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पर्यावरण विमर्श, 2012
आज कृषि और उद्योग क्षेत्रों में जल की बढ़ती हुई मांग के कारण कई राष्ट्रों में जल का भीषण संकट उत्पन्न हो गया है। जल सतत् प्रवहमान है, उसी को हमारी स्वार्थपरता ने बांधने का, अवरूद्ध करने का, दुस्साहस किया। यही कारण है कि व्यक्ति से राष्ट्र तक सभी जल विवादों से घिरे नजर आएंगे। जल प्राकृतिक संसाधन है, इसे अपने प्राकृतिक रूप में रहने देना चाहिए, अन्यथा बहुत बड़ा संकट खड़ा हो सकता है। ऐसी स्थिति जल के लिए विश्वयुद्ध हो न हो, अपने देश में आंतरिक संघर्ष की आशंका को टाला नहीं जा सकता।
जल को जीवन कहा गया है। जल हमारे जीवन और अस्तित्व के लिए नितांत आवश्यक है। यह शरीर जिन पांच महातत्वों से निर्मित है, उनमें एक जल भी है। जल के बिना मनुष्य रह नहीं सकता, इसलिए आवास-व्यवस्था के पूर्व वह जल-स्रोत की टोह लेता है। जीवन में प्रत्येक कार्य में जल उपयोगी है। स्वच्छता, पूजा-पाठ, आचार-व्यवहार, खेती, उद्योग आदि में इसका उपयोग होता है। जीवन-जगत् के लिए ‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून’ उक्ति सार्थक है।जल का महत्व कई रूपों में है। सनातन हिंदू-धर्म में जल के बिना कोई अनुष्ठान संपन्न नहीं हो सकता। यह हमारे जीवन को संतुलित एवं शीतलता प्रदान करता है। यही रस और स्वाद बनकर हमारे जीवन को सरस बनाता है। प्यासे के लिए यह अमृत बूंद है तो धार्मिक कार्य में प्रयुक्त कलश-घट में यह वरुण शक्ति का द्योतक है।
वर्तमान विश्व का सबसे चर्चित और ज्वलंत विषय है- ‘जल’, जो जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता भी है। जनसंख्या वृद्धि के साथ ही जल की खपत बढ़ गई है, परंतु इसके स्रोत सीमित होने के कारण समस्या पैदा हो गई है। विचारक, चिंतक एवं समाजशास्त्री तो यहां तक कहते हैं कि अगला विश्वयुद्ध तेल के लिए नहीं, बल्कि पानी के लिए होगा। उनके इस कथन में सच्चाई है।
यह कटु सत्य है कि जिस धरती का दो- तिहाई भाग जल है, वहां पीने के पानी की उपलब्धता अपर्याप्त है और जो उपलब्ध है वह भी प्रदूषण की चपेट में है। स्वच्छ जल जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के लिए अमृत तुल्य है, किंतु वही जल दूषित हो जाने के बाद विष के समान हो जाता है। परिणामस्वरूप अनेक बीमारियां उत्पन्न होती हैं।
आज देश की अधिकांश जीवनदायिनी नदियों का जल मनुष्य के पीने और कहीं-कहीं नहाने लायक भी नहीं रह गया है। ‘राम तेरी गंगा मैली हो गई’ केवल एक फिल्मी गाना नहीं, अपितु जल-प्रदूषण का जीता-जागता उदाहरण है। कारखानों का प्रदूषित धुआं एक ओर ताजमहल को मलिन कर रहा है तो दूसरी ओर उसके प्रदूषित जल से नदियां व नहरें दूषित हो रही हैं।
विदित हो कि कावेरी, गोदावरी, साबरमती, कृष्णा और ताप्ती नदियों के जल का परीक्षण किया गया और उसे पीने लायक नहीं पाया गया। निःसंदेह यह एक चिंता का विषय है। जल में विसर्जित कूड़ा-करकट, शव, अधजली लाशें, राख, फूल-मालाएं, जूठा भोजन आदि जल को प्रदूषित करते हैं। परिणामस्वरूप जल उपयोग के लायक नहीं रह जाता। किंतु आम जनता इस बात से अभी तक बेखबर है।
वह गंगाजल अथवा अन्य नदियों के जल को अमृत समझती है। प्रदूषित पानी को पीने से अपचन, पेचिश, पीलिया, गैस और नहाने-धोने से खसरा, खुजली और कुष्ठ जैसे संक्रामक रोग उत्पन्न हो सकते हैं।
