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पेरिस में आयोजित जलवायु सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन समझौता इसको नियंत्रित करने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है। यह तभी सम्भव है जबकि इस सम्मेलन में भाग लेने वाले देश कार्बन उर्त्सजन में कमी लाने के संकल्प पत्र पर हस्ताक्षर करें। वैसे अब तक का इतिहास तो इसकी गवाही नहीं देता और बीते कई सम्मेलन इस मामले में असफल ही साबित हुए हैं, इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। पेरिस सम्मेलन में यदि ऐसा हुआ तो समूचे विश्व के लिये यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी और वह पल दुनिया की सबसे तेजी से प्रगति करती अर्थव्यवस्था वाले देश भारत के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होगा। आज समूची दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग की चर्चा जोरों पर है। हो भी क्यों न, क्योंकि आगामी 30 नवम्बर से 11 दिसम्बर के बीच फ्रांस की राजधानी पेरिस में जलवायु परिवर्तन पर होने वाले शिखर सम्मेलन में दुनिया के देश अपनी-अपनी तरफ से पेश रिपोर्ट में यह स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे कि कार्बन उर्त्सजन में वे कितनी कटौती करने को तैयार हैं और इसके लिये उनकी क्या कार्ययोजना है।
दरअसल आज ग्लोबल वार्मिंग समूची दुनिया के लिये गम्भीर चुनौती बन चुकी है। यही वजह है जिसके चलते समूची दुनिया के देश इस समस्या का हल ढूँढने की खातिर पेरिस सम्मेलन में इकट्ठा हो रहे हैं। ऐसा लगता है कि अब वह इसकी गम्भीरता को समझ चुके हैं कि यदि अब इस मामले में देर कर दी तो आने वाले दिनों में मानव जीवन का अस्तित्त्व ही समाप्त हो जाएगा।
अभी हाल ही में वर्ल्ड बैंक की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन दुनिया के दस करोड़ लोगों को साल 2030 तक गरीबी में धकेल सकता है। चार करोड़ पचास लाख लोग अकेले भारत में गरीब होंगे। इसका सबसे ज्यादा असर उप सहारा अफ्रीकी और दक्षिण एशियाई देशों पर पड़ेगा।
यहाँ 12 फीसदी खाद्यान्न की कीमतें बढ़ जाएँगी। लिहाजा अफ्रीकी देशों में कुपोषण का स्तर 23 फीसदी बढ़ेगा। अगर स्थिति में जल्दी सुधार नहीं हुए तो फसलों की उपज घटेगी और बीमारियों का प्रकोप भयावह स्थिति अख्तियार कर लेगा। 48 हजार अतिरिक्त बच्चों की डायरिया से मौत होगी। 15 साल से कम आयु के बच्चों में डायरिया का खतरा बढ़ेगा।
रपट की मानें तो जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर फसलों पर पड़ेगा। इसके कारण आज से 15 साल बाद पाँच फीसदी फसलें पूरी तरह बर्बाद हो जाएँगी और 2080 तक यह आँकड़ा 30 फीसदी से अधिक हो जाएगा। उस समय स्थिति इतनी भयावह हो जाएगी कि तब इसका मुकाबला करना आसान नहीं होगा।
ग्लोबल वार्मिंग का परिणाम ग्लेशियरों के पिघलने के रूप में सामने आया है। वह चाहे हिमालय के ग्लेशियर हों या तिब्बत के या फिर वह आर्कटिक ही क्यों न हो, वहाँ पर बर्फ के पिघलने की रफ्तार तेजी से बढ़ रही है। कोई माने या न माने, असलियत यह है कि हिमालय के तकरीब 75 फीसदी ग्लेशियर पिघल रहे हैं।
यदि यही सिलसिला जारी रहा तो बर्फ से ढँकी यह पर्वत शृंखला आने वाले कुछ सालों में बर्फ विहीन हो जाएगी। इसरो ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि हमेशा बर्फ से ढँका रहने वाला हिमालय अब बर्फ विहीन होता जा रहा है। उसके अनुसार सेटेलाइट चित्रों के आधार पर इसकी पुष्टि हो चुकी है कि बीते 15-20 सालों में 3.75 किलोमीटर की बर्फ पिघल चुकी है।
