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इंटर कोऑपरेशन
भूमिका
‘हमारी पृथ्वी अन्य ज्ञात खगोल-पिंडों में अनूठी है: यहां जल है।’
पिछले कुछ वर्षों में विकास और विकास प्रक्रियाओं में जल की महत्ता की चेतना बढ़ी है। भूत, वर्तमान, भविष्य के समस्त समाजों विकास और जीवन के लिए पर्याप्त स्वच्छ जल की आवश्यकता होती है। साथ-ही-साथ स्वच्छ जल की उपलब्धता भौगोलिक और मौसमी कारणों से प्रभावित होती रही है और मानवीय सभ्यताओं ने इस पारिस्थितिकी को अनेक प्रकार से प्रभावित किया है, उनका अनेक प्रकार से दोहन किया है। इसकी जानकारी के लिए कि किस तरह स्वच्छ जल की कमी ने विकास के सामने अनेक बाधाएं खड़ी की हैं, विकासशील देशों की विकास नीतियों के अध्ययन की आवश्यकता है। प्रकृति के पांच उपादानों में जल सबसे महत्वपूर्ण है जो पृथ्वी पर जीवन को संभव करने में मदद करता है। जल का उपयोग बुनियादी मानवीय जीवन और विकास के लिए किया जाता है, साथ ही वह सारे जीवन-चक्र के लिए महत्वपूर्ण है। पानी हमेशा से सभ्याताओं का अवलंब रहा है। लगभग सभी प्राचीन सभ्यताएं, जिनमें से हमारी भी निकली है, जल के नज़दीक पली-बढ़ी हैं। पानी सदा से अपरिहार्य रहा है, न केवल मानवीय विकास के संदर्भ में बल्कि कृषि और मानवीय गतिविधियों के विकास में भी। पृथ्वी को अक्सर जल ग्रह कहा जाता है क्योंकि इसके 71 प्रतिशत भाग पर महासागरों का राज है। वर्षा के माध्यम से जल घटता भी है और फिर बढ़ता भी रहता है। इसलिए पानी के लिए चिंता करने की फिर क्या जरूरत है?
वास्तव में विश्व के जल-भंडार का केवल एक प्रतिशत हमारे उपयोग योग्य है। लगभग 97 प्रतिशत जल समुद्री खारा जल है और पृथ्वी के कुल जल-भंडार का 2.7 प्रतिशत ही स्वच्छ जल है। उस 2.7 प्रतिशत का भी काफी हिस्सा हिमनदों और पहाड़ों की चोटियों पर जमा हुआ है।विश्व के कुल जल का डेढ़ प्रतिशत से भी कम वास्तव में जीवित प्राणियों के उपयोग योग्य है। इस प्रकार विश्व का जल-बहाव हमारे जीवन के लिए आवश्यक व अनमोल है। हमारे शरीर के वजन का 60 प्रतिशत जल है; हमारी मांसपोशियों का 72 प्रतिशत जल है। निर्जलीकरण हमें भोजन की कमी के मुकाबले अधिक जल्दी मार देता है। इस मायने में उसका क्रम ऑक्सीजन के बाद आता है। जल हमारे सतत जीवन का महत्वपूर्ण स्रोत है। बिना जल के व्यक्ति सात दिनों के अंदर मर जाता है। हम जिन पौधों, पशुओं का भोजन करते हैं उनका जीवन भी जल पर ही निर्भर होता है, इसकी कमी से निर्जलीकरण और भुखमरी दोनों का ही खतरा बना रहता है।
जल-चक्र सतत होता है, लेकिन वह केवल प्राकृतिक प्रक्रियाओं तक ही सीमित नहीं होता। मानव की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जल की हर बूंद जो हम पीते हैं, जिससे बर्तन धोते हैं, फसलों की सिंचाई करते हैं, या उद्योग-धंधों में प्रयोग करते हैं, इस जल चक्र का हिस्सा बन जाता है। जब भी जल गतिशील होता है उसमें यह क्षमता होती है कि वह अन्य वस्तुओं को भी साथ ले ले। जब जल गतिशील नहीं भी होता है, तब भी इसमें शामिल वस्तुएं इसका हिस्सा बन जाती हैं, इसमें घुलमिल जाती हैं।
लोगों का प्रकृति पर सीधा, अक्सर हानिकर प्रभाव पड़ता है। प्राकृतिक प्रक्रियाओं पर लोगों के प्रभाव को कभी-कभी अपेक्षाकृत तय करना आसान होता है, जैसे समुद्र में बड़े पैमाने पर तेल का बिखराव या बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई। अन्य प्रभाव अपेक्षाकृत धीमे होते हैं और उनको परिभाषित कर पाना आसान नहीं होता, जैसे पृथ्वी पर बढ़ती गर्मी या जल की गुणवत्ता में आने वाली कमी।
