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पानी के बारे में कहीं भी कुछ भी लिखा जाता है तो उसका प्रारंभ प्रायः उसे जीवन का आधार बताने से होता है। “जल अमृत है, जल पवित्र है, समस्त जीवों का, वनस्पतियों का जीवन, विकास – सब कुछ जल पर टिका है।” ऐसे वाक्य केवल भावुकता के कारण नहीं लिखे जाते। यह एक वैज्ञानिक सच्चाई है कि पानी पर ही हमारे जीवन का, सारे जीवों का आधार टिका है। यह आधार प्रकृति ने सर्व सुलभ, यानी सबको मिल सके, सबको आसानी से मिल सके – कुछ इस ढंग से ही बनाया है। पानी हमें बार-बार मिलता है, जगह-जगह मिलता है और तरह-तरह से मिलता है। हम सबका जीवन ही जिस पर टिका है, उसका कोई मोल नहीं, वह सचमुच अनमोल है, अमूल्य है, बहुमूल्य है।
प्रकृति ने इसे जीवनदायी बनाने के लिए अपने ही कुछ कड़े कठोर और अमिट माने गए नियम तोड़े हैं। उदाहरण के लिए प्रकृति में जो भी तरल पदार्थ जब ठोस रूप में बदलता है तो वह अपने तरल रूप से अधिक भारी हो जाता है और तब वह अपने ही तरल रूप में नीचे डूब जाता है। पर पानी के लिए प्रकृति ने अपने इस प्राकृतिक नियम को खुद ही बदल दिया है और इसी में छिपा है इसका जीवनदायी रूप।
पानी जब जम कर बर्फ के रूप में ठोस बनता है तब यह अपने तरल रूप से भारी नहीं रहता, बल्कि हल्का होकर ऊपर तैर जाता है। यदि पानी का यह रूप ठोस होकर भारी हो जाता तो वह तैरने के बदले नीचे डूब जाता। तब कल्पना कीजिए हमारी झीलों का ठंडे प्रदेशों में तमाम जल स्रोतों का क्या होता? उनमें रहने वाले जल जीवों का, जल वनस्पतियों का क्या होता? जैसे ही इन क्षेत्रों में ठंड बढ़ती, तापमान जमाव बिंदु से नीचे जाता तो झीलों आदि में पानी जमने लगता और तब जमी हुई बरफ नीचे जाने लगती और देखते ही देखते उस स्रोत के सभी जलचर, मछली वनस्पति आदि मर जाते और यदि यही क्रम हर वर्ष ठंड के मौसम में हजारों वर्षों तक लगातार चलता रहता तो संसार में जल के प्राणी तो समूचे तौर पर नष्ट हो चुके होते। उनकी तो पूरी प्रजातियां सृष्टि से गायब हो जातीं या शायद अस्तित्व में ही नहीं आ पातीं और साथ ही कल्पना कीजिए उन क्षेत्रों की उन देशों की जहां वर्ष के अधिकांश भाग में तापमान जमाव बिंदु से नीचे ही रहता है। वहां जल-जीवन नहीं होता और उस पर टिका हमारा जीवन भी संभव नहीं हो पाता। इसलिए यह जल का प्राणदायी रूप हमें सचमुच प्रकृति की कृपा से, उदारता से ही मिला है।
प्रकृति ने जल का वितरण भी कुछ इस ढंग से किया है कि वह स्वभाव से साझेपन की ओर जाता है। आकाश से वर्षा होती है। सब के आंगन में, खेतों में, गांवों में, शहर में, और तो और निर्जन प्रदेशों में घने वनों में, उजड़े वनों में, बर्फीले क्षेत्रों में, रेगिस्तानी क्षेत्रों में सभी जगह बिना भेदभाव के, बिना अमीर-गरीब का, अनपढ़-पढ़े लिखे का भेद किए-सब जगह वर्षा होती है। उसकी मात्रा क्षेत्र विशेष के अनुरूप कहीं कुछ कम या ज्यादा जरूर हो सकती है, पर इससे उसका साझा स्वभाव कम नहीं होता।
प्रकृति ने जल का वितरण भी कुछ इस ढंग से किया है कि वह स्वभाव से साझेपन की ओर जाता है। आकाश से वर्षा होती है। सब के आंगन में, खेतों में, गांवों में, शहर में, और तो और निर्जन प्रदेशों में घने वनों में, उजड़े वनों में, बर्फीले क्षेत्रों में, रेगिस्तानी क्षेत्रों में सभी जगह बिना भेदभाव के, बिना अमीर-गरीब का, अनपढ़-पढ़े लिखे का भेद किए-सब जगह वर्षा होती है। उसकी मात्रा क्षेत्र विशेष के अनुरूप कहीं कुछ कम या ज्यादा जरूर हो सकती है, पर इससे उसका साझा स्वभाव कम नहीं होता।जल का यह रूप वर्षा का और सतह पर बहने ठहरने वाले पानी का है। यदि हम उसका दूसरा रूप भूजल का रूप देखें तो यहां भी उसका साझा स्वभाव बराबर मिलता है। वह सब जगह कुछ कम या ज्यादा गहराई पर सबके लिए उपलब्ध है। अब यह बात अलग है कि इसे पाने, निकालने के तरीके मानव समाज ने कुछ ऐसे बना लिए हैं जहां वे जल का साझा स्वभाव बदलकर उसे निजी संपत्ति में बदल देते हैं। इस निजी लालच, हड़प की प्रवृत्ति के बारे में इस पुस्तक में अन्यत्र पर्याप्त जानकारी मिल सकेगी।
इस अध्याय में हम जल की इस साझा संपत्ति के उपयोग की विस्तार से चर्चा करेंगे। कोई भी समाज अपनी इस प्राकृतिक धरोहर को किस हद तक सामाजिक रूप देकर उदारतापूर्वक बांटता है और किस हद तक उसे निजी रूप में बदलकर कुछ हाथों में सीमित करना चाहता है, वह किस हद तक इन दोनों रूपों के बीच संतुलन बनाए रखता है, एवं स्वस्थ तालमेल जोड़े रखता है- इसी पर निर्भर करता है उस समाज का संपूर्ण विकास और कुछ हद तक उसका विनाश भी।
राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में हम देखें तो एक तरफ परंपरागत स्रोतों में सतह पर बहने वाले जल का संग्रह करने वाली संरचनाएं हैं तो दूसरी तरफ भूजल का उपयोग करने वाले कुएं, बेरा, झालरा, बावड़ी जैसे ढांचे हैं। इन दो तरह के स्रोतों, संरचनाओं के अलावा एक तीसरा भी तरीका है और यह तरीका बहुत ही अनोखा है। यह है रेजानी पानी पर टिका ढांचा, जिसे कुंई कहते हैं।
आज हमारी सारी नई पढ़ाई-लिखाई में पानी के सिर्फ दो प्रकार माने गए हैं। एक सतही पानी और दूसरा भूजल। पहला वर्षा के बाद जमीन पर बहता है, या कहीं तालाबों, झीलों या बहुत-सी छोटी-बड़ी संरचनाओं में रोक लिया जाता है। यहां से यह सतही पानी धीरे-धीरे नीचे रिसता है और जमीन के नीचे के स्रोतों में भूजल की तरह सुरक्षित हो जाता है। इसे बाद में कुओं, ट्यूबवेल या हैंडपंपों आदि की मदद से फिर से ऊपर उठा कर काम में लाया जाता है।
लेकिन केवल राजस्थान के समाज ने पानी के इन दो प्रकार में अपने सैकड़ों वर्षों के अनुभव से एक तीसरा प्रकार भी जोड़ा था। इसे रेजानी पानी का नाम दिया गया है। रेजानी पानी न तो सतही पानी है और न भूजल ही। यह इन दोनों प्रकारों के बीच का एक अनोखा और बहुत ही व्यावहारिक विभाजन है।
इसे ठीक से समझने के लिए हमें पहले राजस्थान के मरू क्षेत्रों की संरचना को समझना होगा। राजस्थान के रेतीले भागों में कहीं-कहीं प्रकृति ने पत्थर या जिप्सम की एक पट्टी भी रेत के नीचे चलाई है। यह बहुत गहरी भी है तो कहीं-कहीं बहुत ऊपर भी। ऐसे भू-भागों पर बरसने वाला वर्षा का जल यहां पर गिर कर रेत में धीरे-धीरे नीचे समाता जाता है और इस पट्टी पर जाकर टकरा कर रुक जाता है। तब यह नमी की तरह पूरे रेतीले भाग में सुरक्षित हो जाता है। तब यह नमी की तरह पूरे रेतीले भाग में सुरक्षित हो जाता है। यह नमी रेत की ऊपर की सतह के कारण आसानी से वाष्प बनकर उड़ नहीं पाती और नीचे की तरफ जिप्सम की पट्टी के कारण भी अटक जाती है। वर्षा का यह मीठा पानी नीचे खारे भूजल में जाकर मिल नहीं पाता। पर इसका रूप तरल पानी की तरह न होकर रेत में समा गई नमी की तरह होता है।
यह राजस्थान के अनपढ़ माने गए सर्वोत्तम ग्रामीण इंजीनियरों का कमाल ही माना जाना चाहिए कि उन्होंने खारे पानी, खारे भूजल से अलग, रेत में छिपी इस मीठी नमी को भी पानी के तीसरे प्रकार की तरह खोज निकाला और फिर उस नमी को पानी में बदलने के लिए कुंई जैसे विलक्षण ढांचे का आविष्कार कर दिखाया। कुंई के इस विचित्र प्रयोग का वर्णन इस पुस्तक में अन्यत्र किया गया है। अभी तो यहां बस हमें इतना ही देखना है कि पानी के दो सर्वमान्य प्रकारों में राजस्थान ने एक तीसरा भी प्रकार अपनी सूझ-बूझ से जोड़ा था। यह बड़े अचरज की बात है कि इस विलक्षण प्रतिभा को जितनी मान्यता आज के नए पढ़े-लिखे समाज से, भूगोल विषय पढ़ाने-पढ़ने वालों से, शासन और स्वयंसेवी संस्थाओं से मिलनी चाहिए थी, उतनी कभी नहीं मिल पाई।
तो इस तरह परंपरागत तरीके पानी के तीनों प्रकारों का भरपूर उपयोग करने के लिए बनाए गए थे। इस उपयोग को ठीक से समझने से पहले एक बार हम परंपरागत तरीकों की परिभाषा भी देख लें। परंपरागत का अर्थ प्रायः पुराने और एक हद तक पिछड़े तरीके ही माना जाता रहा है। पर सन् 2004 में छह साल तक चले अकाल के बाद बहुत से लोगों को, स्वयंसेवी संस्थाओं को और एक हद तक शासन को भी पहली बार यह आभास हुआ कि ये पिछड़े माने गए तरीके ही संकट में कुछ काम आए हैं। इसे और स्पष्ट समझने के लिए हम राजस्थान के पिछड़े माने गए क्षेत्र के बदले गुजरात के एक सम्पन्न क्षेत्र भावनगर का उदाहरण ले सकते हैं। गुजरात भी अकाल के, कम वर्षा के उन वर्षों में आकाल की चपेट में आया था। यहां भावनगर का सम्पन्न माना गया क्षेत्र भी अकालग्रस्त था। पूरा क्षेत्र सूरत में हीरों का महंगा काम करने वाले अपेक्षाकृत अमीर गांवों का इलाका था। पैसे की कोई कमी नहीं थी। सब जगह खूब सारे ट्यूबवेल थे। पर लगातार चले अकाल ने ज्यादातर ट्यूबवेल बेकार कर दिए। इनसे जुड़ी नलों की व्यवस्था भी सूख गई थी और कहीं जो हैंडपंप थे, वे भी जवाब दे चुके थे।
इसी संबंध में हमें एक और तथ्य की तरफ ध्यान देना चाहिए। प्रकृति ने कुछ हजारों वर्षों से यदि पानी गिराने का, वर्षा का, जलचक्र का तरीका नहीं बदला है तो समाज पानी रोकने का, जलसंग्रह का तरीका भी नहीं बदल सकता। समाज को जलसंग्रह ठीक वैसे ही करते रहना होगा। हां जल वितरण के तरीके समय के साथ, विज्ञान की प्रगति के साथ बदलते रहेंगे। इस तरह से देखें तो हमें समझ में आ जाएगा कि ट्यूबवेल आदि जल संग्रह की नहीं बल्कि जल वितरण की आधुनिक प्रणालियां हैं। जल संग्रह के लिए भूजल रिचार्ज के लिए हमें काफी हद तक उन्हीं तरीकों की ओर लौटना होगा, जिन्हें परंपरागत कहकर बीच के वर्षों में भुला दिया गया था।
