लेखक
भोपाल गैस कांड पर विशेष
2 और 3 दिसम्बर 1984 की दरम्यानी रात को मैं उज्जैन में और मेरा परिवार भोपाल में था। तीन तारीख को सबेरे स्थानीय अखबारों से पता चला कि भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने में गैस रिसी है और उसके असर से भोपाल में अफरा-तफरी का माहौल है। उस समय घटना की गम्भीरता का अहसास नहीं हुआ।
स्थिति जानने के लिये भोपाल फोन लगाने का कई बार प्रयास किया पर टेलीफोन लाइनों की अति व्यस्तता के कारण किसी भी परिचित से सम्पर्क नहीं हो सका। सम्पर्क के अभाव में, कुछ समय तक अस्पष्टता की स्थिति बनी रही। इसी बीच में पता चला कि पुलिस ने भोपाल पहुँचने वाले लोगों के नगर प्रवेश को अस्थायी रूप से रोक लगा दी है और सही लोगों को ही घर जाने दिया जा रहा है।
यह जानकर लगा कि सम्भवतः भोपाल में बड़ा हादसा हुआ है। किसी तरह परिवार से सम्पर्क हुआ। पत्नी ने बताया कि रात को यूनियन कार्बाइड कारखाने से कोई ज़हरीली गैस रिसी थी पर उसका असर हमारे इलाके में नहीं था। भोपाल के मित्रों ने बताया कि उस गैस के असर से भोपाल का बहुत बड़ा इलाका प्रभावित हुआ है।
प्रभावित इलाकों के हजारों लोगों ने रात में ही घर छोड़कर आसपास के ग्रामों, कस्बों में अपने परिचितों के घर शरण ली है। कुछ लोग सड़क पर पड़े हैं। उन्हें अस्पताल ले जाया जा रहा है। भोपाल लौटने का फैसला किया। भोपाल में प्रवेश करते ही दुर्धटना की गम्भीरता का अहसास हुआ। चारों तरफ दहशत का माहौल था।
घर पहुँचकर पास के सरकारी अस्पताल (1250 अस्पताल) गया। अस्पताल मरीज़ों से पटा पड़ा था और दृश्य हृदय विदारक था। कई लोग मास्क लगाकर मरीजों की देखभाल कर रहे थे। लोगों को ठीक से मालूम नहीं था कि वास्तव में कौन सी गैस रिसी है। उसका रासायनिक सूत्र क्या है? उसने शरीर के किस हिस्से या हिस्सों को गम्भीर नुकसान पहुँचाया है।
जानकारी के अभाव में सारा इलाज लक्षणों के आधार पर किया जा रहा था। डॉक्टरों को भी सही तरीके से नहीं मालूम था कि गैस के असर को कम करने के लिये कौन सी दवा दी जाये। दवा की दुकानों में भी स्टाक की कमी हो रही थी। गैस की जानकारी के लिये अनेक रसायनशास्त्री किताबें खंगाल रहे थे।
अखबारों के संवाददाता हकीक़त को समझने और उसकी तह में जाने की जद्दोजहद में जी-जान से लगे थे। कुछ लोग आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर तरह-तरह के कयास लगा रहे थे।
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने की निर्माण सन् 1969 में हुआ था। इस कारखाने में पेस्टीसाइड का निर्माण किया जाता था। सन् 1979 में इस कारखाने में मीथाइल आइसो सायनाइड का उत्पादन प्रारम्भ हुआ। कारखाने के आसपास रहने वाले लोग इसे दवा बनाने वाले कारखाने के रूप में जानते थे। गैस त्रासदी के पहले यह भोपाल की शान माना जाता था।
यूनियन कार्बाइड की गैस त्रासदी को भारत की गम्भीरतम औद्योगिक त्रासदी के रूप में जाना जाता है। कुछ लोग इसे रासायनिक त्रासदी या कारपोरेट बदइन्तजामी भी कहते हैं।
