन से जुड़े अनेक कर्मकाण्ड, क्रियाकलाप तथा प्रथाएं प्रचलन में थे। पूरा समाज उनका निष्ठापूर्वक पालन करता था।

आज भी घरों या सार्वजनिक स्थानों पर होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में अधिकांश प्राचीन परिपाटियों का पालन किया जाता है। दैनिक जीवन से जुड़े कुछ कर्मकाण्डों, क्रियाकलापों तथा प्रथाओं के पीछे के विज्ञान के बारे में चौपालों में मिली समझ का विवरण और संभावित वैज्ञानिक पक्ष यहां प्रस्तुत है।

1.1 दैनिक जीवन में पानी


नीमच जिले के मनासा, निपानिया आयुर्वेदाश्रम, मोड़ीमाता, मोरवन तथा झांतला और शिवपुरी जिले के मुढ़ैनी की चौपालों में आए लोगों का कहना था कि वे लोग सो कर उठने से लेकर सोने तक अनेक गतिविधियों में पीढ़ियों से साफ पानी का उपयोग में लाते रहे हैं। अनेक लोग रात्रि में तांबे के लोटे में पानी भर कर रखते हैं और सबेरे उठकर उस पानी को पीते हैं।

कुछ लोग सादा पानी पीते हैं। लोगों का कहना था कि सबेरे उठते ही पानी पीने से हाजमा ठीक रहता है। कब्ज नहीं होता। यदि किसी को कब्ज है तो वह सबेरे उठते ही पानी पीने से बिना दवा के ठीक हो जाता है। वे तांबे के पात्र में रखे पानी के प्रभाव से परिचित किंतु उसके पीछे के विज्ञान से अपरिचित लगे।

मालवा अंचल के ग्रामीण इलाकों के लोग, अभी भी घर लौटने पर हाथ-पैर धोने के बाद घर के अंदर प्रवेश करते हैं। बरसों से साफ एवं स्वच्छ पानी से हाथ मुंह धोकर भोजन किया जाता है।

भोजन के बाद अच्छी तरह हाथ मुंह धोया जाता रहा है। भोजन पात्रों को पानी से धोकर रखा तथा प्रयुक्त किया जाता है। साफ-सुथरे बर्तन ही खाना पकाने में प्रयुक्त होते हैं। यह मालवा की सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है। कमोबेश यही जानकारी शाजापुर के सोयतखुर्द और शिवपुरी के ग्राम मुढ़ैनी में मिली।

मोरवन की चौपाल में मौजूद कुछ लोगों का अनुमान था कि संभवतः हर साल होली के दूसरे दिन और पांचवे दिन मनाया जाने वाला धुलेंडी और रंग-पंचमी का त्योहार सामाजिक महोत्सव है, जो शीत ऋतु के बाद, हर स्त्री-पुरूष, छोटे-बड़े व्यक्तियों के शरीर की साफ-सफाई को सुनिश्चित करता है। उनके अनुसार इन त्योहारों से सभी जाने-अनजाने व्यक्तियों को जोड़ने के लिए बिना भेद-भाव के रंग डालने की प्रथा बनाई।

मुढ़ैनी ग्राम के माखनलाल प्रजापति और प्रकाशचंद्र गुप्ता ने बताया कि उनके अंचल में कालीसिंध और लखुन्दर नदी के संगम (ग्राम ताखला) पर कार्तिक स्नान का बहुत महत्व है। इसके अलावा उज्जैन में क्षिप्रा और चन्द्रभागा (ग्राम पाटन) में स्नान की परंपरा है। कार्तिक स्नान के महत्व का सम्प्रेरण पीढ़ी-दर-पीढ़ी किया जाता था। अब कार्तिक स्नान की प्रथा धीरे-धीरे लुप्त हो रही है।

मालवा अंचल की प्रथाओं या परिपाटियों के क्रम में हमारी टीम को लगता है कि पानी से जुड़े मेले, रीति-रिवाज तथा आनंदोत्सव भी कहीं-न-कहीं समाज के हर तबके के व्यक्तियों की रोग प्रतिरोधक क्षमता के विकास तथा मेल-जोल के सामाजिक अनुष्ठान हैं। लगता है यही प्राचीन भारत की जीवनशैली है।

यही लोक संस्कार हैं। यही काया को निरोग रखने और मेल-जोल बढ़ाने का तरीका है। चौपालों में मौजूद लोगों का कहना था कि पानी में शरीर की अधिकांश गंदगी को साफ करने का गुण होता है। चिकित्सकों और वैज्ञानिकों ने माना कि जल संस्कार पूरी तरह वैज्ञानिक हैं।

1.2 धार्मिक संस्कारों में विज्ञान


नीमच जिले की चौपालों में मौजूद लोगों ने बताया कि उनके अंचल में प्रचलित धार्मिक संस्कारों में जल के उपयोग की सूची बहुत लंबी है। यही बात मुढ़ैनी और सोयतखुर्द के लोगों ने कही। सभी धार्मिक अनुष्ठानों तथा संस्कारों में सबसे पहले गाय के गोबर से लीप कर जमीन को शुद्ध कर, चौक पूरा जाता है। चौक पर गेहूं या चावल के दाने रख पानी से भरा कलश रखा जाता है।

सबसे पहले कलश का पूजन होता है। कलश के पानी से ही आराध्य देव को स्नान कराया जाता है। पूजा में सामान्यतः तांबे का कलश एवं तांबे के चम्मच का उपयोग किया। गौरतलब है कि अन्य अंचलों की ही तरह मालवा में भी सभी धार्मिक प्रक्रियाओं में पानी को हाथ से छूने के स्थान पर कुश या पान के पत्ते की सहायता से छुआ जाता है।

इस व्यवस्था ने हमारे मन में प्रश्न खड़ा किया कि अनुष्ठान के लिए प्रयुक्त पानी को कुश या पान के पत्ते से ही क्यों छुआ जा रहा है? हाथ से क्यों नहीं? अनुष्ठान के दौरान, जल की शुद्धता और उसकी पवित्रता को सुनिश्चित करने की व्यवस्था हो सकती है। हाथ में पानी लेकर आचमन या संकल्प लिए जाते हैं।

पात्र में पानी भर कर सूर्य नमस्कार किया जाता है और सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। गंगाजली या जल पात्र को हाथ में रख कर सौगंध दिलाई जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी अक्षय तृतीया एवं असाढ़ माह में पहली बार हल चलाते समय शुद्ध जल से भरे घट की पूजा की जाती है।

सोयतखुर्द के रामगोपाल दूबे ने बताया कि उनके गांव के अनेक लोग महादेव, तुलसी और पीपल को जल चढ़ाते हैं। लगता है कि पानी की शुद्धता से संबंधित विज्ञान को जीवनशैली का अंग बनाने के लिए आस्था तथा विश्वास की मदद से सम्प्रेषित किया है। अनुष्ठानों और संस्कारों की भूमिका, पानी की शुद्धता से संबंधित विज्ञान को प्रतिष्ठित करने की है। बोली, भूगोल या पहनावे के अंतर के बावजूद मालवा के संस्कार अन्य अंचलों की ही तरह हैं।

हमारी टीम के लोग नीमच जिले के राजस्थान से सटे अरावली इलाके के ग्राम झांतला गए। यह ग्राम नीमच जिले के जावद विकासखंड में पठार पर स्थित हे। आजादी के पहले यह इलाका ग्वालियर रियासत का हिस्सा था। इस इलाके की बोली पर मेवाड़ी भाषा का प्रभाव है तथा संस्कृति मिश्रित मालवी तथा मेवाड़ी है। इस अंचल को भीलांचल के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।

ग्राम झांतला की चौपाल में ओंकारलाल धाकड़ और मांगीलाल ने बताया कि उनके क्षेत्र में हाथ में पानी लेकर संकल्प लेने की प्रथा थी यह संकल्प बुरी आदतों को छोड़ने के लिए लिया जाता था। झांतला और मनासा में बताया कि मालवा में पीपल, तुलसी, आंवला, वट इत्यादि की पूजा की जाती है। इस अंचल में दान करने या किसी काम को पूरा करने के लिए अंजुरी में पानी लेकर संकल्प की प्रथा नहीं थी।

पूजा-पाठ त्योहारों तथा अनुष्ठानों में पानी प्रयुक्त होता था। शिवपुरी के ग्राम मुढ़ैनी की चौपाल में प्रकाशचन्द्र गुप्ता ने बताया कि उनके क्षेत्र में संकल्प लेने की प्रथा थी। पुत्री के विवाह में कन्यादान के लिए संकल्प लिया जाता है। पंडित द्वारा गोदान का संकल्प दिलाया जाता है। पूजा-पाठ, त्योहारों तथा अनुष्ठानों में पानी प्रयुक्त होता था। सोयतखुर्द के रमेश गुप्ता ने बताया कि उनके गांव में भी यह परिपाटी प्रचलन में है।

अन्य अंचलों की तरह मालवा की उपर्युक्त व्यवस्था की अशुद्ध जल को नकार कर शुद्ध जल को समाज के मन-मस्तिष्क में प्रतिष्ठित करने की सामाजिक व्यवस्था है। यही संभावना तांबे के पात्र में पानी के संचय को लेकर लगी। पीपल, तुलसी, आंवला और वट वृक्ष का पूजन कहीं न कहीं सेहत प्रदान करने वाले वृक्षों से जुड़ा है।

हमें लगता है कि सभी उपक्रम निरापद जीवनशैली से जुड़े वैज्ञानिक तथ्यों को तत्कालीन समाज के मन-मस्तिष्क में सम्प्रेषित कर स्थायी रूप से प्रतिष्ठित करते है। सम्प्रेषण का यह देशज भारतीय तरीका व्यक्ति के मन को छूता है और संस्कार बनकर जीवनशैली का अभिन्न अंग बन जाता है।

1.3 सामाजिक संस्कारों में विज्ञान


सभी चौपालों एवं सोयतखुर्द से प्राप्त उत्तरों में हमें बताया गया कि जन्म से लेकर मृत्यु तक सभी 16 संस्कारों में शुद्ध जल का उपयोग होता है। सभी संस्कारों में स्नान का प्रावधान है।

जन्म के तत्काल बाद नवजात शिशु को गुनगुने शुद्ध जल और तीसरे दिन प्रसूता एवं नवजात बच्चे को नीम के पत्ते डालकर उबाले हलके गर्म पानी से नहलाया जाता है। मोरवन की चौपाल में सुरेशचंद्र ने बताया कि इस क्षेत्र में कुआं पूजने की परिपाटी है। कुआं पूजने के उपरांत प्रसवनी महिला पानी का घड़ा लेकर घर लौटती है। घड़ा, घिनोंची में रखा जाता है।

ग्राम झांतला में बताया गया कि उनके क्षेत्र में कुआं पूजने की परिपाटी नहीं है। इस क्षेत्र में प्रसूता को प्रसव के सात दिन या नौ दिन बाद घर पर स्नान कराया जाता है। इस प्रथा को नहावण कहते हैं। नहावण की तिथि का निर्धारण पंडित करता है।

झांतला, जहां कुआं पूजन की प्रथा नहीं है, में भी नहावण की प्रथा के उपरांत की प्रसूता को जिम्मेदारियां दी जाती है। उल्लेख है कि कुआं पुजन की प्रथा मध्य प्रदेश के सभी अंचलों में है। यह समानता इंगित करती है कि वह वास्तव में महिला की स्वास्थ्य बहाली एवं जल-स्रोतों के प्रति लोक आस्था से जुड़ा अनुष्ठान है।

बच्चों के जन्म से जुड़े संस्कारों पर हमने मालवांचल की बहुत-सी महिलाओं, परिवार के लोगों तथा महिला चिकित्सकों के विचार सुने। सभी का मानना था कि प्रसूता का नीम के पानी से स्नान, नवजात शिशु को गुनगुने पानी से नहलाना, जच्चे-बच्चे को अलग कमरे में रखना, चरुआ का पानी पिलाना, दसवें दिन प्रसूता को सामान्य भोजन कराना, सवा माह बाद घर की जिम्मेदारी की मुख्य धारा से जोड़ना, प्रसव उपरांत गुड़-हल्दी-मेवों तथा घी के लड्डू खिलाना, विवाह पूर्व वर-वधू की हल्दी की रस्म, मृतक को दाह संस्कार के पहले स्नान कराना, नए कपड़े पहनाना- सब कुछ लोगों के निरापद स्वास्थ्य से जुड़ा विषय है। मैल, गंदगी, रोगाणु तथा कीटाणु मुक्ति के लिए स्नान तथा उपर्युक्त सावधानियां आवश्यक हैं।

2. जलस्रोत-विज्ञान की झलक


हमारी टीम ने मालवा की चौपाल में आए लोगों से परंपरागत प्रमुख संरचनाओं, पानी की खोज की परंपरागत विधियां और उनका वैज्ञानिक पक्ष, जल स्रोत से पानी निकालने की व्यवस्था एवं प्रयुक्त औजार, पानी शुद्ध रखने के तौर तरीके और पेयजल सुरक्षा एवं संस्कारों पर विचार जानने का प्रयास किया।

2.1 मालवा की परपंरागत संरचनाएं


जब कभी मालवा में तालाब निर्माण का फैसला किया जाता था तब सबसे पहले मुहूर्त निकलवाया जाता था। वास्तुकार से दिशा निर्धारण कराया जाता था। तालाब योग्य भूमि का चुनाव कराया जाता था और यथासंभव ऐसी जमीन का चुनाव किया जाता था, जो पानी सोखने वाली नहीं हो। जल को रोक कर रख सके अर्थात मोरमी मिट्टी वाले स्थान का चुनाव किया जाता था। जिस दिशा से तालाब में पानी आए उस दिशा में गंदगी का फेंकना या भंडारण नहीं हो। उस दिशा में मृत जानवरों का निष्पादन या चीर-फाड़ या अस्थि-विसर्जन नहीं हो तथा उस दिशा में मल-मूत्र विसर्जन भी नहीं होना चाहिए।

झांतला और मुढ़ैनी की चौपालों में हुई चर्चा से पता चलता है कि प्राचीन काल में झांतला में 50 से 60 फुट की गहराई पर पानी मिलता था। झांतला में पानी निकालने का मुख्य साधन चमड़े की चरस था। भीलांचल के नयापुरा ग्राम के हरीराम के अनुसार उनके पूरे पठार में केवल कुएं बनाए जाते थे। संवत 56 के अकाल वर्ष में ग्वालियर के महाराजा ने 500 बीघा का तालाब बनवाया था।

उन्होंने जानकारी दी कि भीलांचल में बावड़ियों के निर्माण का प्रचलन नहीं था। मोइनुद्दीन मंसूरी ने बताया कि मंदसौर, उज्जैन, जावद, केजाड़ी और रामपुरा इत्यादि बस्तियों में तालाब भी बनावाए गए हैं पर हर गांव में बावड़ियां नहीं हैं। शिवपुरी के मुढ़ैनी ग्राम में कुओं की अधिकतम गहराई 50 फुट तक होती थी।

इस ग्राम में पानी निकालने के लिए ढेबरी का उपयोग होता था। इसका निर्माण चमड़े से किया जाता था तथा उससे पानी बाहर निकालने के लिए सूंड जैसी व्यवस्था होती थी। सोयतखुर्द के बलदेव जायसवाल के अनुसार हर मोहल्ले या बसाहट में प्रत्येक जाति के लिए कम-से-कम एक कुण्डी अवश्य थी। सोयतखुर्द में पुराना तालाब या बावड़ी नहीं थी।

मनासा, निपानिया आयुर्वेदाश्रम, मोड़ीमाता और मोरवन की चौपालों में हुई चर्चा से पता चलता है कि इन क्षेत्रों में कम गहराई पर पानी मिलता था। चट्टानी संरचना और पानी के कम गहराई पर मिलने के कारण, यहां की उपयुक्त संरचना कुआं तथा बावड़ी थीं लगभग समान परिस्थितियों के मिलने के कारण मालवा में कुओं तथा बावड़ियों का सबसे अधिक निर्माण हुआ।

महिदपुर के आसपास चौपड़ा मिलते हैं। चौपड़ा जल संरचना है। उसकी आकृति चौपड़ की चार भुजाओं की तरह होती है। जिसमें तीन ओर से भीतर जाने के लिए सीढ़ीदार रास्ते होते हैं। चौथी ओर से चरस द्वारा पानी निकालने की व्यवस्था होती है।

मनासा की चौपाल में डा. सहगल ने एक गीत- कथा सुनाई।

नी तो बंधवाई कुंआ बावड़ी म्हारा सायबजी।
न तो बंधवाया सरवर घाट जी।
बाग तो बगीचा नी लगवाया म्हारा धणियल वो।
धरम तो कमयो नी जीवतां।
मनख तो जमारो दूपट नी मले जी म्हारा सायब जी।
पुण्य तो कमाओ जीतां जीवतां।
मैहल तो अटारी कई काम की म्हारा सायब जी।
सरगां की पंगतियां तो नी बणी।।


इस गीत-कथा में महिला अपने पति से कहती है कि हे पतिदेव! हमने न तो कुएं बावड़ियां खुदवाईं, न ताल सरोवर बंधवाए और बाग-बगीचे भी नहीं लगवाए। हमने जीवित रहते कुछ भी पुण्य धर्म नहीं कमाया। महल अटारियां किस काम की? हमने स्वर्ग जाने के लिए सीढ़ियां तो नहीं बनवाईं। यह लोक-कथा जल स्रोतों के प्रति आमजन की श्रद्धा भावना प्रकट करती है।

अध्ययन यात्रा के दौरान हम नीमच के ग्राम मोड़ीमाता गए। यहां रियासतकालीन पुरानी बावड़ी है। मोड़ीमाता में लोगों ने बताया कि इस बावड़ी की गहराई 100 फुट से अधिक, चौड़ाई लगभग 90 फुट तथा लम्बाई लगभग 110 फुट है। इसकी निर्माण शैली राजस्थानी है। नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां हैं। जैसे-जैसे नीचे उतरते हैं बावड़ी की लंबाई और चौड़ाई कम होती जाती है। कुछ साल पहले इस बावड़ी का जीर्णोंद्धार किया गया है।

पानी की आवक बढ़ाने के लिए उसमें चारों दिशाओं में आड़ा वेधन किया गया है। बावड़ी की गहराई ने हमारे मन में कुछ प्रश्न खड़े किए। पहला प्रश्न था कि जब मालवा में बहुत कम गहराई पर भूजल उपलब्ध है तो बावड़ी की गहराई 100 फुट क्यों? क्या मालवा में कभी 100 फुट तक जल स्तर घटने के अवसर आए हैं? क्या इसके पीछे अकाल का कारण था या बरसात की चारित्रिक विशेषता जैसे कारण थे?