मानव समाज का इतिहास, उसका विकास और उसकी सारी गतिविधियां पानी पर टिकी हैं। पानी ज्यादा गिरता है या कम गिरता है इस बहस में पड़े बिना समाज ने अपने-अपने हिस्से के पानी को जितना हो सके उतना रोकने के तरीके विकसित किये थे। बंध-बंधा, ताल-तलाई, जोहड़-जोहड़ी, नाड़ी-नाड़ा, तालाब, सर, झील, देई बंध, खड़ीन जैसे अनेक प्रकार हमारे समाज की परंपरा ने सैकड़ों वर्षों के अपने अनुभव से खोजे थे। सैकड़ों वर्षों के अनुभव से समाज ने इन्हें परिष्कृत किया था।
राजस्थान के संदर्भ में देखें तो ये सब संरचनाएं वर्षा के पानी को, जिसे यहां पालर पानी कहा जाता है- रोकने के तरीके हैं। ये सब तरीके इस तरह से तालाब के ही छोटे और बड़े रूप हैं। इनमें सबसे छोटा प्रकार है - नाड़ी। संभवतः आज हम जिस किसी छोटी-सी जगह को तालाब के लिए पर्याप्त न मानकर छोड़ देना पसंद करेंगे, उसी छोटी जगह पर पहले का समाज नाड़ी जैसा ढांचा बना लेता था। जहां बहुत छोटा जल-ग्रहण क्षेत्र हो, फिर भी बरसने वाले पानी की आवक ठीक हो, वहां रेत और मिट्टी की पाल से नाड़ी बनाकर वर्षा का जल समेट लिया जाता था। ये नाड़ियां कच्ची मिट्टी से बनने के बाद भी बहुत पक्की बनाई जाती थीं। नाड़ियों में पानी दो-तीन महीने से लेकर सात-आठ महीने तक जमा रहता है। मरूभूमि के कई गांवों में 200-300 सौ साल पुरानी नाड़ियां अभी भी समाज का साथ और उसको जरूरत पूरी करते हुए, निभाते हुए मिल जाएगी।
तलाई या जोहड़ में पानी नाड़ी से कुछ ज्यादा देर तक और कुछ अधिक मात्रा में टिका रहता है, क्योंकि इन ढांचों में पानी की आवक कुछ ज्यादा बेहतर होती है। इनमें मिट्टी के काम के अलावा थोड़ा बहुत काम पत्थर का आवश्यकतानुसार किया जाता है। ऐसे ढांचों में संग्रह किया गया जल नौ-दस महीने और कभी-कभी तो पूरे बारह महीने चलता है। यानी एक वर्षा का मौसम अगले वर्षा के मौसम तक साथ देता है। इन ढांचों की एक उपयोगिता या महत्वपूर्ण योगदान यह भी है कि इन सबसे भूजल यानी पाताल पानी का संवर्धन भी हो जाता है। सूख चुका तालाब आस-पास के न जाने कितने कुओं को गर्मी के कठिन दिनों के लिए अपना पानी सौंपा देता है और यही महीने समाज के लिए सबसे कठिन दिन माने जाते हैं।
परंपरागत जल संग्रह में मुख्य प्रयास सतही पानी को रोकने का रहा है। इसलिए हमें तालाबों के इतने सारे छोटे-बड़े रूप देखने को मिलते हैं। परंपरागत समाज यह भी जानता रहा है कि सतही पानी को रोक लेने के उसके ये तरीके दोहरी भूमिका निभाते हैं। वर्ष के अधिकांश महीनों में इनमें संग्रह हुआ पानी लोगों के सीधे काम आता है। इसमें खेती और पशुओं के लिए पानी जुटाने की मुख्य जरूरत पूरी हो जाती है। दूसरी भूमिका में ये तालाब भूजल को रिचार्ज करते हैं और पास तथा दूर के कुओं को हरा करते हैं। वर्षा के पानी को सतह पर संचित करने के इन सब तरीकों में हर स्तर पर बाकायदा हिसाब-किताब रखा जाता है। कितनी दूर से, कितने मात्रा में पानी आयेगा, उसे कितनी ताकत से कैसे रोक लेना है और वह रुका हुआ पानी कितने भू-भाग में कितनी गहराई में फैलेगा, भरेगा और फिर यदि ज्यादा पानी आ जाए तो उसे कितनी ऊंची जगह से पूरी सावधानी के साथ बाहर निकालना है ताकि तालाब की मुख्य संरचना टूट न सके आदि अनेक बारीकियों का ध्यान बिना लिखा-पढ़ी के पीढ़ियों से संचित अनुभव और अभ्यास के कारण सहज ही रखा जाता रहा है।
इसे और विस्तार से समझने के लिए आप जिस किसी भी क्षेत्र में काम करते हों, रहते हों या आते-जाते हों- उन क्षेत्रों में बने ऐसे ढांचों का बारीकी से अध्ययन करके देखें। तालाब आदि से जुड़े हर तकनीकी अंग का अलग-अलग विवरण और नाम भी एकत्र करने का प्रयास करें। ऐसे अभ्यास से हमें पता लगेगा कि परंपरागत ढांचों में जल संग्रह की पूरी तकनीक उपस्थित है। जहां से वर्षा का पानी आता है, उस हिस्से को आगोर कहा जाता है। जहां पानी रूक कर भरता है उस अंग का नाम आगर है। जिस हिस्से के कारण पानी थमा रहता है उसे पाल कहा जाता है। जहां से अतिरिक्त पानी बहता है उसे अपरा कहा जाता है। तालाबों से जुड़ी ऐसी तकनीकी शब्दावली बहुत बड़ी और समृद्ध है। आप इनका संग्रह करेंगे, इन्हें लोगों के साथ बैठकर समझने का प्रयत्न करें तो अपने क्षेत्र के ज्ञान को समझने का एक नया अनुभव होगा।
जल संग्रह के मामले में वही समाज समझदार माना जा सकता है, जो सतही और भूजल के बीच के बारीक और नाजुक रिश्ते को बखूबी पहचान सकता है। भूजल जितना रिचार्ज हो उससे ज्यादा उसका उपयोग तात्कालिक तौर पर फायदेमंद दिखे तो भी दीर्घकालिक रूप में हमेशा नुकसानदेह साबित हुआ है। इसे बिल्कुल सरल भाषा में कहें तो ‘आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया’ कहा जा सकता है। आज देश के अधिकांश जिले इसी प्रवृत्ति का शिकार हुए हैं और इसीलिए जिस किसी भी वर्ष मानसून औसत से कम हो तो ये सारे क्षेत्र पानी के संकट से जूझने लगते हैं। (भूजल के स्तर में लगातार गिरावट के बारे में अध्याय-1 में और फिर अध्याय-4 में विस्तार से सामग्री मिलेगी।)
इसमें कोई शक नहीं कि पिछले दौर में आबादी बहुत बढ़ी है। पानी का उपयोग न सिर्फ उस अनुपात में बल्कि नई फसलों और नए उद्योगों में उससे भी ज्यादा बढ़ा है। फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि जल का यह नया संकट हमारी अपनी गलतियों का भी नतीजा है। पिछले 50 वर्षों में सारा जोर भूजल को बाहर उलीचने पर रहा है और उसकी भरपाई करने की तरफ जरा भी ध्यान नदीं दिया गया था। अब उन गलतियों को फिर से दुहराने के बदले सुधारने का दौर आ गया है।
बिल्कुल सरल उदाहरण लें तो हमारी यह सारी पृथ्वी मिट्टी की बनी एक बड़ी गुल्लक है। इसमें जितना ‘पैसा’ डालेंगे उतना ही निकाल पाएंगे। लेकिन हमने देखा है कि पिछले दौर में सारा जोर ‘पैसा’ निकालने की तरफ रहा है। संचय करके गुल्लक के इस खजाने को बढ़ाने की भूमिका लगातार कम होती चली गई है।
परंपरागत जल संवर्धन के तरीकों में तालाब का तरीका इसी दोहरी भूमिका को पूरा करता रहा है। अकाल के दौर में फिर से इन बातों की तरफ शासन का, संस्थाओं का ध्यान गया है। यह एक अच्छा संकेत हैं। हमें अब अपने सारे कामों में, विकास योजनाओं में इसे अपनाना चाहिए।
ऊपर के हिस्सों में हमने तालाब की दोहरी भूमिका का उल्लेख किया है। कुछ क्षेत्रों में तालाबों को सिंचाई के लिए भी बनाया जा रहा है। इसमें अर्धशुष्क क्षेत्र शामिल हैं। कहीं-कहीं तालाब के आगर यानी तल को सीधे खेत में बदल दिया जाता है। वर्षा के समय जमा हुआ पानी अगले कुछ समय में उपयोग में आ जाता है। फिर तालाब के भीतर जमा हुआ नमी को अगली फसल के लिए काम में ले लिया जाता है। कुछ क्षेत्रों में पानी को पूरे वर्ष बचाकर मछली पालन भी किया जाता है।
परंपरागत जल संग्रह में तालाब आदि के निर्माण में जो जगह आगोर की यानी जलागम क्षेत्र की होती है वही जगह समाज ने मरुभूमि के शहरों और गांवों में घर की छतों पर भी ढूंढ निकाली थी। वर्षा का पानी जैसे भूमि पर गिरकर एक जगह एकत्र हो सकता है, तो उसी तरह छोटी या बड़ी छत या आंगन में गिरने वाला पानी क्यों न एकत्र किया जाए। वर्षा के ऐसे मीठे या पालर पानी का महत्व तब और बढ़ जाता है जब हमें पता चलता है कि उन क्षेत्रों में भूजल बिल्कुल खारा हैं और वह पीने के लायक नहीं है।
प्रायः हर घर की छत एक हल्का-सा ढाल लिए बनाई जाती है। वहां से एक नाली के जरिए पानी नीचे आता है। नाली में रेत के कण और कचरे को छानने का प्रबंध रखा जाता है। उस क्षेत्र में गिरने वाली वर्षा के माप या आंकड़े के अनुसार नीचे जमा करने का टांका बनाया जाता है। मोटे तौर पर ऐसे टांकों की क्षमता 50 हजार लीटर से लेकर पांच लाख लीटर तक रहती है। पुराने समय में इन्हें घड़ों के नाप से देखा जाता और ऐसे घड़ों का आकार एक निश्चित मानक से तय होता था।
राजस्थान ने अनेक शहरों में, कस्बों में कोई 25-30 साल पहले से नगरपालिकाओं ने नलों की व्यवस्था बना दी है। लेकिन हम सभी जानते हैं कि समय के साथ-साथ पानी की उपलब्धता में लगातार गिरावट आई है और जो नल कभी दिनभर चलते थे, अब बड़ी मुश्किल से उनमें एकाध घंटे पानी आ पाता है। ऐसे क्षेत्रों में छतों और आंगनों से भरने वाले टांकों की व्यवस्था आज भी बहुत व्यावहारिक और आधुनिक सिद्ध हो रही है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे क्षेत्र कम वर्षा वाले क्षेत्र हैं।
ऐसे कुंड, टांके सब जगह हैं। ऊंचे पहाड़ों में बने किलों में, मंदिरों में, पहाड़ की तलहटी में बसे गांव में, गांव के बाहर निर्जन क्षेत्रों में, और तो और खेतों में भी सब जगह हमें अलग-अलग आकारों के कुंड या टांके मिलते हैं।
जहां जितनी भी जगह मिल सके, वहां गारे-चूने से लीपकर एक ऐसा ‘आंगन’ बना लिया जाता है, जो थोड़ी ढाल लिए रहता है। यह ढाल एक तरफ से दूसरी तरफ भी हो सकता है और यदि ‘आंगन’ काफी बड़ा है तो ढाल उसके सब कोनों से बीच केंद्र की तरफ भी आ सकता है। ‘आंगन’ के आकार के हिसाब से, उस पर बरसने वाली वर्षा के हिसाब से इस केंद्र में एक कुंड बनाया जाता है। कुंड के भीतर की चिनाई इस ढंग से की जाती है कि उसमें एकत्र होने वाले पानी की एक बूंद भी रिसे नहीं, वर्ष भर पानी सुरक्षित और साफ-सुथरा बना रहे।