मध्य प्रदेश सरकार के अनुसार इस दुर्घटना में 3,787 व्यक्ति मारे गए थे। स्थायी और गम्भीर रूप से प्रभावित व्यक्ति 3,900, अस्थायी रूप से प्रभावित व्यक्ति 38,478 और कुल प्रभावित लोगों की संख्या 5,58,125 थी। हजारों पशु-पक्षी भी मरे। जलस्रोतों और वनस्पतियों पर भी कुप्रभाव पड़ा।
यूनियन कार्बाइड कारखाने में प्रदूषण और गैस रिसाव के प्रकरणों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है। पहला प्रकरण 1976 का है जब दो ट्रेड यूनियनों ने कारखाने के परिसर में प्रदूषण की शिकायत की।
सन् 1981 में गैस रिसाव के कारण एक मज़दूर की मौत हुई। सन् 1982 में गैस रिसाव की चार घटनाएँ हुई। इनमें 44 कर्मचारी, एक केमिकल इंजीनियर और एक सुपरवाइजर ज़हरीली गैस की चपेट में आये थे। सन् 1983 और 1984 के शुरुआती दिनों में मिक, क्लोरीन, मीथाइलमाइन फास्जीन और कार्बन टेट्राक्लोराइड जैसी गैसों के रिसाव की अनेक छुटपुट घटनाएँ हुईं।
ये घटनाएँ इंगित करती हैं कि रखरखाव की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। इसी कारण, 2-3 दिसम्बर 1984 की रात को मीथाइल आइसो सायनाइड टैंक में पानी भरा। पानी और मीथाइल आइसो सायनाइड में प्रतिक्रिया हुई और लगभग एक घंटे तक, करीब 30 टन मीथाइल आइसो सायनाइड और अन्य रसायन, गैस के घने बादलों के रूप में बाहर आये।
हवा के रुख के साथ दक्षिण-पूर्व दिशा में बढ़े और गम्भीरतम त्रासदी तथा कारपोरेट लापरवाही के रूप में हमेशा-हमेशा के लिये दर्ज हो गए।
भोपाल गैस त्रासदी का पहला दुखद पक्ष यह था कि समाज को यूनियन कार्बाइड कारखाने में बनने वाले पेस्टीसाइड या अन्य दवाओं के गुणदोषों, प्रभावों और उनसे बचाव के तौर-तरीकों के बारे में जानकारी नहीं थी। लोगों को गैस से बचने के सामान्य या घरेलू तरीकों के बारे में भी जानकारी नहीं थी। इसी कारण जब गैस रिसी तो लोग तात्कालिक सुरक्षात्मक कदम उठाने के स्थान पर बदहवासी में घरों के बाहर निकले और भीड़ के पीछे दौडे। दौड़ने से उनकी साँस फूली। बहुत अधिक गैस फेफड़ों में गई।
भोपाल गैस त्रासदी जैसी घटनाएँ केवल मानवीय त्रासदी ही नहीं होतीं। वे अनन्त समय के लिये सरकार और समाज के लिये गहरे घाव देती हैं और इतिहास बनकर अगली पीढ़ियों के लिये चेतावनी बनतीं हैं। वे सरकारों के लिये मार्गदर्शक संकेतक का काम करती हैं। यह संकेत होता है नई योजनाओं को प्रस्तावित समय तात्कालिक लाभों के अलावा चुनौतियों और खतरों का बोध कराने का।प्राकृतिक आपदओं के प्रबन्ध के लिये जे.सी. पन्त, अध्यक्ष, भारत लिट्रेसी बोर्ड ने सन् 2001 में आपदाओं के सुचारु प्रबन्ध के लिये एक कार्य आयोजना पेश की थी। भोपाल गैस त्रासदी जैसी दुर्घटना, तीसरी श्रेणी में आती है। इस श्रेणी में रासायनिक, औद्योगिक और आणविक आपदाओं को सम्मिलित किया गया है।
कहा गया है कि आपदाओं के कुप्रभावों को कम-से-कम करने के लिये सभी सम्बन्धितों को प्रशिक्षित तथा जागरूक किया जाना चाहिए। अब कुछ चर्चा यूनियन कार्बाइड की।
भोपाल गैस त्रासदी का पहला दुखद पक्ष यह था कि समाज को यूनियन कार्बाइड कारखाने में बनने वाले पेस्टीसाइड या अन्य दवाओं के गुणदोषों, प्रभावों और उनसे बचाव के तौर-तरीकों के बारे में जानकारी नहीं थी। लोगों को गैस से बचने के सामान्य या घरेलू तरीकों के बारे में भी जानकारी नहीं थी।
