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गांधी मार्ग, जनवरी-फरवरी 2014
सन् 1995 के आसपास हमारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट ने वायु प्रदूषण के खिलाफ अपना आंदोलन शुरू किया था। तब हमने जो कुछ भी किया वह लीक का काम था। इस आंदोलन ने ईंधन की गुणवत्ता को ठीक करने पर दबाव डाला। गाड़ियों से निकलने वाले बेहद जहरीले धुएँ को नियंत्रित करने के लिए नए कड़े नियम बनवाए। उनकी जांच-परख का नया ढांचा खड़ा करवाया और उस अभियान ने ईंधन का प्रकार तक बदलने का काम किया। यह लेख मैं अपने बिस्तरे से लिख रही हूं- एक सड़क दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होने के बाद, हड्डियां टूटने के बाद मुझे ठीक होने तक इसी बिस्तर पर रहना है। मैं साइकिल चला रही थी। तेजी से आई एक मोटर गाड़ी ने मुझे अपनी चपेट में ले लिया था। टक्कर मारकर कार भाग गई। खून से लथपथ मैं सड़क पर थी।
ऐसी दुर्घटनाएँ बार-बार होती हैं हमारे यहां। हर शहर में होती हैं, हर सड़क पर होती हैं। यातायात की योजनाएं बनाते समय हमारा ध्यान पैदल चलने वालों और साइकिल चलाने वालों की सुरक्षा पर जाता ही नहीं। सड़क पर उनकी गिनती ही नहीं होती। ये लोग बिना कुछ किए, एकदम साधारण-सी बात में, बस सड़क पार करते हुए अपनी जान गँवा बैठते हैं। मैं इनसे ज्यादा भाग्यशाली थी। दुर्घटना के बाद दो गाड़ियाँ रुकीं, अनजान लोगों ने मुझे अस्पताल पहुंचाया। मेरा इलाज हो रहा है। मैं ठीक होकर फिर वापस इसी लड़ाई में लौटूंगी।
लेकिन यह लड़ाई हम सबको मिलजुल कर लड़नी पड़ेगी। सड़कों पर हम पैदल चलने और साइकिल चलाने की अपनी जगह यों ही गँवा नहीं सकते। इस दुर्घटना के बाद मेरे कई मित्रों, रिश्तेदारों ने मुझे खूब फटकारा कि भला दिल्ली की सड़कों पर तुम्हें साइकिल चलाने की क्या सूझी। ये ठीक कह रहे थे।
हमने अपने इन शहरों की सड़कों को केवल मोटरगाडि़यों के लिए ही बनाया है। इन सड़कों पर गाड़ियों का ही राज दौड़ता है। इनमें साइकिल चलाने के लिए बगल में लेन नहीं हैं, पैदल चलने वालों के लिए फुटपाथ नहीं हैं। कुछ बड़े शहरों में कुछ जगहों पर वे हैं भी तो टुकड़ों में हैं। टूटी-फूटी हैं या फिर उन पर गाड़ियाँ खड़ी रहती हैं। सड़कें तो कारों के लिए हैं। बाकी की चिंता क्यों करें।
साइकिल पर चलना या पैदल चलना कठिन है तो इसका कारण केवल योजनाओं की कमी या बुरी योजना नहीं हैं। हमारे दिमागों में यह घुसा बैठा है कि जो कार में बैठा है, उसका एक दर्जा है और सड़क का सारा हक उसी के पास है। जो पैदल चलते हैं वे तो गरीब हैं, अभागे हैं, उन्हें यदि बुरी तरह से हटा देना, दबा देना संभव नहीं तो हाशिए पर तो डाल ही देना है।