जिस आंगन में कुंड के लिए वर्षा का पानी जमा किया जाता है, वह आगोर कहलाता है। आगोर संज्ञा आगोरने क्रिया से बनी है। आगोरना यानी बटोरलेना के अर्थ में। आगोर को खूब साफ-सुथरा रखा जाता है, वर्ष भर। वर्षा से पहले तो इसकी बहुत बारीकी से सफाई होती है। जूते, चप्पल आगोर में नहीं आ सकते। समाज ने कड़े नियम बनाए थे, पानी को सरल ढंग से साफ रखने के लिए।
आगोर की ढाल से बहकर आने वाला पानी कुंड के मंडल, यानी घेरे में चारों तरफ बने ओयरों यानी सुराखों से भीतर पहुंचता है। ये छेद कहीं-कहीं झुंड भी कहलाते हैं। आगोर की सफाई के बाद भी पानी के साथ आ सकने वारी रेत, पत्तियां रोकने के लिए ओयरों में कचरा छानने के लिए जालियां भी लगती हैं। कहीं-कहीं बड़े आकार के कुंडों में एकत्र होने वाले पानी की शुद्धता के लिए आगोर ठीक किसी चबूतरे की तरफ ऊंचा उठा रहता है।
बहुत बड़ी जोतों के कारण मरुभूमि में गांव और खेतों की दूरी और भी बढ़ जाती है। खेतों पर दिन-भर काम करने के लिए भी पानी चाहिए। खेतों में भी थोड़ी-थोड़ी दूर पर छोटी-बड़ी कुंडियां बनाई जाती हैं। इनमें एकत्र कर लिया गया पानी कृषक समाज के निस्तार और पीने के काम में आ जाता है।
कुंड बनते ही ऐसे रेतीले इलाकों में हैं, जहां भूजल सौ-दो सौ हाथ से भी गहरा और प्रायः खारा मिलता है। बड़े कुंड बीस-तीस हाथ गहरे बनते हैं और वह भी रेत में । भीतर बूंद-बूंद भी रिसने लगे तो भरा-भराया कुंड खाली होने में देर नहीं लगे।
इसलिए कुंड के भीतरी भाग में सर्वोत्तम चिनाई की जाती है। आकार छोटा हो या बड़ा, चिनाई तो सौ टका ही होती है। चिनाई में पत्थर या पत्थर की पट्टियां भी लगाई जाती हैं। सांस यानी पत्थरों के बीच जोड़ते समय रह गई जगह में फिर से महीन चूने का लेप किया जाता है। मरुभूमि में तीस हाथ पानी भरा हो पर तीस बूंद भी रिसन नहीं होगी-इसका पक्का और पुख्ता इंतजाम किया जाता रहा है।
आगोर की सफाई और भारी सावधानी के बाद भी कुछ रेत कुंड में पानी के साथ चली जाती है। इसलिए कभी-कभी वर्ष के आरंभ में, चैत्र में कुंड के भीतर उतर कर इसकी सफाई भी करनी पड़ती है। नीचे उतरने के लिए चिनाई के समय ही दीवार की गोलाई में एक-एक हाथ के अंतर पर जरा सी बाहर निकली पत्थर की एक-एक छोटी-छोटी पट्टी बिठा दी जाती है। नीचे कुंड के तल पर जमा रेत आसानी से समेट कर निकाली जा सके, इसका भी पूरा ध्यान रखा जाता है। तल एक बड़े कढ़ाव जैसा ढालदार बनाया जाता है। इसे खमाड़ियां या कुंडलियां भी कहते हैं। लेकिन ऊपर आगोर में इतनी अधिक सावधानी रखी जाती है कि खमाड़ियों में से रेत निकालने का काम पांच से दस बरस में एकाध बार ही करना पड़ता है। एक पूरी पीढ़ी कुंड को इतने संभाल कर रखती है कि दूसरी पीढ़ी को ही उसमें सीढ़ियों से उतरने का मौका मिल पाता है।
पिछले दौर में सरकारों ने अनेक स्थानों पर अनेक गांवों में पानी का नया प्रबंध किया है। पेयजल की नई योजनाएं आई हैं। हैंडपंप या ट्यूबवेल लगे हैं। इंदिरा गांधी नहर से भी शहरों, गांवों को पीने का पानी दिया जाने लगा है। ऐसे इलाकों में कुंड, टांकों की रखवाली की, देखरेख की मजबूत परंपरा जरूर कमजोर हुई है। यहां के कुंड टूट-फूट चले हैं, आगोर में झाड़ियां उग आई हैं। लेकिन कहीं-कहीं पानी की नई व्यवस्था अकाल आदि के दौर में फिर से लड़खड़ा गई है और तब ऐसी जगहों पर लोगों ने टूटे कुंडों की फिर से मरम्मत की है। राजस्थान में ऐसे भी क्षेत्र हैं जहां समाज ने पानी के नए साधन आने पर भी अपने पुराने तरीके कायम रखे हैं।
कुंड निजी भी है और सार्वजनिक भी। निजी कुंड घरों के सामने, आंगन में, अहाते में और पिछवाड़े बाड़ों में बनते हैं। सार्वजनिक कुंड पंचायती भूमि में या प्रायः दो गांव के बीच बनाए जाते हैं। बड़े कुंडों की चारदीवारी में प्रवेश के लिए दरवाजा भी होता है। इसके सामने प्रायः दो खुले हौज रहते हैं। एक छोटा, एक बड़ा। इनकी ऊंचाई भी कम ज्यादा रखी जाती है। ये खेल, थाला, हवाड़ों या उबारा कहलाते हैं। इनमें आसपास से गुजरने वाले भेड़-बकरियों, ऊंट और गायों के लिए पानी भर कर रखा जाता है। पशुओं को बाहर ही पानी मिल जाता है और इनके भीतर जाने से जो गंदगी हो सकती है, वह भी रूक जाती है।
सार्वजनिक कुंड भी लोग ही बनाते हैं। पानी का काम पुण्य का काम माना जाता है। किसी भी घर में कोई अच्छा प्रसंग आने पर गृहस्थ सार्वजनिक कुंड बनाने का संकल्प लेते हैं और फिर इसे पूरा करने में गांव के दूसरे घर भी अपना श्रम देते हैं। कुछ सम्पन्न परिवार सार्वजनिक कुंड बनाकर उसकी रखवाली का काम एक परिवार को सौंप देते थे। कुंड के बड़े अहाते में आगोर के बाहर इस परिवार के रहने का प्रबंध कर दिया जाता था। यह व्यवस्था दोनों तरफ से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती थी। कुंड बनाने वाले परिवार के मुखिया अपनी संपत्ति का एक निश्चित भाग कुंड की सारसंभाल के लिए अलग रख देते थे। बाद की पीढ़ियां भी इसे निभाती थीं। आज भी राजस्थान में ऐसे बहुत से कुंड हैं, जिनको बनाने वाले परिवार नौकरी, व्यापार के कारण यहां से निकल कर असम, बंगाल, मुंबई जा बसे हैं पर रखवाली करने वाले परिवार अभी भी कुंड पर ही बसे हैं। ऐसे बड़े कुंड आज भी वर्षा के जल का संग्रह करते हैं और पूरे बरस भर आसपास की आबादी को किसी भी नगरपालिका से ज्यादा शुद्ध पानी देते हैं। ऐसे कुंडों या टांकों की क्षमता एक लाख लीटर से ऊपर होती है।
कई कुंड टूट-फूट भी गए हैं, कहीं-कहीं उनमें एकत्र पानी भी खराब हुआ है पर यह सब समाज की टूट-फूट के अनुपात में ही मिलेगा। इसमें इस पद्धति का कोई दोष नहीं है। यह पद्धति तो नई खर्चीली और अव्यावहारिक योजनाओं के दोष भी ढंकने की उदारता रखती है। इन इलाकों में पिछले दिनों जल संकट हल करने के लिए जितने भी नलकूप और ‘हैंडपंप’ लगे, उनमें पानी खारा ही निकला। पीने लायक मीठा पानी इन कुंड, कुंडियों में ही उपलब्ध था। इसलिए बाद में अकाल आने पर कहीं-कहीं कुंडों के ऊपर ही हैंडपंप लगा दिए गए हैं।
चुरू क्षेत्र में ऐसे कई कुंड मिल जाएंगे जो नई पुरानी रीत एक साथ निभाते हैं। बहुप्रचारित इंदिरा गांधी नहर से ऐसे कुछ क्षेत्र में पीने का पानी पहुंचाया गया है और इस पानी का संग्रह कहीं तो नई बनी सरकारी टंकियों में किया गया है और कहीं-कहीं इन्हीं पुराने कुंडों में।
हम सभी जानते हैं कि राजस्थान में रंगों के प्रति एक विशेष आकर्षण हैं। लहंगे ओढ़नी और चटकीले रंगों की पगड़ियां जीवन के सुख और दुख में अपने रंग बदलती हैं। पर इन कुंडियों का केवल एक ही रंग मिलता है - बस सफेद। तेज धूप और गर्मी के इस इलाके में यदि कुंडियों पर कोई गहरा रंग हो तो बाहर की गर्मी सोख कर भीतर के पानी पर भी अपना असर छोड़ेगा। इसलिए इतने रंगीन पहनावे वाला समाज कुंडियों को सिर्फ सफेद रंग में रंगता है। सफेद परत तेज धूप की किरणों को वापस लौटा देती है।इन कुंडों ने पुराना समय भी देखा है, नया भी। इस हिसाब से वे समय सिद्ध हैं। स्वयंसिद्ध इनकी एक और विशेषता है। इन्हें बनाने के लिए किसी भी तरह की सामग्री कहीं और से नहीं लानी पड़ती। मरुभूमि में पानी का काम करने वाले विशाल संगठन का एक बड़ा गुण है - अपनी ही जगह उपलब्ध चीजों से अपना मजबूत ढांचा खड़ा करना। किसी जगह कोई एक सामग्री मिलती है, पर कहीं और वह नहीं-लेकिन कुंड वहां भी मिलेंगे।
जहां पत्थर की पट्टियां निकलती हैं, वहां कुंड का मुख्य भाग उसी से बनता है। कुछ जगह ये उपलब्ध नहीं है। पर वहां फोग नाम की झाड़ी खड़ी है साथ देने। फोग की टहनियों को एक दूसरे में गूंथ कर फंसा कर कुंड के ऊपर का गुंबदनुमा ढांचा बनाया जाता है। इस पर रेत, मिट्टी और चूने का मोटा लेप लगाया जाता है। गुंबद के ऊपर चढ़ने के लिए भीतर गुथी लकड़ियों का कुछ भाग बाहर निकाल कर रखा जाता है। बीच में पानी निकालने की जगह बनाई जाती है। यहां भी वर्षा का पानी कुंड के मंडल में बने ओयरों, छेद से जाता है। पत्थर वाले कुंड में ओयरों की संख्या एक से अधिक होती है लेकिन फोग की कुंडियों में सिर्फ एक ही रखी जाती है। कुंड का व्यास कोई सात-आठ हाथ, ऊंचाई कोई चार हाथ और पानी लेने वाले छेद प्रायः एक बित्ता बड़े होते हैं। वर्षा का पानी भीतर कुंड में जमा करने के बाद बाकी दिनों इसे कपड़े या टाट आदि को लपेट कर बनाए गए एक डाट से ढक कर रखते हैं। फोग वाले कुंड थोड़े छोटे होते हैं इसलिए प्रायः कुंडी कहलाते हैं।
हम सभी जानते हैं कि राजस्थान में रंगों के प्रति एक विशेष आकर्षण हैं। लहंगे ओढ़नी और चटकीले रंगों की पगड़ियां जीवन के सुख और दुख में अपने रंग बदलती हैं। पर इन कुंडियों का केवल एक ही रंग मिलता है - बस सफेद। तेज धूप और गर्मी के इस इलाके में यदि कुंडियों पर कोई गहरा रंग हो तो बाहर की गर्मी सोख कर भीतर के पानी पर भी अपना असर छोड़ेगा। इसलिए इतने रंगीन पहनावे वाला समाज कुंडियों को सिर्फ सफेद रंग में रंगता है। सफेद परत तेज धूप की किरणों को वापस लौटा देती है। फोग की टहनियों से बना गुंबद भी इस तेज धूप में गरम नहीं होता। उसमें चटक कर दरारें नहीं पड़तीं और भीतर का पानी इन सब बातों के साथ-साथ रेत में रमा रहने के कारण ठंडा बना रहता है।