सामान्य से कम वर्षा और वर्षा का असामान्य वितरण जल की कमी का कारण बनता है। विश्व भर में जलवायु परिवर्तन के कारण सूखे का प्रकोप बढ़ा है। इसने हमारे देश की वर्तमान स्थिति को गंभीर बना दिया है। हमारे देश की बढ़ती जनसंख्या और शहरीकरण के कारण जल-संसाधनों पर दबाव बढ़ा है। भूतल जलस्रोत लगातार दूषित होते जा रहे हैं। भूजल पर बढ़ती निर्भरता के कारण जलस्तर गिरा है, साथ ही, उसकी पुनःपूर्ती भी इस कारण बाधित हुई है। योजना आयोग के अनुसार, भारत में स्वतंत्रता के समय 200 गांव ऐसे थे जहां जलस्रोत नहीं थे। अब लगभग 900 गांव ऐसे हैं जहां समुचित जल-संसाधन नहीं हैं। दो-तिहाई से भी अधिक भू-जल स्रोत सूख चुके हैं। कम, असमान वर्षा और भू-जल का अत्यधिक दोहन इसका प्रमुख कारण है।
6 मार्च 2003 की प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की एक रपट के मुताबिक संयुक्त राष्ट्र द्वारा पृथ्वी के जल संसाधनों की गुणवत्ता के आंकलन में भारत का स्थान 120वां था। इससे नीचे केवल मोरक्को और बेल्जियम थे। भारत में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष जल उपलब्धता 1880 घन मीटर है और 180 देशों में इस मामले में उसका दर्जा 133वां है। साथ ही, भारत गुणवत्ता मापक के स्तर पर 1.31 है। प्रथम स्थान फिनलैंड का है जिसका स्तर 1.85 है।
भारत में औसत वार्षिक भूजल प्रवाह 186.9 एम.एच.एम. है। जिसमें केवल 69 एम.एच.एम का ही उपयोग हो पाता है (समुचित संग्रहण के साथ)। संभावना और वास्तविक उपलब्धता में इस बड़े अंतर का कारण स्थलाकृति और भूगर्भीय सीमाओं के अलावा मानसून है। साल भर में वर्षा केवल चार माह होती है, लेकिन अगर व्यावहारिक रूप से कहें तो उसका वितरण इतना असमान है कि उसके वार्षिक औसत का कोई महत्व नहीं रहता। वास्तव में, देश के एक तिहाई हिस्से पर हमेशा सूखे का खतरा मंडराता रहता है और वर्षा की कमी के कारण नहीं, बल्कि उसकी अनिश्चितता के कारण। इस ‘प्रचुरता के मध्य कमी’ के कारण बाढ़ और सूखे की स्थिति उत्पन्न होती है।
भूजल के अलावा पुनः पूरणीय भूजल स्रोत भी हैं। इसकी क्षमता 43.2 एम.एच.एम. आंकी गई है जिसमें पुनः पूरणीय नहर सिंचाई भी शामिल है। इसका मतलब है कि सन 2050 में कुल उपलब्ध जल 23001 एम.एच.एम. होगा और उसकी प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1403 मिलियन होगी। इस प्रकार अगर कुल उपलब्ध जल को शामिल कर लिया जाए तब भी देश में पानी की कमी का दबाव बना रहेगा।
ऐसी संभावना है कि 2050 तक देश की जनसंख्या 1640 मिलियन हो जाएगी। आबादी का आधा भाग शहरी होगा। आधा ग्रामीण। उसकी घरेलू ज़रूरतों की सख़्ती से अगर शहरी क्षेत्रों में 200 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन और ग्रामीण क्षेत्रों में 100 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तक सीमित कर दिया जाए तब भी 9 एम.एच.एम. जल की आवश्यकता होगी। यह ध्यान रखने की बात है कि भूजल शहरी ज़रूरतों को कम ही पूरा करता है। लेकिन संपूर्ण ग्रामीण जरूरतें इससे पूरी होती हैं।
वृद्धि की प्रक्रिया और आर्थिक गतिविधियों में तेजी से अवश्यंभावी रूप से विविध उद्देश्यों के लिए जल की आवश्यकता बढ़ती है विविध घरेलू, औद्योगिक, कृषि-संबंधी, जल-उर्जा संबंधी, नौसेना, मनोरंजन आदि-आदि। अब तक, जल का सबसे अधिक उपयोग सिंचाई में होता है। जल की कमी से कृषि उत्पादकता, विशेषकर, खाद्य-उत्पादकता में कमी आती है। इससे खाद्यान्न की कमी होती है और खाद्य-सुरक्षा का मुद्दा उठता है। हालांकि, स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय देश में सिंचाई-क्षमता 19.5 मिलियन हेक्टेयर थी जो छठी योजना की समाप्ति पर बढ़कर 68 मिलियन हेक्टेयर हो गई। बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं के मद्देनज़र इसे और अधिक बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। जल विकास योजना का एक आवश्यक हिस्सा है।
