जरूरतमंदों की मदद से खुशी मिलती है-नाना पाटेकर

Submitted by RuralWater on Sat, 07/02/2016 - 16:45

.ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि फिल्म जगत के सितारे सामाजिक कामों में बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हों। फिल्मी सितारो की जिंदगी तो एक्टिंग, प्रसिद्धी और पैसों के ईर्द-गिर्द ही चक्कर लगाया करती है। अलबत्ता कुछ सितारे सामाजिक सरोकार के कामों में हिस्सा लेते हुए दिख जाते हैं लेकिन उनका असल उद्देश्य तो तस्वीरें खिंचवाना और सुर्खियाँ बटोरना ही होता है।

हाँ, इस दौर में भी कुछ गिने चुने अभिनेता हैं जो चुपचाप अपने सामाजिक दायित्वों का बड़ी ही शिद्दत से निर्वाह कर रहे हैं। इनमें एक अहम नाम है नाना पाटेकर का। लीक से हटकर और मसाला दोनों तरह की फिल्मों में सफलता का परचम लहराने वाले नाना पाटेकर कई दशकों से सामाजिक कामों में तल्लीनता से लगे हुए हैं। उनके सामाजिक दायित्वबोध का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे अपनी हर फिल्म से मिलने वाली राशि का एक हिस्सा जरूरतमंदों के लिए अलग रख देते हैं।

सामाजिक कामों के चलते वे अक्सर ही चर्चा में रहते हैं लेकिन इस बार महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में जाकर उन्होंने उन परिवारों की मदद की जिनके घर के लोगों ने कृषि संकट से हारकर आत्महत्या कर ली थी। उनके इस कदम ने मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचा और वे सुर्खियों में आ गये। पाटेकर के इस निःस्वार्थ कदम का फायदा यह हुआ कि उनके अभियान से जन आंदोलन का एक माहौल बनने लगा। इस बीच नाना पाटेकर ने नाम फाउंडेशन की स्थापना कर डाली ताकि सूखाग्रस्त लोगों को मदद दी जा सके।

नाना पाटेकर की पारिवारिक पृष्ठभूमि को देखें तो यह समझना आसान होगा कि क्यों सामाजिक मुद्दे उन्हें अपनी ओर खींचते हैं। वे जिस परिवार से आते हैं उस परिवार की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी लिहाजा उन्हें छोटी उम्र में ही पैसे कमाने के लिए कई तरह के काम करने पड़े।

आर्थिक हालात से लड़ते-झगड़ते वर्ष 1962 में पाटेकर मुंबई आ गए और उन्होंने प्रतिष्ठित सर जेजे स्कूल ऑफ आर्ट से कॉमर्शियल आर्ट में डिग्री पूरी की। मराठी थियेटर मेंं तो वह पहले से सक्रिय थे लेकिन बॉलीवुड में उनकी एंट्री वर्ष 1978 में मुजफ्फर अली की फिल्म गमन से हुई। एन चंद्रा की फिल्म अंकुश से उनकी पहचान एक दमदार एक्टर के रूप में हुई। इसके बाद उन्हें पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं पड़ी।

एक खास बात यह है कि उनके किरदार में उनके व्यक्तिगत जीवन और उनके सोच की भी झलक मिलती है। उनके सामाजिक सरोकारों और निजी जीवन के अनछुए पहलुअों पर राजा राजाध्यक्ष ने नाना पाटेकर से खुलकर बातचीत की। यहाँ पेश है उनसे बातचीत के मुख्य अंश-

पिछले कई सालों से किसान आत्महत्या कर रहे हैं लेकिन अचानक आपने इस मुद्दे पर काम करने का क्यों सोचा?
कई बार मामले इतने संगीन हो जाते हैं कि आप चुप नहीं बैठ सकते हैं। वे मामले आपको बेचैन कर देते हैं। मैंने नई खरीदने के लिए कुछ पैसे जमा कर रखे थे लेकिन किसानों की आत्महत्या ने मुझे बेचैन कर दिया। मैंने बीड में रहने वाले अपने दोस्त अभिनेता मकरंद अंशपुरे को फोन किया और कहा कि वह कार के लिए रखे गये पैसे किसानों के परिवारों को बांट दे। मकरंद ने जोर दिया कि मैं भी वहाँ जाऊं और पैसे खुद बांटूं। मैं वहां गया तो वहां की हालत देखकर मुझे बहुत खराब लगा और मैंने तय कर लिया कि किसानों के लिए जितना बन सकेगा मैं करूंगा।

