जल प्रबन्धन की एक अनूठी पहल

Submitted by editorial on Tue, 01/29/2019 - 08:27

स्थायी और विवेकपूर्ण जल उपयोग के लिये समुदाय को इस सिद्धान्त को समझना और स्वीकार करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। पानी एक सार्वजनिक सम्पदा है और बिना किसी भेदभाव के इस पर सभी का समान अधिकार है। ग्राम जल प्रबन्धक दल के निर्माण में ग्रामीण प्रतिनिधियों के चयन और इनके प्रभावी रूप से काम करने के लिये सामूहिक सहभागिता के सिद्धान्त को अपनाना बहुत आवश्यक है।

कल्पना कीजिए! महाराष्ट्र का एक गाँव सिंचाई, पीने और घरेलू इस्तेमाल के लिये पानी की किल्लत से निरन्तर जूझ रहा है। वहाँ के बाशिन्दे एक साथ बैठकर पानी बचाने की तरकीब ढूँढ रहे हैं। इस समूह में हर समाज, वर्ग और लिंग के लोग मौजूद हैं। वे जलस्रोतों को चिन्हित कर रहे हैं ताकि हर फसल के लिये पानी की खपत का मापदंड तय कर सकें। इसके साथ ही वे गाँव के सभी किसानों को पानी बचाने के लिये ड्रिप सिंचाई, जैविक खेती और कम पानी वाली फसलों को उगाने की पद्धतियों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित कर रहे हैं।

सुनने में यह बात भले ही अवास्तविक और काल्पनिक लग रही हो, किन्तु, महाराष्ट्र के 107 और तेलंगाना के 6 गाँवों में यह बदलाव वास्तव में हो रहा है। पुणे स्थित विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त संस्था वाटरशेड आर्गेनाईजेशन ट्रस्ट (WOTR) जो जलग्रहण और प्रबन्धन जैसे क्षेत्रों में काम करती है, ने इन जगहों पर अक्टूबर 2015 में वाटर स्टीवर्डशिप इनिशिएटिव कार्यक्रम (डब्लू.एस.आई/W.S.I) शुरू किया जिसका लक्ष्य ग्रामीण स्तर पर पानी की माँग और पूर्ति के संचालन को प्रोत्साहित करना था।

क्रिस्पिनो लोबो, वॉटर (WOTR) के प्रबन्धक न्यासी डब्लू.एस.आई. (W.S.I) के शुरू करने की मूल विचार-धारा पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं, "वर्तमान में हम जिस तरीके से पानी की खपत कर रहे हैं और इसको यदि इसी तरह जारी रखा तो वर्ष 2030 तक भारत अपनी आवश्यकता का 50 प्रतिशत से अधिक पानी भी उपलब्ध कराने में अक्षम हो जाएगा। इस स्थिति को बदलने के लिये हमें वाटर स्टीवर्डशिप का रवैया अपनाने की जरूरत है। वॉटर (WOTR) द्वारा वाटर स्टीवर्डशिप इनिशिएटिव (डब्लू.एस.आई/W.S.I) एक ऐसी ही पहल है।"

वे कहते हैं कि जब उन्होंने अहमदनगर के पारनेर और संगमनेर तहसील के करीब कुछ गाँव और उत्तरी महाराष्ट्र के धुले जिले में साक्री तहसील के गाँवों का दौरा किया और यह पता करने कि कोशिश की, कि यह प्रयोग कितना सफल रहा तो पाया कि डब्लू.एस.आई (W.S.I) के अन्तर्गत हर गाँव में एक ग्राम स्तरीय जल प्रबन्धक दल (वी.डब्लू.एम.टी/V.W.M.T) कार्यरत है।

स्थायी और विवेकपूर्ण जल उपयोग के लिये समुदाय को इस सिद्धान्त को समझना और स्वीकार करना बहुत महत्त्वपूर्ण है। पानी एक सार्वजनिक सम्पदा है और बिना किसी भेदभाव के इस पर सभी का समान अधिकार है। ग्राम जल प्रबन्धक दल के निर्माण में ग्रामीण प्रतिनिधियों के चयन और इनके प्रभावी रूप से काम करने के लिये सामूहिक सहभागिता के सिद्धान्त को अपनाना बहुत आवश्यक है।