यह दिमाग बदलना है। आगे कोई और रास्ता नहीं है, हमें तो हमारा चलना-फिरना फिर से देखना-समझना होगा। पिछले महीने विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु प्रदूषण को हमारे कैंसर का एक बड़ा कारण बताया है। हमें सोचना होगा कि यह हमें स्वीकार है क्या। यह अब धीमी मौत भी नहीं बचा है, फुर्ती से मार चला है। यदि इस वायु प्रदूषण को रोकना है तो कारों पर नियंत्रण किए बिना काम चलेगा नहीं। हमें सीखना होगा कि हम कैसे चलें-फिरें, न कि हमारी कारें कैसे चलें-दौड़ें।
सन् 1995 के आसपास हमारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट ने वायु प्रदूषण के खिलाफ अपना आंदोलन शुरू किया था। तब हमने जो कुछ भी किया वह लीक का काम था। इस आंदोलन ने ईंधन की गुणवत्ता को ठीक करने पर दबाव डाला। गाड़ियों से निकलने वाले बेहद जहरीले धुएँ को नियंत्रित करने के लिए नए कड़े नियम बनवाए। उनकी जांच-परख का नया ढांचा खड़ा करवाया और उस अभियान ने ईंधन का प्रकार तक बदलने का काम किया। जहरीले डीजल से चलने वाले वाहन, बसें और दो स्ट्रोक इंजनों से दौड़ने वाले ऑटो रिक्शा को सी.एन. जी. की तरफ मोड़ा। इस सबका खूब लाभ भी हुआ। इसमें कोई शक नहीं कि अगर उस दौर में ये सब कड़े कदम न उठवाए गए होते तो आज हमारे इन शहरों की हवा और भी खराब होती, और भी जहरीली बन जाती।
पर उतना ही काफी नहीं था। हमें जल्दी ही यह समझ आ गया था। आज फिर प्रदूषण का स्तर बढ़ चला हैµ यह तो होना ही था। इस विषय पर जो कुछ भी ठीक शोध हुआ है वह इस सबकी वजह और इस सबका हल एक ही दिशा की ओर ले जाता है- यातायात के पूरे ढांचे को एक अलग ढंग से देखना।
हमारे देश की परिस्थिति इस ढांचे को उस अलग ढंग से देखने, बनाने की छूट भी देती है। अन्य कई देशों की तरह अभी भी हमारा पूरा देश मोटरमय नहीं हो पाया है। हमने अभी भी हर जगह फ्लाई ओवर या चार लेन वाली चौड़ी सड़कों का जाल नहीं बिछा लिया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अभी भी हमारे देश का एक बड़ा भाग बसों में यात्रा करता है, साइकिल चलाता है और पैदल भी चलता है। कई शहरों में तो वहां की आबादी का एक बड़ा भाग साइकिल पर ही सवार होता है। आज हमारे यहां साइकिलें इसलिए चलती हैं कि हम गरीब हैं। चुनौती तो यह है कि हम शहरी नियोजन को कुछ इस तरह बदलें कि हम अमीर होकर भी साइकिल चला सकें।
पिछले कुछ बरसों से हम इसी दिशा में काम कर रहे हैं। हमारी कोशिश है कि अपने शहरों में एक सुरक्षित सार्वजनिक यातायात का ढांचा खड़ा हो सके। इस ढांचे में इसकी गुंजाइश होनी चाहिए कि जिनके पास कार हैं, उन्हें भी उसे चलाना न पड़े। इसके लिए यातायात के पूरे ढांचे में सुंदर तालमेल जरूरी है। यह मुख्य बात है। मैट्रो बना लें, नई बसें ले आएं पर यदि इनसे आखिरी पड़ाव पर उतरने के बाद का तालमेल नहीं है, आपकी इस यात्रा के अंतिम मील को जोड़ा नहीं गया तो सब छूट गया समझिए। तब आपका खड़ा किया गया मंहगा ढांचा कोई काम का नहीं। अंतिम पड़ाव तक का जुड़ाव आसानी से उपलब्ध होना चाहिए। और इसीलिए हमें कुछ अलग ढंग से सोचना होगा।