मरूभूमि में जहां कहीं भी जिप्सम या खड़िया पट्टी मिलती है, ऐसे क्षेत्रों में इसी खड़िया का उपयोग कुंडी बनाने के लिए किया जाता है। खड़िया के बड़े-बड़े टुकड़े खदान से निकाल कर लकड़ी की आग में पका लिए जाते हैं। एक निश्चित तापमान पर ये बड़े डले यानी टुकड़े टूट-टूट कर छोटे-छोटे नरम टुकड़ों में बदल जाते हैं। फिर इन्हें कूटते हैं। आगोर का ठीक चुनाव कर कुंडी की खुदाई की जाती है। फिर भीतर की चिनाई और ऊपर का गुंबद भी इसी खड़िया के चूरे से बनाया जाता है। पांच-छः हाथ के व्यास वाला यह गुंबद कोई एक बित्ता मोटा रखा जाता है। इस पर दो महिलाएं खड़े होकर पानी निकालें तो भी यह टूटता नहीं।
मरुभूमि में कई जगह चट्टाने हैं। इनमें पत्थर की पट्टियां निकलती हैं। इन पट्टियों की मदद से बड़े-बड़े कुंड तैयार होते हैं। ये पट्टियां प्रायः दो हाथ चौड़ी और चौदह हाथ लंबी रहती है। जितना बड़ा आगोर हो, जितना अधिक पानी एकत्र हो सकता हो, उतना ही बड़ा कुंड इन पट्टियों से ढक कर बनाया जाता है।
घर छोटे हों, बड़े हों या पक्के-कुंड तो उनमें पक्के तौर पर बनते ही हैं। मरूभूमि में गांव दूर-दूर बसे हैं। आबादी भी कम है। ऐसे छितरे हुए गांवों को पानी की किसी केंद्रीय व्यवस्था से जोड़ने का काम संभव ही नहीं है। इसलिए समाज ने यहां पानी का सारा काम बिल्कुल विकेंद्रित रखा, उसकी जिम्मेदारी को आपस में बूंद-बूंद बांट लिया। यह काम एक नीरस तकनीक, यांत्रिक, न रह कर एक संस्कार में बदल गया। ये कुंडियां कितनी सुंदर हो सकती हैं, इसका परिचय दे सकते हैं जैसलमेर की सीमा पर बसे अनेक गांव।
ये इलाके वर्षा के आंकड़ों में भी सबसे कम हैं और आबादी के घनत्व में भी। आबादी का घनत्व यहां पर पांच, सात व्यक्ति प्रति किलोमीटर है। दस-बीस घरों या ढांणियों के गांव रेत के विस्तार में एक दूसरे से बहुत दूर-दूर बसे हैं। ऐसी बसावट के लिए पीने का पानी घर-घर के लिए जुटाना अपने आप में एक बड़ी चुनौती रही है। लेकिन हमारे परंपरागत समाज में इसको बहुत व्यावहारिक ढंग से हल करके दिखाया है। ऐसे गांव में हरेक घर के आगे एक बड़ा-सा चबूतरा बनाया जाता है। इसे जमीन से ऊपर कोई दो फुट रखा जाता है और जमीन से नीचे कोई दस फुट गहरा कुंड होता है। इनमें घर की छत और आंगन से वर्षा का पानी छानकर एकत्र किया जाता है। जिस घर की सदस्य संख्या ज्यादा होगी उस घर का आकार भी बड़ा होगा और उसी हिसाब से उस घर की छत, उसका आंगन और उसका कुंड भी बनाया जाता है। इन कुंडों के भीतर बहुत सफाई से ऐसी प्लास्ट्रिंग की जाती है कि उसमें एकत्र पानी रिस कर रेत में गायब न हो जाए।
आज देश के बहुत सारे बड़े शहरों में - दिल्ली चेन्नई, बैंगलोर आदि में सरकरों ने वर्षा के जल का संग्रह करने के लिए नए कानून बनाए हैं। इन कानूनों के कारण अब हर घर को अपनी छत पर बरसने वाले पानी को अनिवार्य रूप से एकत्र करना है या उससे भूजल को रिचार्ज करना है।
लेकिन सर्वे बताते हैं कि ज्यादातर घरों में यह कानून प्रभावशाली ढंग से लागू नहीं हो पाया है। दूसरी तरफ हम देखते हैं कि रेगिस्तान के अनपढ़ और पिछड़े माने गए गांव और कस्बों में लोगों ने सैकड़ों बरस से इस पद्धति को अपने जीवन का एक अनिवार्य अंग बना लिया था। उन्होंने यह सब किया तो इसीलिए नहीं कि कानून उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य करता है। उन्होंने इसे बाध्य नहीं साध्य माना है। मरूभूमि के लोगों ने अपने पुरखों को ऐसा करते देखा, ऐसा करते सुना। उनकी स्मृति और श्रुति उन्हें इस व्यावहारिक पद्धति की तरफ ले गई। इस स्मृति और श्रुति से यह रीति बन गई और फिर कानून के बराबर बनते रहने वाली कृति भी बन गई।
इन टांकों के भीतर का डिजाईन भी समाज ने लगातार उन्नत किया है। इनमें भीतर रेत या साद न जमे, इसका पूरा ध्यान रखा जाता है। इसकी पहली सावधानी छत या आंगन में बरती जाती है - जहां से पानी एकत्र होता है। दूसरी सावधानी टांके में प्रवेश से ठीक पहले बनाई जाने वाली संरचना में देखने को मिलती है। अधिकांश रेत या कचरा इन दोनों जगहों पर रोक लिया जाता है। लेकिन फिर भी यदि कुछ रेत कण मुख्य टांके में चले जाएं तो उनको सरलता से एकत्र कर निकालने का भी पुख्ता इंतजाम इन टांकों में देखने को मिलता है। भीतर से टांके गोल हों या चौकोर उनका तल दीवार या परिधि से नब्बे डिग्री के कोण से नहीं जुड़ता। वह हल्की-सी गोलाई लिए रहता है। फिर यह तल भी पूरी तरह समतल नहीं रहता। कुंड के आकार के अनुसार इसके बीच में थोड़ी ढाल के साथ एक कढ़ाईनुमा ढांचा और बनाया जाता है। इसमें पानी के साथ आए हुए रेत के कण धीरे-धीरे जमा हो जाते हैं। दो-चार वर्षों के अंतर पर इसका निरीक्षण किया जाता है और फिर कुंड में नीचे उतरकर आसानी से रेत को अलग कर लिया जाता है। कहीं कोण से उतरती हुई सीढ़ियां होती हैं तो कहीं खड़ी सीढ़ियां। जगह कम हो तो केवल पंजे रखने लायक खांचे बनाये जाते हैं।
मरूभूमि में कहीं-कहीं छोटे तालाबों के साथ उनके जलग्रहण क्षेत्र में भी टांके मिलते हैं। इनको बनाने के पीछे एक बहुत ही व्यावहारिक कारण रहा है। पानी का काम करने वाले नए लोगों को, संस्थाओं को और शासन को भी ऐसी अनोखी बातों को समझने का प्रयत्न करना चाहिेए।
इन क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम होती है कभी-कभी इतनी कम कि छोटे जलग्रहण के तालाब पूरी तरह से भर नहीं सकते। इनमें जो थोड़ा पानी आएगा, वह मटमैला होगा और फिर यहां की तेज गर्मी और धूप में कीचड़ में बदल सकता है। इसलिए ऐसे छोटे आगोर वाले तालाबों में हमें कहीं-कहीं तालाब में बहकर आने वाले पानी के रास्ते में छोटे कुंड या टांके भी बने मिलते हैं। इनको बनाने का एक ही कारण है - खुले तालाब में जाने से पहले पानी को इन ढके कुंडों में रोक लेना। ऐसे सभी टांकों की क्षमता बीस से पचास हजार लीटर तक ही होती है। पक्का बना ढका हुआ टांका थोड़ी-सी मात्रा में आए पानी को अगले कुछ महीनों तक साफ-सुथरे ढंग से पीने के लिए सुरक्षित रखता है।
पानी का काम करने वाले नए संगठनों को, स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने समाज में चारों तरफ बिखरी ऐसी अनोखी समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध रचनाओं को बनाने का, फैलाने का पूरा ध्यान रखना चाहिए। इससे उनका काम बहुत कम खर्च में कम पैसे में अधिक से अधिक जगहों में फैल सकता है।
रेगिस्तानी क्षेत्रों के अनेक भागों और विशेष रूप से दूरस्थ क्षेत्रों में जहां अच्छी किस्म का भूजल उपलब्ध नहीं है, अथवा सतही जल संसाधन बहुत दूरी पर अवस्थित है, आने वाले समय में भी घरेलू जल आपूर्ति का वर्षाजल ही एक मात्र स्रोत है। इन क्षेत्रों मे घर की छत पर बरसने वाले जल को वर्षा ऋतु के बाद में उपयोग हेतु अच्छी प्रकार से बनी नालियों एवं पाइपों के द्वारा नियंत्रित कर भंडारण हेतु सतह के ऊपर अथवा अधोसतही पक्के टैंक अथवा टांकों में एकत्र किया जाता है। यदि भंडारित जल का उपयोग पीने हेतु करना है तो नाली के सामने ही जल के साथ आ सकने वाले कचरे को रोकने का उचित प्रबंध किया जाता है इससे जल छनकर नीचे टांके में जमा होता है। टांके का आकार मुख्य रूप से छत के नाप पर आधारित होता है। यथायोग्य टांकों में जल की इतनी मात्रा भरी जा सकती है, जो आगामी वर्षा के पूर्व तक यथोचित लंबी अवधि हेतु पर्याप्त जल आपूर्ति सुनिश्चित कर सकें और लोगों को मान्य रूप में राहत पहुंचा सके। इस प्रकार से एकत्रित और संचित जल से उन क्षेत्रों में जहां सिंचाई हेतु जल की प्राप्ति कठिन हो, छोटे भूमि के टुकड़ों में जैसे गृह वाटिकाओं और सब्जी उत्पादन के लिए सिंचाई भी की जा सकती है।
लोहे की चद्दरों केवलू अथवा खपरैल और अन्य सभी प्रकार की पक्की छतें जो चिकनी, कठोर एवं घनी हों, छतों से वर्षा के जल का संग्रहण करने के उद्देश्य से सर्वाधिक उपयुक्त हैं।
इस पद्धति का वास्तविक आकार विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है। टांके के आकार मुख्य रूप से पद्धति की लागत, एकत्रित किए जाने वाले वर्षा के जल की मात्रा, टांके के मालिकों की आंकाक्षाएं एवं जरूरतें और बाहरी मदद के स्तर से प्रभावित होंगी।
छत से प्राप्त हो सकने वाले जल की मात्रा की गणना इस सूत्र से कर सकते हैं :
एकत्रित जल (लीटर में) = छत का क्षेत्रफल (वर्ग मी.) x वर्षा (मि.मी.)। टैंक अथवा टांके के आयतन की गणना निम्नांकित सूत्र से की जा सकती है :
V = (t x n x q) + et
जहां V = टांके का आयतन (लीटर में) t = सूखे मौसम की अवधि (दिनों में) n = उपभोक्ताओं की संख्या, q = उपभोग प्रति व्यक्ति प्रतिदिन (लीटर में, ) और et = सूखे मौसम में वाष्पन द्वारा जल ह्रास।
क्योंकि बंद टैंक से वाष्पन लगभग नगण्य होता है, अतः वाष्पन में होने वाले जल के ह्रास (et) को नजरअंदाज (= शून्य) किया जा सकता है।
आकांक्षित जल ग्रहण क्षेत्र का क्षेत्रफल (यानि छत का क्षेत्रफल) ज्ञात करने हेतु टैंक के आयतन (कुल भराव क्षमता) में पिछले मानसूनों में एकत्रित हुए औसत वर्षाजल की कुल मात्रा (लीटर में) प्रति इकाई क्षेत्र (वर्ग मी.) से भाग देने के बाद उसे अपवाह गुणांक से गुणा कर दें (अपवाह गुणांक, यानि वर्षा का वह भाग जिसका वास्तव में संग्रहण किया जा सकता है, जो 0.8 केवलू अथवा खपरैल की छतों से 0.9 लोहे की चद्दरों वाली छतों के अनुसार है)।
'जल संग्रहण एवं प्रबंध' पुस्तक से साभार