इसी कारण जब गैस रिसी तो लोग तात्कालिक सुरक्षात्मक कदम उठाने के स्थान पर बदहवासी में घरों के बाहर निकले और भीड़ के पीछे दौडे। दौड़ने से उनकी साँस फूली। बहुत अधिक गैस फेफड़ों में गई।
परिणामस्वरूप, असर के प्रभाव ने गम्भीर रूप धारण किया तो कुछ की मृत्यु भी हुई। मैं ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जिसने गैस से बचने के लिये गीले कपड़े से चेहरे को ढँक लिया था। उस आदमी पर गैस रिसाव का बेहद कम असर हुआ था।
मुझे लगता है यदि लोगों को यूनियन कार्बाइड कारखाने में बनने वाले पेस्टीसाइडों के गुणदोषों, प्रभावों और बचाव के तौर-तरीकों के बारे में सामान्य जानकारी होती तो नुकसान को कम किया जा सकता था। मुझे लगता है आपदाओं से बचाव के लिये पूरे समाज को जागरुक और प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है।
भोपाल गैस त्रासदी का दूसरा दुखद पहलू यह था कि अधिकांश चिकित्सकों को यूनियन कार्बाइड कारखाने में बनने वाले पेस्टीसाइड के प्रभावों और उनसे बचाव के लिये उपयुक्त इलाज, सावधानियों और दवाओं के बारे में पुख्ता जानकारी नहीं थी इसलिये जब बहुत बड़ी संख्या में लोग अस्पतालों में पहुँचे तो उनका इलाज लक्षणों के आधार पर हुआ।
लाक्षणिक उपचार के कारण मरीजों को अधिक समय तक इलाज लेना पड़ा। तकलीफ़ की अवधि लम्बी रही। इसलिये इस घटना का एक सबक यह भी हो सकता है कि चिकित्सकों को भी निकटस्थ कारख़ानों में होने वाली दुर्घटनाओं से बचाव के बारे में पुख्ता जानकारी होना चाहिये ताकि उन्हें यूनियन कार्बाइड जैसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़े।
मीडिया भी इस मामले में उल्लेखनीय योगदान दे सकता है। लगता है आपदाओं से बचाव के लिये पूरे समाज को जागरुक और प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है। यह काम राज्यों के आपदा प्रबन्धन संस्थान बहुत ही प्रोफेशनल तरीके से कर सकते हैं। उन दायित्वों को प्रभावी तरीके से पूरा करने के लिये कार्यशालाओं के आगे जाना होगा।
भोपाल गैस त्रासदी का तीसरा दुखद पहलू यह था कि ज़मीन के नीचे के पानी, मिट्टी और उस मिट्टी में पैदा की जा रही वनस्पतियों के कुप्रभावों से समाज अपरिचित था। इस बारे में काफी अरसे तक जानकारी का अभाव रहा। उससे बचने के लिये कदम नहीं उठाए जा सके।
इस खामी ने स्थानीय लोगों का अहित किया। इतने बरस बाद भी कारखाने के हानिकारक रसायनों का निपटान नहीं हुआ है। इसलिये एक सबक यह भी हो सकता है कि लोगों को जागरुक कर सम्भावित असर से बचाया जाये।
अन्त में, देश और समाज का विकास आवश्यक है। उसकी निरन्तरता को कायम रखते हुये पारदर्शिता के स्तर को व्यापक बनाकर, सम्भावित आपदाओं से समाज को किसी हद तक सुरक्षित किया जा सकता है। इस उल्लेख का यह आशय कदापि नहीं है कि हर कारखाना या विकास, दुर्घटना का कारण बनेगा पर यह उल्लेख वांछित सावधानी की आवश्यकता को पूरी गम्भीरता से रेखांकित करता है।