मेरे दौरे की मीडिया कवरेज हुई तो कई दानदाताअों ने संपर्क कर दान देने की इच्छा जतायी और इस तरह यह एक अभियान में बदल गया और रुपयों के लिए कभी मुझे मुड़कर नहीं देखना पड़ा।

लोगों की प्रतिक्रिया भी उत्साह बढ़ाने वाली रही?
आम लोगों के सहयोग के बिना यह कहाँ सम्भव था। मैं आपको बताऊं, पुणे के एक चायवाले ने 2000 रुपये का योगदान किया। एक भिखारी ने मुझसे कहा कि वह एक सूखापीडि़त गांव से आता है और अपने हिस्से की मदद करना चाहता है। उसने 300 रुपये दिये। मेरे ड्राइवर ने कई लोगों से 6 हजार रुपये इकट्ठा किया।

मेरे पुराने मित्र भी आगे आये जिनमें जुगलकिशोर तपाडिया भी एक हैं। उन्होंने एनजीओ के दफ्तर खोलने के लिए औरंगाबाद में 4,000 वर्ग फीट जगह दी और शहर के बाहरी इलाके में सलाहकार केंद्र खोलने के लिए 20 एकड़ जमीन दी। पुणे में एक बिल्डर विकास भालेराव ने हमें फर्गुसन रोड पर दो बड़े कार्यालय दिए हैं। मैं अपने स्तर पर कॉरपोरेट घरानों के सीईओ और वरिष्ठ लोगों से बात करता हूं। उनमें से अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्होंने मेरी एक-दो फिल्में देखी होंगी। मैं उनसे मदद की गुजारिश करता हूं और वे तैयार हो जाते हैं। इस नेक काम में हर व्यक्ति सहयोग कर रहा है चाहे वह नौकरशाह हो कामगार हो या राजनेता।

क्या कोई स्वयंसेवी संगठन किसानों की समस्या का हल निकाल सकता है?
देखिये हम अपने स्तर पर काम कर रहे हैं। फौरी राहत के लिए 15-15 हजार रुपये के चेक दिये गये थे। रुपये तो तात्कालिक राहत के लिए थे दीर्घकालिक योजना के तहत गांवों को गोद लेने की योजना है। सबसे अहम है गाँवों में लोगों को पानी को लेकर आत्मनिर्भर बनाना और इस पर लगातार काम कर रहे हैं।

इसके अलावा हम बच्चों की शिक्षा और युवाअों को रोजगार के अवसर दिलवाने के लिए भी प्रयास कर रहे हैं। महात्मा गांधी मिशन द्वारा औरंगाबाद में चलाए जाने वाले जवाहरलाल नेहरू इंजीनियरिंग कॉलेज ने ऐसे बच्चों के लिए इंजीनियरिंग की 10 सीट देने का वादा किया है।

कृषि संकट सीधे तौर पर सरकारों से संबंधित है लेकिन सरकारें अपनी जवाबदेही से बच निकलती हैं। इससे कैसे सामना करेंगे?
यह सच है कि 10 रुपये में से केवल 50 पैसे ही लाभुकों तक पहुंचते हैं लेकिन हम इसे रोक नहीं सकते लेकिन हम अपने अभियान से राजनेताअों को भी जोड़ना चाहते हैं। वे नेता किसी भी दल के हों इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर समस्या किसी विधायक के निर्वाचन क्षेत्र में है तो हम उस विधायक से फंड मांगते हैं। कई बार माँगी गयी रकम से कुछ कम देते हैं तो हम उन्हें कुछ अधिक राशि देने को राजी कर लेंगे।

मैं कभी भी किसी से निजी लाभ नहीं लेता हूं क्योंकि ऐसा करने पर आपकी कीमत तय हो जाती है लेकिन अगर कोई व्यक्ति सार्वजनिक हित के लिए कुछ मदद करने में सक्षम है तो उससे मदद लेने में कोई बुराई नहीं। यही नहीं, हम सरकार को भी इस मसले पर साथ लेने की कोशिश कर रहे हैं।