इस अंतिम पड़ाव के जुड़ाव में हम असफल हुए हैं। आज यातायात के कुशल प्रबंध की खूब चर्चा है। साइकिल की जगह बनाने की बात है, पैदल चलने वालों के हकों तक की चर्चा है- पर यह बस चर्चा ही है, खाली चर्चा। जब भी कभी कोई किसी सड़क का एक हिस्सा लेकर उसे साइकिल के लिए बनाना चाहता है- एकदम उसका जोरदार विरोध होने लगता है। कहा जाने लगेगा कि इससे तो कारों की जगह कम हो जाएगी, बड़ी भीड़भाड़ होने लगेगी।
पर यही तो होना चाहिए। सड़कों पर कारों की जगह कम हो और बसों, साइकिलों की जगह, पैदल चलने वालों की जगह बढ़ सके। तभी लगातार बढ़ रही कारों की संख्या में गिरावट आ सकेगी।
लेकिन इस काम को करने के लिए साहस और संकल्प चाहिए। कारों से पटी पड़ी हमारी आज की सड़कों पर साइकिल की पट्टी बनाना, पैदल चलने वालों के लिए साफ सुथरी जगह छोड़ना काफी मेहनती काम होगा। मुझे ऐसा कोई भ्रम नहीं है कि यह तो सब बड़ी आसानी हो जाने वाला काम होगा। पर इसे सोच हम क्या इस काम से पल्ला झाड़ बैठें? दुनिया के अन्य कई देशों ने अपनी सड़कों को दुबारा देखा-परखा है और उन्हें कांट-छांट कर अपने साइकिल वालों और पैदल चलने वालों को पूरी इज्जत के साथ इन सड़कों पर जगह दी है। उन्होंने यह सीख लिया है कि कारों के लिए जगह कम किए बिना शहर सुंदर नहीं बन सकेंगे।
ऐसा हम कर पाएं तो जरा देखिए कि हमें कैसे डबल बोनस मिल जाएगाः हमारे दमघोंटू शहरों की हवा, उनका आकाश साफ हो चलेगा और एक जगह से दूसरी जगह पहुंचते हुए हमारे शरीरों को कुछ मेहनत भी करने का मौका मिल जाएगा। इसके लिए हमें लड़ना है। और लड़ेंगे हम। मुझे उम्मीद है कि आप सब इस अभियान का साथ देंगे- सड़क पर अपनी सुरक्षा को खतरे में डाले बिना पैदल चलने और साइकिल चलाने का हक हम लेंगे।
ऐसी दुर्घटनाएँ बार-बार होती हैं हमारे यहां। हर शहर में होती हैं, हर सड़क पर होती हैं। यातायात की योजनाएं बनाते समय हमारा ध्यान पैदल चलने वालों और साइकिल चलाने वालों की सुरक्षा पर जाता ही नहीं। सड़क पर उनकी गिनती ही नहीं होती। ये लोग बिना कुछ किए, एकदम साधारण-सी बात में, बस सड़क पार करते हुए अपनी जान गँवा बैठते हैं। मैं इनसे ज्यादा भाग्यशाली थी। दुर्घटना के बाद दो गाड़ियाँ रुकीं, अनजान लोगों ने मुझे अस्पताल पहुंचाया। मेरा इलाज हो रहा है। मैं ठीक होकर फिर वापस इसी लड़ाई में लौटूंगी।
लेकिन यह लड़ाई हम सबको मिलजुल कर लड़नी पड़ेगी। सड़कों पर हम पैदल चलने और साइकिल चलाने की अपनी जगह यों ही गँवा नहीं सकते। इस दुर्घटना के बाद मेरे कई मित्रों, रिश्तेदारों ने मुझे खूब फटकारा कि भला दिल्ली की सड़कों पर तुम्हें साइकिल चलाने की क्या सूझी। ये ठीक कह रहे थे।
