लेखक
सीएफसी में कटौती करने तथा विकल्पिक गैस ईजाद करने से समस्या का समाधान नहीं दिखता। सारा-का-सारा दोष अत्यधिक भोगवादी संस्कृति का है जिसने प्राकृतिक साधनों के अन्धाधुन्ध दोहन, शोषण और बर्बादी को जन्म दिया है। भोगवादी संस्कृति के विकास और प्रसार का मनोवैज्ञानिक पहलू भी है जो इसके अर्थशास्त्र, राजनीति एवं समाजशास्त्र से अधिक महत्वपूर्ण है। जिन संस्कृतियों में भोगवाद को महत्व नहीं दिया गया है, उनके समर्थक भी आज भौतिक समृद्धि, ऐश्वर्य और अत्यधिक उपभोग की दिशा में दौड़ रहे हैं।जलवायु में भीषण परिवर्तन मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा बनता जा रहा है। वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि बिजलीघरों, फ़ैक्टरियों और वाहनों में जीवाश्म ईंधनों के जलने से पैदा होने वाली ग्रीन हाउस गैसें ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं। जलवायु परिवर्तन और ग्रीन हाउस गैसों का सबसे ज्यादा असर ओजोन परत पर पड़ा है जिससे उसके लुप्त होने का खतरा मँडराने लगा है।
दरअसल, वायुमण्डल के ऊपरी हिस्से में लगभग 25 किलोमीटर कि ऊँचाई पर फैली ओजोन परत सूर्य की किरणों के खतरनाक अल्ट्रावॉयलेट हिस्से से पृथ्वी पर मौजूद जीवन की रक्षा करती है। लेकिन यही ओजोन गैस जब धरती के वायुमण्डल में आ जाती है तो हमारे लिए जहरीली गैस के रूप में काम करती है। यदि हवा में ओजोन गैस का स्तर काफी अधिक हो जाए तो बेहोशी ओर दम घुटने तक की स्थिति आ सकती है।
मौसम का बदलाव कहीं प्रचण्ड गर्मी तो कहीं प्रचण्ड सर्दी से पैदा हालात को और भयावह बना रहा है। गर्मी बढ़ने से हवा में प्रदूषण के रूप में मौजूद कार्बन मोनोऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड जैसी गैसों से ऑक्सीजन के तत्व टूट कर हवा में मौजूद ऑक्सीजन से क्रिया करते हैं। इससे ओजोन गैस बनती है। हवा में ओजोन का स्तर बढ़ने से उसकी गुणवत्ता खराब हो जाती है।
उस दशा में अन्य प्रदूषण तत्वों की अपेक्षा ओजोन गैस आसानी से शरीर में प्रवेश कर जाती है। इसका असर शरीर के विभिन्न अंगों पर तेजी से होता है प्रचण्ड गर्मी लोगों के लिए ओजोन के रूप में नई मुश्किलें पैदा कर रही है। यह मुश्किल हवा में ओजोन के स्तर बढ़ने से पैदा हुई है। यह समस्या साँस से जुड़ी बीमारियाँ, उल्टी आने और चक्कर आने की मुख्य वजह साबित हो रही है इस बारे में हार्ट केयर फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ. के. के. अग्रवाल का कहना है कि हवा में ओजोन के स्तर बढ़ने से ब्लडप्रेशर और साँस की बीमारियाँ बढ़ने का अन्देशा बना रहता है।
इस कारण अक्सर थकान बढ़ने और साँस लेने में दिक्कतें पेश आ रही हैं। यदि मौसम विज्ञानियों की मानें तो बढ़ती गर्मी के लिए भी प्रदूषण ही जिम्मेदार हैं। ऐसे में, हमें प्रदूषण का स्तर कम करना होगा। आज से लगभग सात दशक पहले सीएफसी यानी क्लोरोफ्लोरोकार्बन नामक नए रसायन का औद्योगिक उपयोग शुरू हुआ।