प्रकृति ने इसे जीवनदायी बनाने के लिए अपने ही कुछ कड़े कठोर और अमिट माने गए नियम तोड़े हैं। उदाहरण के लिए प्रकृति में जो भी तरल पदार्थ जब ठोस रूप में बदलता है तो वह अपने तरल रूप से अधिक भारी हो जाता है और तब वह अपने ही तरल रूप में नीचे डूब जाता है। पर पानी के लिए प्रकृति ने अपने इस प्राकृतिक नियम को खुद ही बदल दिया है और इसी में छिपा है इसका जीवनदायी रूप।
पानी जब जम कर बर्फ के रूप में ठोस बनता है तब यह अपने तरल रूप से भारी नहीं रहता, बल्कि हल्का होकर ऊपर तैर जाता है। यदि पानी का यह रूप ठोस होकर भारी हो जाता तो वह तैरने के बदले नीचे डूब जाता। तब कल्पना कीजिए हमारी झीलों का ठंडे प्रदेशों में तमाम जल स्रोतों का क्या होता? उनमें रहने वाले जल जीवों का, जल वनस्पतियों का क्या होता? जैसे ही इन क्षेत्रों में ठंड बढ़ती, तापमान जमाव बिंदु से नीचे जाता तो झीलों आदि में पानी जमने लगता और तब जमी हुई बरफ नीचे जाने लगती और देखते ही देखते उस स्रोत के सभी जलचर, मछली वनस्पति आदि मर जाते और यदि यही क्रम हर वर्ष ठंड के मौसम में हजारों वर्षों तक लगातार चलता रहता तो संसार में जल के प्राणी तो समूचे तौर पर नष्ट हो चुके होते। उनकी तो पूरी प्रजातियां सृष्टि से गायब हो जातीं या शायद अस्तित्व में ही नहीं आ पातीं और साथ ही कल्पना कीजिए उन क्षेत्रों की उन देशों की जहां वर्ष के अधिकांश भाग में तापमान जमाव बिंदु से नीचे ही रहता है। वहां जल-जीवन नहीं होता और उस पर टिका हमारा जीवन भी संभव नहीं हो पाता। इसलिए यह जल का प्राणदायी रूप हमें सचमुच प्रकृति की कृपा से, उदारता से ही मिला है।
प्रकृति ने जल का वितरण भी कुछ इस ढंग से किया है कि वह स्वभाव से साझेपन की ओर जाता है। आकाश से वर्षा होती है। सब के आंगन में, खेतों में, गांवों में, शहर में, और तो और निर्जन प्रदेशों में घने वनों में, उजड़े वनों में, बर्फीले क्षेत्रों में, रेगिस्तानी क्षेत्रों में सभी जगह बिना भेदभाव के, बिना अमीर-गरीब का, अनपढ़-पढ़े लिखे का भेद किए-सब जगह वर्षा होती है। उसकी मात्रा क्षेत्र विशेष के अनुरूप कहीं कुछ कम या ज्यादा जरूर हो सकती है, पर इससे उसका साझा स्वभाव कम नहीं होता।
प्रकृति ने जल का वितरण भी कुछ इस ढंग से किया है कि वह स्वभाव से साझेपन की ओर जाता है। आकाश से वर्षा होती है। सब के आंगन में, खेतों में, गांवों में, शहर में, और तो और निर्जन प्रदेशों में घने वनों में, उजड़े वनों में, बर्फीले क्षेत्रों में, रेगिस्तानी क्षेत्रों में सभी जगह बिना भेदभाव के, बिना अमीर-गरीब का, अनपढ़-पढ़े लिखे का भेद किए-सब जगह वर्षा होती है। उसकी मात्रा क्षेत्र विशेष के अनुरूप कहीं कुछ कम या ज्यादा जरूर हो सकती है, पर इससे उसका साझा स्वभाव कम नहीं होता।जल का यह रूप वर्षा का और सतह पर बहने ठहरने वाले पानी का है। यदि हम उसका दूसरा रूप भूजल का रूप देखें तो यहां भी उसका साझा स्वभाव बराबर मिलता है। वह सब जगह कुछ कम या ज्यादा गहराई पर सबके लिए उपलब्ध है। अब यह बात अलग है कि इसे पाने, निकालने के तरीके मानव समाज ने कुछ ऐसे बना लिए हैं जहां वे जल का साझा स्वभाव बदलकर उसे निजी संपत्ति में बदल देते हैं। इस निजी लालच, हड़प की प्रवृत्ति के बारे में इस पुस्तक में अन्यत्र पर्याप्त जानकारी मिल सकेगी।
इस अध्याय में हम जल की इस साझा संपत्ति के उपयोग की विस्तार से चर्चा करेंगे। कोई भी समाज अपनी इस प्राकृतिक धरोहर को किस हद तक सामाजिक रूप देकर उदारतापूर्वक बांटता है और किस हद तक उसे निजी रूप में बदलकर कुछ हाथों में सीमित करना चाहता है, वह किस हद तक इन दोनों रूपों के बीच संतुलन बनाए रखता है, एवं स्वस्थ तालमेल जोड़े रखता है- इसी पर निर्भर करता है उस समाज का संपूर्ण विकास और कुछ हद तक उसका विनाश भी।
जल-उपयोग : परंपरागत और आधुनिक तकनीकी
राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में हम देखें तो एक तरफ परंपरागत स्रोतों में सतह पर बहने वाले जल का संग्रह करने वाली संरचनाएं हैं तो दूसरी तरफ भूजल का उपयोग करने वाले कुएं, बेरा, झालरा, बावड़ी जैसे ढांचे हैं। इन दो तरह के स्रोतों, संरचनाओं के अलावा एक तीसरा भी तरीका है और यह तरीका बहुत ही अनोखा है। यह है रेजानी पानी पर टिका ढांचा, जिसे कुंई कहते हैं।
आज हमारी सारी नई पढ़ाई-लिखाई में पानी के सिर्फ दो प्रकार माने गए हैं। एक सतही पानी और दूसरा भूजल। पहला वर्षा के बाद जमीन पर बहता है, या कहीं तालाबों, झीलों या बहुत-सी छोटी-बड़ी संरचनाओं में रोक लिया जाता है। यहां से यह सतही पानी धीरे-धीरे नीचे रिसता है और जमीन के नीचे के स्रोतों में भूजल की तरह सुरक्षित हो जाता है। इसे बाद में कुओं, ट्यूबवेल या हैंडपंपों आदि की मदद से फिर से ऊपर उठा कर काम में लाया जाता है।
लेकिन केवल राजस्थान के समाज ने पानी के इन दो प्रकार में अपने सैकड़ों वर्षों के अनुभव से एक तीसरा प्रकार भी जोड़ा था। इसे रेजानी पानी का नाम दिया गया है। रेजानी पानी न तो सतही पानी है और न भूजल ही। यह इन दोनों प्रकारों के बीच का एक अनोखा और बहुत ही व्यावहारिक विभाजन है।
पीढ़ियों की जल-सूझ
इसे ठीक से समझने के लिए हमें पहले राजस्थान के मरू क्षेत्रों की संरचना को समझना होगा। राजस्थान के रेतीले भागों में कहीं-कहीं प्रकृति ने पत्थर या जिप्सम की एक पट्टी भी रेत के नीचे चलाई है। यह बहुत गहरी भी है तो कहीं-कहीं बहुत ऊपर भी। ऐसे भू-भागों पर बरसने वाला वर्षा का जल यहां पर गिर कर रेत में धीरे-धीरे नीचे समाता जाता है और इस पट्टी पर जाकर टकरा कर रुक जाता है। तब यह नमी की तरह पूरे रेतीले भाग में सुरक्षित हो जाता है। तब यह नमी की तरह पूरे रेतीले भाग में सुरक्षित हो जाता है। यह नमी रेत की ऊपर की सतह के कारण आसानी से वाष्प बनकर उड़ नहीं पाती और नीचे की तरफ जिप्सम की पट्टी के कारण भी अटक जाती है। वर्षा का यह मीठा पानी नीचे खारे भूजल में जाकर मिल नहीं पाता। पर इसका रूप तरल पानी की तरह न होकर रेत में समा गई नमी की तरह होता है।
यह राजस्थान के अनपढ़ माने गए सर्वोत्तम ग्रामीण इंजीनियरों का कमाल ही माना जाना चाहिए कि उन्होंने खारे पानी, खारे भूजल से अलग, रेत में छिपी इस मीठी नमी को भी पानी के तीसरे प्रकार की तरह खोज निकाला और फिर उस नमी को पानी में बदलने के लिए कुंई जैसे विलक्षण ढांचे का आविष्कार कर दिखाया। कुंई के इस विचित्र प्रयोग का वर्णन इस पुस्तक में अन्यत्र किया गया है। अभी तो यहां बस हमें इतना ही देखना है कि पानी के दो सर्वमान्य प्रकारों में राजस्थान ने एक तीसरा भी प्रकार अपनी सूझ-बूझ से जोड़ा था। यह बड़े अचरज की बात है कि इस विलक्षण प्रतिभा को जितनी मान्यता आज के नए पढ़े-लिखे समाज से, भूगोल विषय पढ़ाने-पढ़ने वालों से, शासन और स्वयंसेवी संस्थाओं से मिलनी चाहिए थी, उतनी कभी नहीं मिल पाई।
परंपरागत पद्धतियां
तो इस तरह परंपरागत तरीके पानी के तीनों प्रकारों का भरपूर उपयोग करने के लिए बनाए गए थे। इस उपयोग को ठीक से समझने से पहले एक बार हम परंपरागत तरीकों की परिभाषा भी देख लें। परंपरागत का अर्थ प्रायः पुराने और एक हद तक पिछड़े तरीके ही माना जाता रहा है। पर सन् 2004 में छह साल तक चले अकाल के बाद बहुत से लोगों को, स्वयंसेवी संस्थाओं को और एक हद तक शासन को भी पहली बार यह आभास हुआ कि ये पिछड़े माने गए तरीके ही संकट में कुछ काम आए हैं। इसे और स्पष्ट समझने के लिए हम राजस्थान के पिछड़े माने गए क्षेत्र के बदले गुजरात के एक सम्पन्न क्षेत्र भावनगर का उदाहरण ले सकते हैं। गुजरात भी अकाल के, कम वर्षा के उन वर्षों में आकाल की चपेट में आया था। यहां भावनगर का सम्पन्न माना गया क्षेत्र भी अकालग्रस्त था। पूरा क्षेत्र सूरत में हीरों का महंगा काम करने वाले अपेक्षाकृत अमीर गांवों का इलाका था। पैसे की कोई कमी नहीं थी। सब जगह खूब सारे ट्यूबवेल थे। पर लगातार चले अकाल ने ज्यादातर ट्यूबवेल बेकार कर दिए। इनसे जुड़ी नलों की व्यवस्था भी सूख गई थी और कहीं जो हैंडपंप थे, वे भी जवाब दे चुके थे।
इसी संबंध में हमें एक और तथ्य की तरफ ध्यान देना चाहिए। प्रकृति ने कुछ हजारों वर्षों से यदि पानी गिराने का, वर्षा का, जलचक्र का तरीका नहीं बदला है तो समाज पानी रोकने का, जलसंग्रह का तरीका भी नहीं बदल सकता। समाज को जलसंग्रह ठीक वैसे ही करते रहना होगा। हां जल वितरण के तरीके समय के साथ, विज्ञान की प्रगति के साथ बदलते रहेंगे। इस तरह से देखें तो हमें समझ में आ जाएगा कि ट्यूबवेल आदि जल संग्रह की नहीं बल्कि जल वितरण की आधुनिक प्रणालियां हैं। जल संग्रह के लिए भूजल रिचार्ज के लिए हमें काफी हद तक उन्हीं तरीकों की ओर लौटना होगा, जिन्हें परंपरागत कहकर बीच के वर्षों में भुला दिया गया था।
मानव समाज का इतिहास, उसका विकास और उसकी सारी गतिविधियां पानी पर टिकी हैं। पानी ज्यादा गिरता है या कम गिरता है इस बहस में पड़े बिना समाज ने अपने-अपने हिस्से के पानी को जितना हो सके उतना रोकने के तरीके विकसित किये थे। बंध-बंधा, ताल-तलाई, जोहड़-जोहड़ी, नाड़ी-नाड़ा, तालाब, सर, झील, देई बंध, खड़ीन जैसे अनेक प्रकार हमारे समाज की परंपरा ने सैकड़ों वर्षों के अपने अनुभव से खोजे थे। सैकड़ों वर्षों के अनुभव से समाज ने इन्हें परिष्कृत किया था।
राजस्थान में वर्षा-जल संरक्षण
