जलवायु परिवर्तन अब भी एक बड़ी चुनौती

Submitted by RuralWater on Tue, 12/15/2015 - 09:50
. जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के उपायों पर विचार करने के लिये पेरिस में हुआ दुनिया के 190 से अधिक देशों का जमावड़ा अब खत्म हो चुका है। इस सम्मेलन को जलवायु परिवर्तन रोकने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि करार दिया जा रहा है।

सम्मेलन के अन्त में हुए समझौते को जहाँ अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा पृथ्वी को बचाने के लिये मानवता के समक्ष सर्वश्रेष्ठ अवसर प्रस्तुत करने वाला करार दे रहे हैं, संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून लोगों और हमारे गृह के लिये एक महत्त्वपूर्ण सफलता की संज्ञा दे रहे हैं जो गरीबी के अन्त, शान्ति को बढ़ावा देने और सभी के लिये सम्मान एवं अवसरों वाला जीवन सुनिश्चित करने का मंच तैयार करने वाला साबित होगा। उनके अनुसार प्रकृति हमें आपातकालीन संकेत दे रही है।

लोग और दुनिया के देश आज जितने खतरे में हैं, उतने पहले कभी नहीं रहे। अब समय आ गया है कि जीवन देने वाले गृह को हमें बचाना ही होगा। वहीं हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस समझौते को न्याय की जीत करार देते हुए कहते हैं कि इस वैश्विक पहल से दुनिया हरित भविष्य की ओर मुखातिब हुई है।

उनकी मानें तो जलवायु परिवर्तन अब भी एक चुनौती बनी हुई है लेकिन पेरिस समझौता यह प्रदर्शित करता है कि कैसे दुनिया के देश इस चुनौती से निपटने के लिये एकजुट हुए और समाधान की दिशा में आगे बढ़े।

इसके बावजूद यहाँ इस बात में किंचित भी सन्देह नहीं है कि पेरिस समझौता इससे भी बेहतर बनाया जा सकता था अगर विकसित देश थोड़ी दरियादिली दिखाते और ऐतिहासिक जिम्मेदारियाँ निभाते तो यह समझौता ज्यादा महत्वाकांक्षी होता।

असलियत यह है कि विकसित देशों द्वारा उठाए गए कदम उनकी ऐतिहासिक जिम्मेदारियों और उचित हिस्सेदारियों से कहीं कम हैं। हमारे पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर कहते हैं कि हमने सिर्फ एक समझौता ही अंगीकार नहीं किया है बल्कि सात अरब लोगों के जीवन में उम्मीद का एक नया अध्याय जोड़ा है।

वह बात दीगर है कि यह समझौता जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने में विश्व नेताओं की सामूहिक बुद्धिमता को दर्शाता है। यह सही है कि इस समझौते में साल 2100 तक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने में सहमति व्यक्त की गई है। जरूरत पड़ने पर इसको 1.5 डिग्री भी किया जा सकता है।

असलियत में दुनिया के 190 देश 2100 तक तापमान में वृद्धि की दर को दो डिग्री तक ही सीमित करने के पक्षधर है। जबकि विकसित देश सहित 148 देश कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिये तैयार है। विकसित देश तो इस लक्ष्य को दो डिग्री से भी आगे बढ़ाना चाह रहे थे। इसमें दो राय नहीं कि मौजूदा लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उन्हें कार्बन उत्सर्जन घटाना ही होगा।

अब यदि वे दो डिग्री पर मान रहे हैं तो अब यह साफ हो गया है कि वे अपना उत्सर्जन कम करने के लिये विवशता में ही सही, लेकिन तैयार हैं। गौरतलब यह है कि पूर्व में कई देश या देशों के समूह किसी मसौदे पर एकमत नहीं हो सके थे। नतीजन बात ही नहीं बन पाती थी। लेकिन इस बार पेरिस समझौते से भारत विकास सम्बन्धी अपनी गतिविधियाँ जारी रख सकेगा। इसमें सन्देह नहीं है।

इसमें दो राय नहीं कि जलवायु परिवर्तन और विकास को लेकर भारत की चिन्ताएँ भी ज्यादा हैं और इसके खतरे भी हमारे देश के लिये भयावह हैं। सरकार कहे कुछ भी असलियत तो यह है कि उनसे निपटना आसान नहीं है। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता।

