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हम अभी भी भारी मात्रा में पानी सोखने वाली गन्ना और धान की फसलों का उत्पादन कर रहे हैं, वह भी ऐसे इलाकों में जहाँ पानी की भारी कमी है। जबकि पानी की कमी वाले क्षेत्रों में वहाँ की जलवायु के हिसाब से फसलों की खेती की जाने की बेहद जरूरत है। यह समय की मांग है।
जलवायु परिवर्तन की समस्या से समूचा विश्व जूझ रहा है। इससे निपटने की दिशा में बीते बरसों में कोपेनहेगन, वारसा, दोहा, पेरिस हो या फिर बॉन में हो चुके सम्मेलन। लेकिन जैस कि इन सम्मेलनों से उम्मीद थी, प्रस्ताव पास करने और संकल्प लेने के अलावा अभी तक कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आ सका है। पर्यावरण में हो रहे प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन को कम करने की दिशा में अभी भी हमें कोई खास सफलता हासिल नहीं हो सकी है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि मौजूदा दौर में जिस तेजी से तापमान में बढ़ोतरी हो रही है, उससे ऐसा लगता है कि आने वाले 50-60 साल बाद तापमान में बढ़ोतरी की दर 3 से 3.5 डिग्री तक हो जायेगी। विश्व के वैज्ञानिकों ने इसकी प्रबल आशंका व्यक्त की है। उनके अनुसार यदि ऐसा हुआ तो यह पूरी दुनिया के लिये बहुत बड़ा खतरा होगा।क्योंकि इस खतरे का मुकाबला आसान नहीं है। इस चुनौती से निपटना बेहद जरूरी है। यदि अभी तक का जायजा लें तो बॉन सम्मेलन से पहले हुए पेरिस सम्मेलन में तापमान बढ़ोतरी की सुझाई गई आदर्श स्थिति 1.5 डिग्री का सपना आज भी सपना ही है। विडम्बना यह है कि हाल-फिलहाल में भी इसकी कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती। खतरे की भयावहता का अंदाजा इस बात से ही लग जाता है कि मौजूदा दौर में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा खतरनाक स्तर तक पहुँच चुकी है। वैसे भी जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से आज क्या मानव, जीव-जन्तु, पक्षी, जलचर, जल, जलस्रोत, संपूर्ण जलचक्र, पारम्परिक जलस्रोत, वर्षा, वायु, स्वास्थ्य, खाद्यान्न, कृषि, जैवविविधता आदि कुछ भी ऐसा नहीं है जो अछूता हो।
यहाँ तक इससे चावल, गेहूॅं आदि मुख्य अनाजों की पोषकता में भी दिनोंदिन कमी आती जा रही है। और तो और साल 2050 तक दुनिया की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा प्रोटीन की कमी से जूझ रहा होगा। खासकर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के कृषि उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। ऐसी हालत में इस सदी के अंत तक इंसानों के घरों से बाहर निलकलने की बात तो दीगर है, रह सकना भी संभव नहीं होगा। यह जानकर ही दिल दहल उठता है। असल में आज सभी अपने अस्तित्व के लिये जूझ रहे हैं। इसके समाधान के बिना प्राणी जगत के अस्तित्व पर खतरा अवश्यंभावी है। यह समस्या की विकरालता का जीता-जागता सबूत है।