चूँकि रेफ्रिजरेशन उद्योग में इसका उपयोग बहुत मुनाफे का सौदा साबित हुआ, नतीजतन इसके पर्यावरणीय और सुरक्षा पक्ष की ओर ध्यान दिए बिना इसका उत्पादन बहुत तेजी से बढ़ाया गया जिसका दुष्प्रभाव आज हम सबके सामने है। आज इसका विनाशकारी रिसाव ओजोन परत के लिए खतरा साबित हो चुका है।
सत्तर के दशक से आज तक इस बारे में तमाम् बैठकें और सम्मेलन हुए लेकिन उनका कोई हल नहीं निकला। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार, जिस रफ्तार से ओजोन परत की क्षति हो रही है, उससे हर साल त्वचा के कैंसर के तीन लाख अतिरिक्त रोगी पैदा होंगे, लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होगी, फसलों को नुकसान पहुँचेगा और समुद्री जीवन के आधार को भी क्षति पहुँचेगी।
1985 में जैसे ही इस बात की जानकारी हुई कि अंटार्कटिका यानी दक्षिणी ध्रुव पर ओजोन परत में छेद हो गया है, विकसित देशों ने सारा-का-सारा दोष अविकसित देशों पर मढ़ डाला, जहाँ पर अब भी कोयला और लकड़ी का ईंधन के रूप में प्रयोग होता है और वनों की अन्धाधुन्ध कटाई से हरीतिमा खत्म होती जा रही है। लेकिन 1987 आते-आते इस बात का भी खुलासा हो गया कि अब उत्तरी ध्रुव भी नहीं बचा है और अब खतरा केवल विकासशील देशों को ही नहीं, बल्कि विकसित देशों को भी है तब कहीं जाकर विकसित देशों के कान खड़े हुए।
1988 में मॉन्ट्रियल कन्वेंशन में इस बात पर सहमति बनी कि साल 2000 तक ओजोन के लिए खतरनाक गैसों के प्रयोग एवं रिसाव में 90 फीसदी की कटौती की जाएगी। लेकिन अनेक विकासशील देशों ने इसका विरोध करते हुए कहा कि यह प्रतिबन्ध सबसे पहले उन पर लागू होने चाहिए जिन्होंने अभी तक पर्यावरण को सीएफसी से सर्वाधिक प्रदूषित किया है। उनके अनुसार, विकासशील देशों का सीएफसी का उपयोग वैसे ही बहुत कम है, ऐसी हालत में उनके यहाँ 90 फीसदी का अर्थ है सीएफसी पूरी तरह निषिद्ध हो जाना। उन्होंने माँग की कि इसके स्थान पर अन्य विकल्प विकसित देश विकासशील देशों को उपलब्ध कराएँ।
सच तो यह है कि विकासशील देशों में से ज्यादातर का सीएफसी उपयोग निर्धारित स्वीकृत सीमा से भी कम है, वे उसमें कैसे कटौती स्वीकार कर लेते? उनका मानना था कि जिन देशों ने अभी तक सबसे ज्यादा उपयोग और निर्गम किया है, वे बड़ी मात्रा में कटौती करें और विकासशील देशों को निर्धारित मात्रा तक उपयोग बढ़ाने की सुविधा प्रदान करें।
देखा जाए तो सीएफसी में कटौती करने तथा विकल्पिक गैस ईजाद करने से समस्या का समाधान नहीं दिखता। सारा-का-सारा दोष अत्यधिक भोगवादी संस्कृति का है जिसने प्राकृतिक साधनों के अन्धाधुन्ध दोहन, शोषण और बर्बादी को जन्म दिया है। भोगवादी संस्कृति के विकास और प्रसार का मनोवैज्ञानिक पहलू भी है जो इसके अर्थशास्त्र, राजनीति एवं समाजशास्त्र से अधिक महत्वपूर्ण है।
जिन संस्कृतियों में भोगवाद को महत्व नहीं दिया गया है, उनके समर्थक भी आज भौतिक समृद्धि, ऐश्वर्य और अत्यधिक उपभोग की दिशा में दौड़ रहे हैं। गौरतलब है कि यदि सोच और व्यवहार की इस क्रिया को इंसान स्वयं नहीं बदलेगा तो प्रकृति उसे बदलने पर बाध्य कर देगी। फिर चाहे वह मौसम में बदलाव से उत्पन्न विनाश के कारण हों, ओजोन परत में छिद्र के कारण उत्पन्न त्वचा रोगों और कैंसर के भय से हो अथवा बढ़ती जनसंख्या के कारण उत्पन्न सामाजिक तनावों, उपद्रवों, अराजकता, आतंकवाद और जीवन के लिए असुरक्षा से हो।