राजस्थान के संदर्भ में देखें तो ये सब संरचनाएं वर्षा के पानी को, जिसे यहां पालर पानी कहा जाता है- रोकने के तरीके हैं। ये सब तरीके इस तरह से तालाब के ही छोटे और बड़े रूप हैं। इनमें सबसे छोटा प्रकार है - नाड़ी। संभवतः आज हम जिस किसी छोटी-सी जगह को तालाब के लिए पर्याप्त न मानकर छोड़ देना पसंद करेंगे, उसी छोटी जगह पर पहले का समाज नाड़ी जैसा ढांचा बना लेता था। जहां बहुत छोटा जल-ग्रहण क्षेत्र हो, फिर भी बरसने वाले पानी की आवक ठीक हो, वहां रेत और मिट्टी की पाल से नाड़ी बनाकर वर्षा का जल समेट लिया जाता था। ये नाड़ियां कच्ची मिट्टी से बनने के बाद भी बहुत पक्की बनाई जाती थीं। नाड़ियों में पानी दो-तीन महीने से लेकर सात-आठ महीने तक जमा रहता है। मरूभूमि के कई गांवों में 200-300 सौ साल पुरानी नाड़ियां अभी भी समाज का साथ और उसको जरूरत पूरी करते हुए, निभाते हुए मिल जाएगी।
तलाई या जोहड़ में पानी नाड़ी से कुछ ज्यादा देर तक और कुछ अधिक मात्रा में टिका रहता है, क्योंकि इन ढांचों में पानी की आवक कुछ ज्यादा बेहतर होती है। इनमें मिट्टी के काम के अलावा थोड़ा बहुत काम पत्थर का आवश्यकतानुसार किया जाता है। ऐसे ढांचों में संग्रह किया गया जल नौ-दस महीने और कभी-कभी तो पूरे बारह महीने चलता है। यानी एक वर्षा का मौसम अगले वर्षा के मौसम तक साथ देता है। इन ढांचों की एक उपयोगिता या महत्वपूर्ण योगदान यह भी है कि इन सबसे भूजल यानी पाताल पानी का संवर्धन भी हो जाता है। सूख चुका तालाब आस-पास के न जाने कितने कुओं को गर्मी के कठिन दिनों के लिए अपना पानी सौंपा देता है और यही महीने समाज के लिए सबसे कठिन दिन माने जाते हैं।
परंपरागत जल संग्रह में मुख्य प्रयास सतही पानी को रोकने का रहा है। इसलिए हमें तालाबों के इतने सारे छोटे-बड़े रूप देखने को मिलते हैं। परंपरागत समाज यह भी जानता रहा है कि सतही पानी को रोक लेने के उसके ये तरीके दोहरी भूमिका निभाते हैं। वर्ष के अधिकांश महीनों में इनमें संग्रह हुआ पानी लोगों के सीधे काम आता है। इसमें खेती और पशुओं के लिए पानी जुटाने की मुख्य जरूरत पूरी हो जाती है। दूसरी भूमिका में ये तालाब भूजल को रिचार्ज करते हैं और पास तथा दूर के कुओं को हरा करते हैं। वर्षा के पानी को सतह पर संचित करने के इन सब तरीकों में हर स्तर पर बाकायदा हिसाब-किताब रखा जाता है। कितनी दूर से, कितने मात्रा में पानी आयेगा, उसे कितनी ताकत से कैसे रोक लेना है और वह रुका हुआ पानी कितने भू-भाग में कितनी गहराई में फैलेगा, भरेगा और फिर यदि ज्यादा पानी आ जाए तो उसे कितनी ऊंची जगह से पूरी सावधानी के साथ बाहर निकालना है ताकि तालाब की मुख्य संरचना टूट न सके आदि अनेक बारीकियों का ध्यान बिना लिखा-पढ़ी के पीढ़ियों से संचित अनुभव और अभ्यास के कारण सहज ही रखा जाता रहा है।
इसे और विस्तार से समझने के लिए आप जिस किसी भी क्षेत्र में काम करते हों, रहते हों या आते-जाते हों- उन क्षेत्रों में बने ऐसे ढांचों का बारीकी से अध्ययन करके देखें। तालाब आदि से जुड़े हर तकनीकी अंग का अलग-अलग विवरण और नाम भी एकत्र करने का प्रयास करें। ऐसे अभ्यास से हमें पता लगेगा कि परंपरागत ढांचों में जल संग्रह की पूरी तकनीक उपस्थित है। जहां से वर्षा का पानी आता है, उस हिस्से को आगोर कहा जाता है। जहां पानी रूक कर भरता है उस अंग का नाम आगर है। जिस हिस्से के कारण पानी थमा रहता है उसे पाल कहा जाता है। जहां से अतिरिक्त पानी बहता है उसे अपरा कहा जाता है। तालाबों से जुड़ी ऐसी तकनीकी शब्दावली बहुत बड़ी और समृद्ध है। आप इनका संग्रह करेंगे, इन्हें लोगों के साथ बैठकर समझने का प्रयत्न करें तो अपने क्षेत्र के ज्ञान को समझने का एक नया अनुभव होगा।
दोहरा लाभ
परंपरागत जल संग्रह में मुख्य प्रयास सतही पानी को रोकने का रहा है। इसलिए हमें तालाबों के इतने सारे छोटे-बड़े रूप देखने को मिलते हैं। परंपरागत समाज यह भी जानता रहा है कि सतही पानी को रोक लेने के उसके ये तरीके दोहरी भूमिका निभाते हैं। वर्ष के अधिकांश महीनों में इनमें संग्रह हुआ पानी लोगों के सीधे काम आता है। इसमें खेती और पशुओं के लिए पानी जुटाने की मुख्य जरूरत पूरी हो जाती है। दूसरी भूमिका में ये तालाब भूजल को रिचार्ज करते हैं और पास तथा दूर के कुओं को हरा करते हैं। इन कुओं से पेयजल और ऐसे खेतों की सिंचाई भी की जा सकती है, जो तालाब आदि के कमांड क्षेत्र में नहीं आते।जल संग्रह के मामले में वही समाज समझदार माना जा सकता है, जो सतही और भूजल के बीच के बारीक और नाजुक रिश्ते को बखूबी पहचान सकता है। भूजल जितना रिचार्ज हो उससे ज्यादा उसका उपयोग तात्कालिक तौर पर फायदेमंद दिखे तो भी दीर्घकालिक रूप में हमेशा नुकसानदेह साबित हुआ है। इसे बिल्कुल सरल भाषा में कहें तो ‘आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया’ कहा जा सकता है। आज देश के अधिकांश जिले इसी प्रवृत्ति का शिकार हुए हैं और इसीलिए जिस किसी भी वर्ष मानसून औसत से कम हो तो ये सारे क्षेत्र पानी के संकट से जूझने लगते हैं। (भूजल के स्तर में लगातार गिरावट के बारे में अध्याय-1 में और फिर अध्याय-4 में विस्तार से सामग्री मिलेगी।)
इसमें कोई शक नहीं कि पिछले दौर में आबादी बहुत बढ़ी है। पानी का उपयोग न सिर्फ उस अनुपात में बल्कि नई फसलों और नए उद्योगों में उससे भी ज्यादा बढ़ा है। फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि जल का यह नया संकट हमारी अपनी गलतियों का भी नतीजा है। पिछले 50 वर्षों में सारा जोर भूजल को बाहर उलीचने पर रहा है और उसकी भरपाई करने की तरफ जरा भी ध्यान नदीं दिया गया था। अब उन गलतियों को फिर से दुहराने के बदले सुधारने का दौर आ गया है।
बिल्कुल सरल उदाहरण लें तो हमारी यह सारी पृथ्वी मिट्टी की बनी एक बड़ी गुल्लक है। इसमें जितना ‘पैसा’ डालेंगे उतना ही निकाल पाएंगे। लेकिन हमने देखा है कि पिछले दौर में सारा जोर ‘पैसा’ निकालने की तरफ रहा है। संचय करके गुल्लक के इस खजाने को बढ़ाने की भूमिका लगातार कम होती चली गई है।
तालाब
परंपरागत जल संवर्धन के तरीकों में तालाब का तरीका इसी दोहरी भूमिका को पूरा करता रहा है। अकाल के दौर में फिर से इन बातों की तरफ शासन का, संस्थाओं का ध्यान गया है। यह एक अच्छा संकेत हैं। हमें अब अपने सारे कामों में, विकास योजनाओं में इसे अपनाना चाहिए।
ऊपर के हिस्सों में हमने तालाब की दोहरी भूमिका का उल्लेख किया है। कुछ क्षेत्रों में तालाबों को सिंचाई के लिए भी बनाया जा रहा है। इसमें अर्धशुष्क क्षेत्र शामिल हैं। कहीं-कहीं तालाब के आगर यानी तल को सीधे खेत में बदल दिया जाता है। वर्षा के समय जमा हुआ पानी अगले कुछ समय में उपयोग में आ जाता है। फिर तालाब के भीतर जमा हुआ नमी को अगली फसल के लिए काम में ले लिया जाता है। कुछ क्षेत्रों में पानी को पूरे वर्ष बचाकर मछली पालन भी किया जाता है।
कुंड या टांका
परंपरागत जल संग्रह में तालाब आदि के निर्माण में जो जगह आगोर की यानी जलागम क्षेत्र की होती है वही जगह समाज ने मरुभूमि के शहरों और गांवों में घर की छतों पर भी ढूंढ निकाली थी। वर्षा का पानी जैसे भूमि पर गिरकर एक जगह एकत्र हो सकता है, तो उसी तरह छोटी या बड़ी छत या आंगन में गिरने वाला पानी क्यों न एकत्र किया जाए। वर्षा के ऐसे मीठे या पालर पानी का महत्व तब और बढ़ जाता है जब हमें पता चलता है कि उन क्षेत्रों में भूजल बिल्कुल खारा हैं और वह पीने के लायक नहीं है।
प्रायः हर घर की छत एक हल्का-सा ढाल लिए बनाई जाती है। वहां से एक नाली के जरिए पानी नीचे आता है। नाली में रेत के कण और कचरे को छानने का प्रबंध रखा जाता है। उस क्षेत्र में गिरने वाली वर्षा के माप या आंकड़े के अनुसार नीचे जमा करने का टांका बनाया जाता है। मोटे तौर पर ऐसे टांकों की क्षमता 50 हजार लीटर से लेकर पांच लाख लीटर तक रहती है। पुराने समय में इन्हें घड़ों के नाप से देखा जाता और ऐसे घड़ों का आकार एक निश्चित मानक से तय होता था।
राजस्थान ने अनेक शहरों में, कस्बों में कोई 25-30 साल पहले से नगरपालिकाओं ने नलों की व्यवस्था बना दी है। लेकिन हम सभी जानते हैं कि समय के साथ-साथ पानी की उपलब्धता में लगातार गिरावट आई है और जो नल कभी दिनभर चलते थे, अब बड़ी मुश्किल से उनमें एकाध घंटे पानी आ पाता है। ऐसे क्षेत्रों में छतों और आंगनों से भरने वाले टांकों की व्यवस्था आज भी बहुत व्यावहारिक और आधुनिक सिद्ध हो रही है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे क्षेत्र कम वर्षा वाले क्षेत्र हैं।
ऐसे कुंड, टांके सब जगह हैं। ऊंचे पहाड़ों में बने किलों में, मंदिरों में, पहाड़ की तलहटी में बसे गांव में, गांव के बाहर निर्जन क्षेत्रों में, और तो और खेतों में भी सब जगह हमें अलग-अलग आकारों के कुंड या टांके मिलते हैं।
जहां जितनी भी जगह मिल सके, वहां गारे-चूने से लीपकर एक ऐसा ‘आंगन’ बना लिया जाता है, जो थोड़ी ढाल लिए रहता है। यह ढाल एक तरफ से दूसरी तरफ भी हो सकता है और यदि ‘आंगन’ काफी बड़ा है तो ढाल उसके सब कोनों से बीच केंद्र की तरफ भी आ सकता है। ‘आंगन’ के आकार के हिसाब से, उस पर बरसने वाली वर्षा के हिसाब से इस केंद्र में एक कुंड बनाया जाता है। कुंड के भीतर की चिनाई इस ढंग से की जाती है कि उसमें एकत्र होने वाले पानी की एक बूंद भी रिसे नहीं, वर्ष भर पानी सुरक्षित और साफ-सुथरा बना रहे।