यह बेचैन कर देने वाली स्थिति है। असलियत है कि 75 फीसदी ग्लेशियर पिघलकर झरने और झीलों का रूप अख्तियार कर चुके हैं। सिर्फ आठ फीसदी ही ग्लेशियर स्थिर हैं। वैज्ञानिकों की मानें तो अभी भी कुछ ग्लेशियर बहुत ही अच्छी हालत में हैं। अच्छी बात यह है कि यह ग्लेशियर कभी भी गायब नहीं होंगे।
ग़ौरतलब है कि इसरो का यह अध्ययन हिमालय के ग्लेशियर तेजी से गायब हो रहे हैं, इस मिथ को धता बताने के लिये किया गया था। लेकिन इसके नतीजे काफी परेशान करने वाले निकले। इसरो के इस अभियान को विज्ञान, पर्यावरण और वन मंत्रालय ने मंजूरी दी थी ताकि संयुक्त राष्ट्र की अन्तरराष्ट्रीय रपट का मुँहतोड़ जवाब दिया जा सके।
यह इसलिये किया गया था कि संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण रिपोर्ट में हिमालय के ग्लेशियर गायब होने की बात कही गई थी। अध्ययन के अनुसार यह ग्लेशियर सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र के मुहाने पर स्थित हैं। इसके अलावा इनमें से कई ग्लेशियर चीन, नेपाल, भूटान और पाकिस्तान में भी हैं।
उल्लेखनीय है कि आईपीसीसी ने भी आज से तकरीब आठ साल पहले जारी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 2035 तक हिमालय के सभी ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के चलते खत्म हो जाएँगे। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार आने वाले 200 सालों में ग्लोबल वार्मिंग के चलते आइसलैण्ड के सभी ग्लेशियर खत्म हो जाएँगे। वैज्ञानिकों के अनुसार आइसलैण्ड के तीन सबसे बड़े ग्लेशियर यथा- होफ्जुकुल, लोंगोंकुल और वैटनोजोकुल खतरे में हैं। यह ग्लेशियर समुद्रतल से 1400 मीटर की ऊँचाई पर हैं।
इसके अलावा दक्षिण-पश्चिम चीन के किंवंघई-तिब्बत पठार क्षेत्र के ग्लेशियर भी ग्लोबल वार्मिंग के चलते तेजी से पिघल रहे हैं। तिब्बत के इस क्षेत्र से कई नदियाँ चीन और भारतीय उपमहाद्वीप में निकलती हैं। चीन के विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि तिब्बत के ग्लेशियरों के पिघलने की दर इतनी तेज है जितनी पहले कभी नहीं थी।
शोध के परिणामों से इस बात की पुष्टि होती है कि 2400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ग्लेशियरों का एक बड़ा हिस्सा पिघल चुका है। विशेषज्ञ साल 2005 से ही लगातार इस क्षेत्र में शोध करते आ रहे हैं। उन्होंने यह शोध चीन के किंवंघई प्रांत की यांग्त्सी, एलो और लांसांग नदियों के पानी, भूगर्भ, ग्लेशियरों और दलदलीय भूमि पर किया।
इस शोध में तिब्बत से निकलने वाली ब्रह्मपुत्र और सतलुज पर पड़ने वाले सम्भावित प्रभावों का जिक्र नहीं किया गया है। ग़ौरतलब है कि धरती पर ताजे पानी के सबसे बड़े स्रोत ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन के विश्वसनीय सूचक हैं। प्रान्त के सर्वेक्षण और मैपिंग ब्यूरो के इंजीनियर चेंग हेनिंग के अनुसार यांग्त्सी स्रोत के पाँच फीसदी ग्लेशियर पिछले तीन दशक में पिघल चुके हैं। उनकी मानें तो ग्लेशियरों के पिघलने और जलवायु परिवर्तन में सीधा सम्बन्ध है।
पिछले पचास सालों में तीन मौसम केन्द्रों से प्राप्त आँकड़ों के अनुसार यह साबित हो गया है कि प्रान्त की इन तीनों नदियों के औसत तापमान में लगातार इज़ाफा हो रहा है। वैज्ञानिकों ने इस बात पर जोर दिया है कि जलवायु परिवर्तन के अलावा मानवीय गतिविधियाँ और जरूरत से ज्यादा दोहन भी ग्लेशियरों के पिघलने का एक बड़ा कारण है।