यह भी तो हो सकता है कि हम गाँधी, बुद्ध और महावीर को सार्थक और सफल बनाएँ और स्वेच्छा से भोगवादी प्रवृत्ति और जीवन मूल्यों को त्यागकर पृथ्वी को शस्य श्यामला और समस्त चराचर जीवों के लिए सुरक्षित बनाएँ तभी ओजोन की रक्षा सम्भव है अन्यथा नहीं। सच कहा जाए तो उपभोक्तावादी दृष्टिकोण इस दौर की त्रासदी है जिसे झेलने के लिए समूची मानवता अभिशप्त है। इसको झुठलाया नहीं जा सकता।
दरअसल, वायुमण्डल के ऊपरी हिस्से में लगभग 25 किलोमीटर कि ऊँचाई पर फैली ओजोन परत सूर्य की किरणों के खतरनाक अल्ट्रावॉयलेट हिस्से से पृथ्वी पर मौजूद जीवन की रक्षा करती है। लेकिन यही ओजोन गैस जब धरती के वायुमण्डल में आ जाती है तो हमारे लिए जहरीली गैस के रूप में काम करती है। यदि हवा में ओजोन गैस का स्तर काफी अधिक हो जाए तो बेहोशी ओर दम घुटने तक की स्थिति आ सकती है।
मौसम का बदलाव कहीं प्रचण्ड गर्मी तो कहीं प्रचण्ड सर्दी से पैदा हालात को और भयावह बना रहा है। गर्मी बढ़ने से हवा में प्रदूषण के रूप में मौजूद कार्बन मोनोऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड जैसी गैसों से ऑक्सीजन के तत्व टूट कर हवा में मौजूद ऑक्सीजन से क्रिया करते हैं। इससे ओजोन गैस बनती है। हवा में ओजोन का स्तर बढ़ने से उसकी गुणवत्ता खराब हो जाती है।
उस दशा में अन्य प्रदूषण तत्वों की अपेक्षा ओजोन गैस आसानी से शरीर में प्रवेश कर जाती है। इसका असर शरीर के विभिन्न अंगों पर तेजी से होता है प्रचण्ड गर्मी लोगों के लिए ओजोन के रूप में नई मुश्किलें पैदा कर रही है। यह मुश्किल हवा में ओजोन के स्तर बढ़ने से पैदा हुई है। यह समस्या साँस से जुड़ी बीमारियाँ, उल्टी आने और चक्कर आने की मुख्य वजह साबित हो रही है इस बारे में हार्ट केयर फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ. के. के. अग्रवाल का कहना है कि हवा में ओजोन के स्तर बढ़ने से ब्लडप्रेशर और साँस की बीमारियाँ बढ़ने का अन्देशा बना रहता है।
इस कारण अक्सर थकान बढ़ने और साँस लेने में दिक्कतें पेश आ रही हैं। यदि मौसम विज्ञानियों की मानें तो बढ़ती गर्मी के लिए भी प्रदूषण ही जिम्मेदार हैं। ऐसे में, हमें प्रदूषण का स्तर कम करना होगा। आज से लगभग सात दशक पहले सीएफसी यानी क्लोरोफ्लोरोकार्बन नामक नए रसायन का औद्योगिक उपयोग शुरू हुआ।
चूँकि रेफ्रिजरेशन उद्योग में इसका उपयोग बहुत मुनाफे का सौदा साबित हुआ, नतीजतन इसके पर्यावरणीय और सुरक्षा पक्ष की ओर ध्यान दिए बिना इसका उत्पादन बहुत तेजी से बढ़ाया गया जिसका दुष्प्रभाव आज हम सबके सामने है। आज इसका विनाशकारी रिसाव ओजोन परत के लिए खतरा साबित हो चुका है।
सत्तर के दशक से आज तक इस बारे में तमाम् बैठकें और सम्मेलन हुए लेकिन उनका कोई हल नहीं निकला। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार, जिस रफ्तार से ओजोन परत की क्षति हो रही है, उससे हर साल त्वचा के कैंसर के तीन लाख अतिरिक्त रोगी पैदा होंगे, लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होगी, फसलों को नुकसान पहुँचेगा और समुद्री जीवन के आधार को भी क्षति पहुँचेगी।