जलवायु परिवर्तन के चलते ही मौसम की चाल में बदलाव आ रहा है। उसी का ही नतीजा है कि अमेरिका में सर्दियों का दायरा एक महीने तक सिकुड़ गया है। नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फीयरिक एडमिनिस्ट्रेशन यानी एनओएए के मौसम वैज्ञानिक केन कनकेल की मानें तो ग्लोबल वार्मिंग और कार्बन उत्सर्जन में लगातार हो रही बढ़ोतरी अमेरिका में सर्दियों के चक्र में बदलाव की मुख्य वजह है। यही नहीं अलनीनों और ला-लीना जैसे कारकों से हवा के प्रवाह में होने वाले बदलाव भी इसके लिये कम जिम्मेदार नहीं हैं। उनके अनुसार साल 2016 में सर्दियों का मौसम 1916 के मुकाबले तकरीबन एक महीने कम टिका। तात्पर्य यह कि 2016 में ठंड की दस्तक सौ साल पहले के मुकाबले एक महीने देरी से हुई। उत्तर-पश्चिम प्रशांत क्षेत्र में तो स्थिति इससे भी चिंताजनक थी।
यहाँ के ऑरेगॉन प्रांत में बीते साल ठंड की अवधि 61 दिन कम दर्ज की गई। देखा जाये तो 20वीं सदी में ओटावा में सर्दी की दस्तक की तिथि 15 अक्टूबर थी। यह 2010 में बढ़कर 26 अक्टूबर हुई और 2016 में यह 12 नवम्बर हो गई। असल में इससे जहाँ सेब, आड़ू जैसे फलों की पैदावार कम हुई वहीं मक्का, बाजरा, कपास, धान सहित अन्य दूसरी फसलों के उत्पादन के लिये ज्यादा समय मिल रहा है। पेड़, पौधों को नुकसान पहुँचाने वाले कीटों के लिये फलने-फूलने के लिये ज्यादा समय मिल जाता है, वहीं पशु-पक्षियों के पलायन पर भी विपरीत असर पड़ रहा है। सर्दियाँ कम होने से हीटर, ब्लोअर, गीजर पर बिजली की बर्बादी घटी है लेकिन ज्यादा गर्मी पड़ने से बर्फीली चट्टानों के पिघलने और समुद्री जलस्तर बढ़ने का खतरा मंडरा रहा है। यह विनाश का संकेत है।
इसमें भी दो राय नहीं है कि जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री तापमान बढ़ने से समुद्री जीव जंतु और दुनिया की खूबसूरत प्रजाति की मछलियों के अस्तित्व पर भी खतरा मंडरा रहा है। क्लाउनफिश जैसी सुन्दर मछली का तो वजूद ही खतरे में पड़ गया है। असलियत में इससे समुद्र के भीतर पाये जाने वाले खास तरह के जीव ‘सी एनीमोन्स‘ का अस्तित्व खतरे में है। क्लाउनफिश इन्हीं जीवों को अपना घर बनाकर रहती है। वह अपने अंडे भी इन्हीं के अंदर सुरक्षित रखती है और इसी की मदद से अपने बच्चों को पालती-पोसती है। लेकिन सी एनीमोन्स के खत्म होने से इन मछलियों के वजूद पर ही संकट आ गया है। 2016 में आये अलनीनों तूफान ने सी एनीमोन्स जीवों पर खासा बुरा असर डाला है।
इसके अलावा दूषित पर्यावरण, प्रदूषित समुद्री जल और औद्योगिक इकाइयों द्वारा समुद्र में बहकर आने वाला कचरा इन जीवों के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर रहा है। समुद्री जल के तापमान में बढ़ोतरी के कारण इन जीवों पर रहने वाले बैक्टीरिया खत्म होते जा रहे हैं जिससे तकरीबन आधे से अधिक जीवों की सतह सफेद पड़ने लगी है। नतीजतन इनके ऊपर पाये जाने वाले क्लाउनफिश के अंडों में 73 फीसदी की कमी आयी है। इस तथ्य को फ्रांस के सीएनआरएस रिसर्च इंस्टीट्यूट ने भी प्रमाणित किया है।
सबसे अहम बात यह है कि जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। वैसे तो प्राणी मात्र का जल, जलस्रोत, वायु, जैवविविधता, वन्यजीव, वर्षा, स्वास्थ्य, जीवजंतु, जलचर, पक्षी, खाद्यान्न आदि प्रकृति से जुड़ी हर एक वस्तु से अभिन्न रूप से सम्बंध है या यूँ कहें कि इनके बिना प्राणी मात्र अधूरा है। लेकिन इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि आज ये सभी जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की चपेट में है। खाद्यान्न के बिना मानव का जीना असंभव है। जब कृषि ही जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से अछूती नहीं है, उस दशा में मानव के जीवन की आशा बेमानी होगी। इसलिए जरूरी है कि जलवायु के अनुकूल खेती की जाये। साथ ही पानी का बेहतर तरीके से इस्तेमाल कर आगे बढ़ा जाये। ऐसी दशा में ऐसा करना ही लाभप्रद होगा।