दूसरा प्रश्न आधुनिक विशेषज्ञों के उस निर्णय पर है जिसके अंतर्गत उन्होंने भूमिगत जल के प्रवाह की दिशा जाने बिना, पुरानी बावड़ी की तली के निकट चारों दिशाओं में आड़ा वेधन किया है। तकनीकी आधार पर आड़ा वेधन हमेशा भूमिगत जल प्रवाह की दिशा के लंबवत किया जाता है। भूजल वैज्ञानिकों के अनुसार भूमिगत जल प्रवाह के लंबवत एवं अपक्षीण परत में किया वेधन या गैलरी का निर्माण ही अधिकतम जलप्रवाह को सुनिश्चित करता है।

रामपुर के डा. प्रभुलाल एवं भटेरा के देवीसिंह परमार के अनुसार माण्डू में तालाबों, कुओं तथा बावड़ियों का तानाबाना, मालवा की परंपरागत पानी संरचनाओं का प्रमाण है। मनासा के पूरन सहगल, मंदसौर के मनोज मकवाना एवं पीपल्याराव के बी. एम. दमानी का कहना था कि मालवा अंचल के पश्चिमी हिस्से में छत के पानी को भूमिगत कुण्डों में सहेजने की परंपरा थी। इस परंपरा के प्रमाण आज भी देखे जा सकते है। मालवा में तालाबों का भी निर्माण हुआ है पर उनकी संख्या अपेक्षाकृत कम है।

पूरन सहगल ने जानकारी दी कि उज्जैन से लगभग 20 किलोमीटर दूर लेकुडा में रियासत कालीन सात तालाबों की श्रृंखला है। यहां मोरी या नालचा (पानी निकालने वाली नाली) वाले तालाब हैं। तालाब का पानी, मोरी से सफर कर खेतों को सींचता था।

बालमुकुन्द सावंतराव पटेल के अनुसार इन तालाबों की उम्र आठ सौ से एक हजार साल है। मंदसौर के मनोज मकवाना के अनुसार धार नगर में पुराने साढ़े ग्यारह तालाब हैं। चौपालों में मौजूद लोगों का कहना था कि इन संरचनाओं के निर्माण में क्षेत्र के स्थानीय भूगोल तथा धरती के गुणों का ध्यान रखा जाता था।

तालाब निर्माण में पाल की मजबूती, तालाब की तली से पानी का संभावित रिसाव तथा आगौर से पानी की आवक तथा अतिरिक्त जल की सुरक्षित निकासी जैसे बिंदु महत्वपूर्ण माने जाते थे और निर्माणकर्ता उनका पूरा-पूरा ध्यान रखते थे। मालवा में तालाबों के निर्माण की परंपरागत विधियों के बारे में डा. सहगल ने बताया कि-

जब कभी मालवा में तालाब निर्माण का फैसला किया जाता था तब सबसे पहले मुहूर्त निकलवाया जाता था। वास्तुकार से दिशा निर्धारण कराया जाता था। तालाब योग्य भूमि का चुनाव कराया जाता था और यथासंभव ऐसी जमीन का चुनाव किया जाता था, जो पानी सोखने वाली नहीं हो।

जल को रोक कर रख सके अर्थात मोरमी मिट्टी वाले स्थान का चुनाव किया जाता था। जिस दिशा से तालाब में पानी आए उस दिशा में गंदगी का फेंकना या भंडारण नहीं हो। उस दिशा में मृत जानवरों का निष्पादन या चीर-फाड़ या अस्थि-विसर्जन नहीं हो तथा उस दिशा में मल-मूत्र विसर्जन भी नहीं होना चाहिए।

उपर्युक्त गतिविधियों को हाकड़ा में सम्पन्न किया जाना चाहिए। डा. सहगल के अनुसार हाकड़ा उन दिशाओं में स्थित क्षेत्र को कहते हैं जिन दिशाओं से पानी का आना या जाना नहीं होता। आगौर को भूमि कटाव से यथासंभव मुक्त होना चाहिए तथा अपरा से अतिरिक्त जल की निकासी सुरक्षित होनी चाहिए। उनके अनुसार रामपुरा का पुराना तालाब उपर्युक्त गुणों की कसौटी पर खरा उतरता था।

डा. पूरन सहगल के अनुसार बुलवाई (हरकारा या बलाई) गांव की और आसपास के गांवों के बीच की जमीन का चप्पा-चप्पा पहचानता था। वह, मिट्टी सूंधकर (अर्थात नमी का अनुमान लगाकर) तय करता था कि सरोवर के निर्माण के लिए कौन-सी जमीन सही होगी। जामुन की लकड़ी और चिड़ियों के घोंसले देखकर वह जलस्रोत का अनुमान लगाता था।

इन संकेतों के अलावा वह और भी अनेक प्राकृतिक संकेतों से परिचित होता था। पुराने समय में मिर्धा (मालवा की एक जाति) गांव की जमीन का हिसाब रखता था और गजधर जाति के लोग तालाब निर्माण के काम में पारंगत होते थे।

वे ही जल स्रोतों का निर्धारण करते थे। सांसी जाति के लोग अच्छे वास्तुकार होते थे। दुसाध, कोल, कीर, कोरी, ढीमर, भोई, काछी, खारोल, ओड़ इत्यादि जातियों के लोग तालाब निर्माण की किसी-न-किसी विधा के पारंगत होते थे। मालवा अंचल में दसवीं सदी के पहले से लोग तालाब निर्माण कला में दक्षता प्राप्त कर चुके थे।

ग्राम मुढ़ैनी की चौपाल में मुंशीलाल रावत ने बताया कि पहले उनका गांव नरवर रियासत में आता था। रियासत काल में उनके गांव में लगभग 10 कुएं और लगभग चार सौ साल पुरानी तथा 50 फुट गहरी बावड़ी थी। कुओं और बावड़ी में बारहों माह पानी रहता था। उनके गांव के पास से चोरोघाट नदी बहती है।

पुराने समय में इस नदी में बारहों माह पानी बहता था। अब यह नदी सूख गई है। उनके गांव के आसपास लगभग 10 बीघा का तालाब है। इसमें पहले चैत्र माह तक पानी रहता था। इस तालाब का पानी निस्तार और मवेशियों के काम आता था। पुराने समय में उनके गांव के लोग तालाब खोदने के लिए बाहर जाते थे।

बद्री जाटव, नारायण प्रसाद और परमानन्द शर्मा ने बताया कि उनके गांव में पहले सार्वजनिक कुओं का निर्माण सबकी सलाह से किया जाता था। पुराने कुओं, बावड़ी और नदी का पानी स्वास्थ्यवर्धक था। उसे साफ करने की आवश्यकता नहीं थी।

डा. पूरन सहगल के अनुसार स्थानीय सामग्री द्वारा ही कुओं, बावड़ियों और तालाबों का निर्माण होता था। बावड़ियों में सीढ़ियों का प्रावधान संभवतः यात्रियों की सुविधा के लिए किया गया था। उनकी आकृतियों की विविधता के पीछे सौंदर्य-बोध, वास्तुशास्त्र या कल्पनाशीलता हो सकती है। जल संरचनाओं को बनाने में टिकाऊ निर्माण सामग्री काम में ली जाती थी, जिससे निर्मित जल संरचनाएं दीर्घजीवी होती थीं।

तकनीकी दृष्टिकोण से कुओं, बावड़ियों और तालाबों की समीक्षा के लिए माधुरी श्रीधर ने सप्रे संग्रहालय की लाइब्रेरी खंगाली। इंदौर स्टेट वेस्टर्न स्टेट के पुराने गजेटियर में दर्ज विवरणों को सामने रख कर उन अंचलों में बनने वाली संरचनाओं के विकल्प चयन के कारण या उसके पीछे के विज्ञान को समझने का प्रयास किया।

प्राप्त विवरणों और गहन चर्चा के आधार पर हमारी टीम को लगता है कि मालवा अंचल में लंबे सोच विचार के उपरांत तथा वर्षा के चरित्र एवं जमीन के गुणों को ध्यान में रखकर ही परंपरागत संरचनाओं का चयन किया गया था। इस क्रम में प्रतीत होता है कि मालवा अंचल में लगभग सर्वत्र मिलने वाले काले रंग के बेसाल्ट की परतों के जल संचय से जुड़े गुणों ने उथली संरचनाओं का मार्ग प्रशस्त किया था।

मालवा में मुख्यतः कुओं और बावड़ियों का निर्माण बेसाल्ट की परतों के भूजलीय गुणों से नियंत्रित था। बेसाल्ट की परतों के द्वारा जल रिसाव की संभावनाओं के कारण अनेक जगह, तालाबों का निर्माण हासिए से नियंत्रित था। हमारी समीक्षा, मालवा की पुरानी संरचनाओं के विकल्प चयन को तकनीकी नजरिए से उपयुक्त मानती है।

डा. पूरन सहगल के अनुसार सैकड़ों सालों से मालवांचल सम्पन्नता और राजनीतिक गतिविधियों के केंद्र में रहा है। उनको लगता है कि मालवांचल के राजमार्गों पर दीर्घजीवी बावड़ियों का निर्माण यात्रियों को सहजता से पानी की उपलब्धता की अवधारणा तथा कतिपय मामलों में परोपकार की भावना के कारण किया था।

हमारी टीम का मानना है कि बावड़ियों ने लंबे समय तक समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति की। सैकड़ों सालों तक लगभग प्रदूषण मुक्त रही। मंदसौर के राघवेंद्र शुक्ल का कहना था कि यह विडंबना ही होती है। हाल के सालों में सीढ़ी दार बावड़ियां नारू रोग की संवाहक बनी। नारू रोग के कारण उन्हें बंद कराया गया। इस विडंबना के कारण अब वे विलुप्ति की कगार पर हैं। कुछ कूड़ेदान की भूमिका निभा रही हैं।

2.2 पानी की खोज


हमारी टीम ने नीमच जिले के मनासा, निपानिया आयुर्वेदाश्रम, मोड़ीमाता, मोरवन, झांतला और शिवपुरी जिले के मुढ़ैनी की चौपालों में आए लोगों से पानी की खोज संबंधी परंपरागत जानकारी और संपर्क सुत्रों के माध्यम से शाजापुर जिले के ग्राम सोयतखुर्द की तत्संबंधी जानकारी को संकलित किया। अगले पन्नों में पानी की खोज की परंपरागत विधियों को भूजल तथा सतही जल में वर्गीकृत कर प्रस्तुत किया जा रहा है।

2.2.1. मालवा में भूजल की खोज


मालवा में जमीन के नीचे के पानी की खोज की परंपरागत विधियों के बारे में मनासा की संगोष्ठी में मौजूद नीमच के संजय शर्मा एवं रमेश चौहान तथा पीपल्याराव के डा. सुरेन्द्र सक्तावत का कहना था कि उनके क्षेत्र में भूजल की खोज का प्रश्न बहुत मायने नहीं रखता।

सब लोग, मालवा की धरती के चरित्र से परिचित हैं, जिसमें कहा है - मालव धरती गहन गंभीर, पग पग रोटी डग डग नीर। मनासा की चौपाल में मौजूद अठाना के धर्मेन्द्र दुबे, मनासा के दिनेश सहगल, भाटखेड़ी के प्रभुलाल धनगर तथा पोसरना के प्यारेलाल संगोढ़ा ने बताया कि उनके अंचल के अनेक लोग जामुन, मेंहदी, अमरूद एवं गूलर के वृक्षों की टहनियों तथा दीमक की बांबी की मदद से भूजल की खोज करते हैं।

कंजार्डा के गमेरी लाल का कहना था कि उनके ध्यान में ऐसे अनेक जानकार हैं जो जल स्रोत की गहराई के बारे में बता सकते हैं। चौपाल में उपस्थित लोगों का कहना था कि ये विधियां सदियों से मालवा अंचल में प्रचलन में हैं। वे कहते हैं कि विज्ञान चूक सकता है, परंपरागत अनुभव नहीं चूकता। मनासा की चौपाल में हमें निम्न कहावतें सुनाई गईं-

चरकलियां चें चें करें, सोंधी उठे सुवास।
वठे खुदा लो बावड़ी जल देवता को वास।।


जिस स्थान पर एकत्रित होकर चिड़ियां चहचहा रहीं हों और धरती से सोंधी गंध आ रही हो, उस स्थान पर कुआं खुदवाने के कम गहराई पर पानी मिलता है।

चाले खेतां ’ मढ़ पे, परभांता पागधार।
जठे लगे ऊषमो, वठे भूम जल नार।।


प्रभातकाल में खेत एवं मेढ़ पर चलते चलते किसी जगह यदि अचानक ऊष्मा का अनुभव हो, वहां निश्चित ही भूजल मिलता है।भीलांचल की चौपाल में भूजल की खोज के तरीकों के बारे में हमें संतोषप्रद उत्तर नहीं मिला।

राघवेन्द्र शुक्ल का कहना था कि भूजल की खोज के विज्ञान की नींव उज्जैन के आचार्य वराहमिहिर ने सैकड़ों साल पहले रखी थी। यह आश्चर्यजनक है कि हमारी टीम को भूजल की खोज की पद्धतियों का विशद विवरण, किसी भी मालवी चौपाल में नहीं मिला।

बरसात के दिनों में जब पानी बरसता है तो वह दिखाई देता है। उसकी मात्रा, बरसे पानी की मात्रा पर निर्भर होती है। बाढ़ आती है तो उसका विस्तार दिखाई देता है। उनका कहना था कि जिस साल अधिक पानी बरसता है उस साल, अधिक दिन तक पानी कुंडों, तालाबों एवं प्राकृतिक झरनों में मिलता है। चौपाल में, बहते पानी की मात्रा का अनुमान लगाने या तत्संबंधी गणनाओं के बारे में जानकारी का अभाव था। वे हमें पुरानी विधियों के बारे में कुछ भी नहीं बता पा रहे थे, इसी प्रकार, भीलांचल की चौपाल में बरसाती पानी की मात्रा की माप की गणना के बारे में उत्तर नहीं मिला।

माधुरी श्रीधर का अध्ययन बताता है कि भारत में भूजल विज्ञान लगभग 5000 साल पुराना विज्ञान है। वे कहती हैं कि प्राकृतिक झरनों, नदियों में रिसते भूजल और मरुस्थलों की सूखी रेत के बीच कहीं-कहीं पाए जाने वाले झरनों ने निश्चय ही मनीषियों का ध्यान आकर्षित किया होगा। विभिन्न भागों में उनके अवलोकनों की प्रक्रिया लगातार चलती रही होगी, तब जाकर भूजल विज्ञान की समझ बनी होगी। मनीषियों ने समझ को भारतीय शैली अर्थात सूत्रों तथा श्लोकों के रूप में लिपिबद्ध किया होगा।

वराहमिहिर को पहला भूजलविद और बृहत्संहिता को पहला प्रामाणिक ग्रंथ इसलिए माना जाता है क्योंकि उनके पहले, भूजल के बारे में किसी भी विद्वान का हस्तलिखित ग्रंथ नहीं मिला है।

वराहमिहिर ने भूजल की खोज से जुड़े दो विद्वानों (मनु तथा सारस्वत) का उल्लेख किया है। दुर्भाग्यवश इन विद्वानों के ग्रंथ अनुपलब्ध है पर संभव है आने वाले दिनों में पुरातत्वेत्ताओं को ऐसा प्रमाण मिल जाए जो वराहमिहिर के पहले के कालखंड में हुई भूजल की खोजों पर रोशनी डाले या भूजल की तत्कालीन खोज को परिमार्जित करे।