दूसरों की मदद की भावना आप में कैसे आई?
मैं एक गरीब परिवार से आता हूं। 13 साल की उम्र में मैं 35 रुपये महीना पर पोस्टर पेंट करता था और एक वक्त भोजन करता था। कॉलेज में पढ़ते वक्त मैं जेब्रा क्रॉसिंग पेंट करके 15 रुपये कमाता था। खैर...यह कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन ऐसा करने से मैं वंचितों के साथ जुड़ाव महसूस करता हूं। मान लीजिए किसी को दिवाली पर पटाखे जलाने से आनंद मिलता है बस उसी तरह मुझे जरूरतमंदों की मदद कर खुशी मिलती है। कहने का मतलब है कि मैं यह सब अपनी खुशी के लिए करता हूँ। किसी दूसरे के लिये नहीं कर रहा।

आपके फिल्मी सफर और आपकी विचारधारा में काफी समानता है?
दरअसल अखबार की सुर्खियां पढ़ते वक्त आप जो गुस्सा और जो घुटन महसूस करते हैं, जो सड़ी हुई व्यवस्था आपके आसपास दिखती है, आपको उसे बाहर निकालना होता है। कई फिल्मों के जरिये मैंने अपनी घुटन और गुस्से को बाहर निकाला। क्रांतिवीर ऐसी ही एक फिल्म थी। फिल्म सन 1992-93 के मुंबई दंगों के बाद बनी थी। दंगों में कर्फ्यू के दौरान भी मैं अपनी जीप में बाहर निकलता था। मैं लोगों के पास जाने की कोशिश करता ताकि उनसे कह सकूं कि राजनेता उन्हें धोखा दे रहे हैं।

आपके साथ कई विरोधाभास भी है। मिसाल के तौर पर आप बाल ठाकरे के बहुत करीब रहे हैं।
मैं बाला साहेब का आज भी बहुत सम्मान करता हूं। वे मेरे लिए पिता समान थे। जब मैं बच्चा था तो मार्मिक में मुझे उनके बनाए कार्टून बहुत पसंद आते थे। वह बहुत शानदार व्यक्ति थे। वह बेहद संवेदनशील और साथ ही अच्छे वक्ता भी थे। मैं यहाँ यह जरूर बताना चाहूंगा उनके प्रति मेरे मन में सम्मान का उनकी राजनीति या शिवसेना से उनके जुड़ाव का कोई लेना देना नहीं है। हाँ, कई बार मैंने उनकी कई बातों पर असहमति भी जतायी।

बाबा आमटे से भी आपको बहुत लगाव था।
बाबा आमटे बहुत असाधारण नेता थे, मैं उन्हें सलाम करता हूं। जब मैं पहली बार आनंदवन गया तो मैं 23 साल का था। आनंदवन वह कॉलोनी है जो उन्होंने कुष्ठपीडि़तों के लिए बसाई थी। तब से हम एक परिवार की तरह हो गए। मुझे जो भी समस्या होती मैं उनसे बताता। आपको बताऊं वह केवल एक सामाजिक कार्यकर्ता नहीं थे। वह एक पत्रकार और फिल्म समीक्षक भी थे जिनकी समीक्षा पढऩे का इंतजार बीते दिनों में हॉलीवुड अभिनेत्री नोरमा शियरर जैसे लोग किया करते थे।

आपका असली नाम क्या है?
जवाब- मेरा असली नाम विश्वनाथ है। मेरी मां की दोस्त मुझे नाना कहा करती थीं और तभी से यह नाम मेरे साथ जुड़ गया।

आखिरी प्रश्न एक बार फिर नाम से संबंधित। आखिर नाम फाउंडेशन नाम क्यों चुना आपने?
नाम मराठी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है चंदन का पवित्र लेप जिसे वरकारी यानी मराठी के एक आध्यात्मिक संप्रदाय के लोग अपने माथे पर लगाते हैं। यह प्रतीकात्मक है।

नाम फाउंडेशन किसानों और उनके परिवारों का जीवन सुधारने में आपकी ओर से किसी भी तरह की मदद का स्वागत करता है। इस काम में मदद के लिए कृपया इस वेबसाइट पर जाएं: www.naammh.org