जल-प्रदूषण का प्रभाव जीव-जंतुओं और वनस्पतियों पर भी होता है। सच पूछिए तो आज भारत की तमाम पुण्य-सलिला नदियों का जल प्रदूषित हो चुका है। गंगा,यमुना, गोदावरी और कृष्णा आदि नदियों का जल स्वास्थ्य की दृष्टि से अनुपयुक्त साबित हो चुका है। और तो और गंगा सफाई के सरकारी प्रयासों के बावजूद गंगा को आज भी किसी नए भगीरथ की तलाश है, जो उसे प्रदूषण के अभिशाप से मुक्त करे।
यह चिंता का विषय है कि तमाम प्रदूषण-नियंत्रण कानूनों के बावजूद केवल हुगली में चल रहे कपड़ा, पटसन, कागज, शराब और चमड़े के तकरीबन 160 कारखानों का अवशिष्ट जल बिना उपचारित किए ही नदी में डाल दिया जाता है। प्रदूषण से बचने के लिए यह आवश्यक है कि प्राकृतिक और मानव-निर्मित वातावरण में ताल-मेल बना रहे। यह ध्यान देना चाहिए कि मानव उद्योग-धंधे का विकास अवश्य करे, लेकिन प्राकृतिक सुंदरता को नष्ट न करे।
आज अरपा की प्रदूषित स्थिति को देखकर बहुत दुःख होता है। अरपा पहले पानीदार, प्रदूषणविहीन थी। आज उसका स्वरूप देखकर लगता है मानों उसके ही बच्चों ने अपनी मां का रूप अपने स्वार्थ के लिए विकृत कर दिया है। पहले अरपा सूखी नहीं थी, भीषण गर्मी के दिनों में पुराने पुल के नीचे पानी भरा रहता था। इसके दोनों किनारों पर बिही, सीताफल, संतरा एवं साग-सब्जियों के हरे-भरे बाग-बगीचे हुआ करते थे।
अब तो कंक्रीट के जंगलों में अरपा का पानीदार चेहरा और हरियाली मानों गुम हो गई है। अब बिलासपुर नगर में जल-स्तर बहुत अधिक नीचे चला गया। प्रकृति और पर्यावरण के साथ खिलवाड़ का ही यह परिणाम है। अब भी वक्त है संभल जाएं, अपनी जीवनदायिनी मां अरपा के सौंदर्य को संवारें। उसके सूखे-बुझे हुए चेहरे में पानी वापस लाएं। आइए, हम सब अरपा के बेटे मिलकर अपनी मां के कायाकल्प हेतु कृत्संकल्प हों और आने वाली पीढ़ी को कल-कल निनादिनी हरी-भरी अरपा प्रदान करें।
नदियों में गंदगी डालने से पीने का पानी दूषित होता जा रहा है। नदियां केवल नदी नहीं होतीं, वे हमारी सांस्कृतिक पहचान भी होती हैं। मानव के स्वार्थ ने अपनी ही जननी की गोद को मलीन कर दिया है। जीवनदायिनी गंगा आज विनाश के कगार पर है। इंद्रावती व महानदी भी बदरंग-सी हो चली हैं, जिन्होंने बस्तर की इंद्रावती का भरपूर यौवन देखा है, वे आज की कृषकाय इंद्रावती को देखकर रोने पर विवश हो जाते हैं।
आज नदियों के जल-स्तर में निरंतर गिरावट आ रही है। यह दुःखद और भावी खतरे का भी संकते है। नदियां ही नहीं, आज विश्व के सागर भी प्रदूषण की चपेट में हैं, जिसके कारण सागर में रहने वाले जीव-जंतुओं का जीना दुश्वार होता जा रहा है।
आज कृषि और उद्योग क्षेत्रों में जल की बढ़ती हुई मांग के कारण कई राष्ट्रों में जल का भीषण संकट उत्पन्न हो गया है। जल सतत् प्रवहमान है, उसी को हमारी स्वार्थपरता ने बांधने का, अवरूद्ध करने का, दुस्साहस किया। यही कारण है कि व्यक्ति से राष्ट्र तक सभी जल विवादों से घिरे नजर आएंगे। जल प्राकृतिक संसाधन है, इसे अपने प्राकृतिक रूप में रहने देना चाहिए, अन्यथा बहुत बड़ा संकट खड़ा हो सकता है। ऐसी स्थिति जल के लिए विश्वयुद्ध हो न हो, अपने देश में आंतरिक संघर्ष की आशंका को टाला नहीं जा सकता।