जहाँ तक समझौते का सवाल है, इसमें तापमान में वृद्धि की दर को दो डिग्री तक सीमित रखने का लक्ष्य रखा गया है जबकि असल में इस करार के बावजूद वर्तमान सदी के अन्त तक तापमान में तीन से साढ़े तीन डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ोत्तरी होगी।

सबसे बड़ी बात यह कि इस प्रस्ताव में जलवायु परिवर्तन के लिये अमीर देशों को ऐतिहासिक रूप से जिम्मेदार ठहराने वाले शब्द को ही हटा दिया गया है। जबकि असलियत में कार्बन उत्सर्जन के लिये सबसे ज्यादा ज़िम्मेवार अमीर देश ही हैं।

यहाँ इस तथ्य को नजरअन्दाज कर देना बहुत बड़ी भूल होगी कि भारत और चीन जैसे उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में भी दो डिग्री से भी अधिक लक्ष्य की माँग उठती रही है, कारण यह है कि भारत की 30 फीसदी से अधिक आबादी अभी तक बिजली से वंचित है।

भारत दो डिग्री के लक्ष्य को इसलिये बढ़ाने के पक्ष में था ताकि औद्योगीकरण की बढ़ती गतिविधियों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े। लेकिन विकसित देशों द्वारा इस मुद्दे पर अपनी प्रतिबद्धता बढ़ने से भारत अपनी गतिविधियाँ अनवरत जारी रख पाएगा। यह कटु सत्य है। ऐसा विश्वास भी है।

इस बारे में सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण कहती हैं कि इस सबके बावजूद समझौते में बहुतेरे मुद्दे विकासशील देशों के भविष्य के लिये छोड़ दिये गए हैं जिनसे हमारे देश को अगले एक दशक तक जूझना पड़ेगा।

उनके अनुसार अगले 10 सालों में कोई महत्त्वपूर्ण पहल तो होने से रही। क्योंकि विकासशील देशों ने 2020 से पहले कोई भी उल्लेखनीय वित्तीय पहल करने या कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने को लेकर किसी किस्म की कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई है।

ग़ौरतलब है कि समझौते में अधिकांश देशों ने राष्ट्रीय स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य घोषित किया है। समझौते के तहत 2 डिग्री से नीचे के स्तर पर तापमान वृद्धि को सीमित रखने का प्रयास किया जाएगा। यही नहीं वह इसको 1.5 डिग्री नीचे लाने की कोशिश भी कर सकते हैं। जाहिर है यह औद्योगिक क्रान्ति से ही सम्भव है।

यदि ऐसा हुआ तो भारत पर उत्सर्जन से ज्यादा कटौती का दबाव बढ़ेगा। उस हालत में जबकि भारत का लक्ष्य उत्सर्जन की तीव्रता में 2030 तक 30 फीसदी की कमी लाने का है। ऐसी दशा में भारत को नुकसान उठाना पड़ेगा। इसमें दो राय नहीं है। यह भी कि तापमान घटाने के लिये विकासशील देश अविलम्ब अपना अधिकतम कार्बन उत्सर्जन स्थिर करने की दिशा में प्रयास करेंगे।

इसके बाद ही वह तकनीक के माध्यम से इसमें कमी लाने में कुछ खास कर पाने में सफल हो सकेंगे। इसमें भी सन्देह है। हर पाँच साल में इसका आकलन किया जाएगा कि अपने निर्धारित लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में किस देश ने क्या-क्या किया।

दुनिया के देशों के रवैये को देखकर ऐसा नहीं लगता कि वे अपने विकास के मॉडल या अपनी जीवनशैली में किसी किस्म का बदलाव ला पाएँगे। इसलिये समय की माँग और यह जरूरी भी है कि कम ऊर्जा की खपत वाली टेक्नोलॉजी और वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों पर विशेष ध्यान दिया जाये। जब तक फासिल ईंधन के ठोस विकल्प उपलब्ध नहीं होंगे, तब तक वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ोत्तरी को रोक पाना असम्भव है। यदि इस प्रावधान को कानूनी मान्यता मिल जाती है, उस स्थिति में विकसित देशों पर दबाव पड़ना लाज़िमी है। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। अभी तक के हालात से तो यह सम्भव नहीं लगता। कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की खातिर वन क्षेत्र में बढ़ोत्तरी की जाएगी और वनों के प्रबन्धन के लिये सभी देश मिलजुलकर एकीकृत नीति बनाएँगे।