पारनेर क्रिस्पिनो लोबो ने अपनी यात्रा की शुरुआत पारनेर शहर के नजदीक हिवरे कोरडा नामक गाँव से की। इस गाँव की आबादी लगभग 1500 है। इस गाँव में ज्यादातर लोग खेती-बाड़ी करते हैं और गेहूँ, प्याज, गोभी और मिर्च उपजाते हैं।

भाऊसाहब रख्मा (57) इसी गाँव में एक मध्यम वर्गीय किसान हैं जिनके पास 10 एकड जमीन है। वे गर्व से बताते हैं कि 2011 से अब तक उनके गाँव में पीने के पानी का कोई टैंकर नहीं आया। वे अपनी खेतों में ज्यादातर प्याज, गेहूँ और मक्का उगाते हैं।

भाऊसाहब वी.डब्लू.एम.टी. (V.W.M.T) के सदस्य हैं। उन्होंने बताया कि वी.डब्लू.एम.टी. (V.W.M.T) का मुख्य कार्य किसानों को पानी बचाने की पद्धति जैसे ड्रिप और फव्वारों द्वारा सिंचाई, कम पानी की खपत वाली फसलों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित करना और जल संरक्षण के प्रति लोगों की धारणा बदलना है।

अर्जुन कोर्डे (64) एक किसान हैं जिनके पास 25 एकड़ जमीन है। वे भी वी.डब्लू.एम.टी. (V.W.M.T) सदस्य हैं और कहते हैं कि उनकी संस्था की सबसे बड़ी जिम्मेवारी जल की उपलब्धता और उसके उपयोग से जुड़ी लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना है।

अर्जुन कोर्डे के अनुसार परम्परागत रूप से किसानों को लगता था कि पानी उनकी निजी सम्पत्ति है।

वी.डब्लू.एम.टी (V.W.M.T) हर महीने गाँवों में बैठकें आयोजित कर लोगों को यह बताने का प्रयास करती है कि जल एक सार्वजनिक सम्पदा है और इसका संरक्षण आवश्यक है। इससे काफी किसानों की मानसिकता भी बदली है उन्होंने ड्रिप सिंचाई को अपनाया है।

वे बताते हैं कि लगभग 170 परिवारों ने अलग-अलग स्तर पर ड्रिप सिंचाई को अपनाया है परन्तु इस पद्धति को अभी और भी प्रसारित किये जाने की जरुरत है। ड्रिप पद्धति से सिंचाई करने पर 30,000 से 40,000 रुपए प्रति एकड़ खर्च करने पड़ते हैं यही वजह है कि इसे वही किसान अपना सकते हैं जो आर्थिक रूप से मजबूत हो।

भाऊसाहब रख्मा बताते हैं कि सरकारी सहायता की कमी के बावजूद भी वी.डब्लू.एम.टी. (V.W.M.T) ग्रामीणों को एक दूसरे के साथ मिलकर काम करने के लिये प्रोत्साहित करने में सफल रही है। उदाहरण के तौर पर मार्च 2017 जिस कुएँ से रख्मा फसल की सिंचाई करते थे वह सूख गया था और यह बात जब उन्होंने वी.डब्लू.एम.टी. (V.W.M.T) बैठक में उठाई तो एक किसान उन्हें अपने कुएँ से पानी देने के लिये तैयार हो गया जिससे उनकी फसल बच गई।

