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सप्रेस/थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क फीचर्स, मार्च 2015
इस महाद्वीप में एक भी बड़ी टार सेण्ड पाइप लाइन नहीं बची थी जिसे जनविरोध का सामना न करना पड़ा हो। इस तरह के विरोध से न केवल जलवायु परिवर्तन और जीवाश्म ईंधन के आपसी सम्बन्धों पर स्थिति स्पष्ट हुई बल्कि कुछ हद तक तेल निकालने वाली परियोजनाएँ भी दबाव में आई। अनेक देश व भूस्वामी अब इसके विरोध में खड़े हैं और जोखिम से प्रभावित वैश्विक समुदाय अब जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की अनदेखी नहीं करना चाहता इसीलिए यह आन्दोलन दिन-प्रतिदिन जोर पकड़ता जा रहा है। आप विज्ञान की उपेक्षा कर सकते हो, विज्ञान का विरोध कर सकते हो या ऐसी राजनीति के समर्थक हो सकते हो जिसका विज्ञान में विश्वास न हो, लेकिन आप विज्ञान को परिवर्तित नहीं कर सकते। वर्ष 2014 को अब तक के सबसे गर्म वर्ष के खिताब से नवाजा गया है, परन्तु यह लगातार 38वाँ ऐसा वर्ष है जिसमें कि तापमान औसत से अधिक रहा है।
कैलिफ़ोर्निया मानव स्मृति के सबसे बड़े अकाल-की चपेट मेें है और बढ़ती तीव्रता के साथ ‘‘शताब्दी में एक ही बार” आने वाले तूफान,बाढ़ें, आगजनी, और अकाल तो जैसे चुटकुले हो गए हैं। ‘‘बिग आइल” (पेट्रेालियम में 40 प्रतिशत की हिस्सेदारी) इस तथ्य को नहीं झुठला सकती कि उनके उत्पादों की वजह से भयानक जलवायु परिवर्तन हो रहा है। न ही दुनिया अब इस सत्य से मुँह मोड़ सकती हैं कि अधिकांश जीवाश्म ईंधन को ज़मीन के भीतर ही रहना चाहिए। विज्ञान तो इस मसले पर निश्चयात्मक है और दूसरी ओर निर्णय लेने वालों के पास इसे गम्भीरता से लेने के उपक्रम घटते जा रहे हैं।
पिछले वर्ष सितम्बर में न्यूयार्क में 4 लाख लोेेेगों ने इतिहास के अब तक के सबसे बड़े जलवायु मार्च में भाग लिया और विश्व के सैकड़ों अन्य नगरों में भी हजारों-हजार लोेग ऐसे मार्च में शामिल हुए थे। पूरे उत्तरी अमेरिका के निवासियों ने ‘‘टार सेण्ड” की पाइप लाइनों को रोक दिया। इस महाद्वीप में एक भी बड़ी टार सेण्ड पाइप लाइन नहीं बची थी जिसे जनविरोध का सामना न करना पड़ा हो।
इस देरी से प्रदूषण पर थोड़े समय के लिए रोक लगी और जीवाश्म (फासिल्स) ईंधन से बढ़ते जोखिम पर भी लोेगों का ध्यान गया। इस तरह के विरोध से न केवल जलवायु परिवर्तन और जीवाश्म ईंधन के आपसी सम्बन्धों पर स्थिति स्पष्ट हुई बल्कि कुछ हद तक तेल निकालने वाली परियोजनाएँ भी दबाव में आई। अनेक देश व भूस्वामी अब इसके विरोध में खड़े हैं और जोखिम से प्रभावित वैश्विक समुदाय अब जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की अनदेखी नहीं करना चाहता इसीलिए यह आन्दोलन दिन-प्रतिदिन जोर पकड़ता जा रहा है।
