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राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप), 19 दिसम्बर 2015
पेरिस जलवायु सम्मेलन, 30 नवम्बर-12 दिसम्बर 2015 पर विशेष
शोधों के आधार पर 98 प्रतिशत से ज्यादा वैज्ञानिक मानते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परस्पर सम्बद्ध हैं। ग्लोबल वार्मिग का आशय समूचे ग्रह का तापमान बढ़ने से है, जबकि जलवायु परिवर्तन, जलवायु के लक्षणों में आये परिवर्तनों से है। इन लक्षणों में तापमान, आर्द्रता, वर्षा, हवा और लम्बे समय तक बनी रहने वाली मौसमी अवस्थाएँ आदि शामिल हैं। सरल शब्दों में कहें तो जब कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ-2) के उत्सर्जन से पृथ्वी गरमाती है तो जलवायु में परिवर्तन आरम्भ हो जाते हैं। सुहावना मौसम है’- यही तो हैं वे शब्द जिनसे आप किसी के साथ बातचीत का सिलसिला शुरू करते हैं। अब अच्छा यही रहेगा कि जब-जब किसी से मिलें तो कुछ और कहना शुरू कर दें। कारण, जितना आप इन्हें उच्चार रहे होते हैं, उतनी तेजी से ये अपनी ताब खोते जा रहे हैं। बदलाव का कारण और अपने कहे के मर्म में खो जाने का सबब जलवायु परिवर्तन है।
पेरिस में हाल में सम्पन्न ‘कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज’ (सीओपी 21) कॉन्फ्रेंस में 150 से ज्यादा देशों के नेता जुटे थे ताकि अपने तई बता सकें कि जलवायु परिवर्तन के लिये वे क्या कर सकते हैं। दरअसल, जलवायु परिवर्तन को लेकर बना कोलाहल अब खाने की मेज पर चर्चा का विषय बन चुका है।
अरसे से मौसमी घटनाएँ गम्भीर विषय के तौर पर चर्चा का केन्द्र बनती रही हैं, लेकिन वैज्ञानिक शोधों से अब हम इन संकेतों को समझने की स्थिति में हैं कि वातावरण में छोड़ी जा रही कार्बन गैसों के चलते कुछ मौसमी परिवर्तन खासे तेजी से हो रहे हैं। ये बदलाव अति का रूप लेते जा रहे हैं।
शोधों के आधार पर 98 प्रतिशत से ज्यादा वैज्ञानिक मानते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परस्पर सम्बद्ध हैं। ग्लोबल वार्मिंग का आशय समूचे ग्रह का तापमान बढ़ने से है, जबकि जलवायु परिवर्तन जलवायु के लक्षणों में आये परिवर्तनों से है।
इन लक्षणों में तापमान, आर्द्रता, वर्षा, हवा और लम्बे समय तक बनी रहने वाली मौसमी अवस्थाएँ आदि शामिल हैं। सरल शब्दों में कहें तो जब कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ-2) के उत्सर्जन से पृथ्वी गरमाती है तो जलवायु में परिवर्तन आरम्भ हो जाते हैं। और मौसमी परिवर्तन अति बदलाव की शक्ल अख्तियार कर लेते हैं। ये बदलाव आम हो जाते हैं।
हम इतने चिन्तित क्यों हैं?