कोई भी राष्ट्र अपने विकास में जल को समस्या नहीं बनने देगा, इसलिए प्रगतिशील राष्ट्र को अभी से जल के प्रबंधन के लिए विशेष उपाय करने चाहिए। वर्षा के जल की खेती का जलागम प्रबंधन का क्रम हर जगह बनाना चाहिए। इसी में जल संकट का समाधान निहित है। यही वह वजह है कि व्यक्ति से राष्ट्र तक सभी जल-विवादों से घिरे हुए नजर आते हैं। जबसे मानवीय पुरुषार्थ में कमी आई, ताल-सरोवरों आदि का निर्माण कम हो गया और देश प्राकृतिक जल के भरोसे रहने लगा। इसमें व्यतिक्रम अनेक संकटों का कारण बनता है।
इसके अतिरिक्त आज देश विश्व की सबसे बड़ी समस्या भूजल का गिरता स्तर है। आने वाले दिनों में अतिरक्त पानी राशनिंग पर मिले तो आश्चर्य न करें। यह सब इसलिये हुआ है कि जल सीमित है, उसका उपयोग करने वाले अत्यधिक बढ़ गए है। बढ़ते शहरीकरण के कारण ट्यूबवेल तक हमने गहरे खोद-खोदकर पानी की सतह बहुत नीचे पहुंचा दी है। इसलिए वर्षा के पानी का, चाहे वह कभी भी बरसे, उपयोग करें, उसकी खेती करें। यह वॉटर हार्वेस्टिंग तकनीक ही हमें हमारी भावी पीढ़ी को प्यासा मरने से बचा सकती है।
वर्षा ऋतु में जब अधिक वर्षा होती है तो अतिरिक्त जल जो भूमि पर बहने लगता है, उसे एकत्रित करना तथा एकत्रित जल को वाष्पीकरण एवं निष्पंदन की हानियों से बचाकर फसलोत्पादन के उपयोग में लेना वॉटर हार्वेस्टिंग कहलाता है। इस प्रकार से एकत्रित पानी का उपयोग शुष्क मौसम में तब किया जाता है, जब फसलों की सिंचाई की आवश्यकता होती है। इस विधि में पानी प्राकृतिक निचले क्षेत्रों तथा तालाबों में एकत्रित किया जाता है। आवश्यकतानुसार ऐसे तालाबों के क्षेत्रफल एवं गहराई बढ़ाई जा सकती है।
तालाबों में एकत्रित जल की वाष्पीकरण से होने वाली हानि को रोकने के लिए क्षेत्रों में उपलब्ध पानी पर तैरने वाले पदार्थों का उपयोग करना चाहिए, ताकि जल एवं वायुमंडल का संपर्क टूट जाए और वाष्पीकरण की क्रिया कम-से-कम हो पाए। तालाब की निचली सतह से रिसाव द्वारा जल की हानि को रोकने के लिए अगर संभव हो तो सीमेंट व कंक्रीट की सहायता से पक्का बनवा देना चाहिए अन्यथा तालाब की निचली सतह से जल के रिसाव की हानि कम करने के लिए एक 8-10 सेमी. मोटी भूसे की पर्त लगाकर उसके ऊपर 8-10 सेमी. मोटी पर्त चिकनी मिट्टी की लगा देनी चाहिए।
पानी का सबसे निर्मल परिष्कृत स्वरूप है, आसमान से आने वाला जल। इसे हम नदी, नाले, समुद्र में बहने से रोक सकते है। इतना महत्वपूर्ण यह स्रोत है कि एक घंटे की वर्षा भी बारहमास का पानी दे सकती है। ‘आकाश का पानी रोकेंगे, पाताल पानी बढ़ाएंगे’ चलाई गई योजना का लाभ उठाकर रेगिस्तानी इलाकों-राजस्थान, गुजरात के घरों में, ऊंचे-ऊंचे किलों में वर्षा के पानी को इसी तकनीक का प्रयोग कर जल रोका जा सकता है।
वहां कभी-कभी पानी गिरता है, फिर वर्ष भर उसका उपयोग करते हैं। इन घरों में बिना किसी तोड़-फोड़ के छत के जल को एक ही पाइप में संग्रहीत कर फिल्टर के माध्यम से घर में स्थित ट्यूबवेल या टैंक में डाला जाता है। यदि छत से पानी के निकास के तीन-चार स्थान हैं तो उन सबको जोड़कर एक पाइप में एकत्र कर इसे फिल्टर से जोड़कर टैंक में जोड़ देते हैं।
वर्षा ऋतु आने के पूर्व छत की सफाई कर ली जाती है। फिर चेक वाल्ब से निकलने वाले पानी को देखकर उसे बंद कर देते हैं। पानी छत से उतरकर भूतल में चला जाता है। याद रखें पानी की एक-एक बूंद कीमती है। हमें उसका अपव्यय रोकना है, तभी हम जल संकट से बच पाएंगे।
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, सरकंडा, बिलासपुर (छ.ग.)