वर्ष 2014 अन्त में तेल की कीमतों में आई अभूतपूर्व कमी के पहले ही टार सेण्ड एवं उत्तरी धुव्र समुद्र (महासागर) में जीवाश्म परियोजनाएँ रद्द हो गई थीं। यह महज विशाल अर्थव्यवस्था के कारण नहीं हुआ बल्कि अत्यधिक लागत, बहुत अधिक जोखिम एवं अधिक कार्बन उत्सर्जन वाली परियोजनाओं की वजह से हुआ था। सन् 2014 की शुरुआत में जबकि तेल की कीमत 100 डालर प्रति बैरल से अधिक थी उस दौरान भी अनिश्चित अर्थव्यवस्था (सार्वजनिक चिन्ता एवं परिवहन की सीमाओं) के चलते तीन टार सेण्ड परियोजनाएँ वापस ले ली गई थीं।
विश्लेषकों का कहना है कि सन् 2014 में तेल की कीमतों में आई गिरावट से टार सेण्ड परियोजनाओं में 59 अरब डाॅलर की आवक टल गई है और इसकी वजह से आगामी तीन वर्षों में 6,50,000 बैरल तेल कम निकलेगा। बिग आइल के लिए तो यह बुरी खबर है लेकिन जलवायु के लिए जबरदस्त खुशखबरी। ऐसे देश और क्षेत्र जो कि अपने बजट का सन्तुलन बनाने हेतु बिग आइल को आधार बना रहे हैं आज संघर्ष कर रहे हैं और हर किसी को यह कटु अनुभव हो रहा है कि तेल की कीमतें, अस्थिर हैं अनिश्चित हैं एवं इनका पूर्वानुमान भी असम्भव है।
संकटग्रस्त सम्पत्तियाँ और बिना जले कार्बन के विचार ने भी पिछले तीन वर्षों में और अधिक ध्यान खींचा है। बैंक आॅफ इंग्लैंड के गवर्नर ने काफी स्पष्ट से कहा है कि अधिकांश जीवाश्म ईंधन भण्डार तो जलने लायक ही नहीं है। यही बात अन्तरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी और विश्व बैंक जैसी संस्थाएँ भी यही कह रही हैं। यह बात पर्यावरण कार्यकर्ताओं की चेतावनी का ठीक दोहराव ही है। इसे लेकर मुख्यधारा की अर्थव्यवस्था की बकवाद भी बदल रही है।
इस सबसे ऊपर जनशक्ति से चलित आन्दोलनों जीवाश्म ईंधन से निवेश बाहर निकालने की बात कह रहे हैं। इन आन्दोलन में अरबों लोग शामिल हो रहे हैं लेकिन वे अभी भी उद्योग को पटकनी देने के लिए काफी नहीं हैं। लेकिन वे ध्यान अकर्षित करने और यह सिद्ध करने को काफी हैं कि इन परियोजनाओं से निवेश निकालना किस प्रकार नैतिक रूप से उचित है।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि यह एक धीमी प्रक्रिया है। हमारे सामने शाश्वत चुनौती यह है कि राजनीति व राजनीतिज्ञ शर्तों से और महज 6-8 साल से परे जाकर चिन्तन करें। खासकर तब जबकि इसके मायने यह हों कि जीवाश्म ईंधन लॉबी की ओर पीठ कर ली गई है क्योंकि वह दशकों तक अपनी दोस्ताना राजनीति चलाने के लिए धन की वर्षा करती रहेगी। ऐसा कहा जाता है कि सभी उम्मीदें खत्म नहीं होतीं।
अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने जलवायु पर कुछ प्रेरणादायी एवं साहस भरी टिप्पणियाँ की हैं। कीस्टोन को लेकर उनके अन्तिम निर्णय की प्रतीक्षा है और उनके हालिया वक्तव्य से लग रहा है कि वह ठीक निर्णय लेंगे, यथास्थिति में परिवर्तन लाएँगे और पाइपलाइन को अस्वीकृत कर देगें। चीन और अमेरिका के मध्य हुआ जलवायु समझौता भी आशावादी है और इसकी वजह से वैश्विक राजनीतिक विमर्श एक अर्थपूर्ण दिशा ले रहा है।