इससे ही जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का मुकाबला कर पाना संभव होगा। बाढ़, सूखा, ओलावृष्टि जैसी आपदाओं को दृष्टिगत रखते हुए कृषि की विशिष्ट नीति बनाये जाने की बेहद जरूरत है। यदि प्राकृतिक संसाधनों के अनुरूप खेती नहीं की जायेगी तो कृषि क्षेत्र को विनाशकारी परिणामों से बचाना असंभव होगा। नाबार्ड के चेयरमैन हर्ष कुमार भांवला की मानें तो जमीन के बजाय पानी पर आधारित कृषि ही बेहतर विकल्प है। देश की 52 फीसदी कृषि भूमि जल से परिपूर्ण है। जिन इलाकों में जलस्रोत और जंगल कम हैं, वहाँ किसानों की समस्यायें अधिक हैं और उन्हीं में किसानों की आत्महत्याओं के मामले अधिक सामने आये हैं। इसलिए जल संरक्षण को महत्त्व देकर किसानों को परेशानियों से बचाया जा सकता है। इस बारे में राष्ट्रीय जल संचयन क्षेत्र प्राधिकरण के अध्यक्ष अशोक दलवई का कहना है कि भारत ने कभी भी क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर की तरफ ध्यान नहीं दिया।
हम अभी भी भारी मात्रा में पानी सोखने वाली गन्ना और धान की फसलों का उत्पादन कर रहे हैं, वह भी ऐसे इलाकों में जहाँ पानी की भारी कमी है। जबकि पानी की कमी वाले क्षेत्रों में वहाँ की जलवायु के हिसाब से फसलों की खेती की जाने की बेहद जरूरत है। यह समय की मांग है।
भारत के मामले में देखा जाये तो यह साफ है कि जलवायु परिवर्तन का खतरा भारत पर ज्यादा है। इस तथ्य को हमारे केन्द्रीय मंत्री सुरेश प्रभु खुद स्वीकारते हैं। यहाँ संसाधन भी कम हैं जबकि आबादी बहुत ज्यादा। मौसम की मार का दंश भी हमारा देश कम नहीं झेल रहा। प्रदूषण से त्राहि-त्राहि मची हुई है। बीते माह इसका ज्वलंत प्रमाण है। यह जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है। यह बात दीगर है कि भारत पेरिस जलवायु समझौते के अनुरूप काम कर रहा है लेकिन अकेले भारत द्वारा पेरिस करार पर अमल करने से कुछ नहीं होने वाला। अमेरिका जैसे कुछ देश अब भी इस पर नानुकुर की स्थिति में हैं।
या यूँ कहें कि वे इस समझौते से हट रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि दुनिया के तकरीब 190 से अधिक देशों ने दिसम्बर 2015 में पेरिस में हुए करार पर अपनी सहमति दी थी। तात्पर्य यह कि उतना ही कार्बन उत्सर्जन हो जितना जंगल और समुद्र सोखने में समर्थ हों। लेकिन समझौते के क्रियान्वयन पर बड़े देशों की ढिलाई प्रमाण है कि साल 2050 तक दुनिया को कार्बन न्यूट्रल बनाने का लक्ष्य सपना ही रहेगा। बहरहाल इस खतरे से लड़ना हमारा पहला धर्म और कर्तव्य है। धरती के बढ़ते ताप को और इसके लिये दूसरों को कोसने से कुछ नहीं होने वाला। हमें कुछ करना ही होगा। तभी बात बनेगी। इसे अमेरिका के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।