हमने अपने इन शहरों की सड़कों को केवल मोटरगाडि़यों के लिए ही बनाया है। इन सड़कों पर गाड़ियों का ही राज दौड़ता है। इनमें साइकिल चलाने के लिए बगल में लेन नहीं हैं, पैदल चलने वालों के लिए फुटपाथ नहीं हैं। कुछ बड़े शहरों में कुछ जगहों पर वे हैं भी तो टुकड़ों में हैं। टूटी-फूटी हैं या फिर उन पर गाड़ियाँ खड़ी रहती हैं। सड़कें तो कारों के लिए हैं। बाकी की चिंता क्यों करें।
साइकिल पर चलना या पैदल चलना कठिन है तो इसका कारण केवल योजनाओं की कमी या बुरी योजना नहीं हैं। हमारे दिमागों में यह घुसा बैठा है कि जो कार में बैठा है, उसका एक दर्जा है और सड़क का सारा हक उसी के पास है। जो पैदल चलते हैं वे तो गरीब हैं, अभागे हैं, उन्हें यदि बुरी तरह से हटा देना, दबा देना संभव नहीं तो हाशिए पर तो डाल ही देना है।
यह दिमाग बदलना है। आगे कोई और रास्ता नहीं है, हमें तो हमारा चलना-फिरना फिर से देखना-समझना होगा। पिछले महीने विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु प्रदूषण को हमारे कैंसर का एक बड़ा कारण बताया है। हमें सोचना होगा कि यह हमें स्वीकार है क्या। यह अब धीमी मौत भी नहीं बचा है, फुर्ती से मार चला है। यदि इस वायु प्रदूषण को रोकना है तो कारों पर नियंत्रण किए बिना काम चलेगा नहीं। हमें सीखना होगा कि हम कैसे चलें-फिरें, न कि हमारी कारें कैसे चलें-दौड़ें।
सन् 1995 के आसपास हमारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट ने वायु प्रदूषण के खिलाफ अपना आंदोलन शुरू किया था। तब हमने जो कुछ भी किया वह लीक का काम था। इस आंदोलन ने ईंधन की गुणवत्ता को ठीक करने पर दबाव डाला। गाड़ियों से निकलने वाले बेहद जहरीले धुएँ को नियंत्रित करने के लिए नए कड़े नियम बनवाए। उनकी जांच-परख का नया ढांचा खड़ा करवाया और उस अभियान ने ईंधन का प्रकार तक बदलने का काम किया। जहरीले डीजल से चलने वाले वाहन, बसें और दो स्ट्रोक इंजनों से दौड़ने वाले ऑटो रिक्शा को सी.एन. जी. की तरफ मोड़ा। इस सबका खूब लाभ भी हुआ। इसमें कोई शक नहीं कि अगर उस दौर में ये सब कड़े कदम न उठवाए गए होते तो आज हमारे इन शहरों की हवा और भी खराब होती, और भी जहरीली बन जाती।
पर उतना ही काफी नहीं था। हमें जल्दी ही यह समझ आ गया था। आज फिर प्रदूषण का स्तर बढ़ चला हैµ यह तो होना ही था। इस विषय पर जो कुछ भी ठीक शोध हुआ है वह इस सबकी वजह और इस सबका हल एक ही दिशा की ओर ले जाता है- यातायात के पूरे ढांचे को एक अलग ढंग से देखना।
हमारे देश की परिस्थिति इस ढांचे को उस अलग ढंग से देखने, बनाने की छूट भी देती है। अन्य कई देशों की तरह अभी भी हमारा पूरा देश मोटरमय नहीं हो पाया है। हमने अभी भी हर जगह फ्लाई ओवर या चार लेन वाली चौड़ी सड़कों का जाल नहीं बिछा लिया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अभी भी हमारे देश का एक बड़ा भाग बसों में यात्रा करता है, साइकिल चलाता है और पैदल भी चलता है। कई शहरों में तो वहां की आबादी का एक बड़ा भाग साइकिल पर ही सवार होता है। आज हमारे यहां साइकिलें इसलिए चलती हैं कि हम गरीब हैं। चुनौती तो यह है कि हम शहरी नियोजन को कुछ इस तरह बदलें कि हम अमीर होकर भी साइकिल चला सकें।