भारत का जल-संसाधन और कृषि-भूमि सीमित है, लेकिन उसे बढ़ती विशाल जनसंख्या का पेट भरना होता है। राष्ट्रीय जल संस्थान के मुताबिक भारत की जनसंख्या विश्व जनसंख्या का 16 प्रतिशत है जबकि उसके मुकाबले नदियों में औसत वार्षिक प्रवाह 4 प्रतिशत ही है। वर्षा के असमान वितरण के कारण बाढ़ और सूखे का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी, एक ही वर्ष एक ही क्षेत्र में सूखा और बाढ़ दोनों ही आ जाते हैं।
वर्तमान में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1170 एम3 प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष है। लेकिन इस औसत से देश के विभिन्न हिस्सों की असमानता का अंदाजा नहीं होता पिछले वर्षों में जल संसाधन विकास और प्रबंधन विचार-विमर्श के प्रमुख मुद्दे रहे हैं। जल संसाधनों के व्यवस्थित और वैज्ञानिक विकास को ध्यान में रखते हुए देश ने सन 1987 में राष्ट्रीय जल नीति अपनाई थी। अप्रैल 2002 में राष्ट्रीय जल संसाधन संगठन ने अपनी पांचवी बैठक में राष्ट्रीय जल नीति स्वीकृति की है।
हमारे राष्ट्रीय जल संसाधन नीति संबंधी दस्तावेज़ के अनुसार “जल प्रधान प्राकृतिक स्रोत है, बुनियादी मानवीय आवश्यकता और मूल्यवान राष्ट्रीय संपत्ति। जल संसाधनों की नीति और विकास को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अपनाए जाने की आवश्यकता है।” उसके आरंभ में ही बिंदु 1.2 में पहले ही विषय ‘राष्ट्रीय जलनीति की आवश्यकता’ के अंतर्गत राजस्थान का उल्लेख है: “देश और काल दोनों ही स्तरों पर जल उपलब्धता असमान है। वर्षा साल के तीन-चार महीनों में ही होती है और पश्चिमी राजस्थान में अगर उसका औसत 10 सेंटीमीटर है तो चेरापूंजी”, मेघालय में वर्षा 1000 सेंमी तक होती है।”
इस बीच, पेयजल, सिंचाई, बढ़ती जनसंख्या के कारण जल की आवश्यकता बढ़ती ही जा रही है। हम लोग पूर्ण अभाव की दिशा में बढ़ रहे हैं। भूजल प्रबंधन संकटपूर्ण है। यह 85 प्रतिशत ग्रामीण पेयजल और 55 प्रतिशत शहरी पेयजल का स्रोत है। यह निर्भरता इसलिए भी बढ़ी है क्योंकि सतही जल स्रोत, विशेषकर नदियां शहरी गंदगी और औद्योगिक कचरे से प्रदूषित हुई है। यहां तक कि संबंधी बुनियादी ज़रूरतों को आराम से पूरा कर सकने वाले सामुदायिक जल स्रोत भी विफल हुए हैं। देश में दस लाख हैंडपंप हैं, जो संसार में सर्वाधिक हैं। बिना पुनःपूरण की चिंता के जलनिकास हो रहा है।
जल राज्य की सीमाओं को नहीं मानता। न केवल नदियां बल्कि भूमिगत जलस्रोत भी राज्य की सीमाओं के पार निकल जाते हैं। जल संसाधन के रूप में एक और अविभाज्य है: वर्षा जल नदियों का जल, तालाब झील आदि सब उसके तंत्र का हिस्सा हैं। जल विशाल पारिस्थितिकी तंत्र का भी अंग है। जल सामान्य प्राकृतिक स्रोत है। वर्षा सीमाओं को नहीं मानती, नदियां बिना पारपत्र के देशों की सीमाओं को लांघ जाती है और समुद्र बिना पारपत्र के बादलों को वाष्पीकरण करने देता है। देश नदियों और समुद्रों के पानी का स्वयं तक ही सीमित रखना चाहते हैं। लेकिन जल किसी की निजी संपत्ति नहीं होता। यह किसी व्यक्ति, कंपनी या संस्था का नहीं हो सकता। जल संकट को कम करने और उस संबंध में उपायों को सुझाने तथा हल खोजने की ज़िम्मेदारी प्रत्येक व्यक्ति की है। चाहे भूमिगत जल के रिक्तीकरण की समस्या हो, लचर प्रबंधन हो, कम कृषि-उत्पादकता हो, जलवायु की विविधता हो - इन सबका कारण दुर्लभ संसाधन जल है। आज भी लाखों लोगों को सतत स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है। कुछ किए जाने की आवश्यकता है। जल हर व्यक्ति की आवश्यकता है। जल संबंधी नीतियां, कार्यक्रमों, प्रयोगों, नवोन्मेषों को हर स्तर पर प्रचारित किए जाने की आवश्यकता है ताकि हर व्यक्ति उस संबंध में जागरुक हो सके।