ग्लेशियरों के पिघलने से आर्कटिक क्षेत्र की भविष्य में वैश्विक कार्बन सिंक के रूप में काम करने की क्षमता पर भी बुरा असर पड़ेगा। आर्कटिक पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों ने कहा है कि ग्लेशियरों के पिघलने से आर्कटिक कार्बन को सोखना बहुत कम कर देगा। यह स्थिति समूची दुनिया के लिये बहुत घातक होगी।
ग़ौरतलब है कि अकेले आर्कटिक महासागर और उसकी पूरी भूमि ही पूरी दुनिया का 25 फीसदी कार्बन सोख लेते हैं। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि यदि इसी रफ्तार से बर्फ पिघलती रही तो आने वाले 40 सालों में आर्कटिक बर्फ रहित हो जाएगा। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यह प्रवृत्ति चिन्ता का विषय है। आर्कटिक के इस व्यवहार से ग्लोबल वार्मिंग और बढ़ सकती है।
इस सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। यह जान लेना जरूरी है कि आर्कटिक महासागर और भूमि मिलकर विश्व का तकरीब 25 फीसदी कार्बन सोख लेते हैं। ग्लेशियर और हिमखंड पिघलने का तात्पर्य यह हुआ कि कम असरदार कार्बन सिंक होगा। इससे ग्लोबल वार्मिंग तेजी से बढ़ सकती है। सामान्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि आर्कटिक बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करने की अपनी क्षमता को खो देगा।
यह कार्बन डाइऑक्साइड हवा या यूँ कहें कि वातावरण में ही रह जाएगी और अन्ततः ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने के कारण के रूप में काम करेगी। दरअसल वैज्ञानिक न केवल बर्फ के पिघलने से चिन्तित हैं बल्कि वह इससे समुद्र के स्तर में होने वाले इजाफें को लेकर भी चिन्तित हैं।
उनका मानना है कि आने वाले 30-40 सालों में समूचा आर्कटिक क्षेत्र बर्फ से मुक्त हो जाएगा। उनके अनुसार बीते पाँच सालों में इस क्षेत्र में तेजी से बर्फ पिघली है। बर्फ के पिघलने के साथ ही वैश्विक कार्बन चक्र में भी बदलाव आएगा।
मौजूदा समय में समुद्र के गरम होने की चुनौती सबसे बड़ी है। इससे निपटना आसान नहीं है। दरअसल इससे समुद्र का जलस्तर तेजी से बढ़ सकता है। कार्बन उर्त्सजन की वर्तमान स्थिति के कारण ग्लोबल वार्मिंग को काबू नहीं किया गया तो मुम्बई सहित समुद्र किनारे बसे दुनिया के कई बड़े शहर पानी में डूब जाएँगे।
क्लाईमेट सेंटर की अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर तापमान बढ़ोत्तरी की दर चार डिग्री या दो डिग्री सेल्सियस रहती है तो दुनिया के बड़े-बड़े शहर समुद्र में डूब जाएँगे। अगर ऐसा होता है तो समूचा तटीय जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा। दक्षिण एशिया के तटीय इलाकों में विशेषतः बांग्लादेश, पाकिस्तान और भारत में वर्तमान में तकरीब 13 करोड़ रहते हैं।
इसको कम ऊँचाई वाला तटीय क्षेत्र कहा जाता है। यह औसत समुद्र के जलस्तर से 10 मीटर से कम ऊँचा होता है। विशेषज्ञों का मानना है कि समुद्र का जलस्तर ऊँचा उठने से इस सदी के आखिर तक लगभग 12.5 करोड़ लोग बेघर हो जाएँगे। इनमें 7.5 करोड़ लोग बांग्लादेश से और बाकी घनी आबादी वाले तटीय भारतीय प्रदेशों के लोग होंगे।