काफी समय से मौसमी घटनाओं में तेजी से असमानताएँ आ रही हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों और रिपोर्टों से पता चलता है कि इनमें से कुछेक तो जलवायु परिवर्तन के चलते हैं।
भारत का 60 प्रतिशत कृषि क्षेत्र वर्षा-आधारित है। ऐसे में मौसमी बदलाव में तनिक भी बदलाव का समूची अर्थव्यवस्था पर खासा प्रभाव पड़ना लाज़िमी है। कनसास स्टेट यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, प्रोजेक्टेड मीन टेम्परेचर में एक प्रतिशत इज़ाफा भी गेहूँ की उपज में करीब 21 प्रतिशत गिरावट ला सकता है।
इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, विश्व के विभिन्न भागों में जलवायु परिवर्तन का असर कृषि उपज और खाद्यान्न उत्पादन पर परिलक्षित भी होने लगा है।
वैज्ञानिक अभी यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि ये बदलाव किस प्रकार से कीट-रोधी और उपज-रुग्णता को रोकने में सक्षम हो सकेंगे। इतना ही नहीं हम कश्मीर में आई बाढ़, बीते मार्च महीने में ओलावृष्टि और अभी तमिलनाडु में भीषण बाढ़ जैसी घटनाओं से जलवायु के बिगड़ते मिज़ाज का अन्दाजा लगा सकते हैं।
सो, सबसे पहले जो सवाल हमारे जेहन में उभरता है, वह है कि जलवायु परिवर्तन किस कारण होता है? जब जीवाश्म ईंधन, कोयला, तेल एवं प्राकृतिक गैस जलाए जाते हैं, तो वे कार्बन डाइऑक्साइड का वायुमंडल में उत्सर्जन करते हैं। इस कारण से ग्रीनहाऊस गैस सघन हो जाती हैं, फलस्वरूप धरती गरमाने लगती है। अभी जीवाश्म ईंधन का तेजी से जलाया जाना जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण है।
मात्र जीवाश्म ईंधन जलाने का तमाम इनसानों द्वारा किये गए सीओ-2 के उत्सर्जन में अभी 70-90 प्रतिशत हिस्सा है। जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल यातायात, विनिर्माण गतिविधियों, प्रशीतन, हीटिंग, विद्युत उत्पादन और अन्य अनुप्रयोगों में किया जाता है।
बाकी का सीओ-2 उत्सर्जन भूमि-उपयोग गतिविधियों-रांचिंग, कृषि तथा वनों के कटान तथा वनों के कम होते क्षेत्र के कारण से होता है। अन्य ग्रीनहाऊस गैसों के प्राथमिक स्रोतों में जीवाश्म ईंधन का उत्पादन और परिवहन, कृषि सम्बन्धी गतिविधियाँ, अवशिष्ट निपटान और औद्योगिक प्रक्रियाएँ शामिल हैं।
कितना कार्बन स्पेस बच रहा है?
आईपीसीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, विश्व के वायुमंडल का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे बनाए रखने के लिये कुल कार्बन स्पेस करीब 2900 बिलियन टन सीओ-2 होना चाहिए। इसमें से करीब 1900 बिलियन टन सीओ-2 का पहले ही ज्यादातर विकसित देशों ने उपयोग कर लिया है।
अब वर्ष 2100 तक विश्व के पास उपयोग करने के लिये करीब एक हजार बिलियन टन सीओ-2 बच रहा है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के एक अध्ययन के मुताबिक, अगर विश्व में उत्सर्जन की वही दर बनी रही जैसी कि अब तक रही है, तो हम बाकी बचे कार्बन बजट का 75 प्रतिशत 2030 तक ही खत्म कर चुके होंगे।
अगर हमने 2 डिग्री की सीमा को पार किया तो क्या होगा?
आईपीसीसी के मुताबिक, विश्व पहले ही पूर्व-औद्योगिक औसत से 0.85 डिग्री सेल्सियस अधिक गरमा चुका है। अगर उत्सर्जन की यही रफ्तार बनी रही तो हम 2010 तक तीन से पाँच डिग्री सेल्सियस के बीच पहुँच चुके होंगे। दो डिग्री सेल्सियस की सीमा पार कर जाने का अर्थ होगा कि हमें खतरनाक वन आग, अति मौसमी स्थितियों, बाढ़, सूखे और ऐसे ही अन्य अनेक जलवायु दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ेगा।
कौन सर्वाधिक उत्सर्जन कर रहा है?
विश्व के कुल उत्सर्जन के मद्देनज़र भारत विश्व में चौथे स्थान पर है। वर्ष 2012 में लगाए गए आकलन से यह निष्कर्ष निकला है। अगर प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के नज़रिए से देखें तो भारत 129वें स्थान पर है।
जो सबसे ज्यादा उत्सर्जक | ||
देश | भूमि उपयोग परिवर्तन व वनों को छोड़कर कुल सीओ-2 उत्सर्जन | भूमि उपयोग परिवर्तन व वनों को छोड़कर कुल जीएचजी उत्सर्जन |
चीन | 9312.53 | 8.13 |
अमरीका | 5122.91 | 1986 |
यूरोप संघ (28) | 3610.51 | 8.77 |
भारत | 2075.18 | 2.44 |
रशियन फेडरेशन | 1721.54 | 16.22 |
जापान | 1249.21 | 10.54 |
जर्मनी | 773.96 | 11.03 |
दक्षिणी कोरिया | 617.24 | 13.87 |
इरान | 593.82 | 9.36 |
कनाडा | 543.02 | 20.55 |
लेखक, क्लाइमेट चेंज, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के कार्यक्रम अधिकारी हैं।
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