जिस आंगन में कुंड के लिए वर्षा का पानी जमा किया जाता है, वह आगोर कहलाता है। आगोर संज्ञा आगोरने क्रिया से बनी है। आगोरना यानी बटोरलेना के अर्थ में। आगोर को खूब साफ-सुथरा रखा जाता है, वर्ष भर। वर्षा से पहले तो इसकी बहुत बारीकी से सफाई होती है। जूते, चप्पल आगोर में नहीं आ सकते। समाज ने कड़े नियम बनाए थे, पानी को सरल ढंग से साफ रखने के लिए।
आगोर की ढाल से बहकर आने वाला पानी कुंड के मंडल, यानी घेरे में चारों तरफ बने ओयरों यानी सुराखों से भीतर पहुंचता है। ये छेद कहीं-कहीं झुंड भी कहलाते हैं। आगोर की सफाई के बाद भी पानी के साथ आ सकने वारी रेत, पत्तियां रोकने के लिए ओयरों में कचरा छानने के लिए जालियां भी लगती हैं। कहीं-कहीं बड़े आकार के कुंडों में एकत्र होने वाले पानी की शुद्धता के लिए आगोर ठीक किसी चबूतरे की तरफ ऊंचा उठा रहता है।
बहुत बड़ी जोतों के कारण मरुभूमि में गांव और खेतों की दूरी और भी बढ़ जाती है। खेतों पर दिन-भर काम करने के लिए भी पानी चाहिए। खेतों में भी थोड़ी-थोड़ी दूर पर छोटी-बड़ी कुंडियां बनाई जाती हैं। इनमें एकत्र कर लिया गया पानी कृषक समाज के निस्तार और पीने के काम में आ जाता है।
कुंड बनते ही ऐसे रेतीले इलाकों में हैं, जहां भूजल सौ-दो सौ हाथ से भी गहरा और प्रायः खारा मिलता है। बड़े कुंड बीस-तीस हाथ गहरे बनते हैं और वह भी रेत में । भीतर बूंद-बूंद भी रिसने लगे तो भरा-भराया कुंड खाली होने में देर नहीं लगे।
इसलिए कुंड के भीतरी भाग में सर्वोत्तम चिनाई की जाती है। आकार छोटा हो या बड़ा, चिनाई तो सौ टका ही होती है। चिनाई में पत्थर या पत्थर की पट्टियां भी लगाई जाती हैं। सांस यानी पत्थरों के बीच जोड़ते समय रह गई जगह में फिर से महीन चूने का लेप किया जाता है। मरुभूमि में तीस हाथ पानी भरा हो पर तीस बूंद भी रिसन नहीं होगी-इसका पक्का और पुख्ता इंतजाम किया जाता रहा है।
आगोर की सफाई और भारी सावधानी के बाद भी कुछ रेत कुंड में पानी के साथ चली जाती है। इसलिए कभी-कभी वर्ष के आरंभ में, चैत्र में कुंड के भीतर उतर कर इसकी सफाई भी करनी पड़ती है। नीचे उतरने के लिए चिनाई के समय ही दीवार की गोलाई में एक-एक हाथ के अंतर पर जरा सी बाहर निकली पत्थर की एक-एक छोटी-छोटी पट्टी बिठा दी जाती है। नीचे कुंड के तल पर जमा रेत आसानी से समेट कर निकाली जा सके, इसका भी पूरा ध्यान रखा जाता है। तल एक बड़े कढ़ाव जैसा ढालदार बनाया जाता है। इसे खमाड़ियां या कुंडलियां भी कहते हैं। लेकिन ऊपर आगोर में इतनी अधिक सावधानी रखी जाती है कि खमाड़ियों में से रेत निकालने का काम पांच से दस बरस में एकाध बार ही करना पड़ता है। एक पूरी पीढ़ी कुंड को इतने संभाल कर रखती है कि दूसरी पीढ़ी को ही उसमें सीढ़ियों से उतरने का मौका मिल पाता है।
पिछले दौर में सरकारों ने अनेक स्थानों पर अनेक गांवों में पानी का नया प्रबंध किया है। पेयजल की नई योजनाएं आई हैं। हैंडपंप या ट्यूबवेल लगे हैं। इंदिरा गांधी नहर से भी शहरों, गांवों को पीने का पानी दिया जाने लगा है। ऐसे इलाकों में कुंड, टांकों की रखवाली की, देखरेख की मजबूत परंपरा जरूर कमजोर हुई है। यहां के कुंड टूट-फूट चले हैं, आगोर में झाड़ियां उग आई हैं। लेकिन कहीं-कहीं पानी की नई व्यवस्था अकाल आदि के दौर में फिर से लड़खड़ा गई है और तब ऐसी जगहों पर लोगों ने टूटे कुंडों की फिर से मरम्मत की है। राजस्थान में ऐसे भी क्षेत्र हैं जहां समाज ने पानी के नए साधन आने पर भी अपने पुराने तरीके कायम रखे हैं।
कुंड निजी भी है और सार्वजनिक भी। निजी कुंड घरों के सामने, आंगन में, अहाते में और पिछवाड़े बाड़ों में बनते हैं। सार्वजनिक कुंड पंचायती भूमि में या प्रायः दो गांव के बीच बनाए जाते हैं। बड़े कुंडों की चारदीवारी में प्रवेश के लिए दरवाजा भी होता है। इसके सामने प्रायः दो खुले हौज रहते हैं। एक छोटा, एक बड़ा। इनकी ऊंचाई भी कम ज्यादा रखी जाती है। ये खेल, थाला, हवाड़ों या उबारा कहलाते हैं। इनमें आसपास से गुजरने वाले भेड़-बकरियों, ऊंट और गायों के लिए पानी भर कर रखा जाता है। पशुओं को बाहर ही पानी मिल जाता है और इनके भीतर जाने से जो गंदगी हो सकती है, वह भी रूक जाती है।
सार्वजनिक कुंड भी लोग ही बनाते हैं। पानी का काम पुण्य का काम माना जाता है। किसी भी घर में कोई अच्छा प्रसंग आने पर गृहस्थ सार्वजनिक कुंड बनाने का संकल्प लेते हैं और फिर इसे पूरा करने में गांव के दूसरे घर भी अपना श्रम देते हैं। कुछ सम्पन्न परिवार सार्वजनिक कुंड बनाकर उसकी रखवाली का काम एक परिवार को सौंप देते थे। कुंड के बड़े अहाते में आगोर के बाहर इस परिवार के रहने का प्रबंध कर दिया जाता था। यह व्यवस्था दोनों तरफ से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती थी। कुंड बनाने वाले परिवार के मुखिया अपनी संपत्ति का एक निश्चित भाग कुंड की सारसंभाल के लिए अलग रख देते थे। बाद की पीढ़ियां भी इसे निभाती थीं। आज भी राजस्थान में ऐसे बहुत से कुंड हैं, जिनको बनाने वाले परिवार नौकरी, व्यापार के कारण यहां से निकल कर असम, बंगाल, मुंबई जा बसे हैं पर रखवाली करने वाले परिवार अभी भी कुंड पर ही बसे हैं। ऐसे बड़े कुंड आज भी वर्षा के जल का संग्रह करते हैं और पूरे बरस भर आसपास की आबादी को किसी भी नगरपालिका से ज्यादा शुद्ध पानी देते हैं। ऐसे कुंडों या टांकों की क्षमता एक लाख लीटर से ऊपर होती है।
कई कुंड टूट-फूट भी गए हैं, कहीं-कहीं उनमें एकत्र पानी भी खराब हुआ है पर यह सब समाज की टूट-फूट के अनुपात में ही मिलेगा। इसमें इस पद्धति का कोई दोष नहीं है। यह पद्धति तो नई खर्चीली और अव्यावहारिक योजनाओं के दोष भी ढंकने की उदारता रखती है। इन इलाकों में पिछले दिनों जल संकट हल करने के लिए जितने भी नलकूप और ‘हैंडपंप’ लगे, उनमें पानी खारा ही निकला। पीने लायक मीठा पानी इन कुंड, कुंडियों में ही उपलब्ध था। इसलिए बाद में अकाल आने पर कहीं-कहीं कुंडों के ऊपर ही हैंडपंप लगा दिए गए हैं।
चुरू क्षेत्र में ऐसे कई कुंड मिल जाएंगे जो नई पुरानी रीत एक साथ निभाते हैं। बहुप्रचारित इंदिरा गांधी नहर से ऐसे कुछ क्षेत्र में पीने का पानी पहुंचाया गया है और इस पानी का संग्रह कहीं तो नई बनी सरकारी टंकियों में किया गया है और कहीं-कहीं इन्हीं पुराने कुंडों में।
हम सभी जानते हैं कि राजस्थान में रंगों के प्रति एक विशेष आकर्षण हैं। लहंगे ओढ़नी और चटकीले रंगों की पगड़ियां जीवन के सुख और दुख में अपने रंग बदलती हैं। पर इन कुंडियों का केवल एक ही रंग मिलता है - बस सफेद। तेज धूप और गर्मी के इस इलाके में यदि कुंडियों पर कोई गहरा रंग हो तो बाहर की गर्मी सोख कर भीतर के पानी पर भी अपना असर छोड़ेगा। इसलिए इतने रंगीन पहनावे वाला समाज कुंडियों को सिर्फ सफेद रंग में रंगता है। सफेद परत तेज धूप की किरणों को वापस लौटा देती है।इन कुंडों ने पुराना समय भी देखा है, नया भी। इस हिसाब से वे समय सिद्ध हैं। स्वयंसिद्ध इनकी एक और विशेषता है। इन्हें बनाने के लिए किसी भी तरह की सामग्री कहीं और से नहीं लानी पड़ती। मरुभूमि में पानी का काम करने वाले विशाल संगठन का एक बड़ा गुण है - अपनी ही जगह उपलब्ध चीजों से अपना मजबूत ढांचा खड़ा करना। किसी जगह कोई एक सामग्री मिलती है, पर कहीं और वह नहीं-लेकिन कुंड वहां भी मिलेंगे।
जहां पत्थर की पट्टियां निकलती हैं, वहां कुंड का मुख्य भाग उसी से बनता है। कुछ जगह ये उपलब्ध नहीं है। पर वहां फोग नाम की झाड़ी खड़ी है साथ देने। फोग की टहनियों को एक दूसरे में गूंथ कर फंसा कर कुंड के ऊपर का गुंबदनुमा ढांचा बनाया जाता है। इस पर रेत, मिट्टी और चूने का मोटा लेप लगाया जाता है। गुंबद के ऊपर चढ़ने के लिए भीतर गुथी लकड़ियों का कुछ भाग बाहर निकाल कर रखा जाता है। बीच में पानी निकालने की जगह बनाई जाती है। यहां भी वर्षा का पानी कुंड के मंडल में बने ओयरों, छेद से जाता है। पत्थर वाले कुंड में ओयरों की संख्या एक से अधिक होती है लेकिन फोग की कुंडियों में सिर्फ एक ही रखी जाती है। कुंड का व्यास कोई सात-आठ हाथ, ऊंचाई कोई चार हाथ और पानी लेने वाले छेद प्रायः एक बित्ता बड़े होते हैं। वर्षा का पानी भीतर कुंड में जमा करने के बाद बाकी दिनों इसे कपड़े या टाट आदि को लपेट कर बनाए गए एक डाट से ढक कर रखते हैं। फोग वाले कुंड थोड़े छोटे होते हैं इसलिए प्रायः कुंडी कहलाते हैं।
हम सभी जानते हैं कि राजस्थान में रंगों के प्रति एक विशेष आकर्षण हैं। लहंगे ओढ़नी और चटकीले रंगों की पगड़ियां जीवन के सुख और दुख में अपने रंग बदलती हैं। पर इन कुंडियों का केवल एक ही रंग मिलता है - बस सफेद। तेज धूप और गर्मी के इस इलाके में यदि कुंडियों पर कोई गहरा रंग हो तो बाहर की गर्मी सोख कर भीतर के पानी पर भी अपना असर छोड़ेगा। इसलिए इतने रंगीन पहनावे वाला समाज कुंडियों को सिर्फ सफेद रंग में रंगता है। सफेद परत तेज धूप की किरणों को वापस लौटा देती है। फोग की टहनियों से बना गुंबद भी इस तेज धूप में गरम नहीं होता। उसमें चटक कर दरारें नहीं पड़तीं और भीतर का पानी इन सब बातों के साथ-साथ रेत में रमा रहने के कारण ठंडा बना रहता है।