इन हालात में पेरिस में आयोजित इस जलवायु सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन समझौता इसको नियंत्रित करने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है। यह तभी सम्भव है जबकि इस सम्मेलन में भाग लेने वाले देश कार्बन उर्त्सजन में कमी लाने के संकल्प पत्र पर हस्ताक्षर करें।
वैसे अब तक का इतिहास तो इसकी गवाही नहीं देता और बीते कई सम्मेलन इस मामले में असफल ही साबित हुए हैं, इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। पेरिस सम्मेलन में यदि ऐसा हुआ तो समूचे विश्व के लिये यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी और वह पल दुनिया की सबसे तेजी से प्रगति करती अर्थव्यवस्था वाले देश भारत के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होगा।
दरअसल आज ग्लोबल वार्मिंग समूची दुनिया के लिये गम्भीर चुनौती बन चुकी है। यही वजह है जिसके चलते समूची दुनिया के देश इस समस्या का हल ढूँढने की खातिर पेरिस सम्मेलन में इकट्ठा हो रहे हैं। ऐसा लगता है कि अब वह इसकी गम्भीरता को समझ चुके हैं कि यदि अब इस मामले में देर कर दी तो आने वाले दिनों में मानव जीवन का अस्तित्त्व ही समाप्त हो जाएगा।
अभी हाल ही में वर्ल्ड बैंक की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन दुनिया के दस करोड़ लोगों को साल 2030 तक गरीबी में धकेल सकता है। चार करोड़ पचास लाख लोग अकेले भारत में गरीब होंगे। इसका सबसे ज्यादा असर उप सहारा अफ्रीकी और दक्षिण एशियाई देशों पर पड़ेगा।
यहाँ 12 फीसदी खाद्यान्न की कीमतें बढ़ जाएँगी। लिहाजा अफ्रीकी देशों में कुपोषण का स्तर 23 फीसदी बढ़ेगा। अगर स्थिति में जल्दी सुधार नहीं हुए तो फसलों की उपज घटेगी और बीमारियों का प्रकोप भयावह स्थिति अख्तियार कर लेगा। 48 हजार अतिरिक्त बच्चों की डायरिया से मौत होगी। 15 साल से कम आयु के बच्चों में डायरिया का खतरा बढ़ेगा।
रपट की मानें तो जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर फसलों पर पड़ेगा। इसके कारण आज से 15 साल बाद पाँच फीसदी फसलें पूरी तरह बर्बाद हो जाएँगी और 2080 तक यह आँकड़ा 30 फीसदी से अधिक हो जाएगा। उस समय स्थिति इतनी भयावह हो जाएगी कि तब इसका मुकाबला करना आसान नहीं होगा।
ग्लोबल वार्मिंग का परिणाम ग्लेशियरों के पिघलने के रूप में सामने आया है। वह चाहे हिमालय के ग्लेशियर हों या तिब्बत के या फिर वह आर्कटिक ही क्यों न हो, वहाँ पर बर्फ के पिघलने की रफ्तार तेजी से बढ़ रही है। कोई माने या न माने, असलियत यह है कि हिमालय के तकरीब 75 फीसदी ग्लेशियर पिघल रहे हैं।
यदि यही सिलसिला जारी रहा तो बर्फ से ढँकी यह पर्वत शृंखला आने वाले कुछ सालों में बर्फ विहीन हो जाएगी। इसरो ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि हमेशा बर्फ से ढँका रहने वाला हिमालय अब बर्फ विहीन होता जा रहा है। उसके अनुसार सेटेलाइट चित्रों के आधार पर इसकी पुष्टि हो चुकी है कि बीते 15-20 सालों में 3.75 किलोमीटर की बर्फ पिघल चुकी है।
यह बेचैन कर देने वाली स्थिति है। असलियत है कि 75 फीसदी ग्लेशियर पिघलकर झरने और झीलों का रूप अख्तियार कर चुके हैं। सिर्फ आठ फीसदी ही ग्लेशियर स्थिर हैं। वैज्ञानिकों की मानें तो अभी भी कुछ ग्लेशियर बहुत ही अच्छी हालत में हैं। अच्छी बात यह है कि यह ग्लेशियर कभी भी गायब नहीं होंगे।
ग़ौरतलब है कि इसरो का यह अध्ययन हिमालय के ग्लेशियर तेजी से गायब हो रहे हैं, इस मिथ को धता बताने के लिये किया गया था। लेकिन इसके नतीजे काफी परेशान करने वाले निकले। इसरो के इस अभियान को विज्ञान, पर्यावरण और वन मंत्रालय ने मंजूरी दी थी ताकि संयुक्त राष्ट्र की अन्तरराष्ट्रीय रपट का मुँहतोड़ जवाब दिया जा सके।