दुनियाभर के राजनीतिज्ञ अब जलवायु परिवर्तन का ताप महसूस कर रहे हैं। कनाडा में यह चुनाव का वर्ष है, ऐसे में राजनीतिज्ञ जो पहले विशाल टार सेण्ड अधोसंरचनाओं की वकालत करते थे, अब पीछे हट रहे हैं। इससे साफ सन्देश जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन पर कार्यवाही न करने की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है।
पुर्नचक्रित ऊर्जा ने जीवाश्म ईंधन पर रोक लगाई है। सन् 2014 में सौर ऊर्जा में जबरदस्त इजाफा हुआ है और अमेरिका में इस वर्ष की पहली तीन तिमाहियों में सौर ऊर्जा की क्षमता में असाधारण वृद्धि हुई है और वहाँ इस दौरान नव उत्पादित ऊर्जा में इसका योगदान 36 प्रतिशत था। जबकि सन् 2012 में यह मात्र 9.6 प्रतिशत ही था।
जर्मनी में जून में एक दिन देश की आधी बिजली सौर ऊर्जा से तैयार हुई जो कि अपने आप में एक रिकार्ड है। इतना ही नहीं इसकी लागत में भी लगातार कमी आ रही है और गुणवत्ता में सुधार हो रहा है। इस दिशा में अगला कदम यातायात में बिजली एवं सौर बिजली के उपयोग से सामने आया है। तेल की घटती कीमतें पुर्नचक्रण (रिन्युएबल) के लिए नया खतरा है क्योंकि जीवाश्म ईंधन पर विश्व के अनेक देशों में अनावश्यक सब्सिडी दी जा रही है।
वर्ष 2015 के अन्त में पेरिस में जलवायु पर चर्चा प्रस्तावित है और वहाँ वैश्विक नेता इकट्ठा होंगे और किसी नए समझौते पर पहुँचेंगे। हम साँस रोके इस बात की प्रतीक्षा नहीं कर रहे हैं कि नेता इस अवसर में शानदार ढंग से किसी समझौते पर पहुँचेंगे बल्कि हम एक बात को लेकर निश्चित हैं कि उन्हें इसकी तपन अवश्य महसूस होगी।
हमें वर्ष 2015 में इस मिथक को समाप्त कर देना चाहिए कि जीवाश्म ईंधन हमारे भविष्य के लिए अपरिहार्य है। ‘‘बिग आइल” को लेकर यथास्थिति नहीं बनी रह सकती क्योंकि अब यहाँ हम अपने समुदायों एवं अर्थव्यवस्थाओं का निर्माण करेंगे और अपना जीवन ऐसी ऊर्जा के इर्द-गिर्द बिताएँगे जो सुरक्षित, विश्वसनीय एवं स्वच्छ हो।
कैलिफ़ोर्निया मानव स्मृति के सबसे बड़े अकाल-की चपेट मेें है और बढ़ती तीव्रता के साथ ‘‘शताब्दी में एक ही बार” आने वाले तूफान,बाढ़ें, आगजनी, और अकाल तो जैसे चुटकुले हो गए हैं। ‘‘बिग आइल” (पेट्रेालियम में 40 प्रतिशत की हिस्सेदारी) इस तथ्य को नहीं झुठला सकती कि उनके उत्पादों की वजह से भयानक जलवायु परिवर्तन हो रहा है। न ही दुनिया अब इस सत्य से मुँह मोड़ सकती हैं कि अधिकांश जीवाश्म ईंधन को ज़मीन के भीतर ही रहना चाहिए। विज्ञान तो इस मसले पर निश्चयात्मक है और दूसरी ओर निर्णय लेने वालों के पास इसे गम्भीरता से लेने के उपक्रम घटते जा रहे हैं।
पिछले वर्ष सितम्बर में न्यूयार्क में 4 लाख लोेेेगों ने इतिहास के अब तक के सबसे बड़े जलवायु मार्च में भाग लिया और विश्व के सैकड़ों अन्य नगरों में भी हजारों-हजार लोेग ऐसे मार्च में शामिल हुए थे। पूरे उत्तरी अमेरिका के निवासियों ने ‘‘टार सेण्ड” की पाइप लाइनों को रोक दिया। इस महाद्वीप में एक भी बड़ी टार सेण्ड पाइप लाइन नहीं बची थी जिसे जनविरोध का सामना न करना पड़ा हो।