मरूभूमि में जहां कहीं भी जिप्सम या खड़िया पट्टी मिलती है, ऐसे क्षेत्रों में इसी खड़िया का उपयोग कुंडी बनाने के लिए किया जाता है। खड़िया के बड़े-बड़े टुकड़े खदान से निकाल कर लकड़ी की आग में पका लिए जाते हैं। एक निश्चित तापमान पर ये बड़े डले यानी टुकड़े टूट-टूट कर छोटे-छोटे नरम टुकड़ों में बदल जाते हैं। फिर इन्हें कूटते हैं। आगोर का ठीक चुनाव कर कुंडी की खुदाई की जाती है। फिर भीतर की चिनाई और ऊपर का गुंबद भी इसी खड़िया के चूरे से बनाया जाता है। पांच-छः हाथ के व्यास वाला यह गुंबद कोई एक बित्ता मोटा रखा जाता है। इस पर दो महिलाएं खड़े होकर पानी निकालें तो भी यह टूटता नहीं।
मरुभूमि में कई जगह चट्टाने हैं। इनमें पत्थर की पट्टियां निकलती हैं। इन पट्टियों की मदद से बड़े-बड़े कुंड तैयार होते हैं। ये पट्टियां प्रायः दो हाथ चौड़ी और चौदह हाथ लंबी रहती है। जितना बड़ा आगोर हो, जितना अधिक पानी एकत्र हो सकता हो, उतना ही बड़ा कुंड इन पट्टियों से ढक कर बनाया जाता है।
घर छोटे हों, बड़े हों या पक्के-कुंड तो उनमें पक्के तौर पर बनते ही हैं। मरूभूमि में गांव दूर-दूर बसे हैं। आबादी भी कम है। ऐसे छितरे हुए गांवों को पानी की किसी केंद्रीय व्यवस्था से जोड़ने का काम संभव ही नहीं है। इसलिए समाज ने यहां पानी का सारा काम बिल्कुल विकेंद्रित रखा, उसकी जिम्मेदारी को आपस में बूंद-बूंद बांट लिया। यह काम एक नीरस तकनीक, यांत्रिक, न रह कर एक संस्कार में बदल गया। ये कुंडियां कितनी सुंदर हो सकती हैं, इसका परिचय दे सकते हैं जैसलमेर की सीमा पर बसे अनेक गांव।
ये इलाके वर्षा के आंकड़ों में भी सबसे कम हैं और आबादी के घनत्व में भी। आबादी का घनत्व यहां पर पांच, सात व्यक्ति प्रति किलोमीटर है। दस-बीस घरों या ढांणियों के गांव रेत के विस्तार में एक दूसरे से बहुत दूर-दूर बसे हैं। ऐसी बसावट के लिए पीने का पानी घर-घर के लिए जुटाना अपने आप में एक बड़ी चुनौती रही है। लेकिन हमारे परंपरागत समाज में इसको बहुत व्यावहारिक ढंग से हल करके दिखाया है। ऐसे गांव में हरेक घर के आगे एक बड़ा-सा चबूतरा बनाया जाता है। इसे जमीन से ऊपर कोई दो फुट रखा जाता है और जमीन से नीचे कोई दस फुट गहरा कुंड होता है। इनमें घर की छत और आंगन से वर्षा का पानी छानकर एकत्र किया जाता है। जिस घर की सदस्य संख्या ज्यादा होगी उस घर का आकार भी बड़ा होगा और उसी हिसाब से उस घर की छत, उसका आंगन और उसका कुंड भी बनाया जाता है। इन कुंडों के भीतर बहुत सफाई से ऐसी प्लास्ट्रिंग की जाती है कि उसमें एकत्र पानी रिस कर रेत में गायब न हो जाए।
आज देश के बहुत सारे बड़े शहरों में - दिल्ली चेन्नई, बैंगलोर आदि में सरकरों ने वर्षा के जल का संग्रह करने के लिए नए कानून बनाए हैं। इन कानूनों के कारण अब हर घर को अपनी छत पर बरसने वाले पानी को अनिवार्य रूप से एकत्र करना है या उससे भूजल को रिचार्ज करना है।
लेकिन सर्वे बताते हैं कि ज्यादातर घरों में यह कानून प्रभावशाली ढंग से लागू नहीं हो पाया है। दूसरी तरफ हम देखते हैं कि रेगिस्तान के अनपढ़ और पिछड़े माने गए गांव और कस्बों में लोगों ने सैकड़ों बरस से इस पद्धति को अपने जीवन का एक अनिवार्य अंग बना लिया था। उन्होंने यह सब किया तो इसीलिए नहीं कि कानून उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य करता है। उन्होंने इसे बाध्य नहीं साध्य माना है। मरूभूमि के लोगों ने अपने पुरखों को ऐसा करते देखा, ऐसा करते सुना। उनकी स्मृति और श्रुति उन्हें इस व्यावहारिक पद्धति की तरफ ले गई। इस स्मृति और श्रुति से यह रीति बन गई और फिर कानून के बराबर बनते रहने वाली कृति भी बन गई।
इन टांकों के भीतर का डिजाईन भी समाज ने लगातार उन्नत किया है। इनमें भीतर रेत या साद न जमे, इसका पूरा ध्यान रखा जाता है। इसकी पहली सावधानी छत या आंगन में बरती जाती है - जहां से पानी एकत्र होता है। दूसरी सावधानी टांके में प्रवेश से ठीक पहले बनाई जाने वाली संरचना में देखने को मिलती है। अधिकांश रेत या कचरा इन दोनों जगहों पर रोक लिया जाता है। लेकिन फिर भी यदि कुछ रेत कण मुख्य टांके में चले जाएं तो उनको सरलता से एकत्र कर निकालने का भी पुख्ता इंतजाम इन टांकों में देखने को मिलता है। भीतर से टांके गोल हों या चौकोर उनका तल दीवार या परिधि से नब्बे डिग्री के कोण से नहीं जुड़ता। वह हल्की-सी गोलाई लिए रहता है। फिर यह तल भी पूरी तरह समतल नहीं रहता। कुंड के आकार के अनुसार इसके बीच में थोड़ी ढाल के साथ एक कढ़ाईनुमा ढांचा और बनाया जाता है। इसमें पानी के साथ आए हुए रेत के कण धीरे-धीरे जमा हो जाते हैं। दो-चार वर्षों के अंतर पर इसका निरीक्षण किया जाता है और फिर कुंड में नीचे उतरकर आसानी से रेत को अलग कर लिया जाता है। कहीं कोण से उतरती हुई सीढ़ियां होती हैं तो कहीं खड़ी सीढ़ियां। जगह कम हो तो केवल पंजे रखने लायक खांचे बनाये जाते हैं।
मरूभूमि में कहीं-कहीं छोटे तालाबों के साथ उनके जलग्रहण क्षेत्र में भी टांके मिलते हैं। इनको बनाने के पीछे एक बहुत ही व्यावहारिक कारण रहा है। पानी का काम करने वाले नए लोगों को, संस्थाओं को और शासन को भी ऐसी अनोखी बातों को समझने का प्रयत्न करना चाहिेए।
इन क्षेत्रों में वर्षा बहुत कम होती है कभी-कभी इतनी कम कि छोटे जलग्रहण के तालाब पूरी तरह से भर नहीं सकते। इनमें जो थोड़ा पानी आएगा, वह मटमैला होगा और फिर यहां की तेज गर्मी और धूप में कीचड़ में बदल सकता है। इसलिए ऐसे छोटे आगोर वाले तालाबों में हमें कहीं-कहीं तालाब में बहकर आने वाले पानी के रास्ते में छोटे कुंड या टांके भी बने मिलते हैं। इनको बनाने का एक ही कारण है - खुले तालाब में जाने से पहले पानी को इन ढके कुंडों में रोक लेना। ऐसे सभी टांकों की क्षमता बीस से पचास हजार लीटर तक ही होती है। पक्का बना ढका हुआ टांका थोड़ी-सी मात्रा में आए पानी को अगले कुछ महीनों तक साफ-सुथरे ढंग से पीने के लिए सुरक्षित रखता है।
पानी का काम करने वाले नए संगठनों को, स्वयंसेवी संस्थाओं को अपने समाज में चारों तरफ बिखरी ऐसी अनोखी समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध रचनाओं को बनाने का, फैलाने का पूरा ध्यान रखना चाहिए। इससे उनका काम बहुत कम खर्च में कम पैसे में अधिक से अधिक जगहों में फैल सकता है।
छत से वर्षा के जल का संग्रहण
>रेगिस्तानी क्षेत्रों के अनेक भागों और विशेष रूप से दूरस्थ क्षेत्रों में जहां अच्छी किस्म का भूजल उपलब्ध नहीं है, अथवा सतही जल संसाधन बहुत दूरी पर अवस्थित है, आने वाले समय में भी घरेलू जल आपूर्ति का वर्षाजल ही एक मात्र स्रोत है। इन क्षेत्रों मे घर की छत पर बरसने वाले जल को वर्षा ऋतु के बाद में उपयोग हेतु अच्छी प्रकार से बनी नालियों एवं पाइपों के द्वारा नियंत्रित कर भंडारण हेतु सतह के ऊपर अथवा अधोसतही पक्के टैंक अथवा टांकों में एकत्र किया जाता है। यदि भंडारित जल का उपयोग पीने हेतु करना है तो नाली के सामने ही जल के साथ आ सकने वाले कचरे को रोकने का उचित प्रबंध किया जाता है इससे जल छनकर नीचे टांके में जमा होता है। टांके का आकार मुख्य रूप से छत के नाप पर आधारित होता है। यथायोग्य टांकों में जल की इतनी मात्रा भरी जा सकती है, जो आगामी वर्षा के पूर्व तक यथोचित लंबी अवधि हेतु पर्याप्त जल आपूर्ति सुनिश्चित कर सकें और लोगों को मान्य रूप में राहत पहुंचा सके। इस प्रकार से एकत्रित और संचित जल से उन क्षेत्रों में जहां सिंचाई हेतु जल की प्राप्ति कठिन हो, छोटे भूमि के टुकड़ों में जैसे गृह वाटिकाओं और सब्जी उत्पादन के लिए सिंचाई भी की जा सकती है।
लोहे की चद्दरों केवलू अथवा खपरैल और अन्य सभी प्रकार की पक्की छतें जो चिकनी, कठोर एवं घनी हों, छतों से वर्षा के जल का संग्रहण करने के उद्देश्य से सर्वाधिक उपयुक्त हैं।
इस पद्धति का वास्तविक आकार विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है। टांके के आकार मुख्य रूप से पद्धति की लागत, एकत्रित किए जाने वाले वर्षा के जल की मात्रा, टांके के मालिकों की आंकाक्षाएं एवं जरूरतें और बाहरी मदद के स्तर से प्रभावित होंगी।
छत से प्राप्त हो सकने वाले जल की मात्रा की गणना इस सूत्र से कर सकते हैं :
एकत्रित जल (लीटर में) = छत का क्षेत्रफल (वर्ग मी.) x वर्षा (मि.मी.)। टैंक अथवा टांके के आयतन की गणना निम्नांकित सूत्र से की जा सकती है :
V = (t x n x q) + et
जहां V = टांके का आयतन (लीटर में) t = सूखे मौसम की अवधि (दिनों में) n = उपभोक्ताओं की संख्या, q = उपभोग प्रति व्यक्ति प्रतिदिन (लीटर में, ) और et = सूखे मौसम में वाष्पन द्वारा जल ह्रास।
क्योंकि बंद टैंक से वाष्पन लगभग नगण्य होता है, अतः वाष्पन में होने वाले जल के ह्रास (et) को नजरअंदाज (= शून्य) किया जा सकता है।
आकांक्षित जल ग्रहण क्षेत्र का क्षेत्रफल (यानि छत का क्षेत्रफल) ज्ञात करने हेतु टैंक के आयतन (कुल भराव क्षमता) में पिछले मानसूनों में एकत्रित हुए औसत वर्षाजल की कुल मात्रा (लीटर में) प्रति इकाई क्षेत्र (वर्ग मी.) से भाग देने के बाद उसे अपवाह गुणांक से गुणा कर दें (अपवाह गुणांक, यानि वर्षा का वह भाग जिसका वास्तव में संग्रहण किया जा सकता है, जो 0.8 केवलू अथवा खपरैल की छतों से 0.9 लोहे की चद्दरों वाली छतों के अनुसार है)।
'जल संग्रहण एवं प्रबंध' पुस्तक से साभार