संगमनेर हिवरे कोरडा से भिन्न डोलासने एक गाँव है। परियोजना अधिकारी अरुण डहाले बताते हैं कि डब्लू.एस.आई. (W.S.I) के नजरिए से देखा जाये तो यहाँ अभी भी कुछ सुधार की आवश्यकता है। वाटर की टीम डोलासने गाँव पहुँची और वहाँ की स्थिति का पता लगाने का प्रयास किया। वहाँ पहुँचने पर टीम के सदस्यों की मुलाकात बी.एस. काकड़ से हुई जो डोलासने गाँव के ग्राम जल प्रबन्धक दल के मुखिया भी थे। उनका कहना था कि डब्लू.एस.आई. (W.S.I) एक अच्छी पहल है जो हमें वास्तविक चुनौतियों के बारे में सजग करता है। वे कहते हैं कि वी.डब्लू.एम.टी (V.W.M.T) हमें नए बोरवेल खोदने से मना करती है। लेकिन सही मायने में कहा जाये तो हमारे गाँव में इसके अलावा कोई और उपाय है ही नहीं। पिछली गर्मियों के दौरान जिनके पास बोरवेल थे उन्हें कोई भी परेशानी नहीं हुई। ऐसी परिस्थिति में नए बोरवेल बनवाने से रोकना काफी मुश्किल है।

वे यह भी कहते हैं कि किनोआ जैसी फसलें अच्छा विकल्प हैं और इसे बढ़ावा देने के लिये वे वाटर की सराहना करते हैं। बतौर बी.एस. काकड़ एक किसान ने किनोआ उगाना शुरू किया और सिर्फ एक एकड़ खेती से उसे 70,000 रुपए की आमदनी हुई। इस फसल के उत्पादन में पानी की भी कम खपत होती है और मुनाफा भी अच्छा होता है।

साक्री

धुले जिले के मोहगाँव में जब क्रिस्पिनो लोबो वहाँ के जल सेवक पितेश्वर रेशमा मौली (33) और स्थानीय किसान, मधुकर चौरे से बात की तो उन्हें पता चला कि वहाँ किसानों को अलग-अलग किस्म की चावल की खेती के लिये भी प्रोत्साहित किया जाता है।

मुख्य रूप से वहाँ पर खरीफ के महीनों में लोग धान उगाते हैं और रबी के महीनों में या तो गन्ने के खेतों में काम करने के लिये गुजरात पलायन कर जाते हैं या फिर अपने खेतों में गेहूँ उगाते हैं। वी.डब्लू.एम.टी (V.W.M.T) की टीम ने किसानों को पारम्परिक इंद्रायणी और रूपाली ब्रांड की जगह पर सुरुचि ब्रांड के चावल उगाने के लिये प्रोत्साहित करने की योजना बनाई। मधुकर चौरे ने बताया कि इस नए ब्रांड से पानी की खपत कम होती है। वे कहते हैं कि इंद्रायणी चावल की पैदावार को 110-120 दिन लगते हैं और वहीं सुरुचि ब्रांड के पैदावार को सिर्फ 90 दिन लगते हैं। इससे पानी की खपत कम हो जाती है।

इसकी इसी खासियत की वजह से अब तक लगभग 60-70 किसानों ने इस ब्रांड को अपनाया है।

धुले जिले के जल सेवक विलास गावली के अनुसार उनके लिये सामूहिक कार्य करना उस समय चुनौतीपूर्ण हो जाता है जब पानी को एक दूसरे के साथ बाँटने की बात आती है। किसान सबसे पहले अपनी आर्थिक स्थिति और लाभ के बारे में सोचता है। इनके बाद ही उसके लिये अन्य चीजें महत्त्वपूर्ण होती हैं। जल बचाव के सारे प्रयास पूर्ण रूप से तभी सफल हो पाएँगे जब किसानों को जल बचाने की इन तकनीकों को अपनाने से खर्च में कमी या फिर आय में बढ़ोत्तरी होगी।

वी.डब्लू.एम.टी. (V.W.M.T) की ये कहानियाँ सच में उत्साहजनक लगती है। इन प्रयोगों से हमें यह सीखने मिलता है कि किसान उन्हीं फसलों को प्रधानता देंगे जिनके उत्पादन से उनको लाभ मिलेगा। बेहतर बीज और कुशल सिंचाई तकनीक की मदद से किसानों को लाभकारी फसलों को उगाते हुए पानी की खपत कम करने के लिये प्रेरित किया जाना ही एक मात्र विकल्प है।

 

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