20वीं शताब्दी में विश्व का ध्यान तेल पर था। 21वीं शताब्दी में विश्व का ध्यान सुरक्षित और पर्याप्त पेयजल उपलब्धता पर केंद्रित रहने वाले है। अगर जल को ऐसे संसाधन के रूप में देखा जाता रहा, जिसका मूल्य चुकाकर उसका उपयोग या दुरुपयोग किया जा सकता है तो जल-संरक्षण के क्षेत्र में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की जा सकती। कहा जाता है कि भविष्य के युद्ध जल को लेकर होंगे।
हमारे देश में जल-संसाधन तकनीकों की बड़ी परंपरा रही है। आधुनिक विज्ञान के साथ उनके समायोजन से जल-समस्या का समाधान ढूंढा जा सकता है। कई स्थानों पर, लोगों ने जल-समस्या के नए वैकल्पिक समाधानों के बारे में सोचना शुरू कर दिया है। उनका आधार जल-संरक्षण की परंपरागत तकनीकी रही है और उसकी वजह से आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्र आज वैभवपूर्ण क्षेत्र बन गए हैं। वर्षा जल संरक्षण की परंपरागत तकनीक के अनेक लाभ हैं। उसके परिणाम स्वरूप अर्थव्यवस्था में आमूल सुधार होता है। उनके उपयोग से कृषि-उत्पादकता में वृद्धि होती है और उनका रख-रखाव भी अधिक खर्चीला नहीं होता। उनकी उत्तरजीविता भी काफी होती है। इस “मरती मेधा” के पुनराविष्कार की आवश्यकता है ताकि संसाधन प्रबंधन के इस परंपरागत स्रोत को आज की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया जा सके।
पिछले कुछ वर्षों में विकास और विकास प्रक्रियाओं में जल की महत्ता की चेतना बढ़ी है। भूत, वर्तमान, भविष्य के समस्त समाजों विकास और जीवन के लिए पर्याप्त स्वच्छ जल की आवश्यकता होती है। साथ-ही-साथ स्वच्छ जल की उपलब्धता भौगोलिक और मौसमी कारणों से प्रभावित होती रही है और मानवीय सभ्यताओं ने इस पारिस्थितिकी को अनेक प्रकार से प्रभावित किया है, उनका अनेक प्रकार से दोहन किया है। इसकी जानकारी के लिए कि किस तरह स्वच्छ जल की कमी ने विकास के सामने अनेक बाधाएं खड़ी की हैं, विकासशील देशों की विकास नीतियों के अध्ययन की आवश्यकता है। जल की उपलब्धता बुनियादी रूप से देशों के बीच असमानता बढ़ाती है और एक ही देश के गरीब और अमीर के बीच की खाई को भी वह बढ़ा देती है। यह विकासशील देशों के अरबों लोगों के स्वास्थ्य को भी प्रभावित करती है क्योंकि विकासशील देशों में जलजनित रोग लोगों की मृत्यु का सबसे बड़े कारण हैं। स्थानीय स्तर पर जल की उपलब्धता सांस्थानिक विकास और आर्थिक नीति को प्रभावित करती। विभिन्न प्रकार की आर्थिक गतिविधियाँ महत्वपूर्ण जल स्रोतों के पास अवस्थित होती हैं, साथ ही शहरीकरण भी इससे प्रभावित होते हैं। हमारे विश्व के कई बड़े नगर जल-समस्या से जूझ रहे हैं। पर्याप्त स्वच्छ जल कृषि (विश्व में उपयोग किए जाने वाले जल का 60 प्रतिशत सिंचाई के काम आता है)। उद्योग (विश्व का 18 प्रतिशत जल-संसाधन औद्योगिक काम के लिए उपयोग किया जाता है) और शहरी जीवन में सुधार के काम आता है। जल-उपयोग संबंधी अपनी प्राथमिकताओं को तय करना आज हर देश की विकास-नीतियों का प्रमुख मुद्दा है।
अधिकारीगण, राजनेता, पूंजी लगाने वाले और सामान्य लोग एक तथ्य से सहमत हैं कि परंपरागत जल-संचयन तकनीक जल स्रोतों के पुनः पूरण के लिए आवश्यक है। जल-संग्रहण और प्रबंधन तकनीक विकास-संबंधी प्रयासों और सहकारी भाव की मांग करते हैं ताकि हमारी जीवन रेखा के भूत, वर्तमान और भविष्य को जल है अनमोल जल से जोड़ा जा सके।
'जल संग्रहण एवं प्रबंध' पुस्तक से साभार