पिछले कुछ बरसों से हम इसी दिशा में काम कर रहे हैं। हमारी कोशिश है कि अपने शहरों में एक सुरक्षित सार्वजनिक यातायात का ढांचा खड़ा हो सके। इस ढांचे में इसकी गुंजाइश होनी चाहिए कि जिनके पास कार हैं, उन्हें भी उसे चलाना न पड़े। इसके लिए यातायात के पूरे ढांचे में सुंदर तालमेल जरूरी है। यह मुख्य बात है। मैट्रो बना लें, नई बसें ले आएं पर यदि इनसे आखिरी पड़ाव पर उतरने के बाद का तालमेल नहीं है, आपकी इस यात्रा के अंतिम मील को जोड़ा नहीं गया तो सब छूट गया समझिए। तब आपका खड़ा किया गया मंहगा ढांचा कोई काम का नहीं। अंतिम पड़ाव तक का जुड़ाव आसानी से उपलब्ध होना चाहिए। और इसीलिए हमें कुछ अलग ढंग से सोचना होगा।
इस अंतिम पड़ाव के जुड़ाव में हम असफल हुए हैं। आज यातायात के कुशल प्रबंध की खूब चर्चा है। साइकिल की जगह बनाने की बात है, पैदल चलने वालों के हकों तक की चर्चा है- पर यह बस चर्चा ही है, खाली चर्चा। जब भी कभी कोई किसी सड़क का एक हिस्सा लेकर उसे साइकिल के लिए बनाना चाहता है- एकदम उसका जोरदार विरोध होने लगता है। कहा जाने लगेगा कि इससे तो कारों की जगह कम हो जाएगी, बड़ी भीड़भाड़ होने लगेगी।
पर यही तो होना चाहिए। सड़कों पर कारों की जगह कम हो और बसों, साइकिलों की जगह, पैदल चलने वालों की जगह बढ़ सके। तभी लगातार बढ़ रही कारों की संख्या में गिरावट आ सकेगी।
लेकिन इस काम को करने के लिए साहस और संकल्प चाहिए। कारों से पटी पड़ी हमारी आज की सड़कों पर साइकिल की पट्टी बनाना, पैदल चलने वालों के लिए साफ सुथरी जगह छोड़ना काफी मेहनती काम होगा। मुझे ऐसा कोई भ्रम नहीं है कि यह तो सब बड़ी आसानी हो जाने वाला काम होगा। पर इसे सोच हम क्या इस काम से पल्ला झाड़ बैठें? दुनिया के अन्य कई देशों ने अपनी सड़कों को दुबारा देखा-परखा है और उन्हें कांट-छांट कर अपने साइकिल वालों और पैदल चलने वालों को पूरी इज्जत के साथ इन सड़कों पर जगह दी है। उन्होंने यह सीख लिया है कि कारों के लिए जगह कम किए बिना शहर सुंदर नहीं बन सकेंगे।
ऐसा हम कर पाएं तो जरा देखिए कि हमें कैसे डबल बोनस मिल जाएगाः हमारे दमघोंटू शहरों की हवा, उनका आकाश साफ हो चलेगा और एक जगह से दूसरी जगह पहुंचते हुए हमारे शरीरों को कुछ मेहनत भी करने का मौका मिल जाएगा। इसके लिए हमें लड़ना है। और लड़ेंगे हम। मुझे उम्मीद है कि आप सब इस अभियान का साथ देंगे- सड़क पर अपनी सुरक्षा को खतरे में डाले बिना पैदल चलने और साइकिल चलाने का हक हम लेंगे।