1985 में जैसे ही इस बात की जानकारी हुई कि अंटार्कटिका यानी दक्षिणी ध्रुव पर ओजोन परत में छेद हो गया है, विकसित देशों ने सारा-का-सारा दोष अविकसित देशों पर मढ़ डाला, जहाँ पर अब भी कोयला और लकड़ी का ईंधन के रूप में प्रयोग होता है और वनों की अन्धाधुन्ध कटाई से हरीतिमा खत्म होती जा रही है। लेकिन 1987 आते-आते इस बात का भी खुलासा हो गया कि अब उत्तरी ध्रुव भी नहीं बचा है और अब खतरा केवल विकासशील देशों को ही नहीं, बल्कि विकसित देशों को भी है तब कहीं जाकर विकसित देशों के कान खड़े हुए।
1988 में मॉन्ट्रियल कन्वेंशन में इस बात पर सहमति बनी कि साल 2000 तक ओजोन के लिए खतरनाक गैसों के प्रयोग एवं रिसाव में 90 फीसदी की कटौती की जाएगी। लेकिन अनेक विकासशील देशों ने इसका विरोध करते हुए कहा कि यह प्रतिबन्ध सबसे पहले उन पर लागू होने चाहिए जिन्होंने अभी तक पर्यावरण को सीएफसी से सर्वाधिक प्रदूषित किया है। उनके अनुसार, विकासशील देशों का सीएफसी का उपयोग वैसे ही बहुत कम है, ऐसी हालत में उनके यहाँ 90 फीसदी का अर्थ है सीएफसी पूरी तरह निषिद्ध हो जाना। उन्होंने माँग की कि इसके स्थान पर अन्य विकल्प विकसित देश विकासशील देशों को उपलब्ध कराएँ।
सच तो यह है कि विकासशील देशों में से ज्यादातर का सीएफसी उपयोग निर्धारित स्वीकृत सीमा से भी कम है, वे उसमें कैसे कटौती स्वीकार कर लेते? उनका मानना था कि जिन देशों ने अभी तक सबसे ज्यादा उपयोग और निर्गम किया है, वे बड़ी मात्रा में कटौती करें और विकासशील देशों को निर्धारित मात्रा तक उपयोग बढ़ाने की सुविधा प्रदान करें।
देखा जाए तो सीएफसी में कटौती करने तथा विकल्पिक गैस ईजाद करने से समस्या का समाधान नहीं दिखता। सारा-का-सारा दोष अत्यधिक भोगवादी संस्कृति का है जिसने प्राकृतिक साधनों के अन्धाधुन्ध दोहन, शोषण और बर्बादी को जन्म दिया है। भोगवादी संस्कृति के विकास और प्रसार का मनोवैज्ञानिक पहलू भी है जो इसके अर्थशास्त्र, राजनीति एवं समाजशास्त्र से अधिक महत्वपूर्ण है।
जिन संस्कृतियों में भोगवाद को महत्व नहीं दिया गया है, उनके समर्थक भी आज भौतिक समृद्धि, ऐश्वर्य और अत्यधिक उपभोग की दिशा में दौड़ रहे हैं। गौरतलब है कि यदि सोच और व्यवहार की इस क्रिया को इंसान स्वयं नहीं बदलेगा तो प्रकृति उसे बदलने पर बाध्य कर देगी। फिर चाहे वह मौसम में बदलाव से उत्पन्न विनाश के कारण हों, ओजोन परत में छिद्र के कारण उत्पन्न त्वचा रोगों और कैंसर के भय से हो अथवा बढ़ती जनसंख्या के कारण उत्पन्न सामाजिक तनावों, उपद्रवों, अराजकता, आतंकवाद और जीवन के लिए असुरक्षा से हो।
यह भी तो हो सकता है कि हम गाँधी, बुद्ध और महावीर को सार्थक और सफल बनाएँ और स्वेच्छा से भोगवादी प्रवृत्ति और जीवन मूल्यों को त्यागकर पृथ्वी को शस्य श्यामला और समस्त चराचर जीवों के लिए सुरक्षित बनाएँ तभी ओजोन की रक्षा सम्भव है अन्यथा नहीं। सच कहा जाए तो उपभोक्तावादी दृष्टिकोण इस दौर की त्रासदी है जिसे झेलने के लिए समूची मानवता अभिशप्त है। इसको झुठलाया नहीं जा सकता।