यह इसलिये किया गया था कि संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण रिपोर्ट में हिमालय के ग्लेशियर गायब होने की बात कही गई थी। अध्ययन के अनुसार यह ग्लेशियर सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र के मुहाने पर स्थित हैं। इसके अलावा इनमें से कई ग्लेशियर चीन, नेपाल, भूटान और पाकिस्तान में भी हैं।
उल्लेखनीय है कि आईपीसीसी ने भी आज से तकरीब आठ साल पहले जारी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 2035 तक हिमालय के सभी ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग के चलते खत्म हो जाएँगे। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार आने वाले 200 सालों में ग्लोबल वार्मिंग के चलते आइसलैण्ड के सभी ग्लेशियर खत्म हो जाएँगे। वैज्ञानिकों के अनुसार आइसलैण्ड के तीन सबसे बड़े ग्लेशियर यथा- होफ्जुकुल, लोंगोंकुल और वैटनोजोकुल खतरे में हैं। यह ग्लेशियर समुद्रतल से 1400 मीटर की ऊँचाई पर हैं।
इसके अलावा दक्षिण-पश्चिम चीन के किंवंघई-तिब्बत पठार क्षेत्र के ग्लेशियर भी ग्लोबल वार्मिंग के चलते तेजी से पिघल रहे हैं। तिब्बत के इस क्षेत्र से कई नदियाँ चीन और भारतीय उपमहाद्वीप में निकलती हैं। चीन के विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि तिब्बत के ग्लेशियरों के पिघलने की दर इतनी तेज है जितनी पहले कभी नहीं थी।
शोध के परिणामों से इस बात की पुष्टि होती है कि 2400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में ग्लेशियरों का एक बड़ा हिस्सा पिघल चुका है। विशेषज्ञ साल 2005 से ही लगातार इस क्षेत्र में शोध करते आ रहे हैं। उन्होंने यह शोध चीन के किंवंघई प्रांत की यांग्त्सी, एलो और लांसांग नदियों के पानी, भूगर्भ, ग्लेशियरों और दलदलीय भूमि पर किया।
इस शोध में तिब्बत से निकलने वाली ब्रह्मपुत्र और सतलुज पर पड़ने वाले सम्भावित प्रभावों का जिक्र नहीं किया गया है। ग़ौरतलब है कि धरती पर ताजे पानी के सबसे बड़े स्रोत ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन के विश्वसनीय सूचक हैं। प्रान्त के सर्वेक्षण और मैपिंग ब्यूरो के इंजीनियर चेंग हेनिंग के अनुसार यांग्त्सी स्रोत के पाँच फीसदी ग्लेशियर पिछले तीन दशक में पिघल चुके हैं। उनकी मानें तो ग्लेशियरों के पिघलने और जलवायु परिवर्तन में सीधा सम्बन्ध है।
पिछले पचास सालों में तीन मौसम केन्द्रों से प्राप्त आँकड़ों के अनुसार यह साबित हो गया है कि प्रान्त की इन तीनों नदियों के औसत तापमान में लगातार इज़ाफा हो रहा है। वैज्ञानिकों ने इस बात पर जोर दिया है कि जलवायु परिवर्तन के अलावा मानवीय गतिविधियाँ और जरूरत से ज्यादा दोहन भी ग्लेशियरों के पिघलने का एक बड़ा कारण है।
ग्लेशियरों के पिघलने से आर्कटिक क्षेत्र की भविष्य में वैश्विक कार्बन सिंक के रूप में काम करने की क्षमता पर भी बुरा असर पड़ेगा। आर्कटिक पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों ने कहा है कि ग्लेशियरों के पिघलने से आर्कटिक कार्बन को सोखना बहुत कम कर देगा। यह स्थिति समूची दुनिया के लिये बहुत घातक होगी।