समझौते में फैसले को लागू करने में पारदर्शिता पर खास जोर दिया गया है ताकि फ़ैसलों को पूरी तरह लागू करने में आसानी हो सके। सभी पक्ष जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न विपरीत हालात से होने वाले नुकसान को मान्यता प्रदान करेंगे। इसका परिणाम यह होगा कि दुनिया के विकासशील देशों को अपने यहाँ स्थायी विकास की नीति बनाने में सहायता मिलेगी।

अब जरा हरित कोष को लें, जिससे विकसित देशों ने सन् 2020 से 100 अरब डालर विकासशील देशों को हर साल देने का निर्णय लिया है। जाहिर है इससे भारत को कुछ लाभ नहीं होने वाला। इससे भारत को बहुत बड़ी राशि मिलने की उम्मीद न के बराबर ही है। क्योंकि संयुक्त राष्ट्र भारत को एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था मानता है जो तेजी से आगे बढ़ रहा है।

इस लिहाज से भारत खुद जलवायु परिवर्तन से अपने संसाधनों के बूते लड़ाई लड़ने में सक्षम है। और जब इसके उपयोग की बात आएगी तब गरीब देशों को ही प्राथमिकता दी जाएगी। विडम्बना तो यह कि अभी तक इस कोष मे मात्र 10 अरब डालर की राशि ही फिलहाल जमा हो सकी है।

इस कोष का इस्तेमाल यदि हरित तकनीक खरीदने में किया जाएगा, उस हालत में ही भारत को ज्यादा लाभ मिल सकता है अन्यथा नहीं। भारत की माँग है कि इस कोष से हरित तकनीक विकासशील देशों को मुफ्त में दी जाये। तभी वह विकास करने में समर्थ हो सकेंगे। जो सम्भव नहीं लगता। ऐसे प्रस्ताव पहले के सम्मेलनों में भी पारित किये जा चुके हैं।

लेकिन अमल में आज तक नहीं आ सके। इसकी कामयाबी तभी सम्भव है जबकि अगले साल अप्रैल माह में सभी देश मिलकर इस मसौदे पर चर्चा करेंगे। यदि अप्रैल 2016 में दुनिया के 55 देश जो न्यूनतम 55 फीसदी उत्सर्जन के लिये ज़िम्मेवार हैं, इस पर अपनी सहमति की मुहर लगाते हैं, उस हालत में ही यह अप्रैल 2017 से प्रभावी हो पाएगा अन्यथा नहीं।

इसलिये अभी इससे ज्यादा उम्मीद करना बेमानी है। वह बात दीगर है कि दुनिया में पर्यावरण की स्थिति बहुत खराब है, इसलिये जल्द कदम उठाना बेहद जरूरी है। दुनिया के विशेषज्ञों की चेतावनियों और मैशेबल की रिपोर्ट का सार तो यही है।

मौजूदा हालात गवाह हैं कि कार्बन उत्सर्जन कम किये जाने का एकमात्र तरीका विज्ञान और तकनीक के अलावा और कुछ नहीं है।

दुनिया के देशों के रवैये को देखकर ऐसा नहीं लगता कि वे अपने विकास के मॉडल या अपनी जीवनशैली में किसी किस्म का बदलाव ला पाएँगे। इसलिये समय की माँग और यह जरूरी भी है कि कम ऊर्जा की खपत वाली टेक्नोलॉजी और वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोतों पर विशेष ध्यान दिया जाये।

जब तक फासिल ईंधन के ठोस विकल्प उपलब्ध नहीं होंगे, तब तक वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ोत्तरी को रोक पाना असम्भव है। यदि विकसित देश सौर ऊर्जा की परियोजनाओं को प्रोत्साहित करें तो इसमें किंचित भी सन्देह नहीं है कि कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। असलियत में वर्तमान में इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं है।