जनसंख्या और विकास

Submitted by Hindi on Fri, 11/13/2015 - 12:30
Source
योजना, जुलाई 1998

हमारे देश में पिछले पचास वर्षों में प्रत्येक क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। आज भारत को तीसरी दुनिया की बड़ी औद्योगिक शक्तियों में से एक माना जाता है। लेकिन इसके बावजूद औसत आदमी के जीवन-स्तर में विशेष परिवर्तन नहीं आया है। देश आज भी अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, कुपोषण जैसी कितनी ही समस्याओं से घिरा हुआ है। लेखक का कहना है कि तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या ने विकास के लाभों को लील लिया है। उसकी चेतावनी है कि अगर भविष्य में हमने जनसंख्या वृद्धि पर काबू नहीं पाया तो ये समस्याएँ और भी गम्भीर हो सकती हैं।

पिछले 50 वर्षों में देश में प्रत्येक क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। देश का अन्न भंडार बढ़ा है। आदमी की औसत आयु बढ़ी है। महामारियों पर नियन्त्रण हुआ है। शिक्षितों और प्रशिक्षितों की संख्या बड़ी है। गाँव और शहर बिजली की रोशनी से जगमगाने लगे हैं। जिन क्षेत्रों में खेती काले मेघों के सहारे होती थी, वहाँ भी अब नहरों के जल से बारहों महीने सिंचाई की व्यवस्था है। आज भारत को तीसरी दुनिया की बड़ी औद्योगिक शक्तियों में से एक माना जाता है। यहाँ परम्परागत शिल्प से लेकर आधुनिकतम तकनीक युक्त उत्पादों और उपकरणों का उत्पादन होता है। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत एक विश्व शक्ति के रूप में उभर रहा है।

उपरोक्त स्थिति यह एहसास कराती है कि पिछले पचास वर्षों में हुये विकास ने इस देश के औसत आम आदमी की जीवनधारा बदल दी है लेकिन वस्तु-स्थिति इससे मेल नहीं खाती। खाद्य भंडारों के बड़े और भरे होने के बावजूद इस देश के पाँच वर्ष से कम आयु के लगभग 6 करोड़ 20 लाख बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। देश में 16 वर्ष से कम आयु के जो बच्चे हैं, उनमें से लगभग एक तिहाई मेहनत-मजदूरी करने को विवश हैं। आज भी देश के लगभग साढ़े तेरह करोड़ लोगों को प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। 22 करोड़ 60 लाख लोगों को ऐसा पानी पीना पड़ता है जिसे सुरक्षित नहीं माना जाता। 64 करोड़ लोग अर्थात जनसंख्या का लगभग दो-तिहाई हिस्सा ऐसा है जिसे बुनियादी सफाई सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। इस देश में 29 करोड़ 10 लाख व्यक्ति निरक्षर हैं। आँकड़ों की जुबानी भारत के 44 प्रतिशत लोग बेहद गरीबी में जीवन व्यतीत करते हैं। 15 से 49 वर्ष की आयु में गर्भवती होने वाली महिलाओं में से लगभग 88 प्रतिशत रक्त की कमी की शिकार हैं।

उपरोक्त विरोधी स्थितियाँ हमारे देश में एक साथ उपस्थित हैं। अतः यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि विकास के लाभ कहाँ गये? विकास के लाभ इस देश के आम आदमी की झोंपड़ी तक क्यों नहीं पहुँचे? 50 वर्ष के नियोजित विकास के बावजूद देश का एक बड़ा हिस्सा भूख और गरीबी का शिकार क्यों है? बड़े पैमाने पर स्कूलों और कॉलेजों के खुल जाने के बावजूद पढ़ाई-लिखाई की स्थिति इतनी चिन्ताजनक क्यों है? बड़े पैमाने पर यातायात सुविधाओं के विस्तार के बावजूद लोग रेलों और बसों में भेड़-बकरियों की तरह यात्रा करने पर क्यों विवश हैं? जिस देश में अपार जल भंडार हैं वहाँ अधिकांश लोगों को पीने का सुरक्षित जल क्यों नहीं मिलता? इन तमाम सवालों का जवाब खोजना बेहद आवश्यक है।