ग़ौरतलब है कि अकेले आर्कटिक महासागर और उसकी पूरी भूमि ही पूरी दुनिया का 25 फीसदी कार्बन सोख लेते हैं। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि यदि इसी रफ्तार से बर्फ पिघलती रही तो आने वाले 40 सालों में आर्कटिक बर्फ रहित हो जाएगा। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यह प्रवृत्ति चिन्ता का विषय है। आर्कटिक के इस व्यवहार से ग्लोबल वार्मिंग और बढ़ सकती है।
इस सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। यह जान लेना जरूरी है कि आर्कटिक महासागर और भूमि मिलकर विश्व का तकरीब 25 फीसदी कार्बन सोख लेते हैं। ग्लेशियर और हिमखंड पिघलने का तात्पर्य यह हुआ कि कम असरदार कार्बन सिंक होगा। इससे ग्लोबल वार्मिंग तेजी से बढ़ सकती है। सामान्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि आर्कटिक बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करने की अपनी क्षमता को खो देगा।
यह कार्बन डाइऑक्साइड हवा या यूँ कहें कि वातावरण में ही रह जाएगी और अन्ततः ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने के कारण के रूप में काम करेगी। दरअसल वैज्ञानिक न केवल बर्फ के पिघलने से चिन्तित हैं बल्कि वह इससे समुद्र के स्तर में होने वाले इजाफें को लेकर भी चिन्तित हैं।
उनका मानना है कि आने वाले 30-40 सालों में समूचा आर्कटिक क्षेत्र बर्फ से मुक्त हो जाएगा। उनके अनुसार बीते पाँच सालों में इस क्षेत्र में तेजी से बर्फ पिघली है। बर्फ के पिघलने के साथ ही वैश्विक कार्बन चक्र में भी बदलाव आएगा।
मौजूदा समय में समुद्र के गरम होने की चुनौती सबसे बड़ी है। इससे निपटना आसान नहीं है। दरअसल इससे समुद्र का जलस्तर तेजी से बढ़ सकता है। कार्बन उर्त्सजन की वर्तमान स्थिति के कारण ग्लोबल वार्मिंग को काबू नहीं किया गया तो मुम्बई सहित समुद्र किनारे बसे दुनिया के कई बड़े शहर पानी में डूब जाएँगे।
क्लाईमेट सेंटर की अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर तापमान बढ़ोत्तरी की दर चार डिग्री या दो डिग्री सेल्सियस रहती है तो दुनिया के बड़े-बड़े शहर समुद्र में डूब जाएँगे। अगर ऐसा होता है तो समूचा तटीय जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा। दक्षिण एशिया के तटीय इलाकों में विशेषतः बांग्लादेश, पाकिस्तान और भारत में वर्तमान में तकरीब 13 करोड़ रहते हैं।
इसको कम ऊँचाई वाला तटीय क्षेत्र कहा जाता है। यह औसत समुद्र के जलस्तर से 10 मीटर से कम ऊँचा होता है। विशेषज्ञों का मानना है कि समुद्र का जलस्तर ऊँचा उठने से इस सदी के आखिर तक लगभग 12.5 करोड़ लोग बेघर हो जाएँगे। इनमें 7.5 करोड़ लोग बांग्लादेश से और बाकी घनी आबादी वाले तटीय भारतीय प्रदेशों के लोग होंगे।
इन हालात में पेरिस में आयोजित इस जलवायु सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन समझौता इसको नियंत्रित करने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है। यह तभी सम्भव है जबकि इस सम्मेलन में भाग लेने वाले देश कार्बन उर्त्सजन में कमी लाने के संकल्प पत्र पर हस्ताक्षर करें।
वैसे अब तक का इतिहास तो इसकी गवाही नहीं देता और बीते कई सम्मेलन इस मामले में असफल ही साबित हुए हैं, इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। पेरिस सम्मेलन में यदि ऐसा हुआ तो समूचे विश्व के लिये यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी और वह पल दुनिया की सबसे तेजी से प्रगति करती अर्थव्यवस्था वाले देश भारत के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होगा।