पं. ईश नारायण के अनुसार आर्यभट्ट प्रथम के शिष्य वराहमिहिर (सन् 505 से सन 587), जिनका जन्म उज्जैन में माना जाता है, ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ बृहत्संहिता में भूजल की खोज उसके उपयोग के बारे में 124 सूत्र प्रस्तुत किए हैं। भूजल की खोज के बारे में बृहत्संहिता के अध्याय 54 के पहले सूत्र में वराहमिहिर कहते हैं कि-

धर्म्यं यशस्यं च वदाम्यतोSहं दृकार्गलं सेन जलोपलब्धिः।
पुंसां यथाङ्गेषु शिरास्तथैव क्षितावपि प्रोन्नत निम्न संस्थाः।।


अर्थात मैं (वराहमिहिर) पुण्य और यश देने वाले दृकार्गल-विज्ञान को जिससे जमीन के नीचे पानी (भूजल) की प्राप्ति होती है, बतलाता हूं। जिस प्रकार मनुष्यों के शरीर में ऊपर तथा नीचे शिराएं होती हैं, उसी प्रकार धरती में भी गहराई में जल की शिराएं होती हैं।

बृहत्संहिता के 54 वें अध्याय में वराहमिहिर ने 124 सूत्रों की सहायता से भूजल की खोज और धरती की विभिन्न गहराइयों में उनकी मौजूदगी इत्यादि के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध कराई थी।

यह जानकारी जीव-जंतुओं, मिट्टी, चट्टानों, दीमक की बांबी, पौधों की कुछ खास प्रजातियों तथा उनके लक्षणों पर आधारित थी। बृहत्संहिता में वर्णित लक्षणों के आधार पर करीब 560 फीट (बृहत्संहिता, अध्याय 54, सूत्र 85) की गहराई तक उपस्थित भूजल भंडारों की खोज संभव थी। इस बारे में इसी अध्याय के पैरा 2.2.3. में संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है।

2.2.2. मालवा में बरसात की मात्रा की माप की परंपरागत विधि


मालवा की मनासा, निपानिया आयुर्वेदाश्रम, मोड़ीमाता एवं मोरवन की चौपालों में उपस्थित लोग बरसात की मात्रा की माप की प्राचीन विधियों के बारे में अनभिज्ञ थे। डा. सहगल ने कई बार बरसात की मात्रा की माप से जुड़े प्रश्न को स्पष्ट करने का प्रयास किया पर चौपाल में मौजूद लोगों से उत्तर नहीं मिला।

चौपालों में आए लोग पूरे समय मालवा में प्रचलित तथा लगभग सभी मंचों पर कही जाने वाली कहावत - “मालव माटी गहन गंभीर, पग-पग रोटी, डग-डग नीर” की ही बात करते रहे। यही बात सोयतखुर्द से संकलित जानकारी तथा शिवपुरी की चौपाल से प्रकट होती है। चौपालों में उपस्थित लगभग सभी लोगों का कहना था कि बरसात के दिनों में जब पानी बरसता है तो वह दिखाई देता है। उसकी मात्रा, बरसे पानी की मात्रा पर निर्भर होती है।

बाढ़ आती है तो उसका विस्तार दिखाई देता है। उनका कहना था कि जिस साल अधिक पानी बरसता है उस साल, अधिक दिन तक पानी कुंडों, तालाबों एवं प्राकृतिक झरनों में मिलता है। चौपाल में, बहते पानी की मात्रा का अनुमान लगाने या तत्संबंधी गणनाओं के बारे में जानकारी का अभाव था। वे हमें पुरानी विधियों के बारे में कुछ भी नहीं बता पा रहे थे, इसी प्रकार, भीलांचल की चौपाल में बरसाती पानी की मात्रा की माप की गणना के बारे में उत्तर नहीं मिला।

झांतला के हरिराम का कहना था कि यह तो विज्ञान है। हमें उसकी समझ नहीं है। प्रसंगवश उल्लेख है कि चाणक्य ने मगध में वर्षा की माप की जो प्रणाली विकसित की थी उसके बारे में चौपाल में उपस्थित लोगों को जानकारी नहीं थी। वर्षा की मात्रा की माप या गणना के बारे में उनका कहना था कि यदि कोई परंपरागत विधि रही होगी तो वे उससे अनजान हैं।

माधुरी श्रीधर ने संदर्भ स्रोतों से जानकारी एकत्रित कर बताया कि कौटिल्य (चाणक्य) ने ईसा से लगभग 300 साल पहले वर्षा के संबंध में विवरण प्रस्तुत किया था। यह विवरण वर्षा की भविष्यवाणियों के साथ उसकी माप के तरीकों की जानकारी देता था। कौटिल्य के अनुसार वर्षा की भविष्यवाणी गुरू की स्थिति और गति, शुक्र के उदय तथा अस्त एवं उसकी गति और सूर्य के प्राकृतिक एवं अप्राकृतिक पक्ष के आधार पर की जा सकती है।

उज्जैन के आचार्य वराहमिहिर (सन् 505 से सन् 587) ने बृहत्संहिता में वर्षा की भविष्यवाणी और उसकी अधक इकाई में माप का उल्लेख किया है। इस इकाई का आधुनिक मान 1.6 सेंटीमीटर है। मालवा की सभी चौपालों में आए लोग चाणक्य या वराहमिहिर की विधियों से अनभिज्ञ लगे। उल्लेख है कि सतही जल की माप का तरीका चाणक्य, जो मगध के सम्राट चन्द्रगुप्त के महामंत्री एवं गुरु थे, ने खोजा था।

भूविज्ञान विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर के शोधकर्ता के. एस. मूर्ति ने वराहमिहिर द्वारा अनुशंसित बरसात की मात्रा की माप की विधि का अध्ययन किया है। यह अध्ययन वाटर फार फ्यूचर (Varahmihir, the earliest Hydrologis. Hydrology in Perspective, Proceedings of the Rome Symposium, April, 1987, IAHS publication no 184, 1987) छपा है। प्रकाशित आलेख में कहा गया है कि-

Raingauging appears to have been prevalent in India from very early times and the earliest reference to it is to be found in Panini's Astadhyayi. According to Varahmihir, rain should be measured after the full-moon day of the month of Jestha (May-June) when it has rained in the phase of moon commencing with Purvasadha (slok 1). In Varahmihirs time, the commonest measures of rainfall were pala, adhaka and drona: 50 palas made one adhaka and four adhakas constituted one drone. The rainfall was measured by means of a specially prepared round gauge with a diameter of one hasta or cubit (460 mm or 18 inches) and marked off in pala; when filled to capacity it indicated one adhaka of rainfall (slok 2). It is believed that Mourya and Gupta Emperors introduced and popularized this system throughout the length and width of their extensive empire and proverbs current amongst farmers and those close to the soil have their roots in the observations made by Indians milenia ago.

2.2.3. पानी की खोज की परंपरागत विधियों का वैज्ञानिक पक्ष


मनासा, निपानिया आयुर्वेदाश्रम, मोड़ीमाता और मोरवन की चौपालों में दीमक की बांबी को भूजल की उपस्थिति का संकेतक माना है। विदित है कि यह संकेतक वराहमिहिर के प्रसिद्ध ग्रंथ बृहत्संहिता में उपलब्ध है।

पं. ईश नारायण जोशी ने अपनी पुस्तक वराहमिहिर में पृष्ठ 16-17 में लिखा है कि आचार्य वराहमिहिर के समय के आते-आते तक पानी की खोज में न केवल लकड़ी की अर्गला (छड़ी) अपितु वनस्पति, मृदा, पाषाण, जीव-जंतुओं और रत्नों की भी सहायता ली जाती थी।

संकेतकों द्वारा यह भी पता लगा लिया जाता था कि पानी किस स्वाद का या किस रस का मिलेगा? मीठा, खारा--नमकीन या कसैला और कितनी मात्रा में मिलेगा? हमेशा मिलेगा या कुछ समय बाद मिलना बंद हो जाएगा। जोशी लिखते हैं कि वराहमिहिर ने वनस्पति, मृदा, पाषाण, जीव-जंतु और रत्नों के आधार पर पानी का पता लगाने की विधि बताई है जो पूरी तरह वैज्ञानिक है। हम देखते हैं कि उन्होंने वनस्पति-विज्ञान, भू-विज्ञान तथा प्राणिकी-विज्ञान को अपनी जल की खोज का आधार बनाया है।

अ. वर्षा जल के भूमिगत जल में परिवर्तित होने पर गुणों में परिवर्तन


भूमिगत जल के रंग और स्वाद के परिवर्तन के संकेतों को समझने के लिए बृहत्संहिता के अध्याय 54 के सूत्र 2 का उदाहरण लेना उपयोगी होगा। सूत्र निम्नानुसार है-

एकेन वर्णेन रसेनचाम्भश्च्युतं नभस्तो वसुधाविशेषतात्।
नानारसत्वं बहुवर्णतां चं गतं परीक्ष्यं क्षितितुल्यमेव।।2।।


आकाश से बरसने वाले पानी का एक ही रंग और एक ही स्वाद होता है। धरती की विविधता एवं विशेषतओं के कारण वह अनेक स्वाद और रंग वाला हो जाता है। इसलिए पानी के गुणों की परीक्षा कराना चाहिए। सूत्र में वर्षा जल स्वाद परिवर्तन का उल्लेख है जो उसके धरती के सम्पर्क में आने के बाद होता है। आधुनिक भूजल विज्ञान की दृष्टि से विवरण सही एवं विज्ञान सम्मत है।

आ. वृक्षों के आधार पर भविष्यवाणी


भूमिगत जल की उपस्थिति तथा शिराओं के संकेतकों को समझने के लिए बृहत्संहिता के अध्याय 54 के सूत्र 6 का उदाहरण लेना उचित होगा। इस सूत्र में बेंत नामक वृक्ष की मदद से भूजल के मिलने के बारे में जानकारी दी गई है। सूत्र 6 निम्नानुसार है-

यदि वेतसोSम्बुरहिते देशे हस्तैस्त्रिभिस्ततः पश्चात।
सार्धे पुरुषे तोयं वहति शिरा पश्चिमा तत्र।।6।।


जल विहीन क्षेत्र में यदि बेंत का वृक्ष दिखाई दे, तो उस वृक्ष के पश्चिम में, तीन हाथ (4.5 फीट) की दूरी पर डेढ़ पुरूष (एक पुरूष बराबर पांच हाथ या 7.5 फीट) की गहराई पर पानी मिलेगा। इस निष्कर्ष का आधार पश्चिमी शिरा है, जो उल्लिखित स्थान के नीचे से बहती है।

भूमिगत जल की उपस्थिति बताने एवं शिराओं के संकेतों को समझने के लिए बृत्संहिता के अध्याय 54 के सूत्र 9 एवं 10 का उदाहरण दिया जा रहा है। इन दोनों सूत्रों में जामुन के वृक्ष के आधार पर भूजल के मिलने की जानाकरी दी गई है। दोनों सूत्र निम्नानुसार हैं-

जम्बूवृक्षस्य प्राग्वल्मीको यदि भवेत् समीपस्थः।
तत्माद्दक्षिणपार्श्वे सलिलं पुरूषद्वये स्वादु।।9।।


सूत्र 9 के अनुसार जामुन के वृक्ष के पूर्व में यदि वृक्ष के पास बांबी (चीटियों, कीड़ों अथवा सर्प द्वारा बनाया मिट्टी का स्तूप बमीठी) हो तो जामुन के वृक्ष के दक्षिण में तीन हाथ (4.5 फुट) की दूरी पर 15 फुट गहरा खोदने पर स्वादिष्ट मीठा जल मिलता है।

बृहत्संहिता के सूत्र 12 में अर्जुन वृक्ष की उपस्थिति के आधार पर पानी के मिलने का उल्लेख है। सूत्र निम्नानुसार है-

उदगर्जुनस्य दृश्यो वल्मीको यदि ततोSर्जुनाद्धस्तैः।
त्रिभिरम्बु भवति पुरूषै स्त्रिभिरर्धसमन्वितैः पश्चात्।।12।।


सूत्र 12 में कहा गया है कि अर्जुन के वृक्ष के उत्तर की ओर यदि बांबी हो तो अर्जुन के पश्चिम में तीन हाथ से आगे, साढ़े तीन पुरूष की गहराई पर पानी उपलब्ध होगा। अर्जुन का वृक्ष सामान्यतः नदियों के किनारे या घाटियों के निचले भाग में उत्पन्न होता है। भूजलविद बताते हैं कि घाटियों की तली में कम गहराई पर भूजल मिलता है। अर्थात अर्जुन के वृक्ष की मदद से कम गहराई पर पानी मिलना बताया जा सकता है।

बृहत्संहिता के सूत्र 14 निर्गुण्डी की उपस्थिति के आधार पर पानी मिलने का उल्लेख है। सूत्र 14 निम्नानुसार है-

वल्मीकोपचितायां निर्गुण्द्मां दक्षिणेन कथितकरैः।
पुरुषद्वये सपादे स्वादु जलं भवति चाशोष्यम्।।14।।


मिट्टी के स्तूप या वाल्मी से मिली हुई निर्गुण्डी हो तो उससे दक्षिण दिशा में तीन हाथ दूर सवा दो पुरूष खोदने पर स्वादिष्ट एवं स्थायी जल मिलता है।

बृहत्संहिता के सूत्र 17 में पलाश तथा बदरी वृक्षों के आधार पर पानी के मिलने का उल्लेख है। सूत्र 17 निम्नानुसार है-

सपलाशा बदरी चद्दिश्यपरस्यां ततो जलं भवति।
पुरूषत्रये सपादे पुरूषेSत्र च दुण्डुभश्चिन्हम्।।17।।


बृहत्संहिता के सूत्र 17 के अनुसार यदि जल विहीन इलाके में पलाश के वृक्ष के साथ बदरी का वृक्ष हो तथा उस स्थान के निकट बांबी मौजूद हो, तो बदरी के वृक्ष से तीन हाथ आगे सवा तीन पुरूष नीचे जल मौजूद होता है।

तस्यैव पश्चिमायां दिशि वल्मीको यदा भवेद्धस्ते।
तत्रोदग्भवति शिरा चतुर्भिरर्धाधिकैः पुरूषैः।।25।।


बहेड़ा के वृक्ष के पश्चिम में दीमक का बमीठा हो तो बहेड़ा के उत्तर की दिशा में एक हाथ की दूरी पर साढ़े चार पुरूष की गहराई पर पानी की शिरा होती है और पानी मिलता है।

इ. जीव-जंतुओं के आधार पर भविष्यवाणी


श्वेतो विश्वम्भरकः प्रथमे पुरूषे तु कुङ्कुमाभोSश्मा।
अपरस्यां दिशि च शिरा नश्यति वर्षत्रयोSतीते।।26।।


सूत्र 26 के अनुसार एक पुरूष गहरा खोदने पर बिच्छू या उसके समान जीव दिखाई देगा। इस स्थान के नीचे खुदाई करने पर केसरिया रंग का पत्थर मिलेगा। इस पत्थर के नीचे पश्चिमी शिरा प्रवाहित होती है। इस शिरा का पानी तीन साल के बाद समाप्त हो जाएगा।

सवेषां वृक्षाणामघः स्थितो ददुरो यदा दृश्यः।
तस्माद्धस्ते तोयं चतुर्भिरर्धाधिकैः पुरूषैः।।31।।


सूत्र 31 में मेंढक की उपस्थिति के आधार पर पानी के बारे में भविष्यवाणी की गई है। सूत्र में कहा गया है कि जिस किसी वृक्ष के नीचे मेंढक का आवास हो तो उस वृक्ष के उत्तर की ओर एक हाथ की दूरी पर साढ़े चार पुरूष की गहराई पर जल की प्राप्ति होती है।

यद्यहि निलयो दृश्यो दक्षिणतः संस्थितः करंजस्य।
हस्तद्वये तु याम्ये पुरूषत्रितये शिरा सार्धे।।33।।


इस सूत्र के अनुसार यदि करंज के वृक्ष के दक्षिण में सांप का घर (बांबी) हो तो करंज वृक्ष से दक्षिण में दो हाथ की दूरी पर साढ़े तीन पुरूष की गहराई पर पानी की शिरा मिलती है। इस शिरा से पानी प्राप्त होता है।

कच्छपकः पुरूषार्द्धे प्रथमं चोद्भिद्यते शिरा पूर्वा।
उदगन्या स्वादुजला हरितोSमाधस्ततस्तोयम्।।34।।


सूत्र 34 के अनुसार उपर्युक्त स्थान पर आधा पुरूष खोदने पर पूर्व दिशा से आती पूर्वा-शिरा दिखाई देगी। इस शिरा को उत्तर दिशा से आती दूसरी शिरा मिलेगी। उत्तर दिशा से आने वाली शिरा का पानी स्वादिष्ट होता है। इसके नीचे हरे रंग का पत्थर मिलता है। इस पत्थर के नीचे जल होता है।