जब देश स्वतन्त्र हुआ तब इसकी आबादी 36 करोड़ थी जो 1996 में 93.4 करोड़ हो गई और जो 2016 में बढ़कर 126.4 करोड़ हो जायेगी। हमारी अधिकतर समस्याओं का मुख्य स्रोत तेजी से बढ़ती जनसंख्या है। इस ताबड़-तोड़ बढ़ती जनसंख्या ने ही विकास के लाभों के प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया है। हमारे पास भूमि और जल संसाधन सीमित हैं तथा अन्य प्राकृतिक संसाधन भी सीमित हैं। उनसे एक सीमा तक ही जनसंख्या को बेहतर सुविधाएँ मिल सकती हैं। प्रकृति के अंधाधुंध दोहन का ही परिणाम है कि पहाड़ फटने लगे हैं, मौसम बदलने लगे हैं। जंगल बंजर में परिवर्तित हो गये हैं। तापमान निरन्तर बढ़ रहा है। बढ़ती हुई बेतहाशा जनसंख्या के लिये मकानों की व्यवस्था करने के कारण कृषि योग्य भूमि सिकुड़ रही है। आवासीय सुविधाओं की बड़े पैमाने पर व्यवस्था करने के परिणामस्वरूप नदियाँ गंदे नालों में परिवर्तित हो गई हैं। अनेक नदियाँ तो पर्यावरण के बदल जाने के कारण लुप्त हो गई हैं। यमुना जैसी नदी का भी अस्तित्व संकट में है। उज्जैन की पवित्र मानी जाने वाली क्षिप्रा नदी गंदे नाले और बरसाती नदी में तब्दील हो गई है।

हम जिस अनुपात में सुविधाएँ जुटाते हैं, जनसंख्या उसकी तुलना में ज्यादा तीव्र गति से बढ़ जाती है। विकास परियोजनाओं और जनसंख्या वृद्धि की गति के बीच सन्तुलन के अभाव में आज यह देश एक औद्योगिक शक्ति होने के बावजूद प्रति व्यक्ति आय के आधार पर 147वें स्थान पर है। बढ़ती हुई जनसंख्या का ही परिणाम है कि हमारे देश में कुशल और अकुशल दोनों ही तरह के बेरोजगार करोड़ों की संख्या में हैं। इतना ही नहीं, बहुत से हाथों को नियमित रूप से काम नहीं मिलता। हमारी वर्तमान विकास दर बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने में अपर्याप्त है। आज हम एक ऐसे बिन्दु पर पहुँच गये हैं जहाँ जनसंख्या की भीषण समस्या हमारे समूचे विकास तन्त्र को पूरी तरह ध्वस्त करने में सक्षम है।

ताज्जुब की बात कि जनसंख्या वृद्धि तथा इसके परिणामों के प्रति लगभग वे सभी लोग उदासीन हैं जो विकास परियोजनाओं की प्रक्रिया में शामिल हैं। इतना ही नहीं जनसंख्या की विकराल समस्या उन सबके दिल में भी हलचल पैदा नहीं करती जो इस देश को बेहतर बनाने का दावा करते हैं। विकास का लाभ आम आदमी तक पहुँचे, उसका जीवन-स्तर ऊँचा उठे, इसके लिये बेहद आवश्यक है कि जनसंख्या वृद्धि दर को शीघ्रातिशीघ्र शून्य पर लाकर जनसंख्या को स्थिर किया जाए। आज हमारे प्रजनन दर 3.5 के आस-पास स्थिर है। इतना ही नहीं, 2016 तक भी इसमें केवल एक प्रतिशत की ही कमी आयेगी अर्थात यह 2.5 प्रतिशत होगी। 2026 में जाकर यह 2.1 प्रतिशत हो पायेगी। इसलिये जनसंख्या वृद्धि दर या प्रजनन दर को शून्य पर लाना लगभग असम्भव है। परन्तु जनसंख्या वृद्धि के मोर्चे पर इस देश को पूरी ताकत से लड़ना होगा। हम जो भी लक्ष्य निर्धारित करें, उन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये निर्मल होकर आचरण करें। राजनीति, धर्म तथा अन्य दबावों को इस समस्या से दूर रखें। यदि ऐसा नहीं किया गया तो हमें इस सदी के अंत तक अराजकता और अव्यवस्था को सहने के लिये तैयार रहना होगा क्योंकि सीमित संसाधनों से असीमित जनसंख्या का भरण-पोषण करना असम्भव है।

