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नई दुनिया, 05 जून 2011
‘इकॉनामिक सर्वे’ देखने पर पता चलता है कि किस तरह भारत की राष्ट्रीय संपत्ति में वनों का महत्व कम होता जा रहा है। अनुमान लगाए जाते हैं कि वन आर्थिक उत्पादन में सहायक होते हैं, लेकिन इसका आकलन नहीं है। इसका भी आकलन नहीं है कि पशुओं के लिए चरागाहों और दुग्ध उद्योगों में वनों की कितनी बड़ी भूमिका है।
जंगलों का विकास में महत्व स्थापित करने की मेरी राय ‘डाउन टू अर्थ’ पत्रिका के 16 से 31 मई के अंक में ‘रिथिक ग्रोथ विद फॉरेस्ट केपिटल’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। इस पर मुझे कई प्रतिक्रियाएं मिली हैं। इसमें एक पक्ष का विचार था कि जंगलों का महत्व स्वतः ही जीवन के महत्वपूर्ण पक्ष के रूप में स्थापित है। आवश्यकता इस मूल्यवान संपत्ति की सुरक्षा की है। इस विचार-विमर्श के निष्कर्ष के रूप में यह दुखद बात सामने आई कि किसी ने भी इस बात की आवश्यकता नहीं समझी कि लोगों के सहयोग से जंगलों का विस्तार बढ़ाया जाना चाहिए। इससे इस विशेष और स्थापित धारणा को बल मिला कि मनुष्य और जंगल कभी साथ-साथ नहीं रह सकते।विचार-विमर्श की विषयवस्तु अपने अंतर में दोध्रुवीय है। इस वाक्युद्ध के दो पक्ष हैं। दोनों की नजर में जंगलों और जंगल के जीवन को हानि हुई है लेकिन अभी हमने सब कुछ नहीं खोया! मेरा पक्ष यह है कि जंगलों की आवश्यकता और महत्ता के लिए जो लोग लाभकारी वानिकी के व्यवसाय से जुड़े हैं उनकी जुबान भी इस मुद्दे पर बोलने से हिचकिचाती है।
हर गुजरता दिन संरक्षित वन क्षेत्र को घटा रहा है। यह वह समय है जब भारत के वन क्षेत्र आतंक के अड्डे बने हुए हैं। यह जरूरी नहीं कि लोग जंगलों में रहें लेकिन विकासवादी जंगल जमीन, खनिज, पानी और अन्य संसाधनों के लिए हथियाना चाहते हैं। गुजरते समय में आधारभूत संरचना अनिवार्य रूप से जंगलों का खात्मा करेगी और आज के समय में मुफ्त और आसानी से उपलब्ध होने वाली वस्तुएं दुर्लभ हो जाएंगी। वाइल्ड लाइफ रिजर्व की अवधारणा छोड़ने की आवश्यकता है क्योंकि वनों के लिए निर्धारित क्षेत्र वर्तमान आवश्यकताओं के देखते हुए बहुत कम हैं। यह मनुष्यों और जंगली जीवन के बीच अनावश्यक दूरी और प्रतिस्पर्धा बढ़ाते हैं।
अब समय तार्किक विश्लेषण के निषेधों से बाहर निकलने का है। अब हम इस सारतत्व पर विचार करें कि किस तरह जमीन का उपयोग उत्पादन बढ़ाने के लिए किया जाए लेकिन हमें यह भी स्पष्ट करना होगा कि हम अपनी कुल जमीन का २२ प्रतिशत हिस्से को विकास के लिए उपयोग नहीं करेंगे। यह पर्यावरणविदों के लिए एक संदेश है जो जंगलों के विनाश के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। वे इस विचार से असहमत भी हो सकते हैं लेकिन यह समय बदलाव का है।
‘इकॉनामिक सर्वे’ देखने पर पता चलता है कि किस तरह भारत की राष्ट्रीय संपत्ति में वनों का महत्व कम होता जा रहा है। अनुमान लगाए जाते हैं कि वन आर्थिक उत्पादन में सहायक होते हैं, लेकिन इसका आकलन नहीं है। इसका भी आकलन नहीं है कि पशुओं के लिए चरागाहों और दुग्ध उद्योगों में वनों की कितनी बड़ी भूमिका है। इस क्षेत्र का योगदान का तेजी घट रहा है जिसे कृषि, वनोत्पाद, मत्स्य उद्योग के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इन क्षेत्रों की वार्षिक वृद्धि दर 2005-06 में 5.2 प्रतिशत थी, यह दर 2009 में नकारात्मक रही। इसका स्थान उत्खनन क्षेत्र ने ले लिया जिसकी वृद्धि दर 2009-10 में 8.7 प्रतिशत रही जो 2005-06 में 1.3 प्रतिशत थी।
‘फॉरेस्ट सर्वे रिपोर्ट’ कहती है कि देश में जंगलों की मात्रा बढ़ रही है। वास्तव में यह एक रहस्यमय और महत्वपूर्ण तथ्य है। जंगलों में 2005-09 के दौरान कमी आई है, स्पष्ट है कि कहीं कुछ भूल हुई है। इस ओर ध्यान न दिया जाना ही राज्य के राजस्व में वन क्षेत्र की महत्ता घटने का कारण है। इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए तीन चरण अपनाने होंगे। पहला, हमें इस बात की आवश्यकता है कि जरूरी तौर पर वनों की आर्थिक महत्ता को राष्ट्रीय संपत्ति के साथ जोड़ा जाए। इस आकलन से वनों से होने वाले उन असंख्य लाभों को जोड़ा जाए जो वन लोगों को आजीविका के लिए उपलब्ध कराते हैं।
दूसरा, हमें जंगल खड़े करने के लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध करानी चाहिए। यह पैसा उन समूहों को उपलब्ध कराया जाना चाहिए जो प्राकृतिक संरक्षण की जवाबदेही के लिए तैयार हों। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण चरण, हमें बचे हुए जंगली भागों में उत्पादन बढ़ाना है। लेकिन पेड़-पौधों की कटाई जंगल में रहने वाले लोगों की मदद के बगैर नहीं रोकी जा सकती। इस बात का अभी तक मेरे पास कोई निश्चित उत्तर नहीं है।
(साभार; डाउन टू अर्थ, 1-15 जून)