ई. कम गहराई पर मिलने वाले भूजल की भविष्यवाणी


स्निग्धाः प्रलम्बशाखा वामनविकट द्रुमाः समीपजलाः।
सुषिरा जर्जरपत्रा रूक्षाश्च जलेन सन्त्यक्ताः।।49।।

सूत्र 49 के अनुसार चिकने, लंबी शाखाओं वाले, बहुत कम ऊंचे तथा बहुत अधिक विस्तार वाले वृक्षों के निकट कम गहराई पर पानी मिलता है। इसके विपरीत जिन वृक्षों के पत्तों में छेद होते हैं या पत्ते जर्जर तथा रूखे होते हैं उनके पास (नीचे) पानी नहीं मिलता।

उ. अधिक गहराई पर मिलने वाले भूजल की भविष्यवाणी


भूमिः कदम्बकयुता वल्मीके यत्र दृश्यते दूर्वा।
हस्तद्वयेन याम्ये नरैर्जलं पंचविशत्या।।78।।


सूत्र 78 में बताया गया है कि जिस स्थान की भूमि पर कदम्ब का वृक्ष हो तथा बांबी के ऊपर दूब उगी हो उस स्थान पर कदम्ब के वृक्ष के दक्षिण में दो हाथ आगे 25 पुरूष अर्थात 187.5 फुट नीचे पानी मिलता है।

सपलाशा यत्र शमी पश्चिमभागेSम्बु मानवैः षष्ट्या।
अर्धनरेSहि: प्रथमं सबालुका पीतमृत परतः।।83।।


जहां कदम्ब के साथ शमी का वृक्ष हो, वहां शमी वृक्ष के पश्चिम में पांच हाथ आगे खोदने से 60 पुरूष अर्थात 450 फुट की गहराई पर पानी मिलता है। इस स्थान पर 3.5 फुट के बाद रेत के साथ पीले रंग की मिट्टी पाई जाती है। इस जगह लंबे समय तक पानी मिलता है।

श्वेता कण्टकबहुला यत्र शमी दक्षिणेन तत्र पयः।
नरपंचकसंयुतया सप्तत्याहिर्नरार्धेच।।85।।


सूत्र 85 में बताया है कि जिस स्थान पर अधिक कांटों वाला सफेद शमी का वृक्ष हो वहां उस शमी वृक्ष के दक्षिण में एक हाथ आगे खोदने से 75 पुरुष (562.5 फुट) की गहराई पर पानी मिलता है।

ऊ. भूजल की भविष्यवाणी और धरती का व्यवहार


नदति मही गम्भीरं यस्मिंश्चरणहता जलं तस्मिन्।
सार्धैस्त्रिभिर्मनुष्यैः कौबेरी तत्र च शिरास्यात्।।54।।


सूत्र 54 के अनुसार प्रकृति में कुछ ऐसी जमीन होती है जहां पैर पटकने से गंभीर तथा मधुर ध्वनि निकलती है। ऐसे स्थान पर साढ़े तीन पुरूष नीचे उत्तर की दिशा से आने वाली कौबेरी शिरा मिलती है। कौबेरी शिरा के नीचे पानी मिलता है।

ए. धुएं तथा भाप की मौजूदगी के आधार पर भूजल की भविष्यवाणी


यस्यामूष्मा धाष्यां घूमो वा तत्र वारि नरयुगले।
निर्देष्टव्या च शिरा महता तोयप्रवाहेण।।60।।


सूत्र 60 के अनुसार कुछ स्थानों की जमीन पर धुएं तथा भाप की मौजूदगी के संकेत मिलते हैं। इन स्थानों की जमीन अपेक्षाकृत गर्म लगती है और उसमें से धुआं या भाप निकलती दिखाई देती है। वराहमिहिर के अनुसार उस जमीन में दो पुरूष की गहराई पर तेज प्रवाह वाली शिरा बहती है।

ऐ. फसलों के स्वतः नष्ट होने एवं बीजों के गुणों के आधार पर भूजल की भविष्यवाणी


यस्मिन् क्षेत्रोद्देशे जातं सस्यं विनाशमुपयाति।
स्निग्धमति पांडुरं वा महाशिरा नरयुगे तत्र।।61।।


सूत्र 61 में वर्णित है कि जिस खेत में ऊगे हुए अनाज का स्वतः विनाश हो जाता हो, चिकना बीज पैदा होता हो अथवा उसका रंग बहुत पीला हो तो उस खेत में दो पुरूष की गहराई पर महाशिरा पाई जाती है और उस महाशिरा में बहुत अधिक मात्रा में पानी मिलता है।

ओ. रेगिस्तानी इलाकों में भूजल की भविष्यवाणी


मरुदेशे यच्चिन्हं न जांङ्गगले तैर्जलं विनिर्देश्यम्।
जम्बू तेतसपूवैर्ये पुरूषास्ते मरौ द्विगुणा।।86।।


सूत्र 86 में बताया गया है कि रेगिस्तानी इलाके में जिन संकेतों को पानी बताने के लिए प्रयोग में लाया जाता है उन संकेतों का उपयोग अन्यत्र नहीं किया जा सकता। रेगिस्तानी इलाके में यदि बैंत इत्यादि संकेतकों का उपयोग किया जाता है तो जल उपलब्धता की गहराई सामान्य क्षेत्र की तुलना में दो गुनी अधिक होगी।

औ. भूमि के गुणों के आधार पर भूजल की गुणवत्ता की भविष्यवाणी


सशर्करा ताम्रमही कषायं, क्षारंधरित्री कपिला करोति।
आपाण्डुरायां लवणंप्रविष्टं, मृष्टं पयो नील वसुन्धरायाम्।।140।।


वराहमिहिर कहते हैं कि जिस बजरी युक्त भूमि का रंग तांबे जैसा हो उसमें मिलने वाला पानी कसैला, राख के रंग की जमीन के नीचे मिलने वाला पानी क्षारीय, हलके पीले रंग की जमीन में मिलने वाला पानी नमकीन तथा हलकी काली जमीन में मिलने वाला पानी मीठा होता है।

अं. कुओं में मिलने वाले कठोर पत्थरों को तोड़ने की विधियां


भेदं यदा नैति शिला तदानीं, पलाशकाष्ठैः सह तिन्दुकानाम्।
प्रज्वालयित्वानलमग्निवर्णा, सुधाम्बुसिक्ता प्रविदारमेति।।112।।


कुएं की खुदाई में शिला मिल जाए और सामान्य प्रयास से नहीं टूटे तो पलाश और तेन्दू की लकड़ियां जलाकर शिला को खूब गर्म करें। जब वह तपकर लाल हो जाए तो उसे सामान्य पानी और चूने के पानी से सींचें। ऐसा करने से शिला टूट जाएगी।

तोयं श्रितं मोक्षक भस्मनावा, यत्सप्तकृत्वः परिषेचनं तत्।
कार्यंशरक्षारयुतं शिलायाः, प्रस्फोटनं वन्हिवितापितायाः।।113।।


पानी में मोक्षक (वनपलाश) वृक्ष की भस्म डाल कर उबालें। उसमें शर की भस्म मिलाकर आग से तपाई शिला पर सात बार डालें। शिला टूट जाएगी।

तक्रकांजिकसुराः सकुलत्था, योजितानि बदराणि च तस्मिन्।
सप्तरात्रमुषितान्यभितप्तां, दारयन्ति हि शिलां परिषेकैः।।114।।


छाछ, कांजी और शराब को कुलथी के साथ मिलाकर उसमें बेर डालकर सात दिन तक गलाएं और फिर पूर्व से तपाई शिला को सींचें। शिला टूट जाएगी।

नैम्बं पत्रं त्वक् च नालं तिलानां, सापामार्गं तिन्दुकं स्याद्गुडूची।
गोमूत्रेण स्रावितः क्षार एषां, षट् त्वोSतस्तापितोभिद्यतेश्मा।।115।।


नीम के पत्ते (छाल सहित), तिल की फलियां, आधाझाडा, तेंदू का फल और गुडूची (गिलोय) के क्षार का गोमूत्र में घोलकर तप्त शिला पर डालें। ऐसा छह बार करने से शिला टूट जाती है।

सूत्र क्रमांक 112, 113, 114 तथा 115 में गर्म शिला पर ठंडा पानी डाल कर तोड़ने का उल्लेख है। वैज्ञानिकों के अनुसार गर्म शिला पर ठंडा पानी डालने से असमान संकुचन होता है जिसके कारण शिला टूटती है। यह वैज्ञानिक हकीकत है।

अः. पत्थर तोड़ने वाले औजारों को तीक्ष्ण बनाने की विधियां


आर्कं पयो हुडुविषाणमषी समेतं, पारावताखुशकृता च युतः प्रलेपः।
टंकस्यSतैलमथितस्य ततोSस्य पानं, पश्चाच्छितस्य न शिलासु भबेद्विधातः।।116।।


मदार वृक्ष का दूध और भेड़ के सींग की भस्म में पारावत तथा आखु की विष्ठा मिलाकर उसका लेप बनाएं जिसे पत्थर तोड़ने वाले औजार पर तिल का तेल लगाकर, लगा दें। लेप लगे औजार को आग में दो बार खूब तपाएं। ऐसा करने से औजार मजबूत हो जाता है और पत्थर तोड़ने पर भी नहीं टूटता।

क्षारे कदल्या मथितेन युक्ते, दिनोषिते पायतिमायसं यत्।
सभ्यक् शितं चाश्मनि नैतिभङ्ग, नचान्यलोहेष्वपि तस्य कौष्ठयम्।।117।।


केले के क्षार को छाछ में मथकर उसे 24 घंटे रखें। औजार पर उसे लगाकर धार बनाएं। यह औजार पत्थर पर वार करने से नहीं टूटता और उसकी धार भी खराब नहीं होती।

क. कुओं में मिलने वाले पानी की गुणवत्ता सुधारने की विधियां


कलुषं कटुकं लवणं विरसं, सलिलं यदि वाशुभगन्धि भवेत्।
तदनेन भवत्यमलं सुरसं सुसुगन्धि गुणैरपरैश्च युतम्।।122।।


सूत्र 122 में कहा है कि कुएं या बावड़ी के अस्वच्छ, कड़वे, बेस्वाद या दूर्गन्धयुक्त जल में अंजन, मोथा, खस, तोरई तथा आंवले के चूर्ण में कतकफल मिलाकर डालने से पानी स्वच्छ, मीठा तथा उपयोग लायक हो जाता है।

ख. तालाब की पाल बांधना


पाली प्रागपरायताम्बु सुचिरं धत्ते न याम्योत्तरा।
कल्लोलैरवदारमेति मरुता सा प्रायशः प्रेरितैः।
तां चेदिच्छति सारदारुभिरपां सम्पातमावारयेत्।
पाषाणदिभिरेव वा प्रतिचयं क्षुण्णं द्विपाश्वादिभिः।।118।।


सूत्र 118 में कहा है कि तालाब की पाल लंबाई यदि पूर्व-पश्चिम दिशा में होती है तो उसमें अधिक समय तक पानी रहता है। इसके विपरीत यदि वह उत्तर-दक्षिण दिशा में होती है तो उसमें अधिक समय तक पानी नहीं टिकता। यह हानि वायु तरंगों के कारण होती है। यदि पाल को उत्तर-दक्षिण बनाना अपरिहार्य हो तो पाल की मजबूती पर खास ध्यान देना आवश्यक होता है। पाल की दीवार पर पत्थर जमाकर, उसकी मिट्टी को हाथी, बैल, ऊंट, घोड़ों इत्यादि की मदद से अच्छी तरह दबा दें।

ग. तालाब की पाल पर लगाए जाने वाले वृक्ष


ककुभवटाम्र प्लक्ष कदम्बैः सनिचुलजम्बू वेतसनीपैः।
कुरबकतालाशोकमधूकैर्बकुलविमिश्रैश्चावृततीराम्।।119।।


सूत्र 119 में तालाब की पाल पर लगाए जाने वाले वृक्षों का उल्लेख है। इस उल्लेख के अनुसार तालाब की पाल पर अर्जुन, बरगद, आम, पाखर और कदम्ब के वृक्षों को समुद्रफल जामुन, बेंत, गुलदुपहरिया के साथ लगाएं। इसके अतिरिक्त लालकट सरैया, ताड़, अशोक और महुआ को मौलश्री के साथ पाल के तट के चारों ओर लगाएं।

सैकड़ों साल पहले, लक्षणों तथा उन्हें पैदा करने वाले घटकों को समझकर पानी की मौजूदगी की सटीक भविष्यवाणी करना निश्चय ही वराहमिहिर की असाधारण समझ की परिचायक है। उपर्युक्त संकेतकों के आधार पर कहा जा सकता है कि वराहमिहिर का भूजल विज्ञान पूरी तरह विज्ञान-सम्मत था। वह देशज ज्ञान, अपेक्षाकृत नए तथा पिछले लगभग चार सौ साल में विकसित हुए आधुनिक वनस्पति विज्ञान, भूविज्ञान तथा प्राणीशात्र के सिद्धांतों की कसौटी पर भी खरा उतरता है।

उपर्युक्त सूत्रों में दिए विवरणों से पता चलता है कि वराहमिहिर ने भूजल से जुड़े लगभग सभी महत्वपूर्ण पक्षों पर मार्गदर्शन दिया है। आचार्य वराहमिहिर की अवधारणा के अनुसार भूमिगत जल, धरती के नीचे शिराओं के रूप में बहता है। आधुनिक विज्ञान बताता है कि समान गुणधर्म वाली रेत को छोड़कर बाकी सभी चट्टानों में भूजल का प्रवाह कहीं कम तो कहीं अधिक होता है। यह प्रवाह गुरूत्व बल से नियंत्रित होता है। लगभग यही बात वराहमिहिर की अवधारणा से प्रकट होती है जिसमें वे कहते हैं कि शिराओं की क्षमता और दिशाएं अलग-अलग होती हैं।

हमारा मानना है कि वराहमिहिर ने जमीन के नीचे बिल बनाकर रहने वाले जीव जंतुओं के पानी या नमी के साथ सह-संबध का बारीकी से अध्ययन किया होगा। संभव है, उनके पूर्ववर्ती जल विज्ञानियों की खोज के आधार पर उन्होंने पानी नमी में आनंदपूर्वक रहने वाले जीव जंतुओं की पहचान को आगे बढ़ाया हो। संभव है, उन्होंने अवलोकित नमी के आधार पर दीमक को बांबी के निर्माण तथा उन वृक्षों की पहचान की हो जो उथले भूजल स्तर वाले इलाकों या नदियों के किनारे बहुतायत से पाए जाते हैं।

यह सर्वमान्य वैज्ञानिक तथ्य है कि शुष्क और अर्द्ध-शुष्क जलवायु वाले इलाकों में, ठंडे क्षेत्रों की अपेक्षा, धरती के गर्भ में छुपी नमी और पानी, जीवों तथा चट्टानों पर अधिक निर्णायक असर डालती है। पानी के निर्णायक असर से चट्टानों में मौजूद कतिपय खनिजों में रासायनिक एवं भौतिक परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन विभिन्न लक्षणों के रूप में धरती पर प्रगट होते हैं।

सैकड़ों साल पहले, लक्षणों तथा उन्हें पैदा करने वाले घटकों को समझकर पानी की मौजूदगी की सटीक भविष्यवाणी करना निश्चय ही वराहमिहिर की असाधारण समझ की परिचायक है। उपर्युक्त संकेतकों के आधार पर कहा जा सकता है कि वराहमिहिर का भूजल विज्ञान पूरी तरह विज्ञान-सम्मत था। वह देशज ज्ञान, अपेक्षाकृत नए तथा पिछले लगभग चार सौ साल में विकसित हुए आधुनिक वनस्पति विज्ञान, भूविज्ञान तथा प्राणीशात्र के सिद्धांतों की कसौटी पर भी खरा उतरता है।

हमारा मानना है कि वराहमिहिर द्वारा प्रयुक्त संकेतकों के आधार पर भूजल की भविष्यवाणियां करना पूरी तरह वैज्ञानिक है क्योंकि आधुनिक भूजल वैज्ञानिक तथा भू-भौतिकीविद भी तो चट्टानों के गुणधर्म के आधार पर पानी मिलने की संभावना व्यक्त करते हैं। अनेक समानताओं के बावजूद वराहमिहिर के जल विज्ञान में ऐसी अनेक गूढ़ बातें हैं जिनकी व्याख्या सहज नहीं है। संभव है। इसी कारण कुछ लोग उसे नकारते हैं।

आचार्य वराहमिहिर की वनस्पति शास्त्र, भूविज्ञान एवं प्राणी विज्ञान के संकेतों पर आधारित लगभग 1500 साल पुरानी तकनीक में आधुनिक भूजल विज्ञान ने खास कुछ नहीं जोड़ा है। वनस्पति शास्त्र एवं प्राणीशास्त्र में हुई तरक्की और अद्यतन ज्ञान, भूजल की सटीक खोज को बहुत आगे नहीं ले जा सका है। हमारा सोचना है कि आधुनिक विज्ञान और वराहमिहिर के परंपरागत विज्ञान के बीच संबंध स्थापित करने की आवश्यकता है।