प्रश्न यह उठता है कि इस देश में बढ़ती जनसंख्या के प्रति संवेदनहीनता क्यों है? एक अन्य प्रश्न यह भी है कि हमारे देश की प्रजनन दर ऊँची क्यों है? इन दोनों प्रश्नों के उत्तर पाना जनसंख्या और विकास के आपसी सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में अनिवार्य है। जनसंख्या वृद्धि के प्रति संवेदनहीनता का एक कारण है कि हम इस समस्या को अधिकाधिक मत बटोरने की दृष्टि से देखते हैं। इस समस्या के समाधान के प्रति जो राजनीतिक संकल्प शक्ति अपेक्षित है, उसके अभाव ने भी इस समस्या के प्रति संवेदनहीनता को बढ़ाया है। दूसरी ओर प्रजनन-दर के अधिक होने के दुष्परिणामों से आम आदमी अपरिचित है। उसमें इस समस्या के प्रति चेतना का अभाव है। वह यह मानता है कि जितने अधिक हाथ होंगे उतना अधिक कमाएँगे। वह यह भूल जाता है कि इन कमाने वाले हाथों के साथ एक पेट भी होगा जिसके लिये अन्न की व्यवस्था करनी होगी। एक पूरी देह होगी जिसके लिये आवास से लेकर अन्य बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था करनी पड़ेगी। इस चेतना के अभाव में इस देश का निरक्षर आदमी प्रजनन-दर को ऊँचा बनाये हुये है। बदकिस्मती से राजनीति में धर्म और जाति के अत्यधिक हस्तक्षेप ने इस समस्या में और अधिक आयाम जोड़े हैं। अब प्रत्येक धर्म, जाति और समुदाय के लोग संख्या की दृष्टि से अन्य समुदाय, धर्म या जाति से पीछे रहने को तैयार नहीं हैं। इससे पढ़ाई-लिखाई के कारण जो चेतना बढ़ी थी, उसकी धार भी कुंठित हो गई है।

जनसंख्या वृद्धि के सरपट भागते घोड़े को जब तक खूंटे पर नहीं बाँधा जायेगा तब तक इस देश में गरीबी, भुखमरी, बीमारी और अभाव का यह सिलसिला जारी रहेगा। कारखानें लगेंगे, फिर भी बेरोजगार बढ़ेंगे। स्कूल-काॅलेज खुलेंगे, फिर भी निरक्षरों की तादाद बढ़ेगी। कृषि उत्पादन बढ़ेगा, भुखमरी की समस्या फिर भी बनी रहेगी। नये-नये चिकित्सालय और अस्पताल खुलेंगे लेकिन रोगियों की कतारें बढ़ती रहेंगी। इसलिये विकास के परिप्रेक्ष्य में सोचने से पहले जनसंख्या की समस्या से रूबरू होना हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती है। यदि हम किसी भी दबाव में आकर इस चुनौती से किनारा करते हैं तो इस देश में विकास कोई अर्थ नहीं रहेगा। केवल अर्थशास्त्री आँकड़ों का खेल खेलते रहेंगे। अर्थशास्त्री आँकड़े देकर विकास का ग्राफ ऊँचा उठाएँगे तो समाजशास्त्री उपेक्षितों और वंचितों की गिनती गिनवा कर यह सिद्ध करेंगे कि विकास का परिणाम शून्य है। यदि अर्थशास्त्रियों और शिक्षाशास्त्रियों के आकलन को एक समान बनाना है तो जनसंख्या वृद्धि की दर को शीघ्र से शीघ्र शून्य दर पर लाने के लिये युद्ध स्तर पर प्रयास करना अनिवार्य है।

(लेखक ‘समाज कल्याण’ पत्रिका के सम्पादक हैं।)