इस देरी से प्रदूषण पर थोड़े समय के लिए रोक लगी और जीवाश्म (फासिल्स) ईंधन से बढ़ते जोखिम पर भी लोेगों का ध्यान गया। इस तरह के विरोध से न केवल जलवायु परिवर्तन और जीवाश्म ईंधन के आपसी सम्बन्धों पर स्थिति स्पष्ट हुई बल्कि कुछ हद तक तेल निकालने वाली परियोजनाएँ भी दबाव में आई। अनेक देश व भूस्वामी अब इसके विरोध में खड़े हैं और जोखिम से प्रभावित वैश्विक समुदाय अब जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की अनदेखी नहीं करना चाहता इसीलिए यह आन्दोलन दिन-प्रतिदिन जोर पकड़ता जा रहा है।
वर्ष 2014 अन्त में तेल की कीमतों में आई अभूतपूर्व कमी के पहले ही टार सेण्ड एवं उत्तरी धुव्र समुद्र (महासागर) में जीवाश्म परियोजनाएँ रद्द हो गई थीं। यह महज विशाल अर्थव्यवस्था के कारण नहीं हुआ बल्कि अत्यधिक लागत, बहुत अधिक जोखिम एवं अधिक कार्बन उत्सर्जन वाली परियोजनाओं की वजह से हुआ था। सन् 2014 की शुरुआत में जबकि तेल की कीमत 100 डालर प्रति बैरल से अधिक थी उस दौरान भी अनिश्चित अर्थव्यवस्था (सार्वजनिक चिन्ता एवं परिवहन की सीमाओं) के चलते तीन टार सेण्ड परियोजनाएँ वापस ले ली गई थीं।
विश्लेषकों का कहना है कि सन् 2014 में तेल की कीमतों में आई गिरावट से टार सेण्ड परियोजनाओं में 59 अरब डाॅलर की आवक टल गई है और इसकी वजह से आगामी तीन वर्षों में 6,50,000 बैरल तेल कम निकलेगा। बिग आइल के लिए तो यह बुरी खबर है लेकिन जलवायु के लिए जबरदस्त खुशखबरी। ऐसे देश और क्षेत्र जो कि अपने बजट का सन्तुलन बनाने हेतु बिग आइल को आधार बना रहे हैं आज संघर्ष कर रहे हैं और हर किसी को यह कटु अनुभव हो रहा है कि तेल की कीमतें, अस्थिर हैं अनिश्चित हैं एवं इनका पूर्वानुमान भी असम्भव है।
संकटग्रस्त सम्पत्तियाँ और बिना जले कार्बन के विचार ने भी पिछले तीन वर्षों में और अधिक ध्यान खींचा है। बैंक आॅफ इंग्लैंड के गवर्नर ने काफी स्पष्ट से कहा है कि अधिकांश जीवाश्म ईंधन भण्डार तो जलने लायक ही नहीं है। यही बात अन्तरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी और विश्व बैंक जैसी संस्थाएँ भी यही कह रही हैं। यह बात पर्यावरण कार्यकर्ताओं की चेतावनी का ठीक दोहराव ही है। इसे लेकर मुख्यधारा की अर्थव्यवस्था की बकवाद भी बदल रही है।
इस सबसे ऊपर जनशक्ति से चलित आन्दोलनों जीवाश्म ईंधन से निवेश बाहर निकालने की बात कह रहे हैं। इन आन्दोलन में अरबों लोग शामिल हो रहे हैं लेकिन वे अभी भी उद्योग को पटकनी देने के लिए काफी नहीं हैं। लेकिन वे ध्यान अकर्षित करने और यह सिद्ध करने को काफी हैं कि इन परियोजनाओं से निवेश निकालना किस प्रकार नैतिक रूप से उचित है।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि यह एक धीमी प्रक्रिया है। हमारे सामने शाश्वत चुनौती यह है कि राजनीति व राजनीतिज्ञ शर्तों से और महज 6-8 साल से परे जाकर चिन्तन करें। खासकर तब जबकि इसके मायने यह हों कि जीवाश्म ईंधन लॉबी की ओर पीठ कर ली गई है क्योंकि वह दशकों तक अपनी दोस्ताना राजनीति चलाने के लिए धन की वर्षा करती रहेगी। ऐसा कहा जाता है कि सभी उम्मीदें खत्म नहीं होतीं।
अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने जलवायु पर कुछ प्रेरणादायी एवं साहस भरी टिप्पणियाँ की हैं। कीस्टोन को लेकर उनके अन्तिम निर्णय की प्रतीक्षा है और उनके हालिया वक्तव्य से लग रहा है कि वह ठीक निर्णय लेंगे, यथास्थिति में परिवर्तन लाएँगे और पाइपलाइन को अस्वीकृत कर देगें। चीन और अमेरिका के मध्य हुआ जलवायु समझौता भी आशावादी है और इसकी वजह से वैश्विक राजनीतिक विमर्श एक अर्थपूर्ण दिशा ले रहा है।
दुनियाभर के राजनीतिज्ञ अब जलवायु परिवर्तन का ताप महसूस कर रहे हैं। कनाडा में यह चुनाव का वर्ष है, ऐसे में राजनीतिज्ञ जो पहले विशाल टार सेण्ड अधोसंरचनाओं की वकालत करते थे, अब पीछे हट रहे हैं। इससे साफ सन्देश जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन पर कार्यवाही न करने की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है।
पुर्नचक्रित ऊर्जा ने जीवाश्म ईंधन पर रोक लगाई है। सन् 2014 में सौर ऊर्जा में जबरदस्त इजाफा हुआ है और अमेरिका में इस वर्ष की पहली तीन तिमाहियों में सौर ऊर्जा की क्षमता में असाधारण वृद्धि हुई है और वहाँ इस दौरान नव उत्पादित ऊर्जा में इसका योगदान 36 प्रतिशत था। जबकि सन् 2012 में यह मात्र 9.6 प्रतिशत ही था।
जर्मनी में जून में एक दिन देश की आधी बिजली सौर ऊर्जा से तैयार हुई जो कि अपने आप में एक रिकार्ड है। इतना ही नहीं इसकी लागत में भी लगातार कमी आ रही है और गुणवत्ता में सुधार हो रहा है। इस दिशा में अगला कदम यातायात में बिजली एवं सौर बिजली के उपयोग से सामने आया है। तेल की घटती कीमतें पुर्नचक्रण (रिन्युएबल) के लिए नया खतरा है क्योंकि जीवाश्म ईंधन पर विश्व के अनेक देशों में अनावश्यक सब्सिडी दी जा रही है।
वर्ष 2015 के अन्त में पेरिस में जलवायु पर चर्चा प्रस्तावित है और वहाँ वैश्विक नेता इकट्ठा होंगे और किसी नए समझौते पर पहुँचेंगे। हम साँस रोके इस बात की प्रतीक्षा नहीं कर रहे हैं कि नेता इस अवसर में शानदार ढंग से किसी समझौते पर पहुँचेंगे बल्कि हम एक बात को लेकर निश्चित हैं कि उन्हें इसकी तपन अवश्य महसूस होगी।
हमें वर्ष 2015 में इस मिथक को समाप्त कर देना चाहिए कि जीवाश्म ईंधन हमारे भविष्य के लिए अपरिहार्य है। ‘‘बिग आइल” को लेकर यथास्थिति नहीं बनी रह सकती क्योंकि अब यहाँ हम अपने समुदायों एवं अर्थव्यवस्थाओं का निर्माण करेंगे और अपना जीवन ऐसी ऊर्जा के इर्द-गिर्द बिताएँगे जो सुरक्षित, विश्वसनीय एवं स्वच्छ हो।