वराहमिहिर के समय में धरती का जल चक्र सामान्य था। जंगल हरे-भरे थे। भूमि कटाव अपेक्षाकृत बहुत कम था। भूजल का दोहन लगभग नगण्य था तथा भूजल स्तर की घट-बढ़ प्राकृतिक घटकों द्वारा नियंत्रित थी। उस कालखंड की परिस्थितियों के अनुसार, कुछ सूत्रों में वराहमिहिर ने भूजल को कम गहराई पर मिलता दर्शाया है। आज हालात बहुत बदल गए हैं इसलिए बदली हुई परिस्थितियों में आचार्य वराहमिहिर के समय के कम गहराई विषयक मानकों का बदल जाना सामान्य घटना है।

पुरानी तथा नई विधियों और विज्ञान की तुलना से जाहिर है कि खोज के तरीकों में बुनियादी फर्क है। आधुनिक तरीका यंत्रों तथा विशिष्ट किस्म की पढ़ाई करने वाले वैज्ञानिकों पर आश्रित है, वहीं प्राचीन तरीका अभी भी समुदाय की ज्ञान-विरासत का पर्याय है।

2.3 जल निकास व्यवस्था एवं प्रयुक्त औजर


क. जल स्रोत के जल निकास व्यवस्था


मालवा की सभी चौपालों में बताया गया कि कुओं से रस्सी-बाल्टी की मदद से पानी निकाला जाता था। अनेक कुओं तथा चौपड़ों में उतरने के लिए सीढ़ियां थीं। नदियों एवं जलाशयों से जल प्राप्ति के लिए मिट्टी के घड़ों का उपयोग किया जाता था। धनवान परिवार तांबें, पीतल और कांसे के बर्तनों का उपयोग करते थे। सिंचाई के लिए चरस से पानी निकाला जाता था। मुढ़ैनी ग्राम में कुओं से अधिक मात्रा में पानी निकालने के लिए रियासत काल में रेहट, ढेंकुली और परव का उपयोग किया जाता था।

झांतला में कुओं की गहराई लगभग 50 फुट होती थी। बरसात में वे लबालब भर जाते थे। गर्मी के मौसम में उनमें 10 से 15 फुट पानी बचता था। झांतला में कुओं से चमड़े की चरस की मदद से पानी निकाला जाता था। सोयतखुर्द में पचास साठ साल पहले तक पानी कुण्डियों, खास (छोटा कुआं) और नदियों से प्राप्त किया जाता था।

सोयतखुर्द में अधिक मात्रा में पानी निकालने के लिए चरस (मोट) और कम मात्रा में पानी निकालने के लिए बाल्टी का उपयोग किया जाता था। कुओं से पानी निकालने में घिर्री तथा रस्सी का उपयोग किया जाता था। घिर्री का उपयोग सिद्ध करता है कि जल निकास व्यवस्था का आधार वैज्ञानिक था।

ख. जल स्रोत निर्माण में प्रयुक्त औजार


चौपालों में मौजूद लोगों का कहना था कि कुआं खोदने या तालाब बनाने में स्थानीय लुहारों द्वारा बनाए सब्बल, गेंती, पावडा (फावड़ा), तसला इत्यादि का उपयोग होता था। पत्थर तोड़ने में घन तथा हथौड़ा प्रयुक्त होता था। पत्थर तराशने का काम छैनी तथा हथौड़े की मदद से किया जाता था। सभी औजारों की डिजाइन पूरी तरह देशज थी। खुदाई में प्रयुक्त परंपरागत औजारों की डिजायन सटीक तथा वैज्ञानिक है। उल्लेख है कि उसमें अब तक कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं हुआ है। वह डिजायन अब तक अच्छी तरह प्रचलन में है।

अधिकांश औजारों की आकृति और डिजायन अन्य क्षेत्रों में प्रयुक्त औजारों की तरह ही है।

मनासा के राधाकिशन के अनुसार खुदाई इत्यादि में काम आने वाले सभी औजारों का निर्माण और मरम्मत का काम स्थानीय लोहार करते थे। औजारों की डिजाइन के निर्धारण और निर्माण का विज्ञान, सूत्रों की जगह, उनकी उपयोगिता में है। इसी कारण उनका प्रचलन अन्य अंचलों में भी दिखाई दिया।

2.4 पानी को शुद्ध रखने के तौर तरीके


मनासा, निपानिया आयुर्वेदाश्रम, मोड़ीमाता, मोरवन, झांतला की चौपाल में मौजूद लोगों का कहना है कि उनके पुरखे पानी को देखकर, सूंघ कर या चख कर उसकी गुणवत्ता का अनुमान लगाते थे।

राघवेन्द्र शुक्ल कहते हैं कि हर दस कोस पर पानी और बोली में अंतर आ जाता है। मोरवन चौपाल में रामसिंह का कहना था कि यदि कुएं या बावड़ी से पानी की लगातार निकासी होती रही तो उसका पानी खराब नहीं होता। पानी की लगातार निकासी से कुओं की सफाई होती रहती है।

डा. भगवतीलाल राजपुरोहित के शोध आलेखों से पता चलता है कि प्राचीन काल में, मालवा के गुणीजन विभिन्न स्रोतों के पानी के गुणों को परखने में पारंगत थे। डा. भगवतीलाल राजपुरोहित ने अपने लेखो स्रोतों के आधार पर पानी के गुणों का विस्तृत विवरण दिया है। इस विवरण को पढ़कर आश्चर्य होता है कि बिना आधुनिक किस्म की प्रयोगशालाओं और रसायनशास्त्रियों के पानी की गुणवत्ता की सटीक जानकारी कैसे हासिल हुई?

डा. सहगल बताते हैं कि पुराने समय में नदियों का अनवरत जलप्रवाह गंदगी को बहाकर उनके पानी को प्रदूषित होने से बचाता था। आगौर के साफ-सुथरे होने के कारण तालाबों और नदियों का पानी स्वच्छ रहता था। तालाबों में गंदगी नहीं डाली जाती थी। कुओं एवं बावड़ियों पर कपड़े धोने तथा स्नान के लिए चबूतरों का निर्माण किया जाता था।

राघवेन्द्र शुक्ल के अनुसार माण्डू में पानी के स्रोतों में तो औषधियों को डालने का उल्लेख है। नीमच के पत्रकार मुकेश सहारिया का कहना था कि मालवांचल में कुछ जलस्रोतों पर देवी-देवताओं की स्थापना की गई थी। जल स्रोत के पानी को साफ रखना लोक संस्कार था।

2.5 पेयजल सुरक्षा एवं संस्कार


क. पेयजल सुरक्षा


भीलांचल में घर के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने सामान्यतः पूर्वोत्तर दिशा में परेंडी (जल संचय का निर्धारित स्थान) होता था। परेंडी में मिट्टी के घड़ों में पानी भर कर रखा जाता था। भीलांचल में छोटे मटके को चुगिली कहा जाता था। पानी छानकर भरा जाता था। पानी भरने के पहले मिट्टी के घड़ों की साफ-सफाई की जाती थी। पानी निकालने के लिए चमुडी का उपयोग किया जाता था। सामान्यतः बिना हाथ धोए पानी निकाल लिया जाता था।

पानी की व्यवस्था पर महिला तथा पुरूष का समानाधिकार होता था। परेंडी की ऊंचाई, छोटे बच्चों की पहुंच से अधिक अर्थात लगभग दो से ढाई फुट रखी जाती थी। शिवपुरी के मुढ़ैनी ग्राम में पानी को रसोईघर के पास रखते थे। इसके अलावा, उनके गांव में घर के दरवाजे के पास पत्थर की चुर (पानी से भरा पात्र) लगी रहती थी। लोग, चुर में रखे पानी से हाथ-पैर धोकर घर के अंदर प्रवेश करते थे। सामान्यतः पानी मिट्टी के बर्तनों में भर कर रखा जाता था।

नदियों, कुओं बावड़ियों या तालाबों से सिर पर रखकर पानी लाया जाता था। यह काम उनके क्षेत्र में महिलाएं करती थीं। प्रतिदिन बासी पानी गिराकर ताजा पानी भरा जाता था। पानी को कपड़े से छान कर भरने की प्रथा आज भी प्रचलन में है। नदियों के पानी को भी छान कर ही भरा जाता था। गर्मी के दिनों में मटकों में रखा पानी ठंडा रहता था। पानी को हल्का गर्म या कम ठंडा रखने के लिए पुराने मटकों को जिनकी झरण बंद हो जाती थी, उपयोग में लाया जाता था।

मनासा के कैलाश काछी का कहना था कि नदियों, कुओं बावड़ियों या तालाबों से सिर पर रखकर पानी लाया जाता था। यह काम उनके क्षेत्र में महिलाएं करती थीं। प्रतिदिन बासी पानी गिराकर ताजा पानी भरा जाता था। पानी को कपड़े से छान कर भरने की प्रथा आज भी प्रचलन में है। नदियों के पानी को भी छान कर ही भरा जाता था। गर्मी के दिनों में मटकों में रखा पानी ठंडा रहता था। पानी को हल्का गर्म या कम ठंडा रखने के लिए पुराने मटकों को जिनकी झरण बंद हो जाती थी, उपयोग में लाया जाता था। मनासा के धीरुभाई भील का मानना था कि पुराने समय में भी कुछ तालाबों का पानी पीने योग्य नहीं होता था।

शाजापुर जिले के ग्राम सोयतखुर्द में भी पीने के पानी को ऊंचे स्थान पर रखते थे। इस स्थान को परेंडी कहते हैं। रमेशचंद्र गुप्ता बताते हैं कि स्थानीय परंपराओं के कारण राजपूत परिवार की महिलाएं परदे में रहती थीं इसलिए वे पानी भरने नहीं जाती थीं। राजपूत पुरूषों द्वारा पानी भरे जाने की यह प्रथा केवल सोयतखुर्द में सुनने को मिली।

पानी के बर्तन परिवार की आर्थिक स्थिति के अनुसार होते थे। सम्पन्न परिवार में पीतल, तांबे या कांसे के बर्तनों में और गरीब परिवारों में मिट्टी के बर्तनों में पानी रखा जाता था। पशुओं के लिए सामान्यतः हर गांव में ठेल भरे जाते थे। पक्षियों के लिए लोग अक्सर अपने घरों में पानी भरा मिट्टी का बर्तन टांगते थे। रमेशचंद्र गुप्ता बताते हैं कि उनके गांव में जिन स्रोतों का पानी पीने के काम आता था, उन स्रोतों पर स्नान और कपड़े धोने की मनाही होती थी।

मालवांचल में परेंडी की स्थापना के बारे में यह कहावत कहीं जाती है-

उत्तर-पूरब परेंडी करे, दखिल कोणे चूल्हो।
अमन चमन घर में रहे, दिखे डोकरो दूल्हो।।


इस कहावत में कहा गया है कि परेंडी की स्थापना घर के उत्तर-पूर्व और चूल्हे (किचन) की स्थापना दक्षिण दिशा में करने से घर में सुख शांति रहती है और वृद्ध जन भी जवानों की तरह सेहतमंद बने रहते हैं।

ख. पेयजल संस्कार


मालवा अंचल की सभी चौपालों में बताया गया कि गृहणियां पानी की सुरक्षा के प्रति सतर्क तथा बच्चों को संस्कारित करने के मामले में सजग थीं। वे ही अगली पीढ़ी को जल संस्कार देती थीं। सोयतखुर्द में पानी की स्वच्छता, पवित्रता और समझदारी से उपयोग की सीख देने में घर के बुजुर्ग भी योगदान देते थे। शिवपुरी के मुढ़ैनी ग्राम में जानकारी मिली की उनके गांव में केवल जैन परिवार के लोग ही पानी छान कर भरते थे।

3. स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य सम्बंधी संस्कारों का विज्ञान


गंदे पानी से होने वाली बीमारियों से बचने के लिए घरों में प्रयुक्त पद्धतियों की मदद से स्वास्थ्य चेतना और सावधानी को आसानी से समझा जा सकता है। शुद्ध जल का उपयोग एवं अशुद्ध पानी से बचाव की समझ को वैज्ञानिक समझ का प्रमाण माना जा सकता है। मालवा की सभी चौपालों में स्वास्थ्य चेतना के प्रमाण मिले।

चौपालों में आई महिलाओं ने बताया कि परिवार के सभी लोग पानी को शुद्ध रखने में सहयोग करते हें। कोई भी सदस्य गंदा या जूठा पानी के बर्तनों में नहीं डालता। उनके घर में पानी की व्यवस्था वे खुद या उनकी बहुएं संभालती हैं। पानी को जिन बर्तनों में भर कर रखा जाता है, उनकी हर दिन सफाई की जाती है।

यदि कुएं से पानी भरा जाता है तो बाल्टी तथा पानी लाने वाले बर्तन की रोज साफ-सफाई की जाती है। घड़ों में संचित पानी को हर दिन बदला जाता है। पानी बदलने के पहले घड़ों को साफ किया जाता है और पानी को साफ सूती कपड़े से छान कर ही भरा जाता है। पानी थोड़ी ऊंचाई पर रखा जाता है ताकि बच्चों की पहुंच से दूर रहे।

प्रौढ़ तथा वृद्ध महिलाएं ही साफ-सफाई, किफायत तथा स्वास्थ्य से जुड़े संस्कारों से बच्चों को शिक्षित करती हैं। सभी घरों में यह व्यवस्था पीढ़ियों से चली आ रही है।

चौपालों में आई महिलाओं ने बताया कि शहरों में रहने वाले उनके बच्चे और रिश्तेदार नलों का पानी पीते हैं। नलों के पानी को सामान्यतः कपड़े से छान कर भरा जाता है। बड़े शहरों में रहने वाले सम्पन्न परिवारों में वाटर-फिल्टर इत्यादि का उपयोग होने लगा है। उपयोग में आने वाला हर बर्तन रोज मांज-धोकर साफ किया जाता है।

बर्तनों को साफ कर रोज पानी भरने के कारण कीटाणुओं के पनपने की जोखिम घट जाती है। सब लोग जानते हैं कि बीमारी में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। विदित है कि पानी को उबालने से उसमें मौजूद शत-प्रतिशत कीटाणु मर जाते हैं, इसलिए उबाला पानी पीना ही सबसे अधिक सुरक्षित और स्वास्थ्य बहाली के लिए आवश्यक है।

हमें लगता है कि परंपरागत मालवी समाज की पानी को शुद्ध रखने, उसकी पवित्रता बनाए रखने, साफ पानी पीने, जल संस्कारों को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने तथा अशुद्ध पानी को नकारने संबंधी समझ अद्भुत थी। उनका ज्ञान किसी भी मापदण्ड से कम नहीं था।

आश्चर्यजनक है कि तमाम वैज्ञानिक उपलब्धियों, जागरूकता और वैश्विक प्रयासों के बावजूद आधुनिक युग में जल-जनित बीमारियों से मरने वालों का प्रतिशत बहुत अधिक है। यही प्रतिकूल स्थिति, बहुसंख्य आबादी की स्वच्छ जल की पहुंच तथा उसकी उपलब्धता को लेकर भी है।

डा. पूरन सहगल कहते हैं कि स्वास्थ्य से जुड़ी मालवी लोक कहावतों का संसार विस्तृत है। मालवी लोक कहावतों की बानगी नीचे दी गई है-

लीम दांतण जो करे, हुक्की हरड़े चबाये।
वासी मुंडे पाणी पिये, वणी घरे वेद नी आये।


नीम की दातुन करने, कच्ची हर्र चबाने, बासे मुंह पानी पीने वाला व्यक्ति स्वस्थ्य रहता है और उसके घर वैद्य नहीं आता।

लीम गुण बत्तीस।
हरड गुण छत्तीस।।


नीम में केवल बत्तीस गुण हेाते हैं वही हर्र में छत्तीस गुण होते हैं अर्थात सेहत की दृष्टि से हर्र अधिक गुणकारी है। कहावत हर्र का उपयोग करने की सीख देती है।

मांस खाय मांस बदे, घी खाय खोपड़ी।
दूद पिये तो चल पड़े बरस की डोकरी।।


मांस खाने से शरीर, घी खाने से बुद्धि बढ़ती है पर दूध पीने से वृद्ध महिला तक के शरीर में शक्तिवर्धन होता है। इस कहावत में दूध का गुणकारी असर बताया है।

दूद पी ने पाणी नी पीणो।

दूध पीने के उपरांत पानी नहीं पीना चाहिए अन्यथा दूध की तासीर बदल जाती है। कहावत वर्जना शैली में है और सलाह देती है कि दूध पीने के बाद पानी पीना सही नहीं है।

भूका बोर ने धाप्या हांटो।

खाली पेट बेर और खाना खाने के बाद गन्ना नहीं खाना चाहिए। यह कहावत वर्जना शैली में है। कहावत, बेर तथा गन्ने के खाने के बारे में व्यक्ति को सचेत करती है।

बाल धोरा नी वीका होय।
जो तिरफला ती माथो धोय।


कहावत बताती है कि जो व्यक्ति त्रिफला (हर्र बहेड़ा और आंवला) के पानी से नित्य सिर धोता है उसके सिर के बाल असमय सफेद नहीं होते। यह कहावत समझाइश शैली में है और त्रिफला के फायदे पर रोशनी डालती है।

जणी घर में हींग ने हल्दी नीवे उ घर बिमारी को।

कहावत में बताया है कि जिस परिवार में हींग और हल्दी का उपयोग नहीं होता वह हमेशा अस्वस्थ्य रहता है। यह कहावत सुझाव शैली में है और हींग तथा हल्दी के फायदे पर प्रकाश डालती है।

आदमी का कान ने, लुगायां का थान ढंकयाई भला।

सर्दी के मौसम में पुरुष को कान में और स्त्री को छाती में बहुत अधिक ठंड लगती है इसलिए उन्हें इन अंगों को ढंककर रखना चाहिए। यह कहावत सुझाव शैली में है और सर्दी से बचाव के बारे में शिक्षित करती है।

चैते गुड़ बेसागे तेल, जेठक पंथ असाड़ी बेल।
सामण सब्जी भादूं दंई, क्वांर करेला ने कारतक अई।
अग्गण जीरो पो-धणों, माधे मिसरी फागुण चणो।


चैत्र माह में गुड़, बैसाख माह में तेल, ज्येष्ठ माह में यात्रा, असाढ़ माह में बेल, श्रावण माह में हरी सब्जी, भादों में दही, क्वांर में करेला, कार्तिक में छाछ, अगहन में जीरा, पूष में धनिया, माघ माह में मिश्री और फाल्गुन माह में चना खाना हानिप्रद है।

यह कहावत सुझाव शैली में है और वह विभिन्न महीनों में अवांछित भोज्य पदार्थो से बचाव के बारे में शिक्षित करती है।

इन कहावतों के अलावा, मालवांचल में सेहत एवं अन्य विषयों से जुड़ी सैकड़ों कहावतें हैं।

4. मिट्टी, परंपरागत खेती, वर्षा एवं उसकी विवेचना


4.1 मालवा अंचल की मिट्टियां


मनासा, निपानिया आयुर्वेदाश्रम, मोड़ीमाता, मोरवन, झांतला और मुढ़ैनी की चौपालों में किसानों ने बताया कि वे अपने गांव की सभी प्रकार की मिट्टियों को भलीभांति पहचानते हैं। वे जानते हैं कि किस मिट्टी में कौन से मौसम में कौन-सी फसल की पैदावार अच्छी होगी। वे यह भी समझते हैं कि किस खेत में कौन-सी फसल नहीं बोना चाहिए।

पीढ़ियों के अनुभव के आधार पर जानते हैं कि उर्वराशक्ति खोए खेत की उर्वरा शक्ति को बहाल करने के लिए क्या करना चाहिए। वे मिश्रित खेती और अदल-बदल कर बीज बोने के फायदों से भी परिचित हैं। झांतला के मोइनुद्दीन मंसूरी का कहना था कि आधुनिक विज्ञान ने वैज्ञानिक जानकारी का दायरा बढ़ाया है।

मोड़ीमाता चौपाल में झांतला के लक्ष्मण धाकड़ और जगदीश धाकड़ ने बताया कि वे अपने अनुभव के आधार पर जानते हैं कि कौन-सा खेत गेहूं के लिए और कौन सा खेत अफीम के लिए ठीक होगा।

झांतला के मोइनुद्दीन मंसूरी और रफीक ने बताया कि पुराने समय में किसान स्थानीय बीजों को छांट कर राख और नीम के पत्तों की मदद से संरक्षित कर लेता था और उनका परीक्षण करने के बाद बोता था। वैज्ञानिक बताते हैं कि बीज की कीटाणुओं से रक्षा करने में, राख की पतली परत, रक्षा कवच का काम करती है। इसी प्रकार दालों को घुन से बचाने के लिए उस पर तेल या घी का हलकी पालिश करना सही है।

मोड़ी के राजमल बंजारा और निपानिया के सन्ना बंजारा के अनुसार काली मिट्टी सबसे अधिक उपजाऊ होती है। दोमट मिट्टी में धरती के नीचे फलने वाली फसलों की पैदावार अच्छी होती है। वे आधुनिक बीजों वाली खेती में परंपरागत समझ का उपयोग कर रहे हैं। मोड़ी चौपाल में आए फतहसिंह जाट और विमलकुमार जैन का कहना था कि आधुनिक बीजों की उत्पादन क्षमता, परंपरागत बीजों की उत्पादन क्षमता की तुलना में अधिक है, इसलिए किसान उनको अपनाता है।

शिवपुरी जिले के मुढ़ैनी के बृजमोहन रावत, बद्री जाटव, चैतू गुर्जर, मुंशीलाल रावत और देवेन्द्र सिंह ने बताया कि उनके गांव में अच्छी काली मिट्टी वाले उपजाऊ खेत को कलमाटी कहते हैं। यह मिट्टी नमी को बहुत अरसे तक संजोकर रखती है। उनके गांव में बरसात में घास बहुत पैदा होती थी जिसके कारण खेती में कठिनाई होती थी।

शाजापुर जिले के सोयतखुर्द के किसानों का मानना था कि उनके पूर्वज और वे खुद, अपने खेत की मिट्टी के गुणों से, हमेशा से अच्छी तरह परिचित रहे हैं। वे जानते थे कि कौन-से खेत में कौन-सी फसल लेना फायदे का सौदा है। वे पहाड़ी पथरीली जमीनों (बलडियों) पर उड़द, तिल्ली, मूंगफली लेते थे। दुमट मिट्टी में ज्वार और कपास तथा काली मिट्टी में मक्का, चना, धनिया और गेहूं की फसल लेना पसंद करते रहे हैं। सोयतखुर्द के रमेशचंद्र गुप्ता ने बताया कि उनके गांव में गहरी काली मिट्टी को कालमट, पथरीली मिट्टी को दुमट, पहाड़ के ढलान की मिट्टी को बलडी और काली मिट्टी को खोहरा कहते हैं।

4.2 परंपरागत खेती


बरसात की स्थिति के अनुसार लंबी या कम अवधि वाले बीज का चुनाव किया जाता था। किसान अपने अनुभव के अनुसार खेती करता था। वह परंपरागत खेती, बरसात के मिजाज, मिट्टी की किस्म और बीजों के अंतरसंबंध को ध्यान में रखकर ही निर्णय लेता था। मालवा चौपाल में मौजूद लोगों का कहना था कि पुराने समय में किसान वह फसल बोता था जो उसका खेत चाहता था। किसानों का मानना है कि लाभप्रद खेती के लिए वर्षा के माकूल वितरण के साथ-साथ धरती पर अच्छी मिट्टी की कम-से-कम आधा मीटर परत चाहिए।

मनासा, निपानिया आयुर्वेदाश्रम, मोड़ीमाता, मोरवन, और झांतला की चौपालों में किसानों द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार उनके गांवों की परंपरागत फसलों में ज्वार गेहूं, कपास, चना, बाजरा, मक्का, तिल्ली, अलसी, तुअर, धान, गन्ना, मूंग, कोदों, अफीम, बटला, तम्बाकू, कुटकी और उड़द मुख्य थीं।

बीजों के मामले में उनके गांवों के किसान आत्मनिर्भर थे एवं फसल के बाद अच्छे बीज छांट कर रख लेते थे। भीलांचल की परंपरागत फसलों में मक्का, ज्वार, उड़द, मूंग, कपास, चना, मूंगफली, अफीम और गेहूं मुख्य हैं। इन सभी फसलों के बीज स्थानीय हाते थे। 68 वर्षीय भीमराज का कहना था कि पुराने बीज, सभी दृष्टियों से बेहतर थे। उनके अनुसार नए बीज, बीमारियां बढ़ाते हैं। पहले उनके गांव के किसान मक्का, मूंगफली, कपास, उड़द चना, मूंग, अफीम और गेहूं बोते थे।

पानी की कमी के कारण अब फसलें बदल गई हैं। वर्तमान में इसबगोल, चना और रायडा बोते हैं। प्रदीप धाकड़ का कहना था कि पुरानी खेती की तुलना में आधुनिक खेती का आर्थिक पक्ष अधिक मजबूत है। आधुनिक फसलों के लिए खाद, बीज, दवाइयां और पानी चाहिए। कुओं में पहले 50 से 60 फुट पर पानी था जो अब 200 फुट के नीचे उतर गया है। कुओं में पानी कम पड़ने लगा है और पूरे साल भर मिलता भी नहीं है।

मुढ़ैनी ग्राम के अधिकांश किसानों का कहना था कि उनके गांव में पहले कठिया गेहूं और खरीफ में मूंगफली, मक्का, ज्वार तथा बाजरा खूब होता था। हल्की जमीन में वे तिल्ली बोते थे।

बरसात के बाद कई लोग गेहूं, चना और अलसी बोते थे। उनका कहना था कि पुराने समय में उनके पूर्वजों के पास साधनों की कमी थी इसलिए वे कम रकबे पर खेती कर पाते थे पुराने समय में कीटनाशक दवाएं नहीं थीं। सब लोग फसलों में गोबर की खाद डालते थे। फसलों को सामान्यतः कीड़ा नहीं लगता था किंतु टिड्डी दल के कारण बहुत नुकसान होता था। उस जमाने में टिड्डी दल से बचाव का कोई तरीका नहीं था।

सोयतखुर्द के बलदेव जायसवाल के अनुसार उनके गांव की खरीफ मौसम की मुख्य परंपरागत फसलों में मक्का, ज्वार, कपास, मूंगफली, उड़द, मूंग, चवली और मिर्च थीं। रबी के मौसम में चना, जौ, मसूर, अलसी, धनिया, मेथी और गेहूं बोया जाता था। उनके गांव में बारहमासी फसलों में गन्ना, सब्जियां और सार नामक चावल बोया जाता था। सभी फसलों के बीज स्थानीय होते थे और किसान बीजों के मामले में लगभग स्वावलंबी था।

सभी चौपालों में किसानों द्वारा व्यक्त विचारों में काफी समानता थी। सभी अंचलों में किसानों ने मुख्यतः एक ही बात को रेखांकित किया था कि परंपरागत खेती ही स्थानीय बीजों को सकारात्मक भूमिका निभाने का अवसर देती है। वे परंपरागत खेती को सही मानते हैं। उनका कहना था कि पुराने समय में भले ही उत्पादन कम था पर रोजी-रोटी चल जाती थी।

मिट्टी और परंपरागत खेती का संबंध


मनासा की चौपाल में डाॅ. पूरन सहगल तथा साथियों ने बताया कि उनके क्षेत्र की मिट्टी बहुत उपजाऊ है। उसमें नमी सहेजने का गुण है। शन्तिलाल एवं आर. सी ठाकुर के अनुसार होलकर रियासत में गांव बसाने की अनुमति, तालाब बनाने के बाद दी जाती थी। इस क्षेत्र के किसान एक या दो बारिश के बाद आद्रा नक्षत्र में खरीफ की बुआई करते थे।

मालवा में बुआई के सयम को लेकर एक कहावत कही जाती है- पानी पड़े तो बोना, धार आवें तो भागना। लोगों का मानना है, मोटे अनाजों की फसलें, बिना कठिनाई के उत्पादन देती हैं। उन पर मौसम और जमीन की उर्वराशक्ति की कमी का कुप्रभाव काफी हद तक कम था। खरीफ के बाद, रबी की फसल लेने का रिवाज था।

कार्तिक माह में खेत तैयार कर स्वाति नक्षत्र में गेहूं तथा हस्त नक्षत्र में चना बोया जाता था। चौपाल में आए बुजुर्गों का कहना था कि जमीन की उर्वरा शक्ति बनाए रखने के लिए फसलों को बदल-बदल कर बोते थे। डा. पूरन सहगल, संजय शर्मा, राधेश्याम टेलर, बगदू राम वर्मा, रामप्रसाद अलहेड के अनुसार मालवा के कुछ पुराने लोगों के पास एक ही फसल के, अलग-अलग जीवनकाल वाले बीज हाते थे।

बरसात की स्थिति के अनुसार लंबी या कम अवधि वाले बीज का चुनाव किया जाता था। किसान अपने अनुभव के अनुसार खेती करता था। वह परंपरागत खेती, बरसात के मिजाज, मिट्टी की किस्म और बीजों के अंतरसंबंध को ध्यान में रखकर ही निर्णय लेता था। मालवा चौपाल में मौजूद लोगों का कहना था कि पुराने समय में किसान वह फसल बोता था जो उसका खेत चाहता था। किसानों का मानना है कि लाभप्रद खेती के लिए वर्षा के माकूल वितरण के साथ-साथ धरती पर अच्छी मिट्टी की कम-से-कम आधा मीटर परत चाहिए।

मालवा की चौपालों में किसानों से जानकारी हासिल करते समय हमें मिट्टी और खेती के सह-संबंधों पर कुछ विस्मयकारी जानकारियां मिलीं। यह समझ मिट्टियों के गुणों, फसल के विकल्प चयन, निरापद खेती और खेत की उत्पादकता के स्तर को बनाए रखने से जुड़ी थीं।

चौपालों में संकलित विचारों के आधार पर हमारी टीम का मानना है कि मध्य प्रदेश के सभी अंचलों के किसानों की मिट्टी और परंपरागत खेती संबंधी समझ एक जैसी है। यह समझ दर्शाती है कि खेती के मामले में वे आत्मनिर्भर थे।

आधुनिक मृदा विज्ञान के प्रवेश के पहले से ही मध्य प्रदेश के किसानों को खेती और मिट्टी का टिकाऊ रिश्ता ज्ञात था। वे जो खेती करते थे उसका आधार पूरी तरह वैज्ञानिक था। यह समझदारी, खेती के निरापद पक्ष और उसके अर्थशास्त्र की राह आसान करती थी।

मालवा की विभिन्न चौपालों में मिली जानकारियों ने हमारी टीम के सामने कुछ यक्ष-प्रश्न खड़े किए।

पहला प्रश्न- ग्लोबल वार्मिग और जलवायु परिवर्तन की पृष्ठभूमि तथा गिरते भूजल स्तर और सूखती नदियों के परिप्रेक्ष्य में मालवा में कौन सी खेती (परंपरागत या आधुनिक) प्रासंगिक है?

दूसरा प्रश्न- परंपरागत कृषि पद्धति में दुष्प्रभाव कम और आधुनिक खेती में वे अधिक है। क्या मालवांचल में आधुनिक खेती के दुष्प्रभाव का पूरा-पूरा या आंशिक हल खोजा जाना संभव है? घटती जौत के क्रम में क्या वह हल स्थानीय किसानों की आर्थिक क्षमता के अंतर्गत होगा? क्या आधुनिक खेती के संसाधनों पर बढ़ते दबाव और सेहत पर बढ़ते दुष्प्रभाव और स्वास्थ्य सेवाओं पर बढ़ते संभावित व्यय के क्रम में पीछे लौटना बुद्धिमानी हो सकता है?

तीसरा प्रश्न- कृषि क्षेत्र में बेरोजगार होते ग्रामीणों के शहरों की तरफ हो रहे पलायन का निदान किस पद्धति में खोजा जा सकता है? क्या उस मॉडल को आधुनिक कृषि वैज्ञानिकों की सहमति और किसानों की स्वीकार्यता के बाद जमीन पर उतारा जा सकता है?

हमारा मानना है कि उल्लिखित प्रश्नों पर चिंतन-मनन प्रासांगिक हो सकता है। संभव है बारानी खेती तथा सिंचित खेती के इलाकों तथा स्थानीय बीजों और हाइब्रिड बीजों के मामले में जुदा-जुदा रणनीतियां प्रयोग में लानी पड़ें। विदित है कि सूखी खेती में अधिकतम निर्भरता प्राकृतिक घटकों पर और सिंचित खेती में अधिकतम निर्भरता बाहरी घटकों पर होती है।

4.3 वर्षा तथा वर्षा का वनों से रिश्ता


4.3.1. वर्षा


मालवा की चौपालों में आए लगभग सभी किसान अनुभवी थे। उनके परिवार कई पीढ़ियों से खेती कर रहे थे। वे परंपरागत खेती और लगभग 50 साल पहले की परिस्थितियों से अच्छी तरह वाकिफ थे इसलिए उन्होंने वर्षा से जुड़ी अनेक पुरानी बातें बताई।

मनासा, मोड़ीमाता, मोरवन, झांतला और मुढ़ैनी की चौपालों में आए किसानों का कहना था उनके क्षेत्र में पहले जून के दूसरे सप्ताह के बाद से वर्षा शुरू होती थी और पानी बरसने का क्रम सितम्बर के अंत या किसी-किसी वर्ष अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक चलता था। अधिकांश किसानों का कहना था कि बरसात का व्यवहार बदल रहा है। अब उसकी शुरूआत किसी-किसी साल जून के अंत में होने लगी है।

सोयतखुर्द के बलदेव जायसवाल, रमेशचंद्र गुप्ता और रामगोपाल दूबे का कहना था कि पुराने समय में उनके क्षेत्र में लगभग तीन माह पानी बरसता था। पर्याप्त बरसात होती थी। पहाड़ियां रिसने लगती थीं। पहाड़ियों पर बरसे पानी की रिसन से कुएं और कुण्डियां भर जाती थीं। नदी-नाले बहने लगते थे। झरने जिंदा हो जाते थे।

उनके पुराने पानी में नया पानी मिल जाता था। उनका कहना था कि पुराने समय की बरसात परंपरागत खेती और कुओं, नदी-नालों में साल भर पानी की उपलब्धता के लिए पर्याप्त थी। लोगों का मानना है कि पानी की सहज उपलब्धता के कारण ही मालवा की प्रसिद्ध कहावत मालव माटी गहन गंभीर, पग-पग रोटी, डग-डग नीर का जन्म हुआ।

मनासा, मोड़ीमाता, मोरवन, झांतला और मुढ़ैनी की चौपालों में हमने लोगों से बरसात की मात्रा की माप के बारे में जानना चाहा चौपालों में आए किसानों का मुख्य रूप से कहना था कि पुराने समय में वर्षा की मात्रा की माप नहीं ली जाती थी। मोड़ीमाता में आए दुर्गालाल गौड़ और गोपाल भाट का कहना था कि उनके क्षेत्र में असाढ़ माह से आसोज क्वांर तक बरसात हाती है।

उचित समय पर हुई बरसात लाभ देती है। तेज बरसात से औसत भले ही बढ़ जाए पर फसलें बर्बाद हो जाती हैं। उनके अनुसार, वर्षा को फसलों की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए और तदनुसार ही उसका वितरण देखा जाना चाहिए। लगभग यही विचार सोयतखुर्द और मुढ़ैनी में सुनने को मिले।

मालवांचल में वर्षा की माप की अधिक विधि की विस्मृति के कारणों पर विचार करने से लगता है कि पशुपालक और खेतिहर समाज की आवश्यकता बरसात की माप नहीं थी। उनकी आवश्यकता घास और बोई जाने वाली फसलों का योगक्षेम था। समाज ने इसीलिए वर्षा की माप के स्थान पर खेती और पशुपालन के संदर्भ में उसके चरित्र को समझा।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र (2/24/5) के अनुसार मालवा में 23 द्रोण अर्थात लगभग 46 इंच या 1167.5 मिलीमीटर वर्षा होती थी। कौटिल्य कालीन बरसात के आंकड़ों और आधुनिक आंकड़ों की तुलना करने से पता चलता है कि मालवा की औसत सालाना बरसात में 18.32 प्रतिशत की कमी हुई है। मालवा की बरसात की तुलना का दूसरा आधार वेस्टर्न स्टेट्स गजेटियर और इंदौर रियासत के गजेटियर में दिए आंकड़ें हैं। गजेटियरों के अनुसार मालवा अंचल की रियासतों की सालना औसत वर्षा लगभग 29.83 इंच या 757.36 मिलीमीटर थी।

निम्न तालिका में मालवा के विभिन्न जिलों की सालाना औसत वर्षा को दर्शाया गया है। ये आंकड़े आधुनिक युग के हैं और जिले की औसत सालाना वर्षा को दर्शाते हैं।

जिला

औसत सालाना वर्षा

इंदौर

977.0मिमी.

मंदसौर

880.9 मिमी.

उज्जैन

914.5 मिमी.

शाजापुर

1020.2 मिमी.

देवास

1069.0 मिमी.

धार

856.3 मिमी.

रतलाम

992.9 मिमी.

नीमच

854.9 मिमी.

राजगढ़

985.8 मिमी.

 



इन आंकड़ों के अनुसार मालवा अंचल की औसत सालाना वर्षा 950.16 मिलीमीटर है।

वेस्टर्न स्टेट्स गजेटियर और इंदौर गजेटियर में दर्ज मालवी रियासतों की सालाना औसत वर्षा (757.36 मिलीमीटर) और आधुनिक आंकड़ों (950.16 मिलीमीटर) की तुलना करने से ज्ञात होता है कि वर्षा की मात्रा में 25.45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यदि मात्र इंदौर रियासत (मालवा और भानपुरा) के आंकड़ों की तुलना इंदौर और मंदसौर जिलों के वर्तमान आंकड़ों से की जाए तो ज्ञात होगा कि सालाना औसत वर्षा की मात्रा में 34 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

वर्षा का अनुमान


मालवा की चौपालों में आए किसानों ने बताया कि वे, वर्षा का पूर्वानूमान, नक्षत्रों के अनुसार लगाते है। यही विचार हमें मध्य प्रदेश की बाकी सभी चौपालों में सुनने को मिले। मालवा में वर्षा पूर्वानुमान की यह परिपाटी सैकड़ों सालों से चली आ रही है।

पुराने समय में किसान, वर्षा की प्रकृति और जमीन की सामर्थ्य को ध्यान में रखकर खेती करता था और स्थानीय वर्षा, जमीन और वातावरण कौन-सा बीज चाहते हैं, के अनुसार फैसले किए जाते थे। देशज बीजों वाली खेती के लिए बरसात पर्याप्त थी। खेती असिंचित थी और बोई जाने वाली फसलों की जल आवश्यकता का ध्यान रखकर की जाती थी। पूरा तरीका प्राकृतिक घटकों पर आधारित था। फसलों एवं स्थानीय बीजों का चुनाव इस प्रकार था कि वर्षा की सामान्य घट-बढ़ का खेती पर मामूली असर होता था।

अधिकांश किसान अभी भी खेती का संपूर्ण कार्यक्रम नक्षत्रों के अनुसार तय करते है। उनके अनुसार, अंग्रेजी माह की तारीखों से खेती का कार्यक्रम मेल नहीं खाता। निपानिया के बाबूलाल जाट, झांतला के रमेशचंद्र, गोपाल राव और सोयतखुर्द के किसानों का कहना था कि वे दोनों ही पद्धतियों के अनुभवों के आधार पर बरसात से लेकर खेती की सभी गतिविधियों पर फैसला लेते हैं।

मनासा की चौपाल में आए लोगों का दावा था कि मालवी लोग, वर्षा का पूर्वानुमान लगाने में सिद्धहस्त हैं। अधिकांश लोग नक्षत्रों पर विश्वास करते हैं। समरथ भील, घनश्याम धाकड़ और मोहन भील ने बताया कि उनके ग्रामों में कोई भी व्यक्ति नक्षत्र आधारित वर्षा का लेखाजोखा नहीं रखता।

चौपाल में मौजूद योगेन्द्र मकवाना का कहना था कि उनके अंचल में मुंबई तथा बंगाल की खाड़ी से आए बादलों से बरसात होती है। मुंबई की ओर से आने वाले बादल सामान्यतः तीन से पांच दिनों में मालवा आ जाते हैं। यदि मुंबई में खूब पानी बरसता है तो उसका असर मालवा में भी देखने को मिलता है।

वर्षा की विवेचना


हमारी टीम ने चौपालों में उपस्थित लोगों से बरसात के आंकड़ों के आधार पर वर्षा की विवेचना करने का अनुरोध किया। मोरवन की चौपाल में विमलकुमार जैन और लाल सिंह जाट का कहना था कि भले ही आधुनिक युग में आंकड़ों के आधार पर वर्षा की विवेचना की जाती है पर उनकी दृष्टि में बरसात की विवेचना तालाबों, कुओं या नदियों के जल भराव या अपने ग्राम के सिंचित रकबे के आधार पर की जानी चाहिए।

किसानों के दृष्टिकोण से हमें लगा कि उनकी दृष्टि में वर्षा की सकल मात्रा का बहुत अधिक महत्व नहीं है। उनकी नजर में बरसात का अर्थ है सही समय पर पानी बरसना ताकि फसल का अंकुरण, उसका विकास एवं उत्पादन ठीक हो और रबी के लिए खेतों में माकूल नमी उपलब्ध हो सके। यह किसानों की अपनी देशज विवेचना है।

हमें लगा कि वैज्ञानिक दृष्टि से भले ही आधुनिक तरीका सही हो पर कृषि प्रधान देश में वर्षा की विवेचना किसानों की आवश्यकता, जलाशयों के भरने तथा भूजल भंडारों की क्षमता-बहाली के नजरिए से की जानी चाहिए। यह सही है कि उपर्युक्त श्रेणियों की आवश्यकता-पूर्ति के लिए विवेचना के मापदण्ड अलग-अलग है। संभव है प्रस्तावित विवेचना, वर्षा के चरित्र की भिन्नता के कारण जटिल या कष्टसाध्य हो पर बरसात की जानकारी देने वाले विज्ञान को जनोपयोगी होना चाहिए।

निपानिया आयुर्वेदाश्रम के महामंडलेश्वर सुरेश्वरानन्द सरस्वती ने हमारी टीम को जटाशंकरी तथा लक्ष्मणा नामक दो वनस्पतियां दिखाईं। उन्होंने बताया कि जब भी मानसून सक्रिय होता है इन वनस्पतियों में अंकुरण प्रारंभ हो जाता है। प्रसंगवश उल्लेख है कि बघेलखंड और निमाड़ अंचल में बरसात के आगमन की सूचना देने वाली वनस्पतियों (प्राकृतिक संकेतकों) का जिक्र है। जटाशंकरी तथा लक्ष्मणा संभवतः मालवा की वनस्पतियां हैं जो बरसात का पूर्वानुमान देती हैं।

वर्षा और खेती के सह-संबंध पर समाज की सोच


मालवी चौपालों में मौजूद लोगों का कहना था कि वर्षा और खेती के बीच अंतर-संबंध होता है। वे कहते हैं कि यदि यह संबंध संतुलित है तो उत्पादकता भी लगभग सुनिश्चित है। रबी की फसल लेने के लिए जमीन में नमी सहेजने की शक्ति एवं मिट्टी की परत की पर्याप्त मोटाई होना चाहिए। उनका कहना है कि परंपरागत खेती की व्यवस्था वर्षा के चरित्र, मावठा और ओस से तालमेल बिठाती व्यवस्था थीं इस व्यवस्था में मानसून की अनिश्चितता से निपटने की बेहतर क्षमता है।

मनासा, निपानिया, मोड़ीमाता, मोरवन, झांतला और मुढ़ैनी की चौपालों में आए किसानों ने जोर देकर बताया कि पुराने समय में किसान, वर्षा की प्रकृति और जमीन की सामर्थ्य को ध्यान में रखकर खेती करता था और स्थानीय वर्षा, जमीन और वातावरण कौन-सा बीज चाहते हैं, के अनुसार फैसले किए जाते थे।

देशज बीजों वाली खेती के लिए बरसात पर्याप्त थी। खेती असिंचित थी और बोई जाने वाली फसलों की जल आवश्यकता का ध्यान रखकर की जाती थी। पूरा तरीका प्राकृतिक घटकों पर आधारित था। फसलों एवं स्थानीय बीजों का चुनाव इस प्रकार था कि वर्षा की सामान्य घट-बढ़ का खेती पर मामूली असर होता था।

पुरानी कृषि पद्धति प्राकृतिक संसाधनों को समृद्ध करती थी। पुरानी कृषि पद्धति में उत्पादन कम था। आमदनी भी कम थी। पर खेती के असर से बीज हानिकारक, खेत अनुत्पादक, मिट्टी जहरीली एवं जल प्रदूषित नहीं होता था। खेती के भविष्य पर आंच की संभावना नहीं थी।

झांतला के दौलतराम का कहना था कि हमारे खेत, फसलों के साथ-साथ अब खतरनाक बीमारियां भी पैदा कर रहे हैं। पत्रकार राजेन्द्र हरदेनिया उदाहरण सहित कहते हैं कि पंजाब के मालवा इलाके की पहचान उन्नत खेती के साथ-साथ अब कैंसर के नए गढ़ के रूप में होने लगी है।

चौपालों में मौजूद किसानों का कहना था कि परंपरागत खेती का स्थानीय वर्षाचक्र से गहरा नाता था। इस जानकारी ने हमें एकदम नए दृष्टिकोण से सोचने को मजबूर किया।

इस सोच ने साफ किया कि बरसात की अवधि को ध्यान में रखकर ही उपयुक्त किस्में बोई जाती थीं। हमारी टीम को लगता है कि वर्षा और खेती के सह-संबंध पर समाज के सोच एवं योगक्षेम को मूर्त रूप देती तत्कालीन व्यवस्था, वास्तव में, निरापद खेती की सामाजिक मान्यता प्राप्त आदर्श व्यवस्था थी।

चौपाल में मौजूद अधिकांश लोगों का कहना था कि मौजूदा युग में आधुनिक खेती होने लगी है। यह खेती अधिक पानी चाहती है तथा इसमें उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों एवं खरपतवारनाशकों का बहुत अधिक उपयोग होता है। इसकी लागत भी अधिक है।

चौपाल में व्यक्त भावना के अनुसार, आधुनिक खेती अपनाने के कारण पानी, मिट्टी और खेती सह-संबंध में असंतुलन पैदा हो रहा है। कुछ लोग कहते हैं कि खेत खराब हो रहे हैं। बिना खाद के खेती असंभव लगने लगी है। उन्नत बीजों के आ जाने के कारण बुआई का गणित, प्रयोगशाला आधारित प्रयोगों पर आश्रित हो गया है।

उसका दीर्घावधि पक्ष कमजोर है। खेती में बाहरी तत्वों की अनिवार्यता के कारण वर्तमान खेती का प्रकृति से संबंध कम हो रहा है। आश्चर्यजनक है कि मध्य प्रदेश के सभी अंचलों में किसानों तथा चौपाल में आए लोगों की राय एक जैसी है।

4.3.2. वर्षा से वनों का रिश्ता


झांतला के नन्दाजी भील और मोरवन के मोहनजी धाकड़ का कहना था कि जंगल और वर्षा का अंतरसंबंध होता है। उनका विश्वास है कि जंगल कम होने के कारण मालवा में बरसात कम हो रही है। वे मिट्टी कटने और आदमी के लालच को वन विनाश का सबसे बड़ा कारण मानते हैं। वे जंगल के सही विकास के लिए मिट्टी की आवश्यकता से भी परिचित हैं।

चौपालों में उपस्थित लोग कहते हैं कि जंगल के विकास के लिए पानी अनिवार्य है। यदि जंगल से पानी और मिट्टी का नाता टूट जाता है तो धीरे-धीरे जंगल समाप्त हो जाता है। समूचा वन क्षेत्र बंजर हो रेगिस्तान बनने लगता है। मालवा में जंगल कटने के कारण समस्याएं पनप रही हैं। यह स्थिति प्रायः सभी अंचलों में है।

5. लोकसंस्कृति में जल विज्ञान और प्रकृति से जुड़ी कहावतों का वैज्ञानिक पक्ष


5.1. लोक संस्कृति में जल विज्ञान


लोक संस्कृति में जल विज्ञान एवं प्रकृति पर बुजुर्गों के सोच एवं व्यक्त विचारों को हमारी टीम ने आत्मसात कर निष्कर्षों पर पहुंचने का प्रयास किया। कुछ निष्कर्ष इस प्रकार हैं।

1. समाज को पानी की समझ थी इसलिए उसने जीवनशैली, संस्कार, खेती और आरोग्य को यथासंभव निरापद करता जल प्रबंध एवं जल प्रणालियों का तंत्र स्थापित किया।
2. कुओं, बावड़ियों और जल संग्रह संरचनाओं का चयन एवं निर्माण करते समय स्थानीय परिस्थितिकी तथा जलवायु का ध्यान रखा। प्रकृति नियंत्रित ऐसी प्रणाली विकसित की जो टिकाऊ और गाद और प्रदूषण जैसी विकृतियों से यथासंभव मुक्त थी।
3. जल विज्ञान और प्रकृति के संबंध को लोकजीवन का अविभाज्य अंग बनाने के लिए सामाजिक मान्यता प्राप्त एवं धार्मिक रीति-रिवाजों द्वारा संरक्षित संप्रेषण प्रणाली विकसित की। उसे स्वावलंबी बनाकर समाज की धरोहर बनाया।

उपर्युक्त व्यवस्था का तानाबाना इंगित करता है कि प्राचीन काल में पानी से जुड़ी सभी गतिविधियां, स्थानीय इको-सिस्टम का अभिन्न हिस्सा थीं। वह लोक-संस्कारों द्वारा पोषित विज्ञान बना।

इसी कारण प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के बावजूद प्राकृतिक संतुलन सामान्य बना रहा। खेती तथा आर्थिक गतिविधियों ने पर्यावरण को प्रदूषित नहीं किया। प्राकृतिक जलचक्र को नुकसान नहीं पहुंचाया। विकास संतुलित रहा और वह कभी भी समाज के लिए पर्यावरणीय चुनौती का सबब नहीं बना। बाहरी ताकतों के प्रभाव से मुक्त रहा। उत्पादन का ध्येय अपना और स्थानीय समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित रहा।

5.2. प्रकृति से जुड़ी कहावतों का वैज्ञानिक पक्ष


मालवा की चौपालों में एकत्रित लोगों का मानना था कि मालवा की बेहद उपजाऊ जमीन, जलवायु और बरसात के चरित्र के कारण सारी लोक-संस्कृति और लोक-विज्ञान मुख्यतः खेतिहर समाज की गतिविधियों के इर्दगिर्द विकसित हुआ। सबसे अधिक चिंतन आजीविका, पशुपालन और प्रकृति के संबंधों पर हुआ। मालवांचल में प्रचलित सारी लोक कहावतें उसी चिंतन की परिचायक हैं।

उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश के विभिन्न अंचलों की कहावतों में आंचलिकता या बोली की भिन्नता के अतिरिक्त, कोई बुनियादी अंतर नहीं है।

प्राचीन काल में पानी से जुड़ी सभी गतिविधियां, स्थानीय इको-सिस्टम का अभिन्न हिस्सा थीं। वह लोक-संस्कारों द्वारा पोषित विज्ञान बना। इसी कारण प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के बावजूद प्राकृतिक संतुलन सामान्य बना रहा। खेती तथा आर्थिक गतिविधियों ने पर्यावरण को प्रदूषित नहीं किया। प्राकृतिक जलचक्र को नुकसान नहीं पहुंचाया। विकास संतुलित रहा और वह कभी भी समाज के लिए पर्यावरणीय चुनौती का सबब नहीं बना।

नीमच जिले के मोरवन के लालसिंह और विमलकुमार जैन का कहना था कि कहावतों के आधार पर हमें बरसात, खेती, बीमारी इत्यादि के बारे में संकेत मिलते हैं। वे संकेत लगभग ठीक-ठीक जानकारी देते हैं।

झांतला के मगनलाल भील और दौलतराम राठौर का कहना था कि उनके इलाके के कुछ लोगों ने कहावतों का लेखा-जोखा रखा है पर वह अप्रकाशित है। निपानिया के सत्यनारायण चौधरी, झांतला के दुर्गालाल गौड़ और रूकमा भील का कहना था कि ऐसी कई मालवी कहावतें हैं जिनका निष्कर्ष सही निकलता है। कई बार विज्ञान की बरसात संबंधी भविष्यवाणियां भी तो गलत हो जाती हैं।

माधुरी श्रीधर कहती हैं कि सभी कहावतें सीख, समझाइश और वर्जनाओं की शैली में अनुभवजन्य ज्ञान को संप्रेषित करती हैं। उनमें नक्षत्रों, मौसम, वर्षा, अकाल, खेती, कृषि पद्धति, पालतू जानवरों, खेती में प्रयुक्त पशुओं, जीव-जंतुओं के स्वभाव एवं व्यवहार, वनस्पतियों के औषधीय गुणों से संबंधित जानकारियां मौजूद हैं। कहावतों के प्रस्तावित प्रमुख वर्ग निम्नानुसार हैं-

1. नक्षत्रों से संबंधित कहावतों का वैज्ञानिक पक्ष
2. महीनों से संबंधित कहावतों का वैज्ञानिक पक्ष
3. अनुभव जन्य कहावतों का वैज्ञानिक पक्ष

1. नक्षत्रों से संबंधित कहावतों का वैज्ञानिक पक्ष


रोहिणी नक्षत्र


कृतिका भींजे कांकरी, रोहिणी रेलावे।
काल सुकालो जाण लो, वरखा वेगी आवे।।


कृतिका नक्षत्र में इतनी वर्षा हो जाए कि कंकरी भीग जाए तथा रोहिणी नक्षत्र में इतनी वर्षा हो जाए कि पानी बह कर निकल जाए तो समझ लो कि बरसात के आसार अच्छे हैं।

आदरा-भरणी रोइणी, मघा उत्तरा तीन।
इनी में जो आंदी चले, समझो बरखा छीन।।


आद्रा, भरणी, रोहिणी, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा-भाद्रपद और उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र में जोर की हवा चले तो समझिए कि बरसात कम होगी।

चितरा स्वांत विसा खडी, जो बकसे आसाड़।
चलो नरा बिदेयड़ी, पर हे काल सुगाड़।


यदि आसाढ़ माह में चित्रा, स्वाति और विशाखा नक्षत्रों में बरसात हो तो लोगों को घर छोड़ना पड़ेगा क्योंकि भयानक अकाल पड़ेगा।

सामण वदी एकादसी तीन नखत्तर होय।
तरा होवे छिपपुटी, रोहिणीहोय सुकाल।
आय नखत्तर मृगसिरो, पड़े अचोत्यो काल।


यदि श्रावण कृष्ण पक्ष एकादशी को कृतिका नक्षत्र हो तो मामूली बरसात होगी किंतु यदि रोहिणी नक्षत्र हो तो सुभिक्ष होगा और यदि मृगशिरा नक्षत्र होगा तो अकाल पड़ेगा।

मृगसर वाजे वायरो, तपे रोहिणी जेठ।
कंथा बांधो झोपड़ी, बरसालो नी निकरे बरडा हेट।।


यदि मृगसर नक्षत्र में जोर की हवाएं चलें तथा जेठ माह में रोहिणी खूब तपे तब हे कंत (पति) झोपड़ी बांध लो। खूब पानी गिरेगा। वटवृक्ष के नीचे बरसात के दिन नहीं बिता पाएंगे।

लगत बरसे आदरा, उतरे बरसे हस्त।
कितनो इ राजा कर लहे, रहे आनंद गृहस्त।।


यदि आद्रा नक्षत्र में सूर्य का प्रवेश होते ही बरसात हो जाए और हस्त नक्षत्र से सूर्य निकलते ही बरसात हो जाए तो इतना अनाज पैदा होगा कि राजा कितना भी लगान वसूले, किसान सानन्द और सम्पन्न ही रहेगा।

नक्षत्रों का वर्षा संबंधी पूर्वानुमान तथा आधुनिक मौसम विज्ञान द्वारा दी गई जानकारी में काफी हद तक समानता है। दोनों ही विज्ञानों की अन्वेषण पद्धति पृथक-पृथक है। दोनों ही विज्ञान संभावित वर्षा के बारे में पूर्वानुमान प्रकट करते है। इसके अतिरिक्त आधुनिक मौसम विज्ञान की ऐसी अनेक शाखाएं हैं, जिनका भारतीय प्रणाली में अस्तित्व नहीं था। इसी प्रकार भारतीय प्रणाली में भी कुछ ऐसे घटक हैं जिन पर आधुनिक मौसम विज्ञान द्वारा ध्यान दिया जा सकता है।

हमारी टीम मानना है कि नक्षत्र आधारित अधिकतम कहावतों का संबंध खरीफ की फसलों के बीज की किस्म, उनका जीवनकाल, कृषि, पद्धति, जलवायु और स्थानीय मिट्टी के गुण जैसे अनेक जटिल तंत्रों से है।

2. महीनों से संबंधित कहावतों का वैज्ञानिक पक्ष


नीमच जिले के मनासा, मोड़ीमाता और मोरवन की चौपालों में एकत्रित लोगों का कहना था कि उनके क्षेत्र में महीनों से संबंधित सैकड़ों कहावतें मौजूद हैं। इन कहावतों में किसी न किसी विषय पर निश्चित संदेश छुपा होता है जो लोगों का मार्गदर्शन करता है। आश्चर्यजनक है कि मध्य प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में महीनों पर आधारित कहावतों के संदेशें में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। जो अंतर हमें दिखा वह केवल बोली में था।

मालवा अंचल से संबंधित कुछ कहावतें और उनका वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक पक्ष निम्नानुसार है-

जेठ मास चले पुरवाई, असाढ़ो बरसे भलो।
हावण राम सहाई।।


यदि जेठ माह में पुरवाई (पूर्व दिशा से बहने वाली हवा) चलने लगे तो असाढ़ माह में तो अच्छी बरसात होगी पर श्रावण माह की बरसात का भगवान मालिक है।

दखिन वायरो चले असाढ़।
बरखा रोके, दूखे हाड़।।


यदि अषाढ़ माह में दक्षिण दिशा से हवा बहने लगे तो बरसात रुकेगी और शरीर के जोड़ों में दर्द होगा।

काती मास उतार में, बहे पुरवई ए धार।
छवे बादरा अवसई, मावठ का आसार।।


यदि कार्तिक माह के अंतिम दिनों में एक ही गति से लगातार हवा चले तो मानिए, बादल छाएंगे और मावठा (शीत ऋतु की बरसात) गिरेगा।

काती के आखीर में, पुरबी चाले सीत।
अवसी घुमड़े बादरा, हे मावठ की नीत।।


यदि कार्तिक माह के अंतिम दिनों में शीतल पुरवाई चले तो जानिए मावठा गिरने के आसार हैं।

दखिन चाले वायरो, पोस माघ के मांहे।
सुभ मंगल चारि दिशा, अण में संसो नाहिं।।


यदि पौष और माहों में दक्षिण दिशा से हवा चले तो बरसात तथा फसलें अच्छी होंगी। अर्थात दक्षिणी हवा को शुभ लक्षण मानना चाहिए।

इन कहावतों को समझने के लिए मालवांचल पर असर डालने वाले मानसून तंत्र को समझाना होगा। हमारी टीम का मानना है कि उपर्युक्त अवलोकन आधारित कहावतों के वैज्ञानिक पक्ष को समझने के लिए विश्वविद्यालयों और मौसम विभाग के संयुक्त प्रयासों तथा गहन अध्ययन की आवश्यकता है।

3. अनुभवजन्य कहावतों का वैज्ञाहनक पक्ष


मुढ़ैनी, मनासा, मोड़ीमाता और मोरवन की चौपालों में एकत्रित लोगों का कहना था कि उनके क्षेत्र के बड़े-बूढ़ों को सैकड़ों अनुभवजन्य कहावतें याद हैं। उन कहावतों में जीवन के प्रत्येक पक्ष पर सुझाव, मार्गदर्शन या वर्जना प्रगट करता संदेश होता है। सामान्य बातचीत में भी उनका उपयोग होता है। झांतला के नेमीचन्द छीपा इत्यादि कई लोगों ने महीनों से संबंधित अनेक कहावतें सुनाई।

बडला की डाड़ी बढ़े, जामुन पाके मीठ।
नीम निम्बोली पाक जा, हे बरखा की दीठ।।


इस मालवी कहावत के अनुसार यदि वटवृक्ष की लटकने वाली जड़ों में नई कोपल फूट पड़ें, जामुन पक जाए और नीम की निम्बोली (फल) पक जाए तो समझ लो वर्षा आने वाली है।

हम सब आम में बौर आने या नीम के वृक्ष में फूल आने या पलाश के फूलने, सागौन या पतझड़ आने की घटनाओं से परिचित है। इन घटनाओं को प्रकृति नियंत्रित करती है और साल-दर-साल, निश्चित समय पर उसकी पुनरावृत्ति होती है। हमारी टीम का मानना है कि इस कहावत के पीछे निश्चित समय पर वटवृक्ष, नीम और जामुन के वृक्षों में होने वाले परिवर्तन से जुड़ा बरसात संबंधी अवलोकन है जिसे समाज ने कहावत के रूप में सम्प्रेषित किया है।

पाणी पीवे धाप।
नी लागे लू की झाप।।


यदि गर्मी के दिनों में पानी पीकर धूप में बाहर जाते हैं तो लू नहीं लगती।

लीली फसल सांचे।
पालो न्होर नीचे।।


हरी फसल की सिंचाई करने से फसल को पाला नहीं लगता। कहावत का संदेश है कि सिंचाई कर हरी फसल को पाले से बचाया जा सकता है। यही वैज्ञानिक मान्यता है।

बादल ऊपर बादल चले, घन बादल की पांत।
बरखा तो आवे अवस, अंधड़ के उत्पात।।


यदि बादलों के ऊपर बादलों की परत दिखे और बादल चलते दिखें तो जानिए कि जोरदार बरसात तो होगी ही, आंधी भी चलेगी।

धोरा धोरा वादरा, चले उतावर चाल।
नी बरसावे मेवलो, निडरो गेले चाल।।


यदि सफेद बादल तेजी से जाते दिखें तो निश्चिंत होकर यात्रा पर निकल जाएं। बरसात नहीं होगी।

वायुकुंडो चन्द्रमो, जद बी नजरा आयें।
दखनियों वायरो चले, पाणी ने तरसाय।।


यदि चन्द्रमा के इर्दगिर्द वायु कुंड (थोड़ा दूर गोल वृत्त) बना दिखे तो दक्षिणी हवा चलेगी और वर्षा में विलम्ब होगा।

कामण्यो वायरो ढबे, भीतर मन अकलाय।
परसीनो चप-चप कर, तरतंई बरखा आय।।


यदि मानूसनी हवा चलने लगे, भीतर ही भीतर मन अकुलाने लगे और शरीर से पसीना चूने लगे तो जान लो कि अब बरसात होने में विलम्ब नहीं है। यह वैज्ञानिक वास्तविकता है कि वातावरण में नमी बढ़ने के कारण उमस बढ़ती है। उमस के बढ़ने से पसीना आता है और बेचैनी अनुभव होती है। उमस का बढ़ना, बरसात का संकेत है।

लांबो चाले वायरो, घोरा बादर जाय।
बरखा लाम्बी ताण दे, फसला ने तरसाय।।


यदि एक ही दिशा में लगातार हवा चले और आकाश में सफेद बादल तैरते दिखें तो जान लें कि अभी बरसात नहीं होगी। फसलें पानी को तरसेंगी।

कोंपर फूटैं नीम की, पीपरयां तंबाय।
चेत चेत ग्यो जाण लो, अस्साढ़े बरसाय।।


यदि चैत्र माह में सही समय पर नीच में कोंपले निकल आएं तथा पीपल के वृक्ष के पत्तों का रंग तांबे जैसा हो जाए तो मान लो कि सही समय पर चैत्र आया है और असाढ़ के माह में समय पर बरसात अवश्य होगी।

दादर टर्रावे घणा, पीSकां-पीSकां मोर।
पपियो पी-पी कर पड़े, घन बरसे घनघोर।।


यदि मेंढक जोर-जोर से टर्राने लगें, मोर पीकां-पीकां का शोर करें और पपीहा पीS की रट लगाए तो जानिए घनघोर बरसात होगी।

झाड़ मथारे बैठने, मोर मचाये शोर।
दशा भूल ग्या वादरा, चला गया किण ओर।।


वृक्ष के ऊपरी भाग या चोटी पर बैठकर मोर शोर मचाए तो समझिए कि बादल राह भटक कर कहीं और चले गए हैं। फिलहाल बरसात की संभावना नहीं है।

होरी के दूजे दना, बादर घिरें अकास।
हावण हरियाला रहे, हे बरखा की आस।।


होली के दूसरे दिन यदि आसमान में बादल घिर आएं तो मानिए कि श्रावण माह में खूब हरियाली होगी अर्थात पर्याप्त बरसात होगी।

जणी दनां होरी बरे, बादर दिखें अकास।
वरखा सुभ की आवसी, रित असाढ़ के मास।।


जिस दिन होली जलती है उस दिन यदि आसमान में बादल घिर आएं तो जानिए कि असाढ़ माह में पर्याप्त बरसात होगी।

पाणी पीवे धाप,
नी लागे लू की झाप।


गर्मी के दिनों में धूप में जाने के पहले पानी पीकर बाहर निकलने से लू नहीं लगती।

सेवे शुद्ध पाणी अन हवा,
कई करे वैद अन दवा।


शुद्ध हवा और पानी का सेवन करने वाला व्यक्ति कभी बीमार नहीं पड़ता। उसे दवा और वैद्य की आवश्कता नहीं होती है।

करसे पाणी तप उठे, चिडिया न्हावे धूर।
अंडा ले चींटी चलै, वरखा हे भरपूर।।


जब कलश में रखा पानी अपने आप गर्म होने लगे। चिड़ियां धूल में स्नान करने लगें और चिटियां अपने बिलों से अंडों को लेकर ऊंचे स्थानों की ओर जाने लगें तो भरपूर बरसात होगी। हमारी टीम को यह कहावत प्रदेश के सभी अंचलों में सुनने को मिली। इस कारण हमें लगता है कि ज्ञान-विज्ञान को आंचलिकता की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। उसका प्रभाव चारों ओर दिखता है।

हमारी टीम को लगता है सभी कहावतों के विज्ञान पक्ष का अध्ययन किया जाना चाहिए और उनकी संप्रेषण कला की ग्राह्यता को आधुनिक युग में उपयोग में लाना चाहिए।

इन कहावतों के सम्प्रेषण पर विचार करते समय हमें लगा कि इन कहावतों में समाज का हित छुपा है इसलिए उनके सम्प्रेषण का असर स्थायी बना। सभी अंचलों में हमें एक भी ऐसी कहावत सुनने में नहीं आई जो किसी का विज्ञापन करती हो या दूसरे के हित को शब्दाजाल में लपेट कर समाज को बरगलाती हो।

 

जल चौपाल, सप्रे संग्रहालय, संस्करण 2013

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

आओ बनायें पानीदार समाज

2

मध्य प्रदेश का सांस्कृतिक परिचय

3

निमाड़ की चौपाल

4

बघेलखंड की जल चौपाल

5

बुन्देलखण्ड की जल चौपाल

6

मालवा की जल चौपाल

7

जल